चीन यात्रा के दौरान क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जीवन पर खतरा था ? क्या अमेरिका अथवा अन्य किसी ताकतवर देश ने भारत के शिखर पुरुष के खिलाफ किसी बड़े षड्यंत्र का जाल बुना था ? क्या इसकी भनक लगते ही रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने मोदी को 45 मिनट तक अपनी बेहद सुरक्षित कार में बिठाए रखा था ? यदि हां तो कौन था इस घिनौने षडयंत्र के पीछे ? यदि नहीं तो सोशल मीडिया पर चल रही बेशुमार खबरों का स्रोत क्या है ?
प्रधानमंत्री मोदी का जीवन हमारे देश के लिए ही अमूल्य नहीं , पूरी दुनिया के लिए बेहद कीमती है । चीन जैसे साम्यवादी देश में क्या सुरक्षा में कोई चूक हुई है ? हमने ताशकंद में अपने एक प्रधानमंत्री को गंवाया था । हमारे दो प्रधानमंत्री देश में ही आतंकवाद का शिकार हुए । चीन में पीएम के साथ जो हुआ वह सब चकल्लस है या इसके पीछे कोई सच है , सबके लिए जानना जरूरी है । लेकिन किसी भी आधिकारिक स्तर पर पुष्टि नहीं हुई । सोशल मीडिया और नेटवर्किंग साइट्स पर काफी खबरें आज भी आ रही हैं ?
याद कीजिए किसान आंदोलन के दौरान प्रधानमंत्री जब पंजाब यात्रा पर थे तब अपने ही देश में संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई थी । पंजाब की आम आदमी पार्टी सरकार ने जिस तरह किसानों के सामने हाथ खड़े कर दिए वह शर्मनाक स्थिति अभूतपूर्व थी । प्रधानमंत्री के जीवन पर घात लगाए बैठे हैं लोग । कल ही पाकिस्तान ने महिलाओं के एक मरजीवड़े दल को प्रशिक्षण देकर दीक्षा प्रदान की है । उसके सामने पाक सेना और आतंकवादी हाफिज सईद ने एक ही लक्ष्य रखा है ।
वह है किसी भी तरह मोदी पर हमला । मोदी के बाद तीन और टारगेट हैं अमित शाह , योगी और हेमंता । न्यूज चैनल आजतक पर दिखाई रिपोर्ट में आईएसआई और हाफिज मसूद की इस खतरनाक साजिश का भंडाफोड़ किया गया है । ऐसी ही बहुत सी साजिशें पीएम के ख़िलाफ़ होती हैं जिन्हें सुरक्षा एजेंसियां साफ करती रहती हैं । पीएम की सुरक्षा के लिए कुछ और चरण बढ़ाने चाहिएं , चूंकि वे चुनावी रैलियों में भी भाग लेते हैं ।
लम्बे अरसे के बाद देश को ऐसा प्रधानमंत्री मिला है जो सोलह आने राष्ट्र को समर्पित है । मोदी का परिवार यह पूरा देश है । इसी श्रृंखला में दूसरा नाम है योगी जो गुंडे बदमाशों के खिलाफ आज पूरी दुनिया के लिए मॉडल बन चुके हैं । देश को पूर्ण विकसित राष्ट्र बनाने के लिए मोदी अभी वर्षों तक चाहिएं । उनका जीवन 145 करोड़ के उत्थान और भारतमाता के स्वाभिमान के लिए बहुत जरूरी है । हम तो यही कहेंगे – जीवेम शरद शतम ।
कानून ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और समान नागरिक अधिकारों पर नई बहस छेड़ दी है। समर्थक इसे सामाजिक सुधार मानते हैं, जबकि आलोचक इसे राज्य द्वारा निजी जीवन में हस्तक्षेप बताते हैं। भारत में जनसंख्या नियंत्रण के वास्तविक उपाय शिक्षा, स्वास्थ्य और महिला सशक्तिकरण से आते हैं, न कि कठोर कानूनों से। लोकतंत्र तभी मजबूत होता है जब नागरिकों को नियंत्रित नहीं, बल्कि सक्षम बनाया जाए।
– डॉ. प्रियंका सौरभ
भारत जैसे विविध और बहुधार्मिक देश में जब कोई राज्य व्यक्तिगत जीवन से जुड़े विषयों पर नीति बनाता है, तो उसका असर सीमित नहीं रहता। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा द्वारा प्रस्तावित विवाह और जनसंख्या नियंत्रण कानून इसी तरह की राष्ट्रीय बहस को जन्म दे रहे हैं। राज्य सरकार का कहना है कि यह कदम “सामाजिक संतुलन” और “अवैध जनसंख्या वृद्धि” पर रोक लगाने की दिशा में है, जबकि आलोचकों का मानना है कि यह नागरिक स्वतंत्रता और धार्मिक अधिकारों में हस्तक्षेप है। यही विरोधाभास आज की राजनीति और समाज की सबसे बड़ी परीक्षा बन गया है।
असम लंबे समय से प्रवासन, जनसंख्या असमानता और सांप्रदायिक तनाव के मुद्दों से जूझता रहा है। सीमावर्ती राज्य होने के कारण यहाँ बांग्लादेश से आने वाले अवैध प्रवासियों की समस्या पर राजनीति हमेशा सक्रिय रही है। इस पृष्ठभूमि में जनसंख्या नियंत्रण कानून की चर्चा सिर्फ सामाजिक नहीं, बल्कि राजनीतिक रणनीति का भी हिस्सा प्रतीत होती है। मुख्यमंत्री सरमा का कहना है कि राज्य में कुछ समुदायों में जनसंख्या वृद्धि दर बहुत अधिक है, जिससे सामाजिक और आर्थिक असंतुलन पैदा होता है। उनके अनुसार, यदि राज्य में शैक्षिक और आर्थिक समानता लानी है, तो ऐसे कठोर कदम आवश्यक हैं।
लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून ही सबसे उपयुक्त उपाय है? भारत में पहले भी ऐसे प्रयास किए गए हैं — इमरजेंसी के दौरान जबरन नसबंदी अभियान इसका उदाहरण है। उस अनुभव ने दिखाया कि जनसंख्या नियंत्रण केवल कानून या दंड से नहीं, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक जागरूकता से हासिल किया जा सकता है। असम का प्रस्तावित कानून अगर विवाह आयु, बहुपतित्व या धर्मांतरण जैसे निजी विषयों को नियंत्रित करने की दिशा में जाता है, तो यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समान नागरिक अधिकारों पर प्रश्नचिह्न खड़ा करेगा।
संविधान नागरिकों को अपने धर्म और जीवनशैली की स्वतंत्रता देता है। विवाह और परिवार व्यक्ति की निजता का हिस्सा हैं। अनुच्छेद 21 के अंतर्गत ‘जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार’ इन विषयों को भी सम्मिलित करता है। यदि कोई सरकार यह तय करने लगे कि कौन किससे और कैसे विवाह करे या कितने बच्चे हों, तो यह राज्य और व्यक्ति के बीच की सीमाओं को धुंधला कर देता है। यही कारण है कि कई सामाजिक कार्यकर्ता इसे एक “निगरानीवादी नीति” कह रहे हैं, न कि “सुधारवादी कदम”।
भारत में समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) पर पहले से बहस जारी है। असम का यह कानून उस बहस को और तीव्र कर सकता है। सरकार का तर्क यह हो सकता है कि सभी नागरिकों के लिए समान नियम होना चाहिए, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो। परंतु इस समानता की अवधारणा तभी सार्थक है जब यह स्वैच्छिक और परामर्श आधारित हो, न कि भय और नियंत्रण पर आधारित। यदि किसी एक समुदाय को लक्ष्य बनाकर नीति बनाई जाती है, तो वह सुधार के बजाय विभाजन का कारण बनती है।
सामाजिक दृष्टि से देखें तो जनसंख्या वृद्धि केवल धार्मिक या सांस्कृतिक कारणों से नहीं होती। यह शिक्षा की कमी, गरीबी, स्वास्थ्य सुविधाओं की अनुपलब्धता और लैंगिक असमानता से अधिक प्रभावित होती है। जब तक महिलाओं को पर्याप्त शिक्षा, रोजगार और निर्णय लेने की शक्ति नहीं दी जाएगी, तब तक परिवार नियोजन के कानून केवल कागज़ों पर रह जाएंगे। भारत के दक्षिणी राज्यों ने जनसंख्या स्थिरीकरण का जो उदाहरण पेश किया है, वह शिक्षा और स्वास्थ्य निवेश का परिणाम है, न कि किसी कठोर कानून का।
असम जैसे राज्य में जहाँ साक्षरता दर अभी भी राष्ट्रीय औसत से कम है और ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचा कमजोर है, वहाँ नए कानूनों के बजाय सामाजिक सशक्तिकरण की आवश्यकता अधिक है। यदि सरकार उन क्षेत्रों में निवेश करे जहाँ महिलाओं की शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ पिछड़ी हुई हैं, तो जनसंख्या वृद्धि स्वतः नियंत्रित हो सकती है। इसके विपरीत, यदि सरकार नियंत्रण के नाम पर कठोरता दिखाती है, तो यह अविश्वास और भय का वातावरण बना सकती है।
राजनीतिक स्तर पर यह मुद्दा विपक्ष और सत्तापक्ष दोनों के लिए अवसर लेकर आया है। सत्तापक्ष इसे “सुधार की दिशा में साहसिक कदम” बता रहा है, जबकि विपक्ष इसे “राजनीतिक ध्रुवीकरण” का प्रयास मान रहा है। असम में चुनावी समीकरण हमेशा से जातीय और धार्मिक पहचान पर आधारित रहे हैं। इसलिए यह नीति किसी एक वर्ग को साधने और दूसरे को असुरक्षित महसूस कराने का साधन बन सकती है। यही कारण है कि राष्ट्रीय स्तर पर भी यह मुद्दा तेजी से फैल रहा है।
मीडिया और सार्वजनिक मंचों पर इस विषय को “लव जिहाद”, “बहुपतित्व” और “जनसंख्या विस्फोट” जैसे विवादास्पद शब्दों से जोड़ा जा रहा है। परंतु यह समझना आवश्यक है कि जनसंख्या नियंत्रण केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक नीति का विषय है। यदि इसे धर्म के चश्मे से देखा जाएगा, तो समस्या सुलझने के बजाय और गहरी हो जाएगी।
असम सरकार का यह दावा है कि इस कानून का उद्देश्य किसी विशेष समुदाय को निशाना बनाना नहीं है, बल्कि समाज में संतुलन स्थापित करना है। परंतु व्यवहारिक रूप से ऐसे कानूनों के लागू होने के तरीके में पक्षपात की संभावना बनी रहती है। उदाहरण के लिए, यदि प्रशासनिक स्तर पर यह तय किया जाए कि किसे “बहुपतित्व” या “अवैध विवाह” के तहत दंडित किया जाए, तो यह निर्णय अधिकारी की व्यक्तिगत धारणा पर भी निर्भर करेगा। यही वह बिंदु है जहाँ लोकतांत्रिक शासन को पारदर्शिता और जवाबदेही की सबसे अधिक आवश्यकता होती है।
एक और महत्वपूर्ण पहलू है – कानूनों का क्रियान्वयन। भारत में पहले से ही कई जनकल्याणकारी कानून बने हैं, पर उनका प्रभाव सीमित रहा है क्योंकि उन्हें लागू करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति कमजोर रही है। यदि असम सरकार नया कानून बनाती है लेकिन उसका कार्यान्वयन पक्षपाती या ढीला रहता है, तो यह सिर्फ दिखावे का कदम रह जाएगा। इसलिए, किसी भी नीति का मूल्यांकन उसके उद्देश्य से अधिक, उसके कार्यान्वयन से किया जाना चाहिए।
इस पूरे विवाद का एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी है। जब किसी राज्य में नागरिकों को यह महसूस होता है कि सरकार उनके निजी जीवन में हस्तक्षेप कर रही है, तो नागरिक और राज्य के बीच विश्वास की दीवार कमजोर होती है। लोकतंत्र का आधार वही विश्वास है। भारत की राजनीति पहले से ही विश्वास संकट से गुजर रही है — संस्थाओं पर भरोसा घट रहा है, संवाद की जगह आरोप-प्रत्यारोप ने ले ली है। ऐसे में यदि नीतियाँ लोगों को और बाँटने लगें, तो लोकतांत्रिक समाज में अस्थिरता बढ़ना स्वाभाविक है।
इस विषय का वैश्विक संदर्भ भी दिलचस्प है। चीन ने दशकों तक “एक बच्चे की नीति” अपनाई थी, जिसके दुष्परिणाम अब सामने हैं — वृद्ध आबादी बढ़ी, कार्यबल घटा, और लैंगिक असंतुलन पैदा हुआ। बाद में चीन को अपनी नीति पलटनी पड़ी। इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि जनसंख्या नियंत्रण यदि कठोर रूप से लागू किया जाए, तो वह सामाजिक और आर्थिक दोनों दृष्टियों से प्रतिकूल सिद्ध हो सकता है। भारत जैसे लोकतंत्र में तो ऐसा कदम और भी संवेदनशील है क्योंकि यहाँ विविधता उसकी सबसे बड़ी ताकत है।
इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि सरकारें नियंत्रण नहीं, बल्कि सशक्तिकरण की दिशा में सोचें। जनसंख्या नियंत्रण का सबसे प्रभावी तरीका शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और समान अवसर हैं। जब नागरिकों के पास विकल्प और जागरूकता होती है, तो वे स्वाभाविक रूप से छोटे और स्वस्थ परिवार की ओर बढ़ते हैं। यह परिवर्तन कानून से नहीं, चेतना से आता है।
असम के इस प्रस्ताव को यदि वास्तव में सुधारवादी बनाना है, तो उसे राजनीतिक नारों से हटाकर व्यावहारिक योजनाओं से जोड़ना होगा। जनसंख्या नीति का लक्ष्य केवल संख्या घटाना नहीं होना चाहिए, बल्कि जीवन की गुणवत्ता बढ़ाना होना चाहिए। राज्य को यह समझना होगा कि अनुशासन कानून से नहीं, बल्कि विश्वास से आता है।
अंततः यह बहस केवल असम तक सीमित नहीं रहेगी। यह उस रास्ते का संकेत है जिस पर भारत आगे बढ़ सकता है — या तो नियंत्रण के राज्य की ओर, जहाँ सरकारें नागरिकों के जीवन के हर पहलू को निर्धारित करेंगी; या फिर जागरूकता आधारित समाज की ओर, जहाँ नागरिक स्वयं अपने निर्णयों के लिए जिम्मेदार होंगे। लोकतंत्र का अर्थ तभी पूरा होता है जब राज्य मार्गदर्शक बने, मालिक नहीं।
असम की पहल शायद ईमानदार चिंता से उत्पन्न हो, पर इसका रूप और परिणाम सावधानी से तय किया जाना चाहिए। एक संवेदनशील लोकतंत्र में हर नीति का मूल्यांकन उसके प्रभाव से होना चाहिए, न कि उसके नारे से। जनसंख्या नियंत्रण की असली कसौटी यही है कि क्या वह समाज को अधिक स्वतंत्र, शिक्षित और सक्षम बनाता है — या उसे संदेह और नियंत्रण के जाल में फँसा देता है। भारत को वह रास्ता चुनना होगा जो विकास के साथ सम्मान भी दे।
वायु प्रदूषण का खतरा अब घर घर मंडराने लगा है। देश और विदेशों की विभिन्न ग्लोबल एजेंसियों द्वारा वायु प्रदूषण के खतरे से बार बार आगाह करने के बावजूद न सरकार चेती है और न ही नागरिक। लगता है लोगों ने इस जान लेवा खतरे को गैर जरूरी मान लिया है। हालिया जारी स्टेट ऑफ़ ग्लोबल एयर 2025 रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि वायु प्रदूषण के कारण वर्ष 2023 में दुनिया भर में करीब 79 लाख लोगों की मौत हुई। इनमें अकेले भारत में इस कारण 20 लाख लोगों की जान गई है। रिपोर्ट में बताया गया है, वायु प्रदूषण की वजह से दिल, फेफड़ों की बीमारी, डायबिटीज़ और डिमेंशिया जैसी कई गंभीर बीमारियां भी तेजी से बढ़ रही हैं।
वायु प्रदूषण ने भारत को अपने पंजे में मजबूती से जकड रखा है। भारत की आबोहवा निरंतर जहरीली होती जा रही है। देश की राजधानी दिल्ली और आसपास का क्षेत्र गत वर्षों की भांति इस वर्ष भी दिवाली त्योहार पर वायु प्रदूषण की चपेट में है। दीवाली के बाद होने वाले घातक प्रदूषण से जूझ रहा है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक दीपावली के बाद दिल्ली-NCR की वायु गुणवत्ता बहुत खराब श्रेणी में बनी हुई है। अनेक क्षेत्रों में AQI 300 के पार पहुंच गया है। साथ ही PM2.5 की सांद्रता 675 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तक पहुंच गई जो 2021 के बाद सबसे अधिक बताई जा रही है। एक शोध अध्ययन के अनुसार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वाहनों का धुआं, कचरा जलाना, सड़कों की धूल, निर्माण व ध्वंस कार्यों की धूल और उद्योगों का धुआं आदि के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। वाहनों से होने वाले धुंएँ के प्रदूषण में कमी लाने के साथ-साथ घरों में जल रहे ईंधन, उद्योगों के उत्सर्जन और निर्माण गतिविधियों से होने वाले धूल प्रदूषण की रोकथाम करना भी बहुत जरूरी है। सही बात तो ये है, दिल्ली में नासूर बन चुके प्रदूषण की सही प्रामाणिक स्थिति आज भी उपलब्ध नहीं है।
स्टेट ऑफ़ ग्लोबल एयर 2025 रिपोर्ट बताती है कि भारत के हर चार में से तीन लोग ऐसे इलाकों में रहते हैं, जहां हवा में ज़हरीले कण की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानक से ज्यादा है। भारत में वायु प्रदूषण से होने वाली कुल मौतों में से करीब 89 प्रतिशत मौतें गैर-संचारी रोगों की वजह से होती हैं।
वाशिंगटन से प्रकाशित इन्वायरनमेंटल इंटरनेशनल नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की गई है की वायु प्रदूषण के कारण हमारे शरीर की आंत के बैक्टीरिया पर गहरा असर पड़ सकता है जिससे मधुमेह जैसी खतरनाक बीमारी के साथ मोटापा, पेट के आंत के संक्रमण सहित विभिन्न पुरानी बीमारिया बढ़ सकती है। इस रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है की वाहनों से उत्सर्जित होने वाली खतरनाक गैसें जब सूर्य की रोशनी के संपर्क में आती है तो वे बेहद खतरनाक रूप धारण कर लेती है जो हमारे स्वास्थ्य पर असर डालती है। रिसर्च के अनुसार वायु प्रदुषण मनुष्य की श्वास सम्बन्धी प्रणाली पर तो असर डालती है ही साथ ही हमारी आँतों को भी क्षतग्रस्त करती है। विशेषरूप से पेट सम्बन्धी बीमारिया बढ़ जाती है। हमारे पेट में बसने वाले जीवाणु और कीटाणु का हमारी सेहत से गहरा ताल्लुक है। इन असंख्य जीवों का हमारे शरीर की सेहत पर अच्छा और बुरा दोनों तरह का असर पड़ता है। इन्हें अंग्रेजी में माइक्रोबायोम कहते हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक हमारे आस-पास की आबोहवा पर असर इन पर पड़ता है। वायु प्रदूषण इनमें से एक है। वायु प्रदूषण के लिए कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और धूल, परागण, धुआं वगैरह जिम्मेदार होते हैं। ऐसे प्रदूषण से न सिर्फ बीमारियां हो रही हैं, बल्कि लोगों की मौत भी हो रही है।
बताया जाता है उद्योगों, घरों, कारों और ट्रकों से वायु प्रदूषकों के खतरनाक कण निकलते हैं, जिनसे अनेक बीमारियां होती हैं। इन सभी प्रदूषकों में से सूक्ष्म प्रदूषक कण मानव स्वास्थ्य पर सबसे ज्यादा प्रभाव डालते हैं। ज्यादातर सूक्ष्म प्रदूषक कण,चलते वाहनों जैसे रोजमर्रा के इस्तेमाल किए जाने वाले स्रोतों और बिजली उपकरणों, उद्योग, घरों, कृषि जैसे स्रोतों में ईंधन जलाने से निकलते हैं। हवा में मौजूद ये सूक्ष्म कण हमारे सांस लेने के दौरान बिना किसी रुकावट के सांसों के नलियों के रास्ते फेफड़ों तक पहुंच जाते हैं। इससे मनुष्य को कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी हो सकती है। महानगरों में वायु प्रदूषण अधिक फैला है। वहां चौबीसों घंटे कल-कारखानों और वाहनों का विषैला धुआं इस तरह फैल गया है कि स्वस्थ वायु में सांस लेना दूभर हो गया है। यह समस्या वहां अधिक होती हैं जहां सघन आबादी होती है और वृक्षों का अभाव होता है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में अनेक ऐसे महान कलाकार हुए हैं जिन्होंने अपनी साधना, निष्ठा और अद्वितीय प्रतिभा से इस परंपरा को अमर बना दिया। इन्हीं में से एक थीं – ठुमरी सम्राज्ञी गिरजा देवी, जिन्होंने बनारस घराने की ठुमरी को देश-विदेश में नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। गिरजा देवी न केवल गायिका थीं बल्कि भारतीय संगीत की वह अध्यात्ममयी साधिका थीं जिनके सुरों में बनारस की गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिठास घुली थी।
प्रारंभिक जीवन और संगीत शिक्षा
गिरजा देवी का जन्म ८ मई १९२९ को वाराणसी के निकट एक संगीतप्रेमी परिवार में हुआ। उनके पिता रामदेव राय स्वयं सारंगी और हारमोनियम बजाने में दक्ष थे। परिवार में संगीत का वातावरण था, परंतु उस समय उच्च वर्गीय परिवारों में स्त्रियों का सार्वजनिक रूप से गाना-बजाना अच्छा नहीं माना जाता था। फिर भी, पिता ने बेटी की प्रतिभा को पहचाना और उसे संगीत सिखाने का निश्चय किया।
गिरजा देवी ने प्रारंभिक संगीत शिक्षा सारंगी वादक सरजू प्रसाद मिश्रा से प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने भोलानाथ भट्ट से ठुमरी, दादरा, कजरी, चैती जैसे लोकाधारित रागों की बारीकियाँ सीखीं। उनके गुरु ने उन्हें केवल गायन ही नहीं, बल्कि मंच पर प्रस्तुति देने की गरिमा और शिष्टता भी सिखाई।
संगीत यात्रा की शुरुआत
गिरजा देवी ने पहली बार सार्वजनिक मंच पर १९४९ में इलाहाबाद में गायन किया। उस समय ठुमरी को “हल्की शैली” माना जाता था, किंतु गिरजा देवी ने इस धारणा को तोड़ते हुए इसे शास्त्रीय संगीत के समकक्ष प्रतिष्ठा दिलाई। उनकी गायकी में बनारस की मिट्टी की खुशबू, लोक-संवेदना और राग की गहराई एक साथ झलकती थी।
उन्होंने ठुमरी के साथ-साथ दादरा, होरी, कजरी, झूला, चैती और टप्पा जैसी लोकसंगीत शैलियों को भी मंच पर समान गरिमा दी। उनकी गायकी का सबसे बड़ा आकर्षण था—स्वर की कोमलता, शब्दों की भावनात्मक अभिव्यक्ति और रागों की गहराई।
ठुमरी शैली में योगदान
गिरजा देवी ने ठुमरी को केवल नृत्य की संगत से जोड़कर देखने की परंपरा को तोड़ा। उन्होंने इसे आत्मा की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। बनारस घराने की ठुमरी की विशेषता – “बोल बनाव” शैली – उनके गायन में चरम पर दिखाई देती थी। वे हर शब्द को अपनी भावनाओं से सींच देती थीं, जिससे ठुमरी केवल गीत नहीं, बल्कि एक जीवंत कथा बन जाती थी।
उनकी प्रसिद्ध ठुमरियाँ —
“रुनझुन बाजे पायलिया”
“नैना मोरे तरसे”
“मोरे सैंयाँ बुलावें आधी रतिया”
“बरसे बदरिया सावन की” आज भी संगीतप्रेमियों के बीच अमर हैं।
शिक्षक और प्रेरणा स्रोत के रूप में
गिरजा देवी ने अपने जीवन का बड़ा भाग शिक्षण कार्य में भी लगाया। उन्होंने आई.टी.सी. संगीत अनुसंधान अकादमी, कोलकाता में अध्यापन किया और अनेक विद्यार्थियों को ठुमरी गायन की बारीकियाँ सिखाईं। वे मानती थीं कि संगीत केवल तकनीक नहीं, बल्कि आत्मा की भाषा है।
उनकी शिष्याओं में कई प्रसिद्ध कलाकार हैं जिन्होंने ठुमरी और लोकसंगीत की परंपरा को आगे बढ़ाया। इस प्रकार, गिरजा देवी केवल एक गायिका नहीं बल्कि एक संस्कार वाहिका थीं, जिन्होंने संगीत को साधना और जीवन का पर्याय बना दिया।
सम्मान और पुरस्कार
गिरजा देवी के योगदान को देखते हुए उन्हें अनेक राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुए —
पद्म श्री (१९७२)
पद्म भूषण (१९८९)
पद्म विभूषण (२०१६) इसके अलावा उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, तानसेन सम्मान, और अनेक विश्वविद्यालयों से मानद उपाधियाँ भी मिलीं। ये पुरस्कार उनके अद्वितीय योगदान के प्रतीक हैं।
व्यक्तित्व और दर्शन
गिरजा देवी का व्यक्तित्व संगीत की तरह ही सरल, गूढ़ और आकर्षक था। वे कहती थीं — “संगीत को दिल से गाओ, तो राग खुद तुम्हारे साथ गुनगुनाने लगता है।” उनके गायन में ना तो दिखावा था, ना ही बनावट। वे मंच पर बैठतीं, तब दर्शक उनके पहले स्वर के साथ ही किसी और लोक में पहुँच जाते।
उनकी आवाज़ में बनारस की गलियों का रस, गंगा की लहरों की तरलता और ठुमरी की नज़ाकत थी। वे संगीत को पूजा मानती थीं, और हर राग को आराधना के रूप में प्रस्तुत करती थीं।
अंतिम वर्ष और विरासत
गिरजा देवी ने लगभग सात दशकों तक सक्रिय रूप से गायन किया। उम्र के अंतिम वर्षों में भी उनका स्वर मधुर और प्रभावी बना रहा। उनका निधन २४ अक्टूबर २०१७ को कोलकाता में हुआ। उनके जाने से भारतीय संगीत जगत में जो रिक्तता बनी, उसे भरना असंभव है।
लेकिन उनकी रिकॉर्डिंग्स, शिष्य, और ठुमरी की जीवंत परंपरा उनके स्वर की अमरता को बनाए हुए हैं। आज भी जब कोई कलाकार बनारसी ठुमरी गाता है, तो उसमें कहीं न कहीं गिरजा देवी का स्वर प्रतिध्वनित होता है।
निष्कर्ष
गिरजा देवी भारतीय संगीत की वह ज्योति थीं जिन्होंने ठुमरी को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि आत्मिक अनुभूति का माध्यम बना दिया। उन्होंने स्त्री-गायन की गरिमा को पुनः स्थापित किया और भारतीय शास्त्रीय संगीत को विश्वभर में सम्मान दिलाया।
उनका जीवन संदेश देता है कि संगीत केवल कला नहीं, साधना है — और गिरजा देवी इस साधना की सर्वोच्च प्रतीक थीं
भारतीय फिल्म संगीत जगत में अनेक ऐसे गायक हुए हैं जिन्होंने अपनी आवाज़ और कला से अमिट छाप छोड़ी। इनमें से एक थे मन्ना डे, जिन्हें संगीत प्रेमी उनके गूढ़ ज्ञान, बहुआयामी गायन शैली और उत्कृष्ट स्वर-नियंत्रण के लिए सदैव याद करते हैं। वे न केवल एक पार्श्वगायक थे, बल्कि भारतीय शास्त्रीय संगीत के गहन अध्येता, लोकधर्मी गीतों के प्रेमी और प्रयोगशील कलाकार भी थे।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
मन्ना डे का जन्म १ मई १९१९ को कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) में हुआ। उनका पूरा नाम था प्रभोद चंद्र डे। परिवार में संगीत का वातावरण था — उनके चाचा के.सी. डे (कृष्ण चंद्र डे) स्वयं एक प्रसिद्ध गायक, संगीतकार और शिक्षक थे। मन्ना डे ने प्रारंभिक शिक्षा स्कॉटिश चर्च कॉलेज से की और साथ ही संगीत की शिक्षा अपने चाचा से प्राप्त की।
के.सी. डे ने उन्हें संगीत के शास्त्रीय पक्ष की बारीकियाँ सिखाईं — राग, आलाप, तान, ठुमरी, भजन और ग़ज़ल की समझ दी। इसके बाद मन्ना डे ने उस्ताद अब्दुल रहमान खान से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का औपचारिक प्रशिक्षण लिया।
फिल्मी सफर की शुरुआत
संगीत की दुनिया में उनका पहला कदम १९४० के दशक में पड़ा, जब वे अपने चाचा के सहायक के रूप में मुंबई पहुँचे। उन्होंने संगीतकार शंकर-जयकिशन, अनिल बिस्वास, सचिन देव बर्मन, रोशन, सलिल चौधरी और मदन मोहन जैसे दिग्गजों के साथ काम किया।
मन्ना डे ने १९४२ में फिल्म “तामन्ना” के लिए अपना पहला गीत गाया — “जागो आयी उषा पंछी बोले”। यह गीत भले ही बहुत लोकप्रिय नहीं हुआ, लेकिन उनकी गायकी ने संगीतकारों का ध्यान खींचा। जल्द ही वे हिंदी सिनेमा के सबसे विद्वान गायकों में गिने जाने लगे।
गायन शैली और विशेषताएँ
मन्ना डे की गायकी में एक अद्भुत मिश्रण था — शास्त्रीयता और लोकप्रियता का। उनकी आवाज़ में वह गहराई थी जो राग की गंभीरता को भी संभाल सके, और वह सहजता थी जो हल्के-फुल्के गीतों को भी भावपूर्ण बना दे। वे कहते थे — “संगीत ज्ञान की साधना है, और गाना उसका आनंद।”
उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी — स्वर-संयम और तकनीकी पूर्णता। वे तानों को बिना किसी झिझक के सहजता से निभाते थे। चाहे वह “लागा चुनरी में दाग” जैसी ठुमरी हो या “ऐ मेरे प्यारे वतन” जैसा देशभक्ति गीत, मन्ना डे ने हर शैली में अपना लोहा मनवाया।
प्रसिद्ध गीत और अमर प्रस्तुतियाँ
मन्ना डे ने अपने लंबे करियर में लगभग ३५०० से अधिक गीत गाए, जिनमें हिंदी, बंगाली, मराठी, गुजराती, मलयालम और कन्नड़ भाषाएँ शामिल हैं। उनके कुछ अमर गीत आज भी संगीतप्रेमियों की जुबान पर हैं —
“लागा चुनरी में दाग” – दिल ही तो है (१९६३)
“ऐ मेरे प्यारे वतन” – काबुलीवाला (१९६१)
“ये रात भीगी भीगी” – चोरी-चोरी (१९५६)
“पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई” – मेरी सूरती (१९६३)
“ज़िंदगी कैसी है पहेली” – आनंद (१९७१)
“चलत मुसाफिर मोह लिया रे” – तीन बहूरानियाँ (१९६८)
“ऐ भइया ज़रा देख के चलो” – मजबूर (१९७४)
इन गीतों में मन्ना डे की स्वर की विविधता, भाव की गहराई और संगीत की बारीकी साफ झलकती है।
सहगायन और अन्य कलाकारों से संबंध
