पर्यावरणीय आपातकाल और सीमित राजस्व—क्या आर्थिक दंड ही हरित भविष्य का मार्ग बना सकता है?**
भारत विश्व के उन देशों में है जहाँ वायु, जल और मिट्टी का प्रदूषण तीव्र स्वास्थ्य संकट का रूप ले चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी सबसे प्रदूषित नगरों की सूची में भारत के अनेक नगर शामिल हैं। जल-प्रदूषण से प्रतिवर्ष लाखों लोग रोगग्रस्त होते हैं। दूसरी ओर, स्वच्छ ऊर्जा, हरित अवसंरचना और प्रदूषण नियंत्रण हेतु सरकार के पास पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं। ऐसे समय में “प्रदूषण कर”—अर्थात् प्रदूषण फैलाने पर आर्थिक दंड—को एक समुचित समाधान के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि इससे प्रदूषण में कमी और पर्यावरण-रक्षा के लिए स्थायी राजस्व दोनों प्राप्त हो सकते हैं।
– डॉ. सत्यवान सौरभ
भारत आज उस मोड़ पर खड़ा है जहाँ तेज आर्थिक विकास और बिगड़ते पर्यावरण के संकट के बीच संतुलन बनाना अत्यंत कठिन चुनौती बन गया है। शहरों की हवा दिन–प्रतिदिन जहरीली होती जा रही है, नदियाँ औद्योगिक कचरे से भर रही हैं, भूमिगत जल स्तर घट रहा है, ठोस कचरे के पहाड़ महानगरों की पहचान बनते जा रहे हैं, वहीं जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कृषि, स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या अब भारत को प्रदूषण फैलाने वालों पर प्रत्यक्ष आर्थिक दंड लगाने—अर्थात् विस्तृत “प्रदूषण कर” लागू करने—की आवश्यकता है?
प्रदूषण कर का विचार नया नहीं, परन्तु इसकी आवश्यकता आज पहले से कहीं अधिक है। अर्थशास्त्र में यह माना जाता है कि जब कोई उद्योग, वाहन या गतिविधि प्रदूषण फैलाती है तो उसका दुष्परिणाम पूरे समाज को भुगतना पड़ता है, न कि केवल उसे जो प्रदूषण फैला रहा है। यह बाज़ार व्यवस्था की वह गंभीर विफलता है जिसे “बाह्य लागत” कहा जाता है—अर्थात् नुकसान तो समाज को होता है, पर उसका मूल्य न तो वस्तु की कीमत में जुड़ता है, न ही प्रदूषण फैलाने वाला उसे भरता है। ऐसे में “प्रदूषण कर” इसी असंतुलन को सुधारने का प्रयास करता है, जहाँ जो जितना अधिक प्रदूषण फैलाए, वह उतनी अधिक आर्थिक कीमत चुकाए।
भारत में कोयले पर लगाया गया “स्वच्छ ऊर्जा उपकर” इसका एक प्रारंभिक स्वरूप था, परंतु आज देश में वायु, जल, ध्वनि, ठोस कचरा और औद्योगिक उत्सर्जन का ऐसा मिश्रित संकट है कि केवल किसी एक क्षेत्र पर कर लगाना पर्याप्त नहीं। आवश्यकता एक सर्वसमावेशी और वैज्ञानिक पद्धति से तैयार प्रदूषण कर की है, जो प्रदूषण को कम करने और स्वच्छ विकल्पों को बढ़ावा देने में सहायक हो।
प्रदूषण कर का सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह प्रदूषण को महँगा बनाता है और स्वच्छता को सस्ता। जब किसी उद्योग को प्रति इकाई उत्सर्जन पर कर देना पड़ेगा, तो वह स्वाभाविक रूप से ऐसी तकनीक अपनाने की ओर अग्रसर होगा जो कम प्रदूषण करे। यूरोप जैसे क्षेत्रों में यह प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई देती है जहाँ कार्बन-आधारित दंड के बाद ऊर्जा-संरक्षण और हरित तकनीक का उपयोग अत्यधिक बढ़ा। भारत में भी यह परिवर्तन संभव है, बशर्ते नीति दीर्घकालिक, पारदर्शी और लक्ष्य-उन्मुख हो।
दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि भारत को आने वाले वर्षों में पर्यावरण-रक्षा और स्वच्छ ऊर्जा पर बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता होगी। नदियों की सफाई, स्वच्छ परिवहन व्यवस्था, नवीकरणीय ऊर्जा, प्रदूषण नियंत्रण उपकरण, ठोस कचरे के वैज्ञानिक प्रबंधन तथा हरित भवनों के विकास पर अत्यधिक वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता होगी। ऐसे में प्रदूषण कर एक स्थायी और अनुमानित राजस्व स्रोत बन सकता है, जिसे एक स्वतंत्र “हरित निधि” के माध्यम से केवल पर्यावरण संरक्षण पर व्यय किया जा सकता है।
