माओवादी का शांति प्रस्ताव,रणनीति या हताशा

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अशोक मध़ुप


हाल ही में, झारखंड में माओवादी संगठन, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने एक शांति प्रस्ताव जारी कर केंद्र और राज्य सरकारों को चौंका दिया है। इस प्रस्ताव में उन्होंने एक महीने के लिए संघर्ष विराम और शांति वार्ता की मांग की है। यह पहली बार नहीं है कि माओवादियों ने शांति की बात की है, लेकिन जिस समय यह प्रस्ताव आया है, वह इसके पीछे के निहितार्थों को समझने के लिए महत्वपूर्ण है। यह प्रस्ताव ऐसे समय में आया है जब झारखंड सहित पूरे देश में सुरक्षाबलों द्वारा चलाए जा रहे आक्रामक अभियानों में माओवादियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा

माओवादियों का शांति प्रस्ताव दो पृष्ठों का एक पत्र है, जिसे उनके केंद्रीय समिति के प्रवक्ता अभय द्वारा जारी किया गया है। इस पत्र में उन्होंने सरकार से एक महीने के लिए संघर्ष विराम घोषित करने, तलाशी अभियान बंद करने और शांति वार्ता के लिए एक अनुकूल माहौल बनाने की अपील की है। उन्होंने यह भी कहा है कि वे वीडियो कॉल के माध्यम से भी सरकार से बात करने को तैयार हैं।
इस प्रस्ताव के पीछे के कारणों को लेकर कई अटकलें लगाई जा रही हैं। सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि माओवादी लगातार हो रही मुठभेड़ों से बुरी तरह से घिर गए हैं। पिछले कुछ महीनों में, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में सुरक्षाबलों को बड़ी सफलताएं मिली हैं। करोड़ों रुपये का इनामी कई शीर्ष माओवादी कमांडर मुठभेड़ों में मारे गए हैं।
झारखंड के हजारीबाग में सुरक्षाबलों ने एक करोड़ रुपये के इनामी माओवादी कमांडर सहदेव सोरेन और दो अन्य नक्सलियों को मार गिराया है। यह एक बड़ी सफलता है क्योंकि सहदेव सोरेन बिहार-झारखंड के विशेष क्षेत्र समिति का सदस्य था। इसी तरह, छत्तीसगढ़ में भी सुरक्षाबलों ने एक करोड़ के इनामी मोडेम बालकृष्ण सहित कई नक्सलियों को ढेर किया है। ये ऑपरेशन सरकार द्वारा 2026 तक देश को नक्सल मुक्त बनाने के लक्ष्य का हिस्सा हैं।
लगातार मुठभेड़ों और शीर्ष कमांडरों के मारे जाने से माओवादी संगठन की कमर टूट रही है। उनके कैडर हताश हो रहे हैं और नए लड़ाकों की भर्ती भी मुश्किल हो रही है। उनके हथियार और गोला-बारूद भी लगातार जब्त हो रहे हैं। ऐसे में, यह शांति प्रस्ताव उनकी रणनीति का हिस्सा हो सकता है, ताकि वे कुछ समय के लिए राहत पा सकें। अपने बिखरे हुए कैडरों को फिर से संगठित कर सकें और अपनी ताकत को फिर से बढ़ा सकें।

यह सवाल महत्वपूर्ण है कि क्या माओवादी लगातार हो रही मुठभेड़ों से डर गए हैं। इसका सीधा जवाब देना मुश्किल है, लेकिन कई संकेत इस ओर इशारा करते हैं।
माओवादी आंदोलन का नेतृत्व आमतौर पर बेहद अनुभवी और कट्टर कैडरों के हाथ में होता है। लेकिन, पिछले कुछ सालों में, सुरक्षाबलों ने लक्षित अभियानों के माध्यम से उनके शीर्ष नेतृत्व को निशाना बनाया है। जब संगठन के रणनीतिकार और कमांडर मारे जाते हैं, तो निचले स्तर के कैडर हताश हो जाते हैं और उनका मनोबल गिर जाता है। सरकार की विकास नीतियों और पुनर्वास कार्यक्रमों के कारण माओवादियों का जन समर्थन भी कम हुआ है। पहले, उन्हें आदिवासी समुदायों से काफी समर्थन मिलता था, लेकिन अब कई आदिवासी समुदाय मुख्यधारा में शामिल हो रहे हैं। सरकार ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सड़कें, स्कूल, अस्पताल और संचार सेवाएं पहुंचाई हैं, जिससे लोगों का माओवादियों पर भरोसा कम हुआ है। सुरक्षाबलों ने माओवादियों के खिलाफ अपनी रणनीति में काफी सुधार किया है। अब वे केवल जवाबी कार्रवाई नहीं करते, बल्कि खुफिया जानकारी के आधार पर लक्षित और आक्रामक अभियान चलाते हैं। ड्रोन, बेहतर संचार तकनीक और स्थानीय पुलिस के साथ तालमेल ने सुरक्षाबलों को माओवादियों पर भारी पड़ने में मदद की है।
यह भी संभव है कि माओवादी अपनी पारंपरिक युद्ध रणनीति, जिसे “गुरिल्ला युद्ध” कहा जाता है, में बदलाव लाना चाहते हों। जब वे सीधे टकराव में हार रहे हैं, तो वे वार्ता की मेज पर आकर अपनी शर्तों को मनवाने की कोशिश कर सकते हैं।

