नवाचार को रोके बिना जवाबदेही कैसे सुनिश्चित करें

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(डीपफेक का बढ़ता खतरा और सिंथेटिक सामग्री की लेबलिंग : नवाचार और जवाबदेही का संतुलन) 

कृत्रिम बुद्धिमत्ता से उत्पन्न डीपफेक तकनीक ने सूचना की विश्वसनीयता को गंभीर चुनौती दी है। झूठी वीडियो, ऑडियो और छवियाँ समाज में भ्रम और अविश्वास फैला रही हैं। इस संकट से निपटने के लिए भारत सरकार ने सिंथेटिक सामग्री की अनिवार्य लेबलिंग की नीति प्रस्तावित की है, जिसके तहत एआई जनित सामग्री पर स्पष्ट रूप से “एआई द्वारा निर्मित” लिखा होगा। यह कदम पारदर्शिता, जवाबदेही और डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा देगा। साथ ही, यह सुनिश्चित करेगा कि तकनीकी नवाचार जारी रहे लेकिन उसका दुरुपयोग रोका जाए — यही भविष्य के जिम्मेदार डिजिटल भारत की दिशा है।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी एआई आज के युग की सबसे प्रभावशाली और परिवर्तनकारी तकनीकों में से एक बन चुकी है। यह हमारे जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी है — शिक्षा, चिकित्सा, संचार, मनोरंजन और प्रशासन तक। लेकिन तकनीक जितनी तेज़ी से बढ़ी है, उतनी ही तीव्रता से उसके दुरुपयोग की संभावनाएँ भी बढ़ी हैं। इन्हीं में से एक गंभीर चुनौती है — “डीपफेक” और “सिंथेटिक मीडिया” का प्रसार। डीपफेक का अर्थ है ऐसी ऑडियो, वीडियो या छवि जो एआई की मदद से इस तरह बनाई जाती है कि वह पूरी तरह वास्तविक प्रतीत होती है। किसी व्यक्ति का चेहरा बदल देना, उसकी आवाज़ की हूबहू नकल करना या किसी घटना का झूठा वीडियो तैयार करना — अब कुछ ही मिनटों का काम रह गया है। इस तकनीक के माध्यम से किसी के खिलाफ फर्जी वीडियो बनाना, राजनीतिक प्रचार में झूठ फैलाना, या किसी महिला की तस्वीर से छेड़छाड़ करना अत्यंत आसान हो गया है। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में, जहाँ सोशल मीडिया का प्रभाव करोड़ों नागरिकों तक है, डीपफेक का खतरा और भी गंभीर हो जाता है। कुछ सेकंड का झूठा वीडियो समाज में अविश्वास, नफरत या भ्रम फैला सकता है। यह केवल नैतिक नहीं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा का भी प्रश्न बनता जा रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इस चुनौती का कोई संतुलित समाधान संभव है? क्या तकनीक को रोका जाए या उसके साथ जिम्मेदारीपूर्वक चलना सीखा जाए? यही प्रश्न आज के डिजिटल भारत के सामने सबसे बड़ा नीति-संकट बन गया है।