मन्ना डे ने अपने समय के लगभग सभी प्रमुख गायकों के साथ युगल गीत गाए — किशोर कुमार, मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, तलत महमूद, आशा भोसले, लता मंगेशकर और गीता दत्त। उनका और किशोर कुमार का गीत “एक चतुर नार” (पड़ोसन, १९६८) हास्य और गायकी का अद्भुत संगम है, जिसे आज भी याद किया जाता है।
वे कहते थे कि संगीत में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होनी चाहिए, क्योंकि हर आवाज़ अपने आप में एक संसार है।
बंगाली संगीत में योगदान
मन्ना डे केवल हिंदी फिल्मों तक सीमित नहीं रहे। बंगाली संगीत जगत में भी उनका योगदान उतना ही उल्लेखनीय है। उन्होंने रवींद्र संगीत, आधुनिक गीत और भजन गाकर बंगाल के संगीत को नई पहचान दी। उनके बंगाली गीत “Coffee House er Shei Adda ta” और “Shono Bondhu Shono” आज भी अमर हैं।
सम्मान और पुरस्कार
मन्ना डे को उनके अप्रतिम योगदान के लिए अनेक सम्मान मिले —
पद्म श्री (१९७१)
पद्म भूषण (२००५)
दादा साहेब फाल्के पुरस्कार (२००७) इसके अलावा उन्हें अनेक राज्य सरकारों और संगीत संस्थाओं से जीवन-गौरव पुरस्कार भी प्रदान किए गए।
व्यक्तित्व और विचारधारा
मन्ना डे अत्यंत अनुशासित और सरल स्वभाव के व्यक्ति थे। वे संगीत को आत्मिक अनुशासन मानते थे और कहते थे कि “संगीत का अभ्यास ही सबसे बड़ा तप है।” वे मानते थे कि लोकप्रियता से अधिक महत्वपूर्ण है संगीत की गुणवत्ता।
उन्होंने कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। इसी कारण, भले ही उनके गीतों की संख्या अन्य गायकों से कम रही, किंतु गुणवत्ता और प्रभाव में वे श्रेष्ठ रहे।
अंतिम वर्ष और विरासत
मन्ना डे ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में संगीत से दूरी बना ली और बेंगलुरु में बस गए। वहाँ उन्होंने शांतिपूर्ण जीवन बिताया। उनका निधन २४ अक्टूबर २०१३ को हुआ। उनकी मृत्यु के बाद संगीत जगत में गहरा शोक छा गया, क्योंकि एक युग का अंत हो गया था।
लेकिन उनकी आवाज़ आज भी अमर है। “ऐ मेरे प्यारे वतन” सुनते ही भारत की मिट्टी की खुशबू महसूस होती है, और “ज़िंदगी कैसी है पहेली” जीवन के दार्शनिक सत्य को उजागर कर देती है।
निष्कर्ष
मन्ना डे केवल एक गायक नहीं, बल्कि संगीत साधक थे। उन्होंने शास्त्रीयता को लोकप्रियता से जोड़ा, और साबित किया कि ज्ञान, भावना और कला का संगम ही सच्चा संगीत है।
उनकी गायकी में गहराई, शुद्धता और विनम्रता थी — जो उन्हें अन्य गायकों से अलग बनाती है। भारतीय संगीत के आकाश में उनका स्वर सदा गूंजता रहेगा, जैसे किसी अमर राग की अनंत प्रतिध्वनि।
(“पेटवाड़ की मिट्टी से निकला वह दीप, जिसने न्याय के मंदिर में अपने उजाले से पूरे देश को आलोकित कर दिया।”)
मेरे साहित्यिक गुरु पंडित मदन गोपाल जी अब इस भौतिक संसार में नहीं हैं, लेकिन उनके लिखे सैकड़ों पत्र आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं। वे पत्र जिनमें केवल शब्द नहीं, बल्कि जीवन का ज्ञान, संवेदना और आत्मा की आवाज़ बसी हुई थी। हर सप्ताह वे मुझे प्रेमपूर्वक पत्र लिखते, साहित्य की बारीकियाँ सिखाते और जीवन में ईमानदारी व कर्म की महत्ता समझाते थे। उनके प्रत्येक पत्र में चरित्र की गहराई, भाषा की सादगी और विचार की ऊँचाई होती थी।
आज जब उनके छोटे पुत्र सूर्यकांत जी देश के 53वें मुख्य न्यायाधीश बने हैं, तो लगता है जैसे उन पत्रों में लिखे संस्कारों ने ही परिवार को यह ऊँचाई दी है। यह केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि गुरु के मूल्यों और शिक्षाओं की विजय है। यह उस भारतीय परंपरा की मिसाल है जहाँ ज्ञान व संस्कार पीढ़ियों तक अपना प्रकाश फैलाते हैं।
– डॉ. सत्यवान सौरभ
हरियाणा के हिसार ज़िले का छोटा-सा गाँव पेटवाड़ आज पूरे देश में गर्व और प्रेरणा का प्रतीक बन गया है। इस गाँव की मिट्टी ने वह रत्न दिया है जिसने मेहनत, सादगी, ईमानदारी और निष्ठा के बल पर वकालत से लेकर देश के सर्वोच्च न्यायिक पद तक की यात्रा पूरी की — जस्टिस सूर्यकांत, जो अब भारत के 53वें मुख्य न्यायाधीश (CJI) बने हैं। यह उपलब्धि केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उस हरियाणवी संस्कृति, उस परिवार और उस शिक्षा की है जिसने अपने संस्कारों से न्याय, सेवा और समर्पण की भावना को जन्म दिया।
जस्टिस सूर्यकांत का जीवन किसी प्रेरक कथा से कम नहीं। चार भाई-बहनों (कमला देवी, ऋषिकांत,देवकांत, शिवकांत,सूर्यकांत) में सबसे छोटे सूर्यकांत ने बचपन से ही मेहनत, अध्ययन और संयम को अपने जीवन का आधार बना लिया था। उनके पिता पंडित मदन गोपाल जी एक साहित्यप्रेमी और नैतिक मूल्यों वाले व्यक्ति थे। वे अपने बच्चों को हमेशा शिक्षा और ईमानदारी का पाठ पढ़ाते थे। उनके जीवन का बड़ा हिस्सा लोगों को सही राह दिखाने और समाज में नैतिकता की मशाल जलाए रखने में बीता। पंडित मदन गोपाल जी के जीवन के संस्कारों का ही परिणाम है कि उनके पुत्र सूर्यकांत ने न केवल अपने परिवार का नाम रोशन किया, बल्कि पूरे हरियाणा और देश को गौरवान्वित किया।
गाँव पेटवाड़ की सादगी, खेतों की मिट्टी की खुशबू, और ग्रामीण जीवन की कठिनाइयाँ शायद वही प्रेरणास्रोत बनीं जिनसे सूर्यकांत ने अपनी राह तय की। गाँव से निकलकर उन्होंने अपनी शिक्षा और वकालत की यात्रा शुरू की। यह आसान सफर नहीं था — न साधन, न सुविधा — लेकिन था अटूट विश्वास और कर्मनिष्ठा। शुरुआती दिनों में उन्होंने सामान्य परिस्थितियों में रहकर अध्ययन किया और धीरे-धीरे अपने ज्ञान और तर्कशक्ति से सबका ध्यान खींचा।
1984 में सूर्यकांत ने वकालत के क्षेत्र में कदम रखा। उन्होंने हरियाणा और पंजाब हाईकोर्ट में वकालत करते हुए न केवल अनेक महत्वपूर्ण मामलों को सुलझाया बल्कि गरीबों और वंचितों के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद की। उनकी पहचान एक संवेदनशील, निष्पक्ष और गहराई से सोचने वाले अधिवक्ता के रूप में बनी। बाद में जब वे न्यायिक सेवा में आए तो उन्होंने न्यायालय को केवल निर्णय का स्थान नहीं, बल्कि न्याय और मानवीय मूल्यों का मंदिर माना।
उनकी कार्यशैली में सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि उन्होंने कभी भी अपने पद को प्रतिष्ठा का साधन नहीं बनाया, बल्कि सेवा का माध्यम माना। चाहे मामला गरीब किसान का हो, या किसी छोटे व्यापारी का, उन्होंने हर बार अपने निर्णयों में न्याय और संवेदना का संतुलन बनाए रखा। यही कारण रहा कि वे धीरे-धीरे न्यायिक जगत में एक विशिष्ट पहचान बनाते चले गए।
2019 में उन्हें सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त किया गया। यह वह क्षण था जब हरियाणा के लोगों की आँखें गर्व से भर आईं। गाँव पेटवाड़ में उस दिन से लेकर आज तक उनके नाम से एक आत्मीयता जुड़ी है। जब यह समाचार आया कि जस्टिस सूर्यकांत अब देश के 53वें मुख्य न्यायाधीश होंगे, तो गाँव के हर आँगन में दीपक जले, लोग एक-दूसरे को बधाइयाँ देने पहुँचे, और बुज़ुर्गों की आँखों से गर्व के आँसू छलक पड़े।
पंडित मदन गोपाल जी भले आज इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनके संस्कार और उनके लिखे सैकड़ों पत्र आज भी परिवार में सहेज कर रखे गए हैं। वे पत्र सूर्यकांत जी के लिए केवल शब्द नहीं, बल्कि प्रेरणा के दीपक हैं। जिन प्रेम, अनुशासन और आत्मीयता से पंडित जी अपने बेटे को हर सप्ताह पत्र लिखते थे, वही आज उनकी आत्मा को शांति देता होगा कि उनका बेटा उसी मार्ग पर चला — सत्य, ईमान और न्याय का।
जस्टिस सूर्यकांत का यह उत्थान केवल व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है; यह उस विश्वास का प्रमाण है कि भारत का कोई भी नौजवान, चाहे वह किसी छोटे गाँव से ही क्यों न हो, अगर उसके भीतर लगन और नैतिकता है तो वह किसी भी शिखर तक पहुँच सकता है। उनके जीवन से यह सिखने योग्य है कि सपने देखने और उन्हें पूरा करने के लिए केवल प्रतिभा ही नहीं, बल्कि धैर्य, विनम्रता और अनुशासन की भी आवश्यकता होती है।
गाँव पेटवाड़ के लोग बताते हैं कि सूर्यकांत जी हमेशा अपने गाँव और जड़ों से जुड़े रहे। वे जब भी समय निकाल पाते, गाँव आते, बुज़ुर्गों से मिलते, बच्चों को पढ़ाई की प्रेरणा देते। उनका कहना था कि शिक्षा ही वह ताक़त है जो किसी को भी अंधकार से प्रकाश तक ले जा सकती है। उनकी इस सोच ने न केवल गाँव में, बल्कि पूरे क्षेत्र में युवाओं के भीतर आत्मविश्वास जगाया।
आज जब वे देश के सर्वोच्च न्यायिक पद पर पहुँचे हैं, तो उनके गाँव के लोग यह कहते नहीं थकते कि यह “हम सबकी जीत” है। वास्तव में यह उस भारत की जीत है जहाँ अब प्रतिभा का मूल्यांकन जन्म या संपत्ति से नहीं, बल्कि कर्म और निष्ठा से होता है।
