भारत का लोकतंत्र विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, और इसकी मजबूती इस बात पर निर्भर करती है कि हर पात्र नागरिक को मतदान का अवसर मिले। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए बिहार में इन दिनों विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण (Special Summary Revision – SIR) चलाया जा रहा है। चुनाव आयोग की यह पहल न केवल प्रशंसनीय है बल्कि लोकतंत्र की जड़ों को और गहरा करने वाली है।
मतदाता सूची किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की रीढ़ होती है। अगर पात्र नागरिक का नाम सूची से छूट जाए या अपात्र नाम उसमें शामिल हो जाए, तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया की पवित्रता प्रभावित होती है। SIR अभियान का मुख्य उद्देश्य यही है कि “एक भी पात्र मतदाता वंचित न रहे और एक भी अपात्र नाम सूची में न रहे।”इस पुनरीक्षण के दौरान 18 वर्ष की आयु पूरी कर चुके सभी नागरिकों को मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने का अवसर दिया जा रहा है। साथ ही जिन मतदाताओं की जानकारी में त्रुटि है, उन्हें सुधार का भी पूरा मौका मिल रहा है।
बिहार सरकार और चुनाव आयोग दोनों मिलकर इस अभियान को सफल बनाने में जुटे हैं। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष शिविर लगाए जा रहे हैं। विद्यालयों, पंचायत भवनों और निकाय कार्यालयों में लोगों को आवेदन और सुधार की सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है। मतदाताओं को जागरूक करने के लिए अखबारों, रेडियो, टीवी, सोशल मीडिया और स्थानीय सभाओं के जरिए व्यापक प्रचार-प्रसार किया जा रहा है।इस अभियान की सबसे बड़ी विशेषता है इसकी पारदर्शिता और निष्पक्षता। चुनाव आयोग इस बात के लिए कटिबद्ध है कि किसी भी नागरिक के अधिकारों का हनन न हो और मतदाता सूची में कोई गड़बड़ी न रहे। साथ ही डिजिटल तकनीक का भी उपयोग किया जा रहा है, जिससे लोग ऑनलाइन आवेदन कर सकें और अपने नाम या विवरण की स्थिति आसानी से जांच सकें।विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण केवल एक औपचारिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र की मजबूती का एक ठोस आधार है। यह अभियान हमें यह संदेश देता है कि लोकतंत्र केवल मतदान करने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हर नागरिक की जिम्मेदारी है कि वह मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज कराए और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी करे।
बिहार में चल रहा यह अभियान चुनाव आयोग और सरकार की उस सोच को दर्शाता है जो नागरिकों के अधिकारों को प्राथमिकता देती है। यह प्रयास न केवल मतदाता सूची को शुद्ध और पारदर्शी बनाएगा बल्कि आने वाले चुनावों को भी और अधिक विश्वसनीय बनाएगा।लोकतंत्र की असली ताकत आम जनता के हाथ में है, और SIR जैसा अभियान उस ताकत को और अधिक प्रभावी बनाने का माध्यम है।
हरियाणा सरकार ने गुटखा, पान मसाला और तंबाकू पर पूर्ण बैन लगाने का फैसला किया है। अब इन उत्पादों की बिक्री करने पर 10 लाख रुपये तक का जुर्माना लगेगा। हर महीने राज्य में लगभग 4000 नए कैंसर मरीज सामने आ रहे हैं। गुटखा और तंबाकू न केवल स्वास्थ्य, बल्कि सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से भी हानिकारक हैं। यह कदम लोगों को हानिकारक आदतों से बचाने और नई पीढ़ी को स्वस्थ जीवन की ओर प्रेरित करने के लिए उठाया गया है। जागरूकता और शिक्षा अभियान के माध्यम से इस बैन का प्रभाव और बढ़ाया जा सकता है।
– डॉ प्रियंका सौरभ
हरियाणा सरकार ने हाल ही में एक साहसिक और अहम फैसला लेते हुए पूरे राज्य में गुटखा, पान मसाला और तंबाकू के सेवन और बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की घोषणा की है। इस फैसले के तहत इन उत्पादों को बेचने वाले दुकानदारों और वितरकों पर 10 लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है। यह कदम केवल कानूनी कार्रवाई नहीं है, बल्कि यह लोगों के स्वास्थ्य और समाज की भलाई के लिए उठाया गया एक निर्णायक कदम है।
हर महीने हरियाणा में कम से कम 4000 नए कैंसर मरीज सामने आ रहे हैं। यह आंकड़ा न केवल चिंताजनक है, बल्कि यह दर्शाता है कि गुटखा, पान मसाला और तंबाकू जैसी हानिकारक आदतें हमारे समाज में कितनी तेजी से फैल रही हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञ लंबे समय से इस समस्या की ओर इशारा कर रहे थे, और अब सरकार ने ठोस कदम उठाकर इस गंभीर स्थिति से निपटने का प्रयास किया है।
गुटखा, पान मसाला और तंबाकू का सेवन केवल एक आदत नहीं, बल्कि यह गंभीर बीमारियों का कारण भी है। लंबे समय तक इसका सेवन मुंह, गले और पाचन तंत्र के कैंसर का खतरा बढ़ाता है। इसके अलावा, यह हृदय रोग, फेफड़ों की समस्याएं और अन्य गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं को भी जन्म देता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, तंबाकू के सेवन से हर साल लाखों लोग अपनी जान गंवाते हैं। भारत में भी तंबाकू और गुटखा से होने वाली बीमारियों की संख्या लगातार बढ़ रही है।
हरियाणा सरकार का यह बैन इस स्वास्थ्य संकट को कम करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इसका सीधा प्रभाव यह होगा कि लोग इन हानिकारक उत्पादों से दूरी बनाएंगे और नई पीढ़ी भी इनसे बचने के लिए प्रेरित होगी। साथ ही यह कदम उन दुकानदारों और वितरकों के लिए भी चेतावनी है जो इन उत्पादों को बेचकर लोगों की जान को खतरे में डाल रहे हैं।
तंबाकू और गुटखा का सेवन केवल स्वास्थ्य पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से भी हानिकारक है। हरियाणा में कई गरीब परिवार अपनी सीमित आय का एक बड़ा हिस्सा गुटखा और तंबाकू जैसी चीजों पर खर्च कर देते हैं। यह न केवल उनके आर्थिक जीवन को कमजोर करता है, बल्कि बच्चों की पढ़ाई और परिवार की अन्य जरूरी जरूरतों पर भी असर डालता है।
सामाजिक दृष्टि से देखा जाए तो तंबाकू और गुटखा का सेवन युवा पीढ़ी में भी तेजी से बढ़ रहा है। स्कूल और कॉलेज के छात्र इन उत्पादों का प्रयोग कर रहे हैं, जो कि भविष्य में गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं की नींव डालता है। सरकार का यह कदम इस प्रवृत्ति को रोकने और युवाओं को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
सिर्फ बैन लगाना ही पर्याप्त नहीं है। लोगों में जागरूकता और शिक्षा भी उतनी ही जरूरी है। स्कूल, कॉलेज और स्थानीय समुदायों में स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता अभियान चलाना आवश्यक है। जब तक लोग तंबाकू और गुटखा के खतरों के बारे में सही जानकारी नहीं पाएंगे, वे इनसे दूरी नहीं बनाएंगे। स्वास्थ्य मंत्रालय और स्थानीय प्रशासन को मिलकर विभिन्न अभियान चलाने चाहिए, जिसमें कैंसर और अन्य गंभीर बीमारियों के खतरों के बारे में जानकारी दी जाए। इसके साथ ही, लोगों को स्वास्थ्य सुधार के वैकल्पिक उपाय और तंबाकू से मुक्त जीवन जीने के तरीके भी बताने चाहिए।