भारत सरकार ने इस चुनौती को गंभीरता से लेते हुए हाल में सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MeitY) के माध्यम से एक महत्वपूर्ण पहल की है। सरकार ने “सिंथेटिक सामग्री की अनिवार्य लेबलिंग” का प्रस्ताव रखा है, जिसके तहत यदि कोई सामग्री कृत्रिम बुद्धिमत्ता द्वारा बनाई गई है या उसमें एआई का हस्तक्षेप हुआ है, तो उसे “एआई जनित” या “सिंथेटिक” के रूप में स्पष्ट रूप से चिन्हित करना होगा। इस कदम का उद्देश्य है पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना, ताकि उपयोगकर्ता यह जान सके कि जो वह देख या सुन रहा है, वह असली है या कृत्रिम रूप से निर्मित। प्रस्तावित नियमों के अनुसार, वीडियो में ऐसा लेबल दृश्यमान रूप से दिखना चाहिए, ऑडियो में शुरुआती हिस्से में इसे सुनाई देना चाहिए और छवियों में भी यह टैग या वॉटरमार्क के रूप में मौजूद रहना चाहिए। यह नीति नवाचार को रोकने के लिए नहीं, बल्कि समाज में भरोसा कायम रखने के लिए है। डिजिटल प्लेटफॉर्म्स और सामग्री निर्माताओं के लिए यह नियम न केवल कानूनी दायित्व बनेगा बल्कि नैतिक जिम्मेदारी भी। सरकार का कहना है कि इस कदम से उपयोगकर्ता स्वयं निर्णय ले सकेगा कि वह किस सामग्री को विश्वसनीय माने और किसे नहीं। साथ ही, यह भी स्पष्ट किया गया है कि कोई भी क्रिएटर या प्लेटफॉर्म यदि जानबूझकर बिना लेबल की एआई जनित सामग्री प्रसारित करेगा, तो उसे जवाबदेह ठहराया जाएगा। यह पहल भारत को वैश्विक स्तर पर एक जिम्मेदार डिजिटल राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत कर सकती है, क्योंकि अमेरिका और यूरोप जैसे देशों में भी ऐसी नीतियों पर विचार चल रहा है।

सिंथेटिक सामग्री की लेबलिंग का सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह पारदर्शिता लाती है और नागरिकों को सूचित निर्णय लेने की क्षमता देती है। जब किसी वीडियो या चित्र पर यह स्पष्ट लिखा हो कि यह “एआई जनित” है, तो दर्शक उसे पूरी तरह वास्तविक मानने की गलती नहीं करेगा। इससे फेक न्यूज़, अफवाहों और राजनीतिक दुष्प्रचार के प्रसार पर नियंत्रण पाया जा सकता है। यह लेबलिंग प्रणाली एक प्रकार का डिजिटल “सावधानी संकेत” बन जाएगी, जो लोगों को भ्रामक सामग्री से बचने में मदद करेगी। इसके अलावा यह कदम उन क्रिएटर्स के लिए भी उपयोगी है जो जिम्मेदारी से एआई का प्रयोग करना चाहते हैं। जब हर सामग्री को स्पष्ट रूप से चिन्हित करना आवश्यक होगा, तो कोई भी व्यक्ति बिना जिम्मेदारी लिए गलत उद्देश्य से एआई का उपयोग नहीं कर पाएगा। इससे नैतिक डिजिटल वातावरण का निर्माण होगा। साथ ही, यह नीति तकनीकी उद्योग के लिए भी अवसर लेकर आएगी — क्योंकि इससे ऐसे नए टूल्स, डिटेक्शन सिस्टम और एथिकल एआई तकनीकों की मांग बढ़ेगी जो यह सुनिश्चित करें कि कौन-सी सामग्री एआई जनित है और कौन-सी नहीं। परंतु यह कहना भी आवश्यक है कि इस नीति की सफलता केवल सरकार के नियमों पर निर्भर नहीं करेगी, बल्कि समाज की डिजिटल साक्षरता पर भी। यदि नागरिक स्वयं एआई तकनीकों की प्रकृति को नहीं समझेंगे, तो लेबल का अर्थ उनके लिए मात्र एक औपचारिकता बन जाएगा। इसलिए आवश्यक है कि लेबलिंग के साथ-साथ डिजिटल साक्षरता अभियान भी चलाए जाएँ ताकि आम लोग सच और कृत्रिमता में फर्क करना सीख सकें।