उनके साथियों का कहना है कि जस्टिस सूर्यकांत बेहद शांत, सरल और सहृदय व्यक्ति हैं। वे अपनी बात को दृढ़ता से रखते हैं लेकिन कभी भी अहंकार से नहीं। सुप्रीम कोर्ट में उनके निर्णयों में यह स्पष्ट दिखता है कि वे केवल कानून की भाषा नहीं, बल्कि मानवीय संवेदना की भाषा भी समझते हैं। न्यायालय के भीतर वे जितने सख्त हैं, बाहर उतने ही विनम्र और सहज। यही गुण उन्हें आम जनता के बीच प्रिय बनाते हैं।
उनकी पत्नी और परिवार ने भी हर कठिन दौर में उनका साथ दिया। गाँव के लोगों का कहना है कि सूर्यकांत जी के परिवार में संस्कार और आपसी प्रेम आज भी वैसा ही है जैसा पंडित मदन गोपाल जी के समय था। शायद यही वजह है कि सफलता के इतने ऊँचे पद पर पहुँचने के बावजूद उन्होंने कभी अपने भीतर के इंसान को मरने नहीं दिया।
जस्टिस सूर्यकांत की सफलता हमें यह भी सिखाती है कि सच्ची उपलब्धि वही है जो समाज को प्रेरित करे, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए रास्ता दिखाए। जब कोई व्यक्ति अपनी मेहनत से समाज में सम्मान अर्जित करता है, तो उसकी यात्रा केवल व्यक्तिगत नहीं रहती — वह एक पीढ़ी की आकांक्षाओं का प्रतीक बन जाती है।
हरियाणा जैसे राज्य में जहाँ शिक्षा और न्याय के क्षेत्र में अभी भी कई सुधारों की गुंजाइश है, वहाँ से देश का मुख्य न्यायाधीश बनना एक ऐतिहासिक संदेश देता है — कि परिवर्तन गाँव से भी शुरू हो सकता है। पेटवाड़ जैसे छोटे गाँव से उठकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचना यह दिखाता है कि भारत की मिट्टी में आज भी ऐसे बीज हैं जो अगर सही मार्गदर्शन और परिश्रम पाएँ तो पूरे देश को रोशन कर सकते हैं।
आज जब पूरा देश जस्टिस सूर्यकांत को मुख्य न्यायाधीश पद की बधाई दे रहा है, तो यह केवल एक व्यक्ति के लिए तालियाँ नहीं हैं, बल्कि उस हर माँ-बाप के सपनों के लिए भी हैं जो अपने बच्चों को ईमानदारी से बढ़ा रहे हैं, उस हर गाँव के लिए हैं जो अपने बेटों को मेहनत का मूल्य सिखाता है।
सूर्यकांत जी का यह उदय उस “नवभारत” की पहचान है जहाँ न्यायपालिका न केवल कानून का प्रहरी है बल्कि सामाजिक न्याय की आत्मा भी है। उनसे उम्मीद है कि वे अपने कार्यकाल में न्याय प्रणाली को और अधिक पारदर्शी, सरल और जनहितकारी बनाएँगे। उनकी सोच और अनुभव निश्चित रूप से देश की न्याय व्यवस्था को एक नई दिशा देंगे।
गाँव पेटवाड़ के उस छोटे से आँगन से लेकर सुप्रीम कोर्ट के विशाल भवन तक की यह यात्रा इस बात का प्रमाण है कि जो व्यक्ति अपने मूल्यों से कभी समझौता नहीं करता, उसे मंज़िलें खुद बुलाती हैं।
जस्टिस सूर्यकांत आज न केवल अपने गाँव के बेटे हैं, बल्कि हर उस भारतीय के प्रेरणास्रोत हैं जो यह मानता है कि सत्य और परिश्रम से बढ़कर कोई धर्म नहीं।
– डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,
अशोक मधुप आज के आधुनिक युग में, जब मानवाधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता की बातें वैश्विक मंचों पर जोर-शोर से उठाई जाती हैं, चीन में उइगर मुसलमानों की स्थिति , उनके उत्पीड़न और उनकी धार्मिक आजादी पर हमले गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है। चीन के शिनजियांग प्रांत में, जहाँ अधिकांश उइगर आबादी रहती है, सरकार द्वारा व्यापक पैमाने पर अत्याचार और दमन की खबरें लगातार सामने आ रही हैं। इन अत्याचारों में जबरन श्रम, सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को मिटाने के प्रयास, और तथाकथित “पुनर्शिक्षण शिविरों” में बड़े पैमाने पर कैद शामिल हैं। इन गंभीर मानवाधिकार उल्लंघनों के बावजूद, दुनिया के कई मुस्लिम देशों की चुप्पी हैरान करने वाली है। कारोबार के सिलसिले में अरब व्यापारियों द्वारा चीन का सफर करने के कारण चीन में इस्लामी प्रभाव सैकड़ों वर्ष पुराना है, लेकिन शिनजियांग में उइगुर मुसलमानों का संबंध अरब नरल से नहीं है। इनका ताल्लुक तुर्कों से है। इनकी भाषा और संस्कृति चीनी भाषा और संस्कृति से भिन्न है। शिनजियांग को सरहदें मंगोलिया, तजाकिस्तान, अफगानिस्तान, करकिस्तान, कजाकिस्तान और हिंदुस्तान से मिलती हैं। शिनजियांग सदियों से कृषि एवं व्यापार पर आधारित है। काशगर समेत कई नगर प्रसिद्ध सिल्क रूट के लिए जाने जाते हैं। चीन में मुसलमानों की आबादी करीब 2.85 प्रतिशत है। शिनजियांग में लगभग 47 प्रतिशत (1.2 करोड़) उइगुर मुसलमान और 40 फीसदी हॉन चौनी राहते हैं। 1949 में शिनजियांग में 90 प्रतिशत तुकीं मुसलमान और चार फीसदी हान वंशी आबाद थे। अब वहां हान चीनियों की बड़ी तादाद को बसाकर उइगुरों को अल्पसंख्यक बनाया जा चुका है। चीन में 39 हजार मसजिदें हैं। इनमें 25 हजार शिनजियांग में हैं। 20 नवंबर 1949 को उइगुरों ने पूर्वी तुर्किस्तान (शिजियांग) को स्वतंत्र घोषित किया था, किंतु यह स्वतंत्रता अधिक दिनों तक कायम नहीं रह सकी। चीन की कम्युनिस्ट सरकर ने उसी वर्ष फौजी कार्रवाई करते हुए इसे पीपुल रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) में शामिल कर लिया। इस कारण चीन और उइगुरों के बीच झड़पों का सिलसिला जारी है। कहा जाता है कि 1990 और 2008 के ओलंपिक खेलों के दौरान अलगाववादी उइगुरों द्वारा किए गए प्रदर्शनों से नाराज हुकमरान ने मुसलमानों को चीन के लिए खतरा मानते हुए अत्याचार में इजाफा किया। उन पर अफगानिस्तान में प्रशिक्षण लेने और अलकायदा से संबंध रखने का आरोप है। स्थिति यह है कि शिनजियांग के मुसलमानों को अपना मजहब और पहचान छोड़कर कम्युनिज्म अपनाने के लिए बाध्य किया जा रहा है। चीन का एक स्वायत्त क्षेत्र शिनजियांग सदियों से उइगर मुसलमानों का घर रहा है। ये उइगर मुख्य रूप से सुन्नी मुस्लिम हैं। उनकी अपनी एक विशिष्ट संस्कृति, भाषा और इतिहास है। हालाँकि, पिछले कुछ दशकों में, चीनी सरकार ने इस क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए कठोर नीतियाँ लागू की हैं। चीन इन उइगरों मुस्लिमों के लिए “पुनर्शिक्षण शिविरों” का संचालन करता है। कुख्यात और परेशान करने वाला मुद्दा चीन का इन “पुनर्शिक्षण शिविरों” का संचालन है। चीन सरकार इन्हें “व्यावसायिक कौशल शिक्षा प्रशिक्षण केंद्र” कहती है, लेकिन कई पूर्व बंदियों और मानवाधिकार समूहों के अनुसार, ये वास्तव में राजनीतिक और धार्मिक ब्रेनवाशिंग के केंद्र हैं। इन शिविरों में लाखों उइगरों और अन्य अल्पसंख्यक मुसलमानों को बिना किसी मुकदमे के कैद किया गया है। यहाँ उन्हें अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को त्यागने, मंदारिन भाषा सीखने, और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति वफादारी की शपथ लेने के लिए मजबूर किया जाता है। यौन उत्पीड़न, यातना, और जबरन नसबंदी की खबरें भी इन शिविरों से सामने आई हैं, जो मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हैं।इन शिविरों के बाहर भी उइगरों की धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता पर कड़े प्रतिबंध हैं। मस्जिदों को ढहाया जा रहा है या उनकी वास्तुकला को चीनी शैली में बदल दिया जा रहा है। बच्चों के अरबी नाम रखने पर प्रतिबंध है। कुरान जैसे धार्मिक ग्रंथों को जब्त किया जा रहा है। उइगर भाषा के उपयोग को हतोत्साहित किया जा रहा है और बच्चों को स्कूलों में मंदारिन भाषा सीखने के लिए मजबूर किया जा रहा है। निगरानी तंत्र बहुत व्यापक है। निगरानी तंत्र में चेहरे की पहचान करने वाले कैमरे और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) तकनीक का उपयोग किया जाता है। उइगरों के घरों में चीनी अधिकारियों को “रिश्तेदार” बनाकर रहने के लिए भेजा जाता है, जो उनके व्यवहार पर नजर रखते हैं । उनकी धार्मिक प्रथाओं की निगरानी करते हैं। चीन पर यह भी आरोप है कि वह उइगरों को जबरन श्रम में लगा रहा है। कई अंतरराष्ट्रीय कंपनियों, विशेष रूप से कपड़ा और कपास उद्योग पर आरोप है कि वे उइगरों द्वारा जबरन श्रम से बने उत्पादों का उपयोग करती हैं। रिपोर्टों के अनुसार, उइगरों को अपने घरों से निकालकर दूर के कारखानों में काम करने के लिए मजबूर किया जाता है, जहाँ उन्हें बहुत कम या कोई वेतन नहीं मिलता। यह एक आधुनिक दासता का रूप है जो अंतर्राष्ट्रीय श्रम कानूनों का उल्लंघन है।