माओवादियों के शांति प्रस्ताव पर सरकार का रुख सतर्क और स्पष्ट है। सरकार ने उनकी सशर्त पेशकश को नकार दिया है और कहा है कि अगर माओवादी बिना शर्त शांति वार्ता चाहते हैं, तो सरकार तैयार है। गृह मंत्री अमित शाह ने बार-बार कहा है कि सरकार का लक्ष्य 2026 तक देश को नक्सल मुक्त बनाना है, और इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए अभियान जारी रहेगा।सरकार की सशर्त पेशकश को नकारने का कारण यह है कि माओवादियों ने पहले भी शांति प्रस्ताव का उपयोग अपनी ताकत को फिर से संगठित करने के लिए किया है। सरकार जानती है कि अगर वे तलाशी अभियान बंद करते हैं, तो माओवादियों को फिर से पैर जमाने का मौका मिलेगा। इसलिए, सरकार का रुख स्पष्ट है: या तो आत्मसमर्पण करो या फिर परिणाम भुगतो।
यह शांति प्रस्ताव माओवादी आंदोलन के अंत की शुरुआत का संकेत हो सकता है। लगातार हो रहे नुकसान, जन समर्थन की कमी और सरकार की सख्त नीतियों ने उन्हें एक ऐसे मोड़ पर ला दिया है, जहां उनके पास बहुत कम विकल्प बचे हैं। अब, उन्हें यह तय करना है कि वे बंदूकें छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होते हैं या फिर अपने खात्मे की राह पर आगे बढ़ते हैं।
यह भी संभव है कि माओवादी संगठन के अंदर ही अलग-अलग गुटों में मतभेद हों। कुछ गुट शांति वार्ता के पक्ष में हों, जबकि कुछ गुट अभी भी सशस्त्र संघर्ष जारी रखना चाहते हों। इस तरह के मतभेद संगठन की आंतरिक कमजोरी को दर्शाते हैं।
झारखंड के माओवादियों का शांति प्रस्ताव उनकी मजबूरी और हताशा का परिणाम प्रतीत होता है। लगातार हो रही मुठभेड़ों और शीर्ष कमांडरों के मारे जाने से उनका संगठन कमजोर हुआ है और उनके पास संघर्ष को जारी रखने के लिए पर्याप्त ताकत नहीं बची है। सरकार का सख्त रुख और पुनर्वास की नीतियां उन्हें आत्मसमर्पण करने या बातचीत के लिए मजबूर कर रही हैं। हालांकि, यह देखना बाकी है कि यह प्रस्ताव वास्तव में शांति की दिशा में एक कदम है या केवल एक रणनीतिक चाल। लेकिन एक बात निश्चित है कि माओवादी आंदोलन अपने सबसे कमजोर दौर से गुजर रहा है, और यह संभवतः भारत में वामपंथी उग्रवाद के अंत की शुरुआत है।
हाल ही में, एक वरिष्ठ माओवादी महिला लीडर पद्मावती उर्फ सुजाता उर्फ कल्पना ने तेलंगाना पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया है। सुजाता माओवादी पार्टी की केंद्रीय समिति की एकमात्र महिला सदस्य थी और उस पर 65 लाख से एक करोड़ रुपये तक का इनाम घोषित था। वह छत्तीसगढ़ में दंडकारण्य क्षेत्र की प्रभारी थी और उसके खिलाफ 70 से अधिक मामले दर्ज थे। उसका आत्मसमर्पण माओवादी आंदोलन के लिए एक बड़ा झटका माना जा रहा है।

अशोक मधुप

वरिष्ठ पत्रकार

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