हरियाणा सरकार का यह निर्णय केवल स्वास्थ्य की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि कानूनी और प्रशासनिक दृष्टि से भी अहम है। 10 लाख रुपये तक का जुर्माना एक ऐसा प्रोत्साहन है जो दुकानदारों को इन उत्पादों की बिक्री से रोकने में मदद करेगा। इसके अलावा, यह कदम समाज में संदेश भेजता है कि स्वास्थ्य से खिलवाड़ करना गंभीर अपराध है। इस बैन के लागू होने के बाद अन्य राज्यों में भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है। यह कदम एक मिसाल बनेगा कि कैसे राज्य स्तर पर स्वास्थ्य सुरक्षा और कानून का संयोजन कर लोगों को सुरक्षित बनाया जा सकता है।
हरियाणा सरकार का यह फैसला न केवल स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से आवश्यक है, बल्कि यह समाज और युवा पीढ़ी के लिए भी एक संदेश है कि हानिकारक आदतों से दूरी बनाना ही बेहतर जीवन की कुंजी है। तंबाकू, गुटखा और पान मसाला जैसी चीज़ें केवल स्वास्थ्य को नुकसान नहीं पहुँचातीं, बल्कि परिवार और समाज पर भी आर्थिक और सामाजिक दबाव डालती हैं। इस बैन से समय के साथ राज्य में तंबाकू और गुटखा से संबंधित बीमारियों की संख्या घटने की उम्मीद है। इसके साथ ही जागरूकता और शिक्षा कार्यक्रमों के माध्यम से लोग स्वस्थ जीवन की ओर प्रेरित होंगे। यह कदम हरियाणा में स्वास्थ्य क्रांति की शुरुआत है और इसे सफल बनाने के लिए पूरे समाज, प्रशासन और परिवारों को मिलकर काम करना होगा।
अंततः, यह निर्णय यह संदेश देता है कि स्वास्थ्य सर्वोपरि है और समाज के हित में ठोस कदम उठाना किसी भी कीमत पर आवश्यक है। हरियाणा का यह उदाहरण पूरे देश के लिए एक प्रेरणा बन सकता है कि स्वास्थ्य सुरक्षा और कानूनी उपायों के माध्यम से भविष्य की पीढ़ियों को बीमारियों से बचाया जा सकता है।
बाल मुकुन्द ओझा देश में 25 जून 1975 को जबरिया आपातकाल लागू कर लाखों विपक्षी नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेलों में डाल दिया गया था। 21 महीनों का यह काला दौर संविधान के विध्वंस, नागरिक अधिकारों के उल्लंघन, प्रेस पर पाबंदी और विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियां का रहा। इस दौरान विपक्षी पार्टियां नेतृत्व विहीन होने से आपातकाल का जबरदस्त विरोध नहीं कर पा रही थी। ऐसे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अनवरत विरोध मार्च की कमान संभाली। इन पंक्तियों के लेखक ने उस दौरान संघ कार्यकर्ताओं का जज्बा देखा जिन्होंने अपने घर परिवार की परवाह न कर आपातकाल के विरोध में सत्याग्रह कर जेलों को भर दिया। सत्याग्रह में हजारों स्वयंसेवकों की गिरफ्तारी के बाद संघ के कार्यकर्त्ताओं ने भूमिगत रह कर आन्दोलन चलाना शुरू किया। आपातकाल के खिलाफ सड़कों पर पोस्टर चिपकाना, जनता को सूचनाएँ देना और जेलों में बन्द विभिन्न राजनीतिक कार्यकर्ताओ – नेताओं के बीच संवाद सूत्र का काम संघ कार्यकर्ताओं ने सँभाला। आपातकाल का विरोध करने के कारण तत्कालीन सरकार के इशारों पर संघ कार्यकर्ताओं की पुलिस थानों में पिटाई आम बात हो गई थी। एक अधिकृत जानकारी के अनुसार आपातकाल के दौरान सत्याग्रह करने वाले कुल 1,30,000 सत्याग्रहियों में से 1,00,000 से अधिक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के थे। मीसा के तहत कैद 30,000 लोगों में से 25,000 से अधिक संघ के स्वयंसेवक थे। आपातकाल के दौरान, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के करीब 100 कार्यकर्ताओं की जान चली गई। अनेकानेक कष्ट झेलने के बाद भी संघ कार्यकर्ताओं ने हिम्मत नहीं हारी। आपातकाल के बाद हुए चुनावों में विपक्षी दलों के विलय से बनी जनता पार्टी के सरकार बनाने में संघ कार्यकर्ताओं के योगदान को नकारा नहीं जा सकता । आजादी के बाद से ही कांग्रेस के निशाने पर रहा है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। लाख चेष्टा के बावजूद कांग्रेस संघ को समाप्त करना तो दूर हाशिये पर लाने में सफल नहीं हुआ। संघ को खत्म करने के चक्कर में खुद कांग्रेस अपना वजूद समाप्त करने की ओर अग्रसर है। बापू की हत्या के आरोप सहित कई बार प्रतिबन्ध की मार झेल चुका यह संगठन आज भी लोगों के दिलों में बसा है और यही कारण है की इसका एक स्वयं सेवक प्रधान मंत्री की कुर्सी पर काबिज है और अनेक स्वयं सेवक राज्यों के मुख्यमंत्री है। संघ सांप्रदायिक है या देशभक्त यह दंश आज भी सियासत पाले हुए है मगर यह सच है की देश की बहुसंख्यक जनता के दिलों में संघ अपना स्थान बना चुका है। समाजवादी नेता डॉ राम मनोहर लोहिया के बाद जयप्रकाश नारायण अकेले व्यक्ति हैं जिन्होंने आरएसएस को देश की मुख्यधारा में वैधता दिलाने और ‘गांधी के हत्यारे’ की छवि से बाहर निकालने में सबसे अहम भूमिका निभाई। बाद में यही कार्य जॉर्ज फर्नांडीज ने किया। जेपी ने तो यहाँ तक कह दिया संघ यदि फासिस्ट संगठन है तो जयप्रकाश भी फासिस्ट है’। संघ को वैधता दिलाने में पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भी पीछे नहीं रहे। परिवार और कांग्रेस के भारी विरोध के बावजूद वे नागपुर में संघ मुख्यालय गए। यह पहला अवसर था की इतने बड़े कद के किसी कांग्रेसी नेता को संघ मुख्यालय में जाते देखा गया। कांशीराम, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान भी संघ को अछूत नहीं मानते थे। देश में अनेक विपदाओं के दौरान संघ के कार्यकर्ताओं ने समाज सेवा की अनूठी मिसाल कायम की, यह किसी से छिपा नहीं है। आज देश भर के 922 जिलों, 6597 खंडों और 27,720 मंडलों में संघ की 83 हजार से अधिक शाखाएं हैं। 32 हजार से अधिक साप्ताहिक मिलन चलते हैं। यह विश्व का सबसे विशाल संगठन है। समाज के हर क्षेत्र में संघ की प्रेरणा से विभिन्न संगठन चल रहे हैं जो राष्ट्र निर्माण तथा हिंदू समाज को संगठित करने में अपना योगदान दे रहे हैं। संघ के विरोधियों ने तीन बार 1948 1975 व 1992 में इस पर प्रतिबंध लगाया, लेकिन तीनों बार संघ पहले से भी अधिक मजबूत होकर उभरा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अनेक निर्णयों में माना है कि संघ एक सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन है। आगामी विजयादशमी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के सौ वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। इस अवसर पर 2 अक्टूबर से संघ शताब्दी वर्ष के कार्यक्रमों का शुभारम्भ होगा। शताब्दी वर्ष के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विश्व का सबसे बड़ा गृह सम्पर्क अभियान शुरू करेगा। 20 नवम्बर से 21 दिसम्बर के बीच संघ कार्यकर्ता देश के छह लाख गांवों के 20 करोड़ परिवारों में सम्पर्क करेंगे। इस अभियान में लगभग 20 लाख कार्यकर्ता घर-घर जाकर संपर्क करेंगे। शताब्दी वर्ष का पहला कार्यक्रम विजयादशमी का होगा। मण्डल व बस्ती स्तर पर आयोजित विजयादशमी उत्सव के कार्यक्रम में सभी स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में शामिल होंगे।
बाल मुकुन्द ओझा वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार , मालवीय नगर, जयपुर
“खामोशी का असर: परिवार और समाज पर संवादहीनता का बोझ”
आज के व्यस्त और डिजिटल जीवन में संवादहीनता परिवार और समाज की बड़ी चुनौती बन गई है। बातचीत की कमी भावनात्मक दूरी, गलतफहमियाँ और मानसिक तनाव बढ़ाती है। परिवार में बच्चे और बड़े एक-दूसरे की भावनाओं को साझा नहीं कर पाते, जबकि समाज में सहयोग और सामूहिक प्रयास कमजोर पड़ते हैं। इसका समाधान नियमित संवाद, साझा गतिविधियाँ, सकारात्मक सुनना और डिजिटल सीमाएँ तय करना है। संवादिता केवल बातचीत नहीं, बल्कि विश्वास, समझ और संबंधों की नींव है। इसे प्राथमिकता देकर हम परिवार और समाज को मजबूत और भावनात्मक रूप से स्वस्थ बना सकते हैं।
– डॉ सत्यवान सौरभ
आज का समय बहुत तेजी से बदल रहा है। तकनीकी प्रगति और व्यस्त जीवनशैली ने हमारे जीवन को सुविधाजनक बनाया है, लेकिन इसके साथ ही एक गंभीर समस्या भी सामने आई है – संवाद हीनता। संवाद हीनता का अर्थ है बातचीत और विचारों के आदान-प्रदान की कमी। यह केवल शब्दों की कमी नहीं है, बल्कि एक ऐसी स्थिति है जिसमें लोग अपनी भावनाओं, समस्याओं और अनुभवों को साझा नहीं कर पाते। परिवार, मित्रता और समाज सभी पर इसका गहरा असर पड़ता है।
परिवार जीवन का वह आधार है जहाँ बच्चे और बड़े अपने अनुभव साझा करते हैं और आपसी समझ विकसित करते हैं। लेकिन आज, व्यस्त जीवन, डिजिटल साधनों का अधिक प्रयोग और पीढ़ियों के अंतर ने पारिवारिक संवादिता को कमजोर कर दिया है। माता-पिता अपने काम और जिम्मेदारियों में इतने व्यस्त रहते हैं कि बच्चों के साथ समय बिताना मुश्किल हो जाता है। वहीं, बच्चे स्कूल, कोचिंग और मोबाइल की दुनिया में उलझे रहते हैं। परिणामस्वरूप, घर में बैठकर खुलकर बातचीत करना लगभग कम होता जा रहा है।
डिजिटल दुनिया ने जीवन को आसान बनाया है, लेकिन इसके दुष्परिणाम भी हैं। स्मार्टफोन, टीवी और सोशल मीडिया ने परिवार के सदस्यों को एक-दूसरे से दूर कर दिया है। युवा सदस्य अधिक समय इन माध्यमों में व्यतीत करते हैं और आमने-सामने संवाद कम हो जाता है। ऐसे संवाद अक्सर सतही हो जाते हैं और भावनाओं की गहराई को व्यक्त नहीं कर पाते।
पीढ़ियों का अंतर भी संवाद में बाधा डालता है। बुजुर्ग अनुभव और परंपरा पर भरोसा करते हैं, जबकि युवा आधुनिक दृष्टिकोण और स्वतंत्रता की ओर अधिक झुकाव रखते हैं। यह अंतर कभी-कभी परिवार में गलतफहमी और असहमति को जन्म देता है। छोटे-छोटे झगड़े या आलोचना भी भावनात्मक दूरी बढ़ा देती है और परिवार में मानसिक तनाव उत्पन्न करती है।
संवाद हीनता केवल परिवार तक सीमित नहीं है। समाज में भी लोग अपनी राय, शिकायत या सुझाव साझा नहीं करते। इससे सहयोग और सामूहिक प्रयास कमजोर पड़ते हैं और गलतफहमियाँ बढ़ती हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी मोहल्ले में सफाई या सुरक्षा संबंधी समस्या को साझा नहीं किया जाता, तो समाधान कठिन हो जाता है और विवाद पैदा हो सकते हैं।
संवाद हीनता के कई कारण हैं। व्यस्त जीवनशैली, डिजिटल उपकरणों का अत्यधिक उपयोग, डर या शर्म की भावना, मानसिक तनाव, सामाजिक दूरी और पीढ़ियों के बीच अंतर—ये सभी मिलकर लोगों को खुलकर संवाद करने से रोकते हैं। इसके नकारात्मक प्रभाव व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर दिखाई देते हैं। व्यक्ति में अकेलापन और मानसिक तनाव बढ़ता है, आत्मविश्वास कमजोर पड़ता है। परिवार में विश्वास और समझ की कमी होती है। समाज में सहयोग और सामूहिक प्रयास कम हो जाते हैं।
इस समस्या को दूर करने के लिए कुछ उपाय अपनाए जा सकते हैं। सबसे पहले, नियमित संवाद का समय निर्धारित करना जरूरी है। परिवार के साथ भोजन, चाय या वीकेंड पर बातचीत को प्राथमिकता दी जा सकती है। दूसरी महत्वपूर्ण बात है सुनने और समझने की आदत। आलोचना से बचकर, एक-दूसरे की बात ध्यानपूर्वक सुनना और समझना संवादिता को बढ़ाता है। तीसरी बात है साझा गतिविधियों का महत्व। खेल, यात्रा, हॉबीज़ या सामाजिक कार्यों में परिवार और दोस्तों को शामिल करने से संवाद प्राकृतिक रूप से बढ़ता है।
डिजिटल उपकरणों का संतुलित उपयोग भी जरूरी है। मोबाइल और टीवी से समय निकालकर आमने-सामने बातचीत को प्राथमिकता देना चाहिए। साथ ही, अपनी भावनाओं को खुलकर व्यक्त करना भी आवश्यक है। डर या शर्म के कारण अपनी भावनाओं को दबाना संवादिता को और कमजोर करता है। बच्चों को भी अपनी भावनाएँ व्यक्त करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
संक्षेप में, संवादिता जीवन का वह आधार है जो रिश्तों, विश्वास और सहयोग को मजबूत करती है। संवाद हीनता केवल बातचीत की कमी नहीं है, बल्कि परिवार और समाज की संरचना को प्रभावित करने वाली गंभीर समस्या है। इसे समय रहते पहचानना और समाधान करना आवश्यक है। खुली बातचीत, सकारात्मक सुनना और साझा गतिविधियाँ न केवल परिवार और समाज को मजबूती देती हैं, बल्कि व्यक्तिगत विकास और मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी अत्यंत आवश्यक हैं।
आज की चुनौती यह है कि हम अपनी व्यस्तता, डिजिटल साधनों और पीढ़ियों के अंतर के बावजूद संवादिता को प्राथमिकता दें। संवादिता ही वह माध्यम है जो हमें एक-दूसरे के करीब लाती है, समझ को गहरा करती है और समाज में सामूहिक सहयोग को बढ़ावा देती है। परिवार और समाज तभी सशक्त रह सकते हैं जब संवादिता मौजूद हो और इसे बढ़ावा दिया जाए। यही हमारी सबसे बड़ी आवश्यकता और जिम्मेदारी है।
टैरिफ के बाद अब ट्रंप का 88 लाख का वीजा ? हद है भाई ! बन्दा पूरा बदला लेने पर उतारू है । किस बात का बदला ? उसी का बदला जब भारत ने सीजफायर के झूठ पर ट्रंप को बेनकाब कर दिया , उसी बात का बदला । छोड़ो भी अमेरिका के पीछे पूरी तरह दीवाना होना । ऑस्ट्रेलिया यूरोप या ब्रिटेन जाओ । वैसे अपने देश में भी बहुत बड़े बड़े शिक्षण संस्थान हैं , बड़ी बड़ी कंपनियां हैं । यहीं रह लो भाई । थोड़ा कम खा लेंगे , थोड़ा कम पी लेंगे । अपनी धरती अपना वतन , अपनी मिट्टी अपना चमन । ट्रंप में इतनी अकड़ कि रोजाना कोई न कोई फितरत , कोई न कोई बेवफाई । डोनाल्ड ट्रंप ! अच्छा सिला दिया हमारी मुहब्बत का । देखें , अभी किस हद तक गिरते हैं ?