इस्लाम से संबंध होने, संदिग्ध गतिविधियों में संलिप्त रहने, पास्पोर्ट के लिए आवेदन करने, विदेशों में रह रहे रिश्तदारों से बात करने, सोशल मीडिया पर सर्च के दौरान अनजाने में विदेशी वेबसाइट खुल जाने, तब्लीग करने या फिर भरोसे के काबिल नहीं रहने के शक में उइगुरों पर अत्याचारों किए जा रहे हैं। मजहबी आजादी व आवास छीनते हुए उन्हें यातना शिविरों में रखा जा रहा है। चीन के मुस्लिम विरोधी रुख के चलते मदों को लंबी दाढ़ी रखने, टोपी औढ़ने, महिलाओं के नकाब पहनने, आबादी नियंत्रण को गर्भपात कराने, 16 वर्ष से कम आयु के अवयस्क बच्चों के दीनी तालीम हासिल करने और सार्वजनिक स्थानों पर नमाज अदा करने की इजाजत नहीं है। 2014 से रमजान महीने के फर्ज रोजों पर प्रतिबंध लगा रखा है। 500 मसजिदों से अजान के लिए लगे लाउडस्पीकरों को हटा दिया गया। 2017 में मसजिदों से नमाज की चटाई, कुरआन मजीद और अन्य धार्मिक वस्तुएं हटाई जा चुकी हैं। हलाल चीजों से रोकने व हराम वस्तुओं के प्रयोग पर मजबूर किया जाता है। उन्हें इस्लाम से दूर रखने का हरसंभव प्रयास किया जा रहा है। भारत, फिलिस्तीन और म्यांमार आदि में मुसलमानों के हक पर जरा सी आंच आते ही मुस्लिम जगत में बवाल मच जाता है। हाल में आई लब मुहममद के नारों के साथ भारत में कई जगह प्रदर्शन हुए लेकिन चीन द्वारा शिनजियांग में उइगुर मुसलमानों को कुचलने एवं योजनाबद्ध तरीके से नस्ल खत्म करने के मुद्दे पर हर तरफ खामोशी है। पड़ोसी देश को तो चीन द्वारा उइगुर मुसलमानों का उत्पीड़न और धार्मिक पाबंदियां नजर नहीं आतीं, अन्य मुस्लिम राष्ट्र भी आंखें मूंदें हुए हैं। चीन में उइगर मुसलमानों पर हो रहे इस भयावह अत्याचार के बावजूद, दुनिया के अधिकांश मुस्लिम देश इस मुद्दे पर आश्चर्यजनक रूप से चुप हैं। जहाँ पश्चिमी देश और मानवाधिकार संगठन लगातार चीन की आलोचना कर रहे हैं। मुस्लिम बहुल देशों जैसे सऊदी अरब, पाकिस्तान, मिस्र, और संयुक्त अरब अमीरात ने इस मुद्दे पर या तो चुप्पी साध रखी है या चीन के पक्ष में बयान दिए हैं। यह चुप्पी न केवल नैतिक रूप से गलत है, बल्कि यह इस्लामी भाईचारे के सिद्धांतों के भी खिलाफ है, जो ‘उम्मा’ (वैश्विक मुस्लिम समुदाय) की एकता और एक दूसरे के समर्थन पर जोर देता है। मुस्लिम देशों की इस चुप्पी के कई जटिल कारण हैं। सबसे बड़ा कारण आर्थिक निर्भरता है। चीन आज दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है । कई मुस्लिम देशों का एक महत्वपूर्ण व्यापारिक और आर्थिक साझेदार है। पाकिस्तान, सऊदी अरब, और मिस्र जैसे देश चीन से बड़े पैमाने पर निवेश और आर्थिक सहायता प्राप्त करते हैं। चीन का “बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव” (BRI) कई मुस्लिम देशों के लिए महत्वपूर्ण बुनियादी ढाँचा परियोजनाएँ ला रहा है। इन आर्थिक संबंधों को खतरे में डालने से बचने के लिए, ये देश मानवाधिकारों के मुद्दे पर चीन की आलोचना करने से बचते हैं। मुस्लिम देश चीन को संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रभाव को संतुलित करने वाले एक महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदार के रूप में देखते हैं। वे चीन के साथ अपनी भू-राजनीतिक संबंधों को मजबूत करना चाहते हैं, खासकर जब उनके संबंध अमेरिका के साथ तनावपूर्ण होते हैं। उदाहरण के लिए, पाकिस्तान चीन को भारत के खिलाफ एक महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में देखता है। ईरान भी चीन के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए हुए है, क्योंकि दोनों ही देश अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों का सामना कर रहे हैं। चीन सरकार शिनजियांग में अपनी कठोर नीतियों को आतंकवाद और उग्रवाद से लड़ने के लिए आवश्यक बताती है। कुछ मुस्लिम देश, जो स्वयं इस्लामी आतंकवाद से पीड़ित हैं, चीन के इस तर्क को स्वीकार करते हैं। वे मानते हैं कि चीन की कार्रवाई उनके अपने सुरक्षा हितों के अनुरूप है, भले ही इसके लिए मानवाधिकारों का उल्लंघन हो। कई मुस्लिम देशों का अपना मानवाधिकार रिकॉर्ड भी बहुत अच्छा नहीं है। सऊदी अरब, मिस्र, और तुर्की जैसे देशों में भी असहमति को दबाने और धार्मिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने के आरोप लगे हैं। इसलिए, वे चीन की आलोचना करने में हिचकिचाते हैं, क्योंकि इससे उन पर भी सवाल उठ सकते हैं। वे अक्सर आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने के सिद्धांत का हवाला देते हैं। चीन में उइगर मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार मानवाधिकारों का एक गंभीर उल्लंघन हैं। यह मुद्दा केवल एक क्षेत्रीय समस्या नहीं है, बल्कि एक वैश्विक नैतिक चुनौती है। मुस्लिम देशों की इस मामले पर चुप्पी विशेष रूप से निराशाजनक है। यह चुप्पी न केवल उन लाखों उइगरों के साथ विश्वासघात है जो अपने धर्म और संस्कृति को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, बल्कि यह मुस्लिम उम्मा के मूलभूत सिद्धांतों के भी खिलाफ है। इस चुप्पी को तोड़ने और मानवाधिकारों के लिए खड़े होने के लिए, मुस्लिम देशों को अपने आर्थिक और राजनीतिक हितों से ऊपर उठकर नैतिक जिम्मेदारी दिखानी चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को चीन पर दबाव बनाना जारी रखना चाहिए, ताकि वह इन शिविरों को बंद करे, जबरन श्रम को खत्म करे, और उइगरों को उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता वापस दे। चीन द्वारा शिनजियांग के उइगुर मुसलमानों को हिरासती शिविरों में कैद रखने तथा उत्पीड़न के साथ उनकी धार्मिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध की अमानवीय वारदातें अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से छिपी नहीं हैं। अमेरिका के बाद जर्मनी ने भी चीन के अत्याचार, धार्मिक भेदभाव व नस्लीय घृणा की कठोर शब्दों में निंदा की है। पिछले दिनों हिरासती शिविरों में कैद 311 उइगुर मुसलमानों की सूची जर्मन न्यूज चैनल डी डब्ल्यू समेत कई अंतर्राष्ट्रीय मीडिया को हासिल हुई। 403 पृष्ठों पर आधारित खुफिया दस्तावेज के सामने आने से मालूम हुआ कि उइगुर मुसलमानों की तबाही और मानवता को लज्जित करने वाले किस्से सार्वजनिक पटल पर आने के बावजूद दुनिया भर के 180 करोड़ मुसलमानों का चीन चुप्पी साध लेना निराशाजनक है। एक दर्जन से अधिक मुस्लिम देशों का उइगुर प्रकरण पर चीन की हिमायत करते हैं। अशोक मधुप (लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)
वन क्षेत्र से अच्छी खबर आयी है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा जारी एक नई रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत कुल वन क्षेत्र में बढ़ोतरी के मामले में विश्व स्तर पर नौवें पायदान पर पहुंच गया है वहीं वार्षिक वन वृद्धि में अपना तीसरा स्थान भी बरकरार रखा है। इससे पूर्व वैश्विक स्तर पर वन क्षेत्र के मामले में हमारे देश का 9वां स्थान था। रिपोर्ट में दी गई जानकारी के अनुसार, दुनिया का कुल वन क्षेत्र 4.14 अरब हेक्टेयर है। यह पृथ्वी की जमीन का 32 फीसदी हिस्सा कवर करता है। इस हिस्से का 54 फीसदी हिस्सा महज पांच देशों रूस, ब्राजील, कनाडा, अमेरिका और चीन में है। वहीं भारत, ऑस्ट्रेलिया, कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य और इंडोनेशिया के बाद दुनिया के शीर्ष 10 वन-समृद्ध देशों में शामिल है। स्वस्थ पर्यावरण एवं पारिस्थितिक संतुलन के लिए समस्त भू-भाग का एक तिहाई वनों से ढका रहना चाहिए। एक क्षेत्र जहाँ पेड़ों का घनत्व अत्यधिक रहता है उसे वन कहते है। हमारे लिए खुशी की बात यह है कि भारत में वन क्षेत्र में लगातार इजाफा हुआ है। वन सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक एक दशक में देश का वन क्षेत्र 1.91 लाख हेक्टेयर बढ़ गया है। इसी के साथ ये देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। रिपोर्ट के अनुसार, देश में 8,27,357 वर्ग किमी क्षेत्र में वन है, जो देश के भौगोलिक क्षेत्र का 25.17 प्रतिशत है। साथ ही, वृक्ष आवरण में भी 1445 वर्ग किमी का इजाफा हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार, मध्य प्रदेश देश में कुल वन और वृक्ष आवरण में सबसे आगे है, इसके बाद अरुणाचल प्रदेश और महाराष्ट्र का स्थान है। छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और राजस्थान ने वन और वृक्ष आवरण में सबसे बड़ी वृद्धि दर्ज की है, जबकि मिजोरम, गुजरात और ओडिशा ने विशेष रूप से वन आवरण में सर्वाधिक वृद्धि की है। पूर्वोत्तर राज्य, खासकर मिजोरम, में सुधार देखा गया है। मिजोरम ने अकेले 242 वर्ग किमी में वन आवरण में वृद्धि दर्ज की। मिजोरम 85 प्रतिशत वृद्धि के साथ सबसे बड़े वन क्षेत्र का प्रदेश बना है।
