कैसे हो गया यह सब…क्यों मर गया रावण

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व्यंग्य

कैसे हो गया यह सब…क्यों मर गया रावण

सीन-1

“कैसे हुआ यह सब। सुनकर बहुत दुख हुआ।”

-जी। रात में अच्छे भले सोये थे। सवेरे चले गए।

“कुछ बताया नहीं किसी को।”

जी नहीं। हम तो सब सो रहे थे।

-“कोई तकलीफ…?”

-हुई भी होगी तो पता नहीं ।

-“अच्छा”

-हमारे तो पिता ही सहारे थे ।

-“पिता तो सबकुछ होते हैं। अब क्या करोगे..?”

-देखते हैं।

-“बिना पिता के रहना तो मुश्किल है। कुछ तो सोचना पड़ेगा । आज नहीं तो कल।”

सीन-2

-“कैसे चली गईं माता जी…”

-जी, बीमार थीं। अचानक हार्ट अटैक हुआ था।

-“पहले पता नहीं चला था क्या…?हार्ट अटैक आएगा”

-पता चलता तो बचा ही लेते…?

“हां। हार्ट अटैक में कहां बचता है…”

( अब पिता जी क्या करेंगे..? कुछ तो करना पड़ेगा। अकेले कब तक रहेंगे..?)

सीन-3

“भाभी जी को क्या हुआ था…?”

-कुछ खास नहीं। बस चली गई

-“लड़ाई तो नहीं हुई थी…?”

थोड़ी बहुत तो हर घर में होती है। यूं तो कोई नहीं चला जाता।

-“आजकल वक्त बहुत खराब है। लोग चले भी जाते हैं। लेकिन । अपनी सोचो। जिंदगी पड़ी है। रिमैरिज तो करनी पड़ेगी।”

-वो बाद की बात है। अभी तो तेरहवीं भी नहीं हुई है।

-“हम उसके बाद आते हैं। बैठकर बातें करते हैं ।”

कल्पना कीजिए। घर में किसी की मृत्यु हुई। कैसे हुई…यह बताने में पसीने आ जाते हैं। जो भी आता है, उसी को बताना पड़ता है, कैसे गए । वर्मा जी हों या शर्मा जी, सभी की हालत एक सी है। वीआईपी डेथ पर तो और हाल बुरा है। शोक व्यक्त करने वाले रैली की तरह आते हैं । सबको बारी-बारी से पूरा विवरण दो।

क्या ही अच्छा हो….एक ऑडियो चला दी जाए…..”शर्मा जी या वर्मा जी बीमार थे। रात को अच्छे भले सोये थे। पानी पिया था। सुबह बिना बताये चले गए। घर के हम सब सोये पड़े थे। आपकी संवेदनाओं के प्रति हार्दिक आभार।”

लेकिन हम लोग इतने से भी कहां मानते हैं। एक बस अड्डे पर पान की दुकान थी। उस पर बोर्ड लगा था….”यहां बसों के आने-जाने का समय नहीं बताया जाता।” तभी एक बंदा आया….”क्यों, दिल्ली वाली बस आई या नहीं।” दूसरा बंदा आया….”क्या फतेहपुर की बस चली गई ।” दुकानदार परेशान। उसने लगे बोर्ड की तरफ इशारा कर दिया। पूछने वाले कहां चुप होते हैं? बस की पूछताछ करते रहे।

कुछ दिन बाद पान वाले ने बोर्ड को पलट दिया….”यहां बसों के आने-जाने का समय बताया जाता है।” उस दिन से उसके पास कोई नहीं आया।

यहां उलटी ही रीति है। रावण हर साल फूंका जाता है। बुराइयों का अंत करो। टीवी अखबार वाले चिल्लाते हैं….रावण के दस मुंह यानी ये 10 बुराई। बुराई क्या गिनाते हैं ये भी देखिए…प्रदूषण, भ्रष्टाचार, अनाचार, व्यभिचार, बलात्कार, रोजगार, महामारी, जाम और गड्ढे।अगर रावण के 20 मुंह होते तो बुराई की तलाश अंतरिक्ष तक पहुंच जाती।

अब कोई पूछे…रावण के इन दस सिरों का इससे क्या मतलब ? रावण राज में इस बात का कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता कि जीडीपी क्या थी? रोजगार कितना था ? वह रावण क्यों बना ? सीता हरण की रिपोर्ट किस थाने में दर्ज हुई। आदि आदि ।

हमारे सवाल आदि अनादि और आदी हैं। पंडित बताते हैं–भद्रा और पंचक में रावण को नहीं फूंकते । जो खुद बुराई का प्रतीक है । वह अशुभकाल में चला जाए तो क्या होगा…? लेकिन नहीं । हम परंपराएं ढोते हैं। हमारा हाल हर उस दुखी आत्मा की तरह है जो यह सवाल करता है….मिस्टर फलांना कैसे चला गया ?

रावण की डेथ के बाद महिलाएं पल्लू से मुंह छिपाए मंदोदरी के पास आई..”बहन! ये सब कैसे हो गया? तुमने समझाया क्यों नहीं? सीता को लौटा देते.. भाईसाहब? अब आगे क्या करोगी? पूरी जिंदगी पड़ी है? तुम्हारा तो खानदान ही मिट गया।”

( इतिहास भी नहीं बताता । रावण के बाद मंदोदरी का क्या हुआ ।)।

अच्छा हुआ, बड़े लोग समय से चले गए। वरना शोकसंतप्त आत्माओं/ टीवी वालों को कौन बताता….”क्या, क्यों और कैसे चले गए गांधी जी….शास्त्री जी ।” रावण चला गया। और हम राम पथ से क्यों दूर हो गए।

सूर्यकांत

वरिष्ठ पत्रकार,सामाजिक चिंतक, साहित्यकार

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