अरावली चौराहे पर: जब परिभाषा तय करती है भविष्य

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– डॉ सत्यवान सौरभ

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अरावली पर्वतमाला, जो विश्व की सबसे प्राचीन पर्वत शृंखलाओं में से एक है, पश्चिमी भारत में एक मौन पारिस्थितिक प्रहरी के रूप में सदियों से खड़ी रही है। गुजरात से राजस्थान होते हुए हरियाणा और दिल्ली तक फैली यह शृंखला भूजल पुनर्भरण, मरुस्थलीकरण पर नियंत्रण, जलवायु संतुलन तथा धूल और प्रदूषकों को रोकने जैसे महत्वपूर्ण कार्य करती है। हालिया विवाद, जिसमें अरावली की कानूनी परिभाषा को पुनर्परिभाषित किया गया है, ने इस प्राचीन पर्वतमाला को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है जहाँ शब्दावली ही उसके अस्तित्व का भविष्य तय कर सकती है।

विवाद के केंद्र में अरावली पहाड़ियों की एक नई, समान और तकनीकी परिभाषा है, जिसमें न्यूनतम ऊँचाई को मुख्य मानक बनाया गया है। प्रशासनिक दृष्टि से मानकीकरण भले ही सरल प्रतीत हो, पर प्रकृति सीधी रेखाओं में कार्य नहीं करती। छोटी पहाड़ियाँ, चट्टानी उभार, ढलान और असमतल भू-आकृतियाँ—जो इस ऊँचाई के मानक से नीचे आती हैं—मिलकर एक ऐसा पारिस्थितिक तंत्र बनाती हैं जो जलधारण और जैव विविधता के लिए अनिवार्य है। ऊँचाई को कार्यात्मक महत्व से ऊपर रखना भू-दृश्यों की भाषा को न समझने के समान है।

भारत में पर्यावरण संरक्षण का विकास अक्सर न्यायिक हस्तक्षेप के माध्यम से हुआ है, जिसने कई बार प्रशासनिक निष्क्रियता की भरपाई की है। अरावली क्षेत्र भी दशकों से न्यायालय द्वारा लगाए गए खनन प्रतिबंधों और संरक्षण आदेशों से लाभान्वित रहा है। किंतु कानूनी परिभाषा को संकुचित करने का वर्तमान प्रयास इन उपलब्धियों को बिना किसी औपचारिक वापसी के कमजोर कर सकता है। यदि केवल तकनीकी कसौटी के आधार पर बड़े पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र संरक्षण से बाहर हो जाते हैं, तो यह पर्यावरणीय सुरक्षा का परोक्ष क्षरण होगा।

इसके दुष्परिणाम पहले से ही संवेदनशील क्षेत्रों में अधिक गंभीर हो सकते हैं। राजस्थान की नाजुक भूजल व्यवस्था अरावली के जलग्रहण क्षेत्रों पर अत्यधिक निर्भर है। हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर के लिए यह पर्वतमाला पश्चिम से आने वाली धूल और प्रदूषण के विरुद्ध प्राकृतिक दीवार का काम करती है। इन पहाड़ियों का विखंडन—चाहे वह खनन, रियल एस्टेट या अवसंरचना परियोजनाओं के माध्यम से हो—भूजल स्तर में गिरावट, शहरी ताप द्वीप प्रभाव और वायु गुणवत्ता में और गिरावट ला सकता है। इसका मूल्य न्यायालयों में नहीं, बल्कि घरों, खेतों और अस्पतालों में चुकाना पड़ेगा।

नई परिभाषा के समर्थकों का तर्क है कि स्पष्टता आवश्यक है ताकि अस्पष्टता कम हो, दुरुपयोग रोका जा सके और विकास परियोजनाओं को गति मिले। उनका कहना है कि व्यापक संरक्षण का कभी-कभी मनमाने ढंग से उपयोग हुआ है, जिससे वैध परियोजनाएँ अटकती रही हैं। यह चिंता पूरी तरह निराधार नहीं है। पर्यावरणीय शासन पारदर्शी, साक्ष्य-आधारित और न्यायसंगत होना चाहिए। किंतु प्रशासनिक अस्पष्टता का समाधान पारिस्थितिक विस्मृति नहीं हो सकता। स्पष्टता का उद्देश्य संरक्षण को सशक्त करना होना चाहिए, न कि उसे खोखला करना।

यह बहस एक गहरी संरचनात्मक समस्या को भी उजागर करती है—भारत में पर्यावरण संरक्षण को अब भी अक्सर बाधा के रूप में देखा जाता है, निवेश के रूप में नहीं। अरावली बंजर भूमि नहीं है जिसे ‘उपयोगी’ बनाने के लिए बदला जाए; यह जीवित अवसंरचना है। जल सुरक्षा, जलवायु सहनशीलता और सार्वजनिक स्वास्थ्य के रूप में जो सेवाएँ यह प्रदान करती है, उनकी भरपाई कृत्रिम उपायों से आसान नहीं है। जब नीति निर्माण में पर्यावरणीय परिसंपत्तियों का मूल्य कम आँका जाता है, तो तात्कालिक आर्थिक लाभ दीर्घकालिक सामाजिक हानि में बदल जाते हैं।

राजनीतिक स्तर पर इस मुद्दे ने तीखी प्रतिक्रियाएँ पैदा की हैं, जो पर्यावरणीय संरक्षण में संभावित ढील को लेकर बढ़ती सार्वजनिक चिंता को दर्शाती हैं। किंतु विमर्श को दलगत राजनीति से ऊपर उठना होगा। आवश्यकता एक ऐसे विज्ञान-आधारित और सहभागी ढाँचे की है, जो भू-आकृतिक स्वरूप के साथ-साथ पारिस्थितिक कार्यों को भी महत्व दे। रिमोट सेंसिंग, जीआईएस मानचित्रण और जलवैज्ञानिक मॉडलिंग जैसे आधुनिक उपकरण ऊँचाई से परे उच्च पारिस्थितिक मूल्य वाले क्षेत्रों की पहचान में सहायक हो सकते हैं। संरक्षण को तब सटीक रूप से अनुकूलित किया जा सकता है, न कि कमजोर।

उतना ही महत्वपूर्ण है प्रभावी प्रवर्तन। सबसे सशक्त परिभाषाएँ भी तब निष्प्रभावी हो जाती हैं जब जमीनी स्तर पर निगरानी कमजोर हो। अरावली में प्रतिबंधों के बावजूद अवैध खनन का जारी रहना इस बात का संकेत है कि समस्या परिभाषा से अधिक संस्थागत कमजोरी की है। स्थानीय प्रशासन को मजबूत करना, वन और खनन विभागों को सशक्त बनाना तथा भूमि उपयोग परिवर्तन में पारदर्शिता सुनिश्चित करना किसी भी संरक्षण रणनीति की अनिवार्य शर्त है।

अंततः अरावली विवाद भारत के पर्यावरणीय भविष्य से जुड़ा एक बड़ा प्रश्न उठाता है—क्या नीतियाँ संकीर्ण तकनीकी मानकों से संचालित होंगी या पारिस्थितिक विवेक से? जलवायु अनिश्चितता, जल संकट और तीव्र शहरीकरण के इस दौर में गलती की गुंजाइश बेहद कम है। प्राचीन पहाड़ियाँ राजनीतिक कार्यकालों में पुनर्जीवित नहीं की जा सकतीं; एक बार समतल हो जाने पर वे सदा के लिए खो जाती हैं।

परिभाषा का उद्देश्य वास्तविकता को स्पष्ट करना होना चाहिए, न कि उसे मिटा देना। विकास के मार्ग पर आगे बढ़ते भारत के लिए आवश्यक है कि अरावली को केवल मानचित्र पर ऊँचाइयों के रूप में नहीं, बल्कि क्षेत्र के पर्यावरणीय और मानवीय इतिहास से जुड़ी जीवनरेखा के रूप में देखा जाए। नीति निर्माताओं के सामने विकल्प स्पष्ट है—पूरे तंत्र का संरक्षण करें या उसके क्रमिक लोप के साक्षी बनें। इतिहास तय करेगा कि कौन-सी परिभाषा वास्तव में राष्ट्रीय हित में थी।

डॉ सत्यवान सौरभ

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