स्वस्थ पर्यावरण एवं पारिस्थितिक संतुलन के लिए समस्त भू-भाग का एक तिहाई वनों से ढका रहना चाहिए। एक क्षेत्र जहाँ पेड़ों का घनत्व अत्यधिक रहता है उसे वन कहते है। हमारे लिए खुशी की बात यह है कि भारत में वन क्षेत्र में लगातार इजाफा हुआ है। जलवायु परिवर्तन की खबरों के बीच देश में एक दशक में हरियाली बढ़ने की एक अच्छी खबर मिली है।
दुनिया में जनसंख्या वृद्धि, औद्योगिक विकास और आधुनिक जीवन शैली की वजह से प्राकृतिक वनों पर मानव समाज का दबाव बढ़ता जा रहा है। इसे ध्यान में रखकर मानव जीवन की आवश्यकताओं के हिसाब से वनों के संतुलित दोहन तथा नये जंगल लगाने के लिए भी विशेष रूप से काम करने की जरूरत है। मनुष्य के जीवन में वन महत्वपूर्ण रहे हैं। परन्तु जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हुआ वैसे-वैसे मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वृक्षों को काटना आरम्भ कर दिया। वनों की लगातार कटाई होती गई और वातावरण पर भी इसका प्रभाव पड़ा। आज हमारी स्थिति यह हो गई है की वृक्षों की छाव मिलनी भी दुर्लभ हो गई है।
वन और वनस्पतियां आक्सीजन देकर हमें जीवन प्रदान करती हैं। बिना आक्सीजन के हम जीवित रह ही नहीं सकते और पेड़-पौधे यही जीवनदायिनी आक्सीजन छोड़ते हैं। एक स्वस्थ पेड़ हर दिन लगभग 230 लीटर ऑक्सीजन छोड़ता है, जिससे सात लोगों को प्राण वायु मिल पाती है। वे हमारे द्वारा छोड़ी गई विषैली गैस कार्बन-डाइ-आक्साइड को ग्रहण करते हैं। कुछ वन्य पौधे ऐसे भी होते हैं जो रात में भी आक्सीजन छोड़ते हैं। पीपल, नीम, तुलसी, एलोवेरा, एक्समस कैक्टस, सर्पेन्टाइल (स्नेक प्लांट), आर्चिड्स, आरेंजग्रेवेरा आदि ऐसे पेड़-पौधें हैं जो रात में भी आक्सीजन छोड़ते हैं। पेड़-पौधे न रहें तो जिन्दा रहने के लिए साँस और जीवन की धड़कन ही बन्द हो जायेगी। अब भी समय है हम समझे और समझाए की पेड़ पौधे हमारे जीवन के लिए कितने अहम् और प्राणदायक है।
जंगल हमारे जीवन की बुनियाद हैं जो हमारे पर्यावरण के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक स्थिति को बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वन पर्यावरण, लोगों और जंतुओं को कई प्रकार के लाभ पहुंचाते हैं। वन कई प्रकार के उत्पाद प्रदान करते हैं जैसे फर्नीचर, घरों, रेलवे स्लीपर, प्लाईवुड, ईंधन या फिर चारकोल एव कागज के लिए लकड़ी, सेलोफेन, प्लास्टिक, रेयान और नायलॉन आदि के लिए प्रस्संकृत उत्पाद, रबर के पेड़ से रबर आदि। फल, सुपारी और मसाले भी वनों से एकत्र किए जाते हैं। कर्पूर, सिनचोना जैसे कई औषधीय पौधे भी वनों में ही पाये जाते हैं। पेड़ों की जड़ें मिट्टी को जकड़े रखती है और इस प्रकार वह भारी बारिश के दिनों में मृदा का अपरदन और बाढ भी रोकती हैं। पेड़, कार्बन डाइ आक्साइड अवशोषित करते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं जिसकी मानवजाति को सांस लेने के लिए जरूरत पड़ती है। वनस्पति स्थानीय और वैश्विक जलवायु को प्रभावित करती है। पेड़ पृथ्वी के लिए सुरक्षा कवच का काम करते हैं और जंगली जंतुओं को आश्रय प्रदान करते हैं। वे सभी जीवों को सूर्य की गर्मी से बचाते हैं और पृथ्वी के तापमान को नियंत्रित करते हैं।
अशोक गहलौत कांग्रेस के बड़े पुराने घाघ नेता हैं । कांग्रेसी हैं , कांग्रेस के दरबारी कल्चर से आते हैं लेकिन अपनी मारवाड़ी खनक कभी नहीं छोड़ते । राहुल गाँधी ने लाख चाहा कि वे केन्द्र में आ जाएं और सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने दें । बेटे का दांव नहीं चला तो बेटे का सपना पूरा करने में जुटी मां सोनिया गांधी ने अशोक गहलौत को दिल्ली बुलाकर उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष पद संभालने का आदेश दिया । अब यहीं तो होती ख़ांटी जमीनी नेता की परीक्षा । गहलौत ने विनम्रता से जवाब दिया – ठीक है मैडम ! बन जाएंगे अध्यक्ष । लेकिन मुख्यमंत्री पद नहीं छोड़ेंगे । सीधा सा मतलब कि सचिन पायलट को कुर्सी नहीं सौंपेंगे । सोनिया विवश हुई , पायलट खून का घूंट पीकर घर बैठ गए , मजबूरन खड़गे को अध्यक्ष बनाना पड़ा ।
परिदृश्य से बाहर हुए अशोक गहलौत की चर्चा हम क्यूँ कर रहे है , आप सोचते होंगे । दरअसल बिहार में गठबंधन को पलीता लगा तो सोनिया को अशोक गहलौत की याद आई । ऐसी ही याद उन्हें हमारे हरीश रावत की आई थीं जिन्हें पंजाब चुनाव से पूर्व अमरेन्द्र सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू का झगड़ा निपटाने भेजा था । रावत के आने से खफा राजा अमरेन्द्र सिंह ने कांग्रेस छोड़ दी , सिद्धू और चन्नी में ऐसी ठनी के पंजाब में कांग्रेस का कबाड़ा हो गया , सत्ता आम आदमी पार्टी ले उड़ी । वापस लौटकर रावत ने अपने राज्य में भी पार्टी का लगभग कबाड़ा कर दिया ।
तो बिहार में जब महागठबंधन की दाल जूतों में बंटने लगी , लड़कों के नाम से मशहूर हुए दो लड़कों में से कांग्रेसी लड़का जब बिहार छोड़ भागा तब इंडी की एकता तार तार हो गई । नतीजा यह निकला कि कथित महागठबंधन के सभी दलों ने एक दूसरे के खिलाफ टिकेट बाँट दिए । रायता इतना फैला कि दोनों चरणों के लिए नाम वापसी की तारीख निकल गई , किसी ने पर्चा वापस नहीं लिया । अब बिहार की धरती पर महागठबंधन के उजड़े दरबार को संभालकर रायता समेटने के लिए अशोक गहलौत को भेजा गया ।
एन वक्त पर गए गहलौत पहले ही समझ गए कि जब उनका नेता ही महीने भर पहले चोर चोर चिल्लाता हुआ भाग खड़ा हुआ है तो वे अपने सिर पर ठीकरा क्यों फोड़वाएं । तेजस्वी को उन्होंने समझाया भी पर कोई बात सिरे नहीं चढ़ी , तो “फ्रैंडली फाइट” का मंत्र फूंक दिया । साफ साफ कहें तो मतलब यह कि भाई नहीं मानते तो तुम जानों , लड़ो और बजाओ । तो देखा साहब कैसे धुरंधर हैं हमारे अशोक गहलौत । जोधपुरी हैं तो मूंग की दाल के हलवे , दाल बाटी और प्याज कचौड़ी के शौकीन हैं । तो लिट्टी चोखा वाले बिहार में बड़े प्यार से बिखेर आए मूंग की दाल का सीरा । मिलकर खाओ और फ्रैंडली लड़ जाओ ।
(भारत में वायु प्रदूषण को प्रायः दिवाली या सर्दियों की समस्या माना जाता है, जबकि यह एक सतत और संरचनात्मक चुनौती है, जिसे दीर्घकालिक दृष्टिकोण और नागरिक सहभागिता से ही हल किया जा सकता है।)
भारत के अधिकांश शहरों में वायु प्रदूषण को गलत रूप से एक मौसमी या त्योहार-केन्द्रित समस्या समझा जाता है। दिवाली या सर्दियों के बाद यह चर्चा गायब हो जाती है, जबकि प्रदूषण के स्रोत – वाहन, उद्योग, निर्माण धूल, और पराली जलाना – पूरे वर्ष सक्रिय रहते हैं। इस अस्थायी सोच के कारण नीतियाँ भी प्रतिक्रियात्मक बन जाती हैं। भारत को स्वच्छ ऊर्जा, सार्वजनिक परिवहन, सतत कृषि, औद्योगिक सुधार और नागरिक सहभागिता को जोड़कर एक दीर्घकालिक, वैज्ञानिक और व्यवहार-आधारित रणनीति अपनानी होगी ताकि स्वच्छ हवा सभी का अधिकार बन सके।
— डॉ. प्रियंका सौरभ
भारतीय शहरों में वायु प्रदूषण आज केवल पर्यावरण की समस्या नहीं, बल्कि स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और सामाजिक स्थिरता से जुड़ा गहन संकट बन चुका है। हर वर्ष जब सर्दियाँ आती हैं या दिवाली का पर्व नज़दीक होता है, तब देश भर में वायु प्रदूषण पर अचानक चर्चाएँ तेज़ हो जाती हैं। समाचार चैनल, अख़बार और सोशल मीडिया पर धुंध और स्मॉग की तस्वीरें छा जाती हैं। कुछ हफ्तों के लिए लोग मास्क पहनते हैं, सरकारें आपात योजनाएँ बनाती हैं और फिर धीरे-धीरे यह विषय भूल जाता है। यही प्रवृत्ति—जिसमें प्रदूषण को केवल कुछ दिनों की मौसमी समस्या माना जाता है—वास्तव में सबसे बड़ी गलती है। क्योंकि वायु प्रदूषण भारत में कोई त्योहारों तक सीमित या अस्थायी समस्या नहीं, बल्कि पूरे वर्ष चलने वाली बहु-स्रोत और बहु-क्षेत्रीय चुनौती है।
भारत के अधिकांश शहरों में हवा की गुणवत्ता सालभर ख़राब बनी रहती है। विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट वर्ष 2024 के अनुसार, दुनिया के दस सबसे प्रदूषित शहरों में से नौ भारत में हैं, जिनमें दिल्ली, गाज़ियाबाद, भिवाड़ी, फरीदाबाद और लुधियाना प्रमुख हैं। दिल्ली का औसत पीएम 2.5 स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन की सीमा से अठारह गुना अधिक पाया गया। यदि इसे केवल दिवाली के समय पटाखों से जोड़ दिया जाए, तो यह वास्तविक समस्या की गहराई को छिपा देता है। प्रदूषण के मुख्य कारण वर्षभर सक्रिय रहते हैं—वाहनों से निकलने वाला धुआँ, उद्योगों के उत्सर्जन, निर्माण कार्य की धूल, कचरा और पराली का दहन, थर्मल पावर संयंत्रों से निकलते गैस कण, और घरेलू ईंधनों का प्रयोग।