वैश्विक स्तर पर भी प्रदूषण कर का महत्व बढ़ रहा है। कई विकसित देश अब उन आयातित वस्तुओं पर अतिरिक्त शुल्क लगा रहे हैं जो अधिक प्रदूषणकारी स्रोतों से बनती हैं। यदि भारत घरेलू स्तर पर प्रदूषण पर उचित कर लागू करता है, तो भारतीय निर्यातकों को विदेशी बाज़ारों में अतिरिक्त शुल्क से राहत मिल सकती है। इस प्रकार प्रदूषण कर केवल पर्यावरण-हित में नहीं, बल्कि भारत की निर्यात प्रतिस्पर्धा की रक्षा में भी सहायक सिद्ध हो सकता है।
परंतु इन सबके बीच सबसे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि क्या प्रदूषण कर गरीबों पर भारी पड़ सकता है? यह चिंता बिल्कुल वास्तविक है। यदि ईंधन और बिजली की लागत बढ़ेगी, तो उसके साथ ही परिवहन, खाद्य पदार्थ और आवश्यक वस्तुओं की कीमतें भी बढ़ सकती हैं। इसका सीधा प्रभाव निम्न-आय वर्ग पर पड़ता है, जिनके पास विकल्प सीमित होते हैं। इसलिए प्रदूषण कर को न्यायपूर्ण बनाने के लिए यह अनिवार्य होगा कि निम्न-आय वाले परिवारों को प्रत्यक्ष नकद सहायता, ऊर्जा सब्सिडी और रसोई गैस जैसी आवश्यकताओं पर राहत दी जाए।
उद्योग जगत की चिंताएँ भी कम नहीं। विशेषकर सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग ऊर्जा-प्रधान होते हैं और किसी भी अतिरिक्त कर का प्रभाव उनकी लागत पर पड़ता है। अतः प्रदूषण कर को चरणबद्ध ढंग से लागू करना होगा—पहले बड़े उद्योगों पर, फिर धीरे-धीरे छोटे उद्योगों को तकनीकी और वित्तीय सहायता के साथ इस दायरे में लाना होगा। हरित मशीनरी पर अनुदान, ब्याज रहित ऋण, और तकनीकी उन्नयन के लिए मार्गदर्शन इस परिवर्तन को सुगम बना सकते हैं।
भारत की प्रशासनिक क्षमता भी एक महत्वपूर्ण कारक है। प्रदूषण का सटीक मापन, डेटा की विश्वसनीयता और निगरानी तंत्र की पारदर्शिता अत्यंत आवश्यक होगी। छोटे उद्योगों और गैर-प्रमाणित स्रोतों की निगरानी आज भी चुनौतीपूर्ण है। यदि उत्सर्जन मापन ही विश्वसनीय न हो, तो कर प्रणाली पर विश्वास नहीं किया जा सकता। इसलिए भारत को आधुनिक सेंसर-तकनीक, कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित निगरानी, डिजिटल उत्सर्जन-पंजीकरण तथा रियल-टाइम निगरानी प्रणाली को मजबूत करना होगा।
इसके अतिरिक्त, प्रदूषण कर की सफलता इस बात पर भी निर्भर करेगी कि सरकार इसके राजस्व का उपयोग कहाँ करती है। यदि यह धन सामान्य बजट में विलीन हो गया, तो जनता में अविश्वास बढ़ेगा और नीति का उद्देश्य कमजोर पड़ेगा। इसके लिए एक स्वतंत्र “हरित कोष” का गठन आवश्यक है, जो केवल प्रदूषण नियंत्रण, स्वच्छ ऊर्जा, हरित परिवहन और पर्यावरण संरक्षण के कार्यों पर व्यय हो तथा जिसकी वार्षिक लेखा-परीक्षा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हो।
राजनीतिक दृष्टि से यह एक साहसिक कदम होगा। किसी भी प्रकार की मूल्य-वृद्धि जनता के बीच असंतोष उत्पन्न कर सकती है। परंतु यह भी सत्य है कि पर्यावरणीय संकट अब इतना गंभीर हो चुका है कि उससे निपटने के लिए कठोर, दीर्घकालिक और दूरदर्शी आर्थिक सुधार आवश्यक हैं। भारत की युवा पीढ़ी सुरक्षित जल, स्वच्छ वायु और स्वस्थ जीवन की मांग कर रही है। इस मांग को नज़रअंदाज़ करना अब संभव नहीं।
अंततः यह कहा जा सकता है कि प्रदूषण कर भारत के लिए केवल राजस्व-संग्रह का साधन नहीं, बल्कि एक व्यापक हरित परिवर्तन की दिशा में आवश्यक कदम है। इसे न्यायपूर्ण, पारदर्शी, चरणबद्ध और वैज्ञानिक आधार पर लागू करने से भारत न केवल प्रदूषण कम कर पाएगा, बल्कि अपने विकास मॉडल को भी टिकाऊ, स्वस्थ और पर्यावरण-सम्मत बना सकेगा।
यदि इसे सही नीतिगत ढंग से लागू किया गया, तो यह भारत के इतिहास में वह मोड़ साबित हो सकता है जहाँ देश ने आर्थिक विकास और पर्यावरणीय संरक्षण को एक-दूसरे का विरोधी नहीं, बल्कि सहयोगी सिद्ध किया।
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– डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट