अंतरराष्ट्रीय मंच पर शिष्टाचार और भारतीय प्रतिनिधित्व का सवाल

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स्वतंत्र पत्रकारिता का अधिकार महत्वपूर्ण, पर राष्ट्र की गरिमा और सांस्कृतिक सौम्यता की अनदेखी नहीं

विश्व के सामने बैठने का ढंग, बोलने की शैली और प्रस्तुति—ये केवल व्यक्तिगत विकल्प नहीं, बल्कि देश की सामूहिक पहचान का प्रतीक होते हैं।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

भारत में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के इंटरव्यू को लेकर उठी बहस किसी छोटे विवाद का परिणाम नहीं है, बल्कि यह उस बड़े प्रश्न से जुड़ा है कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से किस प्रकार की छवि प्रस्तुत कर रहा है। जब इंडिया टुडे/आज तक की पत्रकार अंजना ओम कश्यप और उनकी सहयोगी गीता मोहन ने पुतिन का इंटरव्यू लिया, तब उस बातचीत से अधिक चर्चा में उनका बैठने का ढंग, शारीरिक मुद्रा और व्यवहार आ गया। कई दर्शकों ने इसे भारतीय शिष्टाचार के विरुद्ध माना, और यह मुद्दा सोशल मीडिया, समाचार मंचों और सार्वजनिक विमर्श में तेजी से उभरा।

यह चर्चा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सिर्फ दो पत्रकारों के व्यक्तिगत व्यवहार का मामला नहीं रह गया है; यह भारत के सांस्कृतिक चरित्र, अंतरराष्ट्रीय शिष्टाचार, राजनयिक संवेदनशीलता और भारतीय मीडिया की पेशेवर पहचान का व्यापक प्रश्न बन चुका है। वैश्विक राजनीति के इस दौर में, जहाँ हर शब्द, हर चित्र और हर संकेत तुरंत विश्वभर में प्रसारित हो जाता है, किसी भी प्रतिनिधि का व्यवहार देश की सामूहिक पहचान का हिस्सा बनकर देखा जाता है।

भारतीय सभ्यता का मूल भाव हमेशा विनम्रता, सम्मान और मर्यादा पर आधारित रहा है। “अतिथि देवो भव” सिर्फ एक नारा नहीं है, बल्कि भारतीय समाज की जड़ों में गहराई से बसा जीवन–मूल्य है। हम मानते आए हैं कि अतिथि का स्वागत सम्मानपूर्वक किया जाए, चाहे वह किसी भी शक्ति, समाज या देश से आता हो। ऐसे में जब रूस जैसी महाशक्ति के राष्ट्रपति, जो वैश्विक राजनीति में एक निर्णायक भूमिका निभाते हैं, भारत के पत्रकारों को इंटरव्यू देने बैठते हैं, तो लोगों की अपेक्षा स्वाभाविक रूप से अधिक हो जाती है।

इन अपेक्षाओं का केंद्र यह है कि पत्रकारों का व्यवहार पेशेवर हो—शब्दों में दृढ़ता हो, प्रश्नों में साहस हो, पर मुद्रा और प्रस्तुति में गरिमा भी हो। भारतीय नागरिकों का यह मानना गलत नहीं है कि उनके मीडिया प्रतिनिधि विश्व मंच पर भारत की सांस्कृतिक मर्यादा को भी साथ लेकर चलें।

पत्रकारिता का स्वरूप स्वभावतः निर्भीक होता है। सत्ता से सवाल पूछना इसका धर्म है। अंतरराष्ट्रीय नेता भी इस बात से भलीभांति परिचित होते हैं कि मीडिया की भूमिका केवल प्रशंसा करने की नहीं होती, बल्कि आलोचना और कठोर प्रश्न भी उसी लोकतांत्रिक ढांचे का हिस्सा होते हैं जिसमें शक्तिशाली नेतृत्व स्वयं को जवाबदेह बनाता है। लेकिन साहसी प्रश्न पूछने और असभ्यता की सीमा लाँघने में अंतर होता है, और यही अंतर इस बहस को तर्कसंगत बनाता है।

बहुत–से दर्शकों का कहना था कि बैठने का ढंग अत्यधिक अनौपचारिक और एक राष्ट्राध्यक्ष की उपस्थिति के अनुपयुक्त था। आप चाहे दुनिया के किसी भी देश की मीडिया प्रथाओं को देखें, वहां एक न्यूनतम स्तर का औपचारिक शिष्टाचार इंटरव्यू के संदर्भ में अपनाया जाता है, विशेषकर तब जब साक्षात्कारकर्ता कोई राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या उच्च–पदस्थ वैश्विक नेता हो। रूस के राष्ट्रपति पुतिन जैसे नेता के साथ ऐसा इंटरव्यू सामान्य मीडिया बातचीत नहीं माना जाता; यह भारत–रूस संबंधों के अप्रत्यक्ष प्रतीकात्मक आयाम का हिस्सा होता है।

दर्शकों के मन में यह भी स्वाभाविक प्रश्न उठा कि जहाँ पुतिन अत्यंत संतुलित, सीधी मुद्रा में, कूटनीतिक गरिमा के साथ बैठे थे, वहीं भारतीय पत्रकारों का अत्यधिक सहज, लगभग घरेलू अंदाज़ में बैठना क्या अंतरराष्ट्रीय अपेक्षाओं के अनुरूप था? लोग यह नहीं कह रहे कि पत्रकार सिर झुकाकर, भयभीत होकर या अधीनस्थ मुद्रा में बैठें। लेकिन सभ्यता और शिष्टाचार के अनुकूल एक बुनियादी औपचारिक शैली हर पेशेवर को अपनानी चाहिए। यही वह सांस्कृतिक सूक्ष्मता है जो भारत की पहचान को अलग करती है।

सवाल यह भी है कि क्या यह विवाद अति–संवेदनशीलता का परिणाम है? क्या जनता ने पत्रकारों के काम से अधिक उनके बैठने को मायने दे दिया? यह प्रश्न भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। मीडिया की एक भूमिका यह भी है कि वह सहज माहौल बनाए ताकि नेता खुलकर बोल सकें। लेकिन क्या सहजता का अर्थ शिष्टाचार त्याग देना है? यह संतुलन ही इस बहस का केंद्र है।

एक और महत्वपूर्ण आयाम यह है कि विवाद के बीच कुछ सोशल मीडिया संदेशों में यह दावा किया गया कि पश्चिमी देश भारतीयों को अपमानजनक नामों से बुलाते हैं। यह कथन न केवल तथ्यहीन है बल्कि इससे भारतीय समाज में अनावश्यक हीनभावना भी पैदा होती है। किसी एक पत्रकार के व्यवहार को आधार बनाकर पूरे देश पर ऐसे अपमानजनक लेबल लगाना न केवल गलत है बल्कि भारत की बढ़ती वैश्विक प्रतिष्ठा के भी खिलाफ है। भारत आज दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, वैश्विक कूटनीति का केंद्र है, और दुनिया भारतीय प्रतिभा को सम्मान और अवसर दे रही है। ऐसे में गलत, अपमानजनक और प्रमाण–विहीन बातों का प्रचार केवल समाज को विभाजित करता है।

भारतीय पत्रकारिता के सामने आज एक बड़ा चुनौतीपूर्ण मोड़ है। एक तरफ यह सरकारों और शक्तिशाली संस्थाओं से कठोर सवाल पूछने की जिम्मेदारी निभाती है, दूसरी तरफ इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पेशेवर व्यवहार के मानकों का भी पालन करना होता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि यदि भारत दुनिया में सशक्त आवाज बनना चाहता है, तो उसके मीडिया को भी उसी स्तर की गरिमा और गंभीरता दिखानी होगी।

इस विवाद ने एक और पहलू उजागर किया—भारत में सोशल मीडिया की तुरंत और तेज़ प्रतिक्रिया। आज हर दृश्य, हर शब्द, हर गतिविधि पलभर में करोड़ों लोगों तक पहुँच जाती है। यह लाभदायक है क्योंकि इससे जवाबदेही बढ़ती है, पर यह चुनौतीपूर्ण भी है क्योंकि भावनाएँ तर्क से अधिक प्रभावी हो जाती हैं। इसी कारण कभी–कभी घटनाएँ वास्तविकता से अधिक बढ़ा–चढ़ाकर प्रस्तुत हो जाती हैं। लेकिन इस मामले में लोगों की भावनाओं में एक वास्तविक चिंता झलकती है—भारतीय पहचान को विश्व मंच पर किस प्रकार प्रदर्शित किया जा रहा है?

यह आलोचना पत्रकारों को अपमानित करने के लिए नहीं है। यह एक गंभीर और आवश्यक विमर्श है कि भारत, जो विश्व राजनीति में लगातार ऊँचा उठ रहा है, उसे अपने व्यवहार, भाषण, प्रस्तुति और संवाद–शैली में भी वैसा ही परिपक्व और संतुलित दिखना चाहिए। भारत की सांस्कृतिक परंपरा केवल वेशभूषा या भाषा तक सीमित नहीं है; यह हमारे आचरण, विनम्रता, आदर और संतुलन में भी प्रकट होती है।

अंतरराष्ट्रीय नेता भारत की ओर सिर्फ उसकी आर्थिक और रणनीतिक क्षमता के कारण नहीं देखते, बल्कि उसकी सांस्कृतिक शक्ति, उसकी नैतिक परंपरा और उसकी गहरी सभ्यता के कारण भी। हिंदुस्तान की यही पहचान रही है कि हमने विश्व को शिष्टाचार, संवाद और संतुलन की विरासत दी है। इसलिए यह अपेक्षा भी स्वाभाविक है कि हमारे पत्रकार, हमारे कूटनीतिज्ञ, हमारे प्रोफेशनल्स—जब वे विश्व के सामने भारत का चेहरा बनते हैं—तो वे उस गरिमा और सौम्यता को भी प्रतिबिंबित करें जो हमें विशिष्ट बनाती है।

इस घटना ने एक सीख दी है—संचार का दायरा जितना बढ़ेगा, जिम्मेदारियाँ भी उतनी ही बड़ी होंगी। और जब जिम्मेदारी देश की प्रतिष्ठा से जुड़ी हो, तो छोटी–छोटी बातें भी महत्वपूर्ण हो जाती हैं। बैठने का ढंग, पेशेवर मुद्रा, भाषा—सभी उस बड़े फ्रेम का हिस्सा हैं जिसे दुनिया ‘भारत’ के रूप में देखती है।

अंततः इस बहस का सार यही है कि पत्रकारिता की स्वतंत्रता और साहस का सम्मान किया जाए, पर साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाए कि भारत की सांस्कृतिक गरिमा और अंतरराष्ट्रीय शिष्टाचार का सम्मान हर मंच पर बना रहे। स्वतंत्रता और मर्यादा विरोधी नहीं हैं—दोनों मिलकर भारत की उस संतुलित, परिपक्व और विश्वसनीय छवि को गढ़ते हैं जिसकी आज दुनिया को आवश्यकता है।

भारत की पहचान उसकी सभ्यता में है, और इस सभ्यता का सार यही कहता है—

साहस भी हो, संवेदनशीलता भी।

प्रश्नों में दृढ़ता हो, व्यवहार में गरिमा भी।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

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