हालाँकि इस नीति का उद्देश्य सराहनीय है, लेकिन इसके कार्यान्वयन से जुड़ी कई व्यावहारिक चुनौतियाँ भी सामने आती हैं। सबसे बड़ी चुनौती यह तय करना है कि आखिर “सिंथेटिक सामग्री” की परिभाषा क्या होगी। आज अधिकांश डिजिटल सामग्री मिश्रित रूप में होती है — जहाँ कुछ हिस्सा मानव द्वारा बनाया जाता है और कुछ एआई द्वारा। क्या ऐसी सामग्री भी पूरी तरह “एआई जनित” मानी जाएगी? इसके अलावा, यह तकनीकी रूप से बहुत कठिन है कि हर अपलोड होने वाली सामग्री का निरीक्षण किया जाए और यह प्रमाणित किया जाए कि उसमें एआई का उपयोग हुआ है या नहीं। भारत जैसे विशाल देश में, जहाँ हर दिन करोड़ों वीडियो, छवियाँ और ऑडियो फाइलें सोशल मीडिया पर अपलोड होती हैं, वहाँ मॉनिटरिंग और ट्रैकिंग एक दुष्कर कार्य है। दूसरा, छोटे और मध्यम स्तर के क्रिएटर्स तथा स्टार्टअप्स के लिए यह नियम आर्थिक बोझ बन सकता है। यदि लेबलिंग की प्रक्रिया अत्यधिक जटिल या महंगी होगी, तो नवाचार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। तीसरा, इस नीति से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी प्रश्न उठ सकते हैं। कोई कलाकार यदि एआई का उपयोग केवल रचनात्मक प्रयोग के रूप में करता है, तो क्या उसे भी कठोर नियमों का पालन करना होगा? इसलिए यह ज़रूरी है कि नीति में लचीलापन हो और उसे विषय-वस्तु की प्रकृति के अनुसार लागू किया जाए। उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों — जैसे राजनीति, चुनाव, सामाजिक या धार्मिक मुद्दों — में सख्त नियम लागू किए जाएँ, जबकि कला, शिक्षा या अनुसंधान के क्षेत्र में थोड़ी छूट दी जाए।

अंततः, यह स्पष्ट है कि डीपफेक और एआई जनित सामग्री केवल तकनीकी चुनौती नहीं बल्कि सामाजिक और नैतिक संकट भी है। सिंथेटिक मीडिया की अनिवार्य लेबलिंग इस दिशा में एक आवश्यक और दूरदर्शी कदम है। इससे न केवल नागरिकों को सुरक्षा मिलेगी बल्कि डिजिटल दुनिया में विश्वास भी पुनः स्थापित होगा। परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि एआई को नियंत्रित कर नवाचार को बाधित किया जाए। आवश्यकता इस बात की है कि नवाचार और जवाबदेही के बीच संतुलन बना रहे। एआई का उद्देश्य मानवता की सेवा है, न कि भ्रम फैलाना या समाज में अविश्वास पैदा करना। इसलिए सरकार, तकनीकी कंपनियों, क्रिएटर्स और नागरिक समाज — सभी को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि तकनीक का उपयोग पारदर्शी और जिम्मेदार तरीके से हो। डिजिटल साक्षरता, नैतिक दिशानिर्देश, और निरंतर संवाद इस प्रक्रिया के तीन प्रमुख स्तंभ होने चाहिए। साथ ही, नियमों की समीक्षा समय-समय पर की जाए ताकि वे तकनीकी प्रगति के अनुरूप बने रहें। यदि भारत इस नीति को विवेक, संवेदनशीलता और संतुलन के साथ लागू करता है, तो यह न केवल देश के डिजिटल भविष्य को सुरक्षित करेगा, बल्कि दुनिया के सामने जिम्मेदार एआई शासन का एक आदर्श मॉडल प्रस्तुत करेगा। डीपफेक से उपजी चुनौती का उत्तर दमन नहीं, बल्कि समझदारी और नैतिक तकनीकी नीति है। यही दृष्टिकोण भारत को कृत्रिम बुद्धिमत्ता के युग में वास्तविक नेतृत्व प्रदान कर सकता है — ऐसा नेतृत्व जो सत्य, पारदर्शिता और मानवता पर आधारित हो।

– डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,

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