आश्चर्य की बात है कि 88 लाख सालाना का H -1B वीजा भी सिर्फ भारत पर लगाया गया है । उसी तरह जैसे सर्वाधिक 50% टैरिफ भारत पर लगाया था । पल में तोला पल में माशा के सिद्धांत पर चलते हुए ट्रंप इस कार्यकाल में गिरगिट की तरह रंग बदल रहे हैं । इस बात से बेखबर हैं कि भारत की तो छोड़ो , उनके अपने देश अमेरिका में उनके खिलाफ कितना जबरदस्त माहौल बना हुआ है । दुनिया ने वैसे भी ट्रंप को सीरियसली लेना बंद कर दिया है । वे बार −बार भारत की आत्मशक्ति को पहचान तो रहे हैं , लेकिन ऊपर से कठोर बने रहना चाहते हैं ।
हमारे एलओपी साहब अलबत्ता बड़े खुश हैं । टैरिफ और अब वीजा को लेकर उन्होंने पीएम को कमजोर पीएम बताकर अपनी पार्टी में तालियां बजवाई । लम्बे अरसे से चीन भारत को कमजोर देखना चाहता रहा । अब उसे पता चल गया है कि यह उसकी भूल थी । अतः चीन दोस्ती का हाथ बढ़ा रहा है । ट्रंप की कारगुज़ारियों को देखकर लगता है कि वे भी उसी राह पर चल पड़े हैं जहां से चीन ने शुरुआत की थी । भारत जानता है कि अमेरिका मतलबी देश है । अमेरिका ने विशुद्ध मतलबों को लेकर भारत से दोस्ती निभाई । अब दुश्मनी भी उन्हीं स्वार्थों के चलते निभा रहा है ।
जहां तक अमेरिका की नीतियों का सवाल है वे कभी स्थाई नहीं रही । भारत को इसका लम्बा अनुभव है । अमेरिका की दोस्ती के पीछे सदा वाणिज्य रहा है । यह संयोग ही कहा जाएगा कि इस बार भारत में भी वह एक गुजराती ” बनिए ” से टकरा गया । ट्रंप कईं बार मोदी को टफ नेगोशिएटर बता चुके हैं । अपनी खीज और कुछ न बिगाड़ पाने की घुटन में ट्रंप ने भारत की सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था को डैड इकॉनमी बता दिया था । इसका समर्थन हमारे एलओपी साहब ने भी कर दिया था । उसी समर्थन के दम पर ट्रंप अब भारतीय यूथ और मेधा से खेल रहे हैं । खुद अमेरिका के अर्थशास्त्री और विदेश नीति एक्सपर्ट इसे ट्रंप का आत्मघाती कदम बता रहे हैं । जाहिर है भारतीय युवा के सामने ट्रंप ने एक और चुनौती तो पेश कर ही दी है ।
“न्याय के बिना प्रतिष्ठा संभव नहीं, मौन अब अपराध है”
साहित्य अकादमी पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोप केवल एक व्यक्ति की विफलता नहीं, बल्कि पूरे साहित्यिक समाज की परीक्षा हैं। अदालत ने माना है कि पद का दुरुपयोग हुआ और शिकायतकर्ता को दबाने की कोशिश की गई। फिर भी आरोपी सचिव पद पर बने हुए हैं। यह चुप्पी अस्वीकार्य है। जब तक उन्हें हटाया नहीं जाता, लेखकों को अकादमी से असहयोग करना चाहिए। साहित्य तभी सच्चा रह पाएगा जब वह अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ निर्भीक होकर खड़ा होगा। मौन अपराध है, और शून्य सहनशीलता ही एकमात्र नीति।
— डॉ प्रियंका सौरभ
साहित्य अकादमी भारत की सबसे प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था मानी जाती रही है। यह केवल एक सरकारी निकाय नहीं बल्कि भाषाओं और साहित्य की विविध परंपराओं का प्रतीक भी है। ऐसे में जब इस संस्था के शीर्ष पदाधिकारी पर गंभीर यौन उत्पीड़न के आरोप लगते हैं और अदालत यह स्थापित कर देती है कि उन्होंने अपने पद का दुरुपयोग किया है, तो यह केवल व्यक्तिगत नैतिक विफलता नहीं बल्कि पूरे साहित्यिक समाज पर धब्बा है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि अकादमी का सचिव यौन उत्पीड़न से महिलाओं की रक्षा अधिनियम के तहत नियोक्ता की श्रेणी में आता है और शिकायतकर्ता की बर्खास्तगी प्रतिशोध का परिणाम थी। अदालत ने उन्हें बहाल करने का आदेश दिया और यह भी माना कि अकादमी ने जाँच की निष्पक्ष प्रक्रिया को बाधित किया। यह टिप्पणी किसी साधारण प्रशासनिक गड़बड़ी की ओर इशारा नहीं करती बल्कि यह दर्शाती है कि संस्था के भीतर शक्ति का उपयोग न्याय की रक्षा के बजाय दमन के लिए किया गया।
पीड़िता के आरोप मामूली नहीं थे। अनचाहे स्पर्श, अश्लील टिप्पणियाँ और लगातार यौन दबाव जैसे अनुभव उन्होंने साझा किए। यह कोई एक बार की घटना नहीं बल्कि एक सिलसिला था। संस्थान के भीतर कई लोग इस वातावरण से परिचित थे फिर भी चुप्पी साधे रहे। यही चुप्पी उत्पीड़क को और निर्भीक बनाती है और पीड़िता को और अकेला कर देती है।
साहित्य की असली शक्ति उसकी नैतिकता में है। अगर साहित्यकार समाज के अन्याय पर कलम चलाते हैं लेकिन अपने ही घर के अन्याय पर चुप रहते हैं, तो साहित्य की विश्वसनीयता खो जाती है। जब तक आरोपी सचिव अपने पद पर बना रहता है तब तक अकादमी के किसी भी आयोजन में भागीदारी स्वयं कलंक का हिस्सा बनने जैसा होगा। पुरस्कार लेना, कविताएँ पढ़ना या गोष्ठियों में शिरकत करना मानो यह स्वीकार करना होगा कि हम उत्पीड़न को नजरअंदाज कर सकते हैं।
इस समय आवश्यकता है शून्य सहनशीलता की। यौन उत्पीड़न और जातिगत उत्पीड़न जैसे अपराधों पर कोई समझौता नहीं हो सकता। जब संस्था का शीर्ष अधिकारी ही आरोपी हो और फिर भी पद पर बना रहे, तो यह संदेश जाता है कि संस्थान अपराध को ढकने के लिए तत्पर है। इससे न केवल पीड़िता हतोत्साहित होती है बल्कि अन्य महिलाएँ भी शिकायत दर्ज कराने से डरने लगती हैं। यह वातावरण पूरे साहित्यिक समाज के लिए घातक है।
और भी चिंताजनक यह है कि कुछ प्रकाशक ऐसे व्यक्तियों को अब भी मंच दे रहे हैं। उन्हें बड़े लेखक की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है, उत्सवों और मेलों में सम्मानित किया जा रहा है। यह प्रवृत्ति केवल बिक्री और लाभ का मामला नहीं है, बल्कि यह उत्पीड़न की संस्कृति को सामाजिक मान्यता देने जैसा है। ऐसे में लेखकों और पाठकों की ज़िम्मेदारी है कि वे ऐसे प्रकाशकों से सवाल पूछें। साहित्यिक गरिमा केवल शब्दों में नहीं बल्कि आचरण में भी झलकनी चाहिए।
यह समय लेखक समाज की अग्निपरीक्षा का है। क्या हम चुप रहेंगे और संस्था की रक्षा के नाम पर अन्याय को ढकेंगे, या न्याय और सम्मान के लिए खड़े होंगे। अकादमी की प्रतिष्ठा उसकी इमारतों और पुरस्कारों से तय नहीं होती, वह उसकी पारदर्शिता और नैतिक आचरण से तय होती है। अगर यह खो जाएगी तो सारे पुरस्कार और समारोह केवल खोखले अनुष्ठान रह जाएँगे।
लेखकों को अब साफ़ रुख अपनाना होगा। जब तक आरोपी पद पर है, तब तक अकादमी के किसी भी कार्यक्रम में भागीदारी नहीं होनी चाहिए। यह बहिष्कार केवल प्रतीकात्मक कदम नहीं बल्कि समाज को स्पष्ट संदेश देगा कि साहित्य अन्याय के साथ समझौता नहीं कर सकता।
आगे का रास्ता भी हमें मिलकर तय करना होगा। संस्थागत सुधार ज़रूरी है, शिकायत समितियों को स्वतंत्र बनाया जाए और उनकी कार्यवाही सार्वजनिक की जाए। लेखकों और पाठकों को चाहिए कि वे नैतिक बहिष्कार को आंदोलन की तरह चलाएँ। प्रकाशकों से जवाबदेही माँगी जाए और पूरे सांस्कृतिक परिदृश्य को संवेदनशील बनाया जाए। यह केवल अकादमी का नहीं बल्कि पूरे समाज का सवाल है।
यह संकट हमें याद दिलाता है कि पद और सत्ता किसी को भी कानून और नैतिकता से ऊपर नहीं बना सकते। अगर आरोपी अपने पद पर बना रहता है तो यह केवल पीड़िता का नहीं बल्कि पूरे साहित्यिक समाज का अपमान है। लेखकों, कवियों, आलोचकों और पाठकों को अब मिलकर कहना होगा कि हम अन्याय के साथ खड़े नहीं हो सकते। साहित्य तभी अपनी असली ताक़त दिखा पाएगा जब वह सत्ता से सवाल पूछेगा और शोषण के खिलाफ निर्भीक होकर खड़ा होगा।
अगर हम इस परीक्षा में असफल हुए तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें डरपोक और मौन समाज के रूप में याद करेंगी। लेकिन अगर हम साहस के साथ खड़े हुए तो साहित्य शब्दों के साथ-साथ न्याय और गरिमा का भी प्रहरी बन सकेगा। यही साहित्य की असली पहचान है और यही हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी।
भारत लोक आस्था के प्रतीक तीज त्योहारों का देश है। यहाँ दुनियाँ के सबसे ज्यादा त्योहार मनाये जाते है। इनमें नवरात्रि देश का बहुत महत्वपूर्ण प्रमुख त्योहार है जिसे पूरे भारत में श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाता है। नवरात्रि शब्द एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है नौ रातें। इन नौ रातों और दस दिनों के दौरान देवी के नौ रूपों की पूजा अर्चना की जाती है। दसवाँ दिन दशहरा के नाम से प्रसिद्ध है। नवरात्रि सिर्फ पूजा-पाठ का पर्व नहीं है, अपितु नौ दिनों तक चलने वाला आस्था, शक्ति और भक्ति तथा खुशियों का महापर्व है। नवरात्रि पर्व भारत में होली-दीपावली और दशहरे जैसी धूमधाम, हर्षोल्लास और श्रद्धा से मनाया जाता है। नवरात्रि के दिनों में मां दुर्गा के नौ रूपों की अराधना पूजा नियम अनुसार करनी चाहिए। इस बार नवरात्रि पर कई शुभ योग बन रहे हैं। माता दुर्गा गज पर सवार होकर आएंगी, जो समृद्धि का प्रतीक है। हिंदी पंचांग के अनुसार शारदीय नवरात्रि आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से प्रारंभ होती है और महानवमी के दिन समाप्त होती है। उसके अगले दिन दशहरा पर्व हर्षोल्लास से मनाया जाता है।
शारदीय नवरात्र सभी नवरात्रियों में सबसे अधिक लोकप्रिय और महत्वपूर्ण माना जाता है। इस वर्ष यह महापर्व 22 सितंबर से आरंभ होकर 2 अक्टूबर 2025 तक मनाया जाएगा। इस बार तृतीया तिथि 24 और 25 सितंबर दो दिन होने के कारण नवरात्रि पर्व 10 दिनों तक मनाया जाएगा। नवरात्रि के आखिरी 3 दिन बहुत ही खास होते हैं जिसमें दुर्गा सप्तमी, दुर्गा अष्टमी और दुर्गा नवमी शामिल हैं। सनातनी परम्परा में शारदीय नवरात्रि का पर्व अत्यंत शुभ और विशेष माना जाता है। परंपरा के अनुसार, अष्टमी या नवमी तिथि पर विधि-विधान से कन्या पूजन किया जाता है।
पंचांग के अनुसार घटस्थापना का मुहूर्त सुबह 6 बजकर 9 मिनट से लेकर 8 बजकर 6 मिनट तक होगा। घटस्थापना के लिए कुल 1 घंटा 56 मिनट का समय मिलेगा। इसके अलावा, घटस्थापना अभिजीत मुहूर्त में भी किया जा सकता है। अभिजीत मुहूर्त सुबह 11 बजकर 49 मिनट से लेकर दोपहर 12 बजकर 38 मिनट तक रहेगा, जिसके लिए 49 मिनट का समय मिलेगा। नवरात्रि में घट स्थापना या कलश स्थापना का विशेष महत्व होता है। नवरात्रि के प्रथम दिन ही कलश स्थापना या घट स्थापना करके मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है।
नवरात्रि भारत के विभिन्न प्रदेशों में अलग ढंग से मनायी जाती है। गुजरात में नवरात्रि समारोह डांडिया और गरबा के रूप में धूमधाम से मनाया जाता है। यह पूरी रात भर चलता है। देवी के सम्मान में भक्ति प्रदर्शन के रूप में गरबा, आरती से पहले किया जाता है और डांडिया समारोह उसके बाद। पश्चिम बंगाल में यह पर्व पूरे उत्साह और श्रद्धा के साथ आयोजित किया जाता है। इस पावन माह में माता रानी की पूजा अर्चना की जाती है। नवरात्र में देवी और नवग्रहों की पूजा का कारण यह भी है ग्रहों की पूरे वर्ष अनुकूल रहे और जीवन में खुशहाली बनी रहे।
देशवासी नवरात्र मनाने की तैयारियां कर रहे है। इस दौरान मां दुर्गा के नवरूपों की उपासना की जाती है। इसमें शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री की पूजा अलग-अलग दिन होती है। नवरात्र के पहले दिन देवी को शरीर में लेप के तौर पर लगाने के लिए चंदन और केश धोने के लिए त्रिफला चढ़ाना चाहिए। त्रिफला में आंवला, हर्रड़ और बहेड़ा डाला जाता है। दूसरे दिन केषों को ठीक स्थान पर रखने के लिए माता को रेशम की पट्टी दी जाती है। तीसरे दिन पैरों को रंगने के लिए आलता, सिर के लिए सिंदूर और देखने के लिए दर्पण दिया जाता है। चौथे दिन देवी को शहद, मस्तक पर तिलक लगाने के लिए चांदी का एक टुकड़ा और आंख में लगाने का अंजन, यानि कि काजल दिया जाता है। नवरात्र के पांचवें दिन देवी मां को अंगराग, यानि सौन्दर्य प्रसाधन की चीजें और अपने सामर्थ्य अनुसार आभूषण चढ़ाने का विधान है। नवरात्र के छठे दिन मां कात्यायनी की उपासना की जायेगी और बेल के पेड़ के पास जाकर देवी का बोधन किया जायेगा। नवरात्र के सातवें दिन मंत्रोच्चारण के साथ बेल के पेड़ से लकड़ी तोड़कर लाई जाती है। इन दिनों में देवी पूजा के साथ ही दान-पुण्य भी करना चाहिए। जरूरतमंद लोगों को भोजन और धन का दान करें। नवरात्रि में व्रत करने वाले लोगों को फल जैसे केले, आम, पपीता आदि का दान करें।
21 सिंतबर रविवार से शारदीय नवरात्र शुरू हो गए हैं। नवरात्र में अधिकांश हिंदू परिवार घर में मां के कलश की स्थापना करते हैं।इन नौ दिन उपवास रखकर देवी के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है।देवी स्परुपा कन्याओं को पूजा जाता है। उन्हें जिमाया जाता है। वस्त्रादि भेंट किए जाते हैं। ये परंपरा सदियों से चली आ रही है। सदियों से चली आ रही इस परम्परा में वक्त के हिसाब से अब सुधार की जरूरत है। आज जरूरत है कि हम कन्याओं को पूजे और जिमाएं ही नहीं। उन्हें शिक्षित भी करें।उन्हें आज के समय और परिस्थिति में जीने के अनुकूल बनाए। आत्मसुरक्षा भी सिखाए। उन्हें गुड टच और बेड टच की जानकारी दें। कन्याओं को आज के समाज में शान और सम्मान के साथ जीने के योग्य बनाएं। ज्यादति के खिलाफ बोलना भी बताएं। ज्यादति का मुकाबला भी करना सिखाएं।
नवरात्र देश भर में अलग −अलग रूप में मनाए जाते हैं। पूजा अर्चन की जाती है। सबका तात्पर्य यह ही है कि देवी शक्ति की पूजा कर हम उनसे अपने और समाज के कल्याण का आशीर्वाद मांगे। स्वस्थ समाज की मांग करे। ये सब कुछ सदियों से चला आ रहा है। आज समय की मांग है कि हम समय के अनुरूप पुरानी मान्यताओं से कुछ आगे बढ़े। वक्त की जरूरत के साथ अपनी मान्यताओं और सोच में परिवर्तन करें।
आज देश की देवियां ,महिलाएं, मातृशक्ति विकास के हर क्षेत्र में अपना योगदान कर रही हैं। कार – स्कूटर तो बहुत समय से चलाती रही हैं। अब ये आटो, ट्रक,ट्रेन ,मालगाड़ी भी चलाने लगीं हैं।ये प्लेन उड़ा रही हैं। अब तो सेना में जाकर बार्डर की हिफाजत भी महिलाएं कर रही हैं। आधुनिकतम लड़ाकू विमान भी उड़ा रहीं हैं। उन्हें नियंत्रित भी कर रही हैं।
कभी गाना , बजना, नाचना महिलाओं की कला मानी जाती थी। उसमें उन्हें पारंगत करने के साथ− साथ पुराने समय से परिवार की बेटियों को सिलाई, कढ़ाई, बुनाई,अनाज पिसाई,छनाई के साथ घर के कामकाज भोजन बनाने में आदि में निपुण किया जाता था। ताकि वह समय की जरूरत के हिसाब के शादी के बाद अपने परिवार को संभाल सकें। इस समय शिक्षा पर उतना जोर नही था। परिवार की जरूरतें बढ़ी तो पढ़ी −लिखी महिलाएं घर की चाहरदीवारी से निकलीं। नौकरी करने लगीं। बिजनेस में परिवार को सहयोग देने लगीं।समय बदला । महिलाएं आज शिक्षित हो सभी क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दे रही हैं। नौकरी के लिए अकेली युवती का विदेश जाना अब आम हो गया। पैरा मिलेट्री फोर्सेज में योगदान करने के साथ आज वह सेना में आकर देश सीमाओं को सुरक्षित बनाने और शत्रु से लोहा लेने में भी लगी हैं।
समय के साथ− साथ समाज की प्राथमिकताएं भी बदलीं। नहीं बदला तो महिलाओं और युवतियों के शोषण का सिलसिला। भारतीय समाज में फैली दहेज की कुप्रथा के कारण गर्भ में ही बालिका भ्रूण मारे जाने लगे। परिवार में ही आसपास ने नाते, रिश्तेदारों और अन्यों द्वारा छुटपन से बेटियों के साथ छेड़छाड़ ,यौन शोषण चलता रहा। देश में चेतना आई ,शिक्षा का स्तर बढ़ा पर महिलाओं के प्रति होने वाले अपराध कम नही हुए। हाल ही में राष्ट्रीय महिला आयोग ने सूचित किया कि वर्ष 2021 के प्रारंभिक आठ महीनों में महिलाओं के खिलाफ अपराधों की शिकायतों में पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में 46 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
राष्ट्रीय महिला आयोग को साल 2021 में महिलाओं के खिलाफ अपराध की करीब 31,000 शिकायतें मिलीं थी जो 2014 के बाद सबसे ज्यादा हैं। इनमें से आधे से ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश के थे। महिलाओं के खिलाफ अपराध की शिकायतों में 2020 की तुलना में 2021 में 30 प्रतिशत का इजाफा हुआ था। साल 2020 में कुल 23,722 शिकायतें महिला आयोग को मिली थीं।राष्ट्रीय महिला आयोग की ओर से जारी आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 30,864 शिकायतों में से, अधिकतम 11,013 सम्मान के साथ जीने के अधिकार से संबंधित थीं। घरेलू हिंसा से संबंधित 6,633 और दहेज उत्पीड़न से संबंधित 4,589 शिकायतें थीं। ये वे शिकायत हैं जो रजिस्टर होती हैं1 इससे कई गुनी शिकायत तो दर्ज ही नही होती। परिवार का सम्मान बताकर ,युवती की स्मिता की बातकर घटनांए दबाली जाती हैं।
अब तक बच्चियों को गाने – बचाना ,डांस करने के वीडियो सामने आते थे। हाल ही में एक वीडियो सामने आया जिसमें एक पिता अपनी बेटी को लाठी चलाना सिखा रहा है। इस छोटे से वीडियो को बहुत पसंद किया गया।एक और वीडियों पोपुलर हो रहा है। इसमें एक युवती अपने चेहरे पर स्कार्फ बांध रही है। एक युवक उसका स्कार्फ लेकर उसे राजस्थानी पगड़ी की तरह बाधंता है। युवती के सिर पर पगड़ी बंधी देख दर्शक उसकी प्रशंसा करते हैं। आज समय की मांग है कि परिवार विशेषकर मां बेटी को बचपन से गुड टच और बैड टच बताए। इनका अंतर बताए। कहीं कुछ घर के आसपास , स्कूल में, स्कूल बस में अगर ऐसा होता है तो वह घर आकर बतांए। बेटी अब घर की देहरी के अंदर तक ही सीमित नही रह गई है। वह कार्य के लिए घर से बाहर निकल रही है। ट्रेन में, बस में अकेले सफर कर रही है। नौकरी के लिए सात समुंद पार जा रही है। ऐसे में जरूरत है उसे आत्मसुरक्षा की जानकारी देने की। जूडे−कराटे सिखाए जाएं । जरूरत है घर की प्रत्येक बेअ को आत्मसुरक्षा में निपुण करने की, ताकि वह विपरीत परिस्थिति में अपना बचाव कर सके। अगर ऐसा होगा तो छेड़छाड़ करने वाले के भय से युवती को आत्महत्या नही करनी पड़ेगी, जबकि आज इस तरह की रोज अखबारों में खबर आ रही हैं।
पिछले दिनों मुरादाबाद में से 12वीं में पढ़ने वाली छात्रा ने छेड़छाड़ से परेशान होकर कीटनाशक खा कर आत्महत्याकर ली। मुंबई के विनोबा भावे नगर में चचेरे भाई के बार-बार यौन उत्पीड़न से तंग आकर 15 वर्षीय किशोरी ने आत्महत्या कर ली। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जनपद में मनचले की छेड़छाड़ से परेशान छात्रा ने अपने ही घर में फांसी का फंदा लगाकर खुदकुशी की। इस तरह की खबर रोज अखबारों में सुर्खियां बन रही हैं। हम अपने परिवार की बेटी को ऐसे संस्कार और शिक्षा दें। उसे आत्मनिर्भर बनांए, आत्मसुरक्षा सिखाएं,ज्यादति के खिलाफ उसे आवाज उठाना भी सिखांए ताकि समाज की कन्या और समाज बेटी की खबर अखबार की सुर्खी न बने। उसके साथ ज्यादति करने का कोई हौंसला न कर सके । हाल में अच्छा यह हुआ है कि केंद्र ने इस तरह की घटनाओं के लिए पास्को एक्ट बनाया। इसमें त्वरित न्याय दिलाने की भी व्यवस्था की है, ताकि अपराधी अपराध करता डरे। जरूरत है कि पास्को एक्ट के तहत हुए निर्णयों का प्रचार −प्रसार व्यापक स्तर से किया जाए ताकि अपराधी में भय पैदा हो।
आजकल जलवायु से सम्बंधित विषयों जैसे प्रकृति, पर्यावरण, पृथ्वी, जीव जंतु, वनस्पति, पेड़-पौधे आदि आदि पर विभिन्न देशी और वैश्विक शोध रिपोर्टों से अखबार भरे मिलते है। लगभग हर रिपोर्ट में जलवायु में बदलाव के खतरों से लोगों को निरंतर सावचेत किया जाता है। गर्मी हो या सर्दी अथवा बसंत सभी ऋतुओं में हो रहे परिवर्तन हमारे लिए लाभदायक है या हानिकारक इसकी जानकारी दी जाती है। आज यहाँ हम बात कर रहे है प्रकृति के भले बुरे की। प्रकृति से हमारा तात्पर्य जल, जंगल और जमीन से है। यह मानने और स्वीकारने में कोई गुरेज नहीं होनी चाहिए कि प्रकृति का संरक्षण हमारे सुनहरे भविष्य का आधार है। मनुष्य जन्म से ही प्रकृति और पर्यावरण के सम्पर्क में आ जाता है। प्राणी जीवन की रक्षा हेतु प्रकृति की रक्षा अति आवश्यक है। वर्तमान समय में विभिन्न प्रजाति के जीव जंतु, वनस्पतियां और पेड़-पौधे विलुप्त हो रहे हैं जो प्रकृति के संतुलन के लिए बहुत ही भयावह है। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समय समय पर प्रकृति का दोहन करता चला आ रहा है। अगर प्रकृति के साथ खिलवाड़ होता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमें शुद्ध पानी, हवा, उपजाऊ भूमि, शुद्ध पर्यावरण वातवरण एवं शुद्ध वनस्पतियाँ नहीं मिल सकेंगी। इन सबके बिना हमारा जीवन जीना मुश्किल हो जायेगा। प्रकृति हमारे जीवन का आधार है। विभिन्न प्राकृतिक संसाधन जैसे कि जल, वन्यजीवन, वन, खेती, वायु आदि हमारी जरूरतों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हमारी सांसें जल से भरी हुई हैं और हमारी खाद्य आपूर्ति भी खेती द्वारा उत्पन्न होती है। इसलिए, हमें प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखने की जरूरत है ताकि हम समृद्धि और सुख-शांति के साथ जीवन जी सकें। प्रकृति के संरक्षण का अर्थ है कि वनों, भूमि, जल निकायों का संरक्षण और खनिजों, ईंधन, प्राकृतिक गैसों आदि जैसे संसाधनों का संरक्षण, यह सुनिश्चित करने के लिए कि ये सभी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहें। ऐसे कई तरीके हैं जिनसे आम आदमी प्रकृति के संरक्षण में मदद कर सकता है। इनमें से कुछ ऐसे हैं जो आसानी से किए जा सकते हैं और एक बहुत बड़ा बदलाव ला सकते हैं। प्रकृति हमें पानी, भूमि, सूर्य का प्रकाश और पेड़-पौधे प्रदान करके हमारी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करती है। इन संसाधनों का उपयोग विभिन्न चीजों के निर्माण के लिए किया जा सकता है जो निश्चित ही मनुष्य के जीवन को अधिक सुविधाजनक और आरामदायक बनाते हैं। प्रकृति के संरक्षण से अभिप्राय जंगलों, भूमि, जल निकायों की सुरक्षा से है तथा प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण खनिजों, ईंधन, प्राकृतिक गैसों जैसे संसाधनों की सुरक्षा से है जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि ये सब प्रचुर मात्रा में मनुष्य के उपयोग के लिए उपलब्ध रहें। ऐसे कई तरीके हैं जिससे आम आदमी प्रकृति के संरक्षण में मदद कर सकता है। यहां कुछ ऐसे ही तरीकों का विस्तृत वर्णन किया गया है जिससे मानव जीवन को बड़ा लाभ हो सकता है।