समस्या को केवल मौसमी मान लेने से नीतियाँ भी प्रतिक्रियात्मक हो जाती हैं। सरकारें तब सक्रिय होती हैं जब प्रदूषण चरम पर पहुँच जाता है। कुछ दिनों के लिए स्कूल बंद कर दिए जाते हैं, वाहनों के लिए ऑड-ईवन योजना लागू होती है, पटाखों पर रोक लगाई जाती है या निर्माण गतिविधियों को अस्थायी रूप से बंद कर दिया जाता है। ये कदम अस्थायी राहत तो देते हैं, परंतु मूल कारणों को नहीं मिटाते। जैसे ही मौसम बदलता है, सारी नीतियाँ ठंडी पड़ जाती हैं। यह दृष्टिकोण समस्या को टालने का है, हल करने का नहीं।
वायु प्रदूषण का प्रभाव केवल कुछ हफ्तों तक सीमित नहीं रहता। यह पूरे वर्ष हमारे शरीर पर असर डालता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत में हर साल लगभग सत्रह लाख लोगों की अकाल मृत्यु वायु प्रदूषण से होती है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के एक अध्ययन में पाया गया कि दिल्ली में बच्चों में अस्थमा, एलर्जी और फेफड़ों की बीमारियों के मामलों में पूरे वर्ष दस से पंद्रह प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। यह सिद्ध करता है कि प्रदूषण का दुष्प्रभाव मौसमी नहीं, स्थायी है।
इसके साथ ही यह अर्थव्यवस्था को भी गंभीर रूप से प्रभावित करता है। विश्व बैंक की 2023 की रिपोर्ट बताती है कि भारत को हर वर्ष वायु प्रदूषण के कारण सकल घरेलू उत्पाद का लगभग एक दशमांश से अधिक नुकसान होता है। कार्य दिवसों की हानि, स्वास्थ्य व्यय में वृद्धि, उत्पादकता में कमी और चिकित्सा भार में बढ़ोतरी से देश की आर्थिक प्रगति प्रभावित होती है।
यदि वायु प्रदूषण के स्रोतों की बात की जाए, तो परिवहन क्षेत्र इसका सबसे बड़ा कारण है। भारत में करोड़ों वाहन सड़कों पर हैं, जिनमें अधिकांश पेट्रोल या डीज़ल पर चलते हैं। पुराने ट्रक और बसें भारी मात्रा में धुआँ छोड़ती हैं। छोटे वाहनों की संख्या इतनी अधिक है कि उनके उत्सर्जन से हवा में नाइट्रोजन ऑक्साइड और सूक्ष्म कणों की मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है। औद्योगिक क्षेत्र भी प्रदूषण में बड़ा योगदान देता है। कई छोटे और मध्यम उद्योग अभी तक स्वच्छ ईंधन का उपयोग नहीं करते। पुराने बॉयलर और कोयले पर आधारित संयंत्र सल्फर डाइऑक्साइड और धात्विक कण उत्सर्जित करते हैं।
निर्माण कार्यों से उठने वाली धूल भी बड़े पैमाने पर प्रदूषण फैलाती है। सड़कों पर खुली मिट्टी, निर्माण सामग्री का खुले में ढेर, और बिना आवरण के ट्रकों द्वारा रेत और सीमेंट का परिवहन हवा में कण फैलाता है। इसी तरह, हर साल पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने की घटनाएँ उत्तर भारत के शहरों की हवा को जहरीला बना देती हैं। शोध बताते हैं कि पराली जलाने से दिल्ली और आसपास के इलाकों में प्रदूषण के स्तर में 30 से 40 प्रतिशत तक की वृद्धि होती है।
घरेलू ईंधन जैसे लकड़ी, कोयला या गोबर केक जलाने से भी खासकर गरीब परिवारों में प्रदूषण का स्तर बहुत बढ़ जाता है। कोयला आधारित बिजली संयंत्र अभी भी देश की ऊर्जा का लगभग साठ प्रतिशत हिस्सा देते हैं, और इनमें से कई पुराने संयंत्र प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों के बिना चल रहे हैं।
इन सभी स्रोतों पर नियंत्रण के लिए आवश्यक है कि नीति और शासन में दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाया जाए। केंद्र, राज्य और नगर निकायों के बीच समन्वय की कमी आज भी एक बड़ी बाधा है। कई शहरों में वायु गुणवत्ता निगरानी केंद्र तक नहीं हैं, जिससे वास्तविक आंकड़े उपलब्ध नहीं हो पाते। जन-जागरूकता का स्तर भी बेहद कम है। नागरिक प्रदूषण को केवल खराब वायु के दिनों से जोड़ते हैं, न कि इसे अपनी दैनिक जिम्मेदारी मानते हैं। जब तक समाज में यह चेतना नहीं आएगी कि स्वच्छ हवा सबकी साझी जिम्मेदारी है, तब तक किसी नीति का पूरा प्रभाव नहीं दिखेगा।
भारत ने वर्ष 2019 में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम शुरू किया, जिसका उद्देश्य 2026 तक प्रमुख शहरों में प्रदूषण के स्तर को 40 प्रतिशत तक घटाना है। यह एक सराहनीय पहल है, परंतु इसे केवल बजटीय घोषणा न बनाकर, सख़्त निगरानी और स्थानीय क्रियान्वयन के साथ लागू करना होगा। हर शहर की भौगोलिक और औद्योगिक स्थिति अलग है, इसलिए एक समान नीति के बजाय शहर-विशिष्ट कार्ययोजना बनानी होगी।
परिवहन क्षेत्र में स्वच्छ ऊर्जा की ओर तेज़ी से बढ़ना होगा। सीएनजी, इलेक्ट्रिक वाहन, हाइड्रोजन ईंधन और सार्वजनिक परिवहन का प्रसार अनिवार्य है। दिल्ली में इलेक्ट्रिक वाहन नीति के बाद नए वाहनों में ईवी का हिस्सा सत्रह प्रतिशत तक पहुँच चुका है। यह दिखाता है कि यदि नीति स्पष्ट और प्रोत्साहन युक्त हो, तो नागरिक भी परिवर्तन को अपनाते हैं।
कृषि क्षेत्र में पराली जलाने से बचने के लिए किसानों को तकनीकी और आर्थिक सहयोग देना आवश्यक है। पुसा डीकंपोजर जैसी जैविक तकनीकें और हैप्पी सीडर मशीनें अच्छे परिणाम दे रही हैं, परंतु इनका व्यापक प्रचार और सब्सिडी प्रणाली मजबूत करनी होगी। फसल विविधीकरण को प्रोत्साहित कर धान की जगह कम जल और कम अवशेष वाली फसलों को अपनाने की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे।
औद्योगिक क्षेत्र में सतत उत्सर्जन निगरानी प्रणाली को अनिवार्य किया जाना चाहिए। कोयला आधारित संयंत्रों में डीसल्फराइजेशन इकाइयाँ लगाना, और स्वच्छ ईंधनों जैसे एलएनजी या पीएनजी को बढ़ावा देना जरूरी है। साथ ही अक्षय ऊर्जा जैसे सौर और पवन स्रोतों की ओर तेज़ी से संक्रमण करना चाहिए ताकि 2030 तक भारत आधी ऊर्जा स्वच्छ स्रोतों से प्राप्त कर सके।
शहरी नियोजन में हरित अवसंरचना का समावेश भी अत्यंत आवश्यक है। शहरों में हरित पट्टियाँ, छतों पर पौधारोपण, खुले मैदानों का संरक्षण, और सड़क सफाई की आधुनिक व्यवस्था अपनानी होगी। निर्माण स्थलों पर ढकाव और पानी का छिड़काव जैसे उपाय नियमित रूप से लागू किए जाने चाहिए।
प्रशासनिक दृष्टि से भी सुधार जरूरी है। वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग को अधिक अधिकार दिए जाने चाहिए ताकि राज्यों के बीच समन्वय और प्रवर्तन दोनों प्रभावी हो सकें। नागरिकों की भागीदारी के लिए स्कूलों, आवासीय संघों और स्थानीय समूहों में स्वच्छ हवा अभियान चलाना उपयोगी होगा। कार-फ्री दिवस, सार्वजनिक परिवहन सप्ताह और कचरा पृथक्करण जैसे उपाय नागरिक चेतना को बढ़ाते हैं।
तकनीकी दृष्टि से, डेटा आधारित नीति निर्माण की दिशा में आगे बढ़ना होगा। रियल टाइम निगरानी, उपग्रह आधारित ट्रैकिंग और कृत्रिम बुद्धिमत्ता के प्रयोग से प्रदूषण स्रोतों की पहचान और पूर्वानुमान किया जा सकता है। इससे संकट आने से पहले कदम उठाए जा सकेंगे।
दुनिया के अन्य देशों से भारत को सीखना चाहिए। चीन के बीजिंग ने 2013 से 2020 के बीच प्रदूषण स्तर में 35 प्रतिशत कमी की, क्योंकि उसने कोयले पर निर्भरता घटाई, उद्योगों को शहरों से बाहर स्थानांतरित किया और सार्वजनिक परिवहन को सस्ता बनाया। अमेरिका के लॉस एंजेलिस शहर ने सत्तर के दशक में स्मॉग संकट से उबरकर सख़्त उत्सर्जन मानक और तकनीकी नवाचार से हवा को साफ किया। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि यदि सरकार दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाए, जनता सहयोग करे और उद्योग तकनीक अपनाएँ, तो सुधार संभव है।
वायु प्रदूषण को केवल पर्यावरण नहीं, सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के रूप में देखना होगा। भारत में प्रदूषित हवा के कारण जीवन प्रत्याशा औसतन पाँच वर्ष घट जाती है। इस दिशा में स्वास्थ्य तंत्र को भी तैयार करना होगा। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में श्वसन रोग देखभाल इकाइयाँ स्थापित करनी चाहिए और स्वास्थ्य शिक्षा में स्वच्छ हवा का महत्व शामिल करना चाहिए।
भविष्य की नीति में सरकार, नागरिक और उद्योग तीनों की समान भूमिका होनी चाहिए। सरकार को सख़्त नियमन और पारदर्शी मॉनिटरिंग करनी होगी, नागरिकों को अपने दैनिक व्यवहार में बदलाव लाना होगा और उद्योगों को स्वच्छ तकनीक अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
अब समय आ गया है कि भारत वायु प्रदूषण को अस्थायी संकट न मानकर, दीर्घकालिक विकास नीति के केंद्र में रखे। स्वच्छ हवा कोई विलासिता नहीं, बल्कि मानव जीवन का मूल अधिकार है। त्योहारों के समय की रोक या कुछ दिनों की सजगता से यह अधिकार सुरक्षित नहीं हो सकता। इसके लिए सालभर सतत प्रयास, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, नीति की दृढ़ता और सामाजिक सहयोग आवश्यक है। जब सरकार और समाज दोनों मिलकर यह संकल्प लेंगे कि स्वच्छ हवा सभी का साझा कर्तव्य है, तभी भारत अपने शहरों को वास्तव में साँस लेने योग्य बना सकेगा।