पृथ्वी के पास हर इंसान की जरूरत पूरी करने के लिए काफी कुछ है, लेकिन उसके लालच को पूरा करने के लिए नहीं हैं। पृथ्वी पर पानी, हवा, मिट्टी, खनिज, पेड़, जानवर, पौधे आदि हर किस्म की जरूरत के लिए संसाधन है। लेकिन औद्योगिक विकास की होड़ में हम पृथ्वी को सफाई और उसके ही स्वास्थ्य को नजरअंदाज करने लगे हैं। हम कुछ भी करने से पहले यह बिलकुल नहीं सोचते कि हमारी उस गतिविधि से प्रकृति को कितना नकुसान होगा। प्रकृति का संरक्षण प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण से सबंधित है। इनमें मुख्यतः पानी, धूप, वातावरण, खनिज, भूमि, वनस्पति और जानवर शामिल हैं। प्रकृति हमें पानी, भूमि, सूर्य का प्रकाश और पेड़-पौधे प्रदान करके हमारी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करती है। इन संसाधनों का उपयोग विभिन्न चीजों के निर्माण के लिए किया जा सकता है जो निश्चित ही मनुष्य के जीवन को अधिक सुविधाजनक और आरामदायक बनाते हैं।
धरती के तापमान में लगातार बढ़ते स्तर को ग्लोबल वार्मिंग कहते है। वर्तमान में ये पूरे विश्व के समक्ष बड़ी समस्या के रुप में उभर रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि धरती के वातावरण के गर्म होने का मुख्य कारण का ग्रीनहाउस गैसों के स्तर में वृद्धि है। इसे लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है जिससे प्रकृति पर खतरा बढ़ता जा रहा है। ये आपदाएँ पृथ्वी पर ऐसे ही होती रहीं तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी से जीव-जन्तु व वनस्पति का अस्तिव ही समाप्त हो जाएगा। कहते है प्रकृति संरक्षित होगी तो मानव जीवन भी सुरक्षित होगा। प्रकृति हमारी धरोहर है, इसकी रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य है। प्रकृति ने हमें जीव जंतुओं सहित सूर्य, चाँद, हवा, जल, धरती, नदियां, पहाड़, हरे-भरे वन और खनिज सम्पदा धरोहर के रूप में दी हैं। मनुष्य अपने निहित स्वार्थ के कारण प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग कर रहा है। बढ़ती आबादी की समस्या के लिए आवास समस्या को हल करने के लिए हरे-भरे जंगलों को काट कर ऊंची-ऊंची इमारतें बनाई जा रही हैं। वृक्षों के कटने से वातावरण का संतुलन बिगड़ गया है और ग्लोबल वार्मिंग की समस्या पूरे विश्व के सामने भयंकर रूप से खड़ी है। खनिज-सम्पदा का अंधाधुंध प्रयोग किया जा रहा है। जीव-जंतुओं का संहार किया जा रहा है, जिसके कारण अनेक दुर्लभ प्रजातियां लुप्त होती जा रही हैं।
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 75वां जन्मदिन आया तो पूरे देश में धूमधाम से स्वच्छता अभियान चलाया गया। भाजपा नेता और कार्यकर्ता झाड़ू लेकर मैदान में उतरे, कहीं सड़क पर दो कागज उठाए, कहीं नाली के पास झाड़ू फेर दी और कैमरे के सामने मुस्कुरा कर फोटो खिंचवा ली। फिर क्या था सोशल मीडिया पर वही फोटो वायरल हो गईं और संदेश दिया गया कि देशभर में स्वच्छता अभियान चला, लेकिन असलियत में यह सब दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं था। अगर सचमुच नेताओं और अफसरों में स्वच्छ भारत मिशन के लिए प्रतिबद्धता होती तो आज हर शहर में खड़े कूड़े के पहाड़ कब के खत्म हो चुके होते। हकीकत यह है कि देश का कोई भी शहर देख लीजिए। कहीं न कहीं कूड़े का अंबार खड़ा मिलेगा। गलियां, चौराहे, सड़कों के किनारे ढेर लग जाते हैं और नगर पालिका या निगम के लोग सिर्फ खानापूर्ति कर निकल जाते हैं। स्वच्छ भारत का सपना तब पूरा होगा जब इन ढेरों का सही निस्तारण होगा। मगर यहां न तो अफसरों को इसकी फिक्र है और न ही नेताओं को। सब बस मौकों पर फोटो खिंचवा कर जिम्मेदारी निभाने का नाटक करते हैं। धामपुर समेत पूरे देश का हाल भी इसी तरह का है। उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी तहसील मानी जाने वाली धामपुर में रेलवे ओवरब्रिज के किनारे सालों से कूड़े का पहाड़ खड़ा है। अगर ब्रिज न होता तो यह गंदगी दूर से ही साफ दिखाई देती। रोज हजारों लोग वहां से गुजरते हैं। बदबू और गंदगी सहते हैं। मगर प्रशासन चुप्पी साधे रहता है। यही हाल देश के हर शहर का है। कहीं न कहीं आपको ऐसा ही गंदगी का टीला देखने को मिल जाएगा। असलियत यह है कि नेता अब फोटोजीवी बन चुके हैं। मतलब बस कैमरे में आने तक ही काम करते हैं। दो मिनट के लिए झाड़ू उठाई। हंसी-मजाक की, फोटो खिंचवाई और काम खत्म। उसके बाद वही कूड़ा वैसे का वैसा पड़ा रहता है। जनता को भ्रम दिया जाता है कि देश साफ हो रहा है, लेकिन धरातल पर कुछ भी नहीं बदलता। यही वजह है कि लोग अब इन अभियानों को गंभीरता से लेना छोड़ चुके हैं। अब सवाल उठता है कि आखिर जिम्मेदारी किसकी है। सिर्फ नेताओं और अफसरों की नहीं, जनता की भी है। लोग भी खुले में कचरा फेंकते हैं। पॉलिथीन का इस्तेमाल बंद नहीं करते और नालियों में गंदगी डाल देते हैं। अगर समाज बदलेगा नहीं तो सिर्फ नेता बदलने से कुछ नहीं होगा, लेकिन नेताओं का काम तो फिर भी जनता को रास्ता दिखाना है। जब वही लोग दिखावा करेंगे तो जनता से क्या उम्मीद की जाए।अगर भाजपा नेता और अफसर सचमुच प्रधानमंत्री मोदी का जन्मदिन सार्थक बनाना चाहते तो उन्हें जमीन पर उतरकर कूड़े के पहाड़ हटाने का अभियान शुरू करना चाहिए था। कचरा प्रबंधन प्लांट लगते, गंदगी साफ होती, पॉलिथीन पर रोक लगती और लोगों को जागरूक किया जाता। तभी असली श्रमदान कहलाता। बाकी तो बस फोटो खिंचवाने की राजनीति है, जिसमें पब्लिक को बेवकूफ बनाना आसान है। बाकी स्वच्छ भारत का सपना तभी पूरा होगा जब नेता, अफसर और जनता सब मिलकर असली काम करेंगे। फोटो से नहीं, गली और मोहल्ले साफ करने से फर्क पड़ेगा। वरना हर साल ऐसे ही स्वच्छता अभियान चलते रहेंगे और देश में कूड़े के पहाड़ और ऊंचे होते जाएंगे।