बदलती विश्व-व्यवस्था और जी-20 की चुनौती

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भू-राजनीतिक तनावों, आर्थिक अस्थिरता और नेतृत्व संकट से जूझते जी-20 में भारत का वैश्विक दक्षिण की आवाज़ के रूप में उदय

जी-20 वैश्विक आर्थिक समन्वय का सबसे प्रभावी मंच है, परन्तु आज यह गहरे भू-राजनीतिक विभाजनों, महाशक्तियों की प्रतिस्पर्धा, आर्थिक असमानताओं और नेतृत्व संकट जैसी कई चुनौतियों से घिरा है। इससे समूह की प्रासंगिकता एवं क्षमता दोनों पर प्रश्नचिह्न लग गए हैं। ऐसे जटिल समय में भारत ने स्वयं को वैश्विक दक्षिण की सशक्त आवाज़ के रूप में स्थापित किया है—अफ्रीकी संघ की सदस्यता सुनिश्चित करने से लेकर समावेशी विकास, शांति-आधारित कूटनीति और दक्षिण-दक्षिण सहयोग के नए मॉडल प्रस्तुत करने तक। फिर भी वैश्विक शक्ति-संघर्ष भारत की प्रभाव क्षमता को सीमित करते हैं और जी-20 की कार्यकुशलता को प्रभावित करते हैं।

– डॉ प्रियंका सौरभ

विश्व-राजनीति वर्तमान समय में गहरे परिवर्तनों से गुजर रही है। महाशक्तियों के बीच अविश्वास, क्षेत्रीय युद्ध, आर्थिक संकट, तकनीकी वर्चस्व की होड़, जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे और वैश्विक संस्थाओं में घटती प्रभावशीलता ने विश्व-व्यवस्था को अस्थिर बना दिया है। ऐसे दौर में जी-20, जो विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के बीच समन्वय स्थापित करने का सबसे महत्त्वपूर्ण मंच है, स्वयं को अभूतपूर्व चुनौतियों के बीच पाता है। समूह की प्रभावशीलता पर बढ़ते संदेह मात्र इसके कार्य-तंत्र से उत्पन्न नहीं हुए, बल्कि यह बदलती विश्व-स्थिति और बहुध्रुवीयता के असंतुलन का प्रत्यक्ष परिणाम है।

जी-20 की सबसे गंभीर चुनौती गहराता हुआ भू-राजनीतिक विभाजन है। यूक्रेन क्षेत्र में चल रहा युद्ध, पश्चिम एशिया की अस्थिरता, प्रशांत क्षेत्र में टकराव, बड़े देशों के बीच तकनीकी एवं आर्थिक प्रतिस्पर्धा, तथा बढ़ते प्रतिबंधों ने समूह की सहमति-निर्माण क्षमता को कमजोर बनाया है। कई बार ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं कि साझा घोषणा-पत्र निकालना भी कठिन हो जाता है। उदाहरणस्वरूप, जोहान्सबर्ग बैठक में केवल अत्यंत सामान्य रूप से ‘स्थायी एवं न्यायपूर्ण शांति’ की अपील की गई, क्योंकि सदस्य देशों के दृष्टिकोण आपस में टकराते रहे। यह स्थिति दिखाती है कि वैश्विक मुद्दों पर सामूहिक स्वर तैयार करना कितना कठिन हो चुका है।

महाशक्तियों के व्यक्तिगत हित कई बार समूह के सामूहिक हितों पर भारी पड़ जाते हैं। इससे “उबंटू”—अर्थात् “मैं हूँ क्योंकि हम हैं”—जैसी साझी जिम्मेदारी की मूल भावना क्षीण होती जा रही है। कुछ प्रमुख देशों द्वारा सम्मेलन से दूरी बनाना, या महत्वपूर्ण विमर्शों में भागीदारी में अनिच्छा दिखाना, समूह की विश्वसनीयता को कमजोर करता है। इससे जी-20 उस भूमिका को नहीं निभा पाता जिसके लिए यह बनाया गया था—यानी वैश्विक समस्याओं के समाधान हेतु सामूहिक एवं समन्वित प्रयास।

इसके साथ ही आर्थिक असमानता जी-20 के सामने एक और महत्वपूर्ण चुनौती है। विकसित और विकासशील देशों के बीच आय, तकनीक, स्वास्थ्य-सुविधाएँ, कौशल, ऊर्जा स्त्रोतों और जलवायु वित्त में बढ़ती खाई ने समूह के भीतर संतुलन को प्रभावित किया है। वैश्विक ऋण संकट, विकासशील देशों पर बढ़ता आर्थिक दबाव, मंदी का खतरा, और असमान व्यापार-संरचना मिलकर ऐसे परिदृश्य का निर्माण करते हैं जिसमें साझा नीति बनाना कठिन हो जाता है। ऐसे समय में समूह को जिस सशक्त नेतृत्व और सहयोग की आवश्यकता है, वह कई बार अनुपस्थित दिखाई देता है।

इन जटिल परिस्थितियों के बीच भारत ने जी-20 में अत्यंत सकारात्मक, समावेशी और संतुलनकारी भूमिका निभाई है। भारत ने न केवल वैश्विक दक्षिण की चिंता और अपेक्षाओं को केंद्र में रखा, बल्कि ऐसे ठोस कदम भी उठाए जिनका दीर्घकालिक प्रभाव दिखाई देता है। भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि अफ्रीकी संघ को जी-20 की स्थायी सदस्यता दिलाना रही। यह निर्णय न केवल ऐतिहासिक था, बल्कि उन विकासशील देशों की पुरानी मांग को भी पूरा करता था जिन्हें वैश्विक निर्णय-प्रक्रिया में बराबरी का स्थान नहीं मिलता रहा। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि भारत वैश्विक व्यवस्था को अधिक न्यायपूर्ण और समावेशी बनाने के लिए प्रतिबद्ध है।

भारत ने विकासशील देशों की वास्तविक आवश्यकताओं पर आधारित कई व्यावहारिक एवं मापनीय पहलों को आगे बढ़ाया। डिजिटल सार्वजनिक संरचना का मॉडल, स्वास्थ्य-सुरक्षा व्यवस्था, कौशल विकास, ग्रामीण एवं कृषि नवाचार, मत्स्य प्रबंधन, पारंपरिक ज्ञान का संरक्षण, आपदा प्रबंधन में सहयोग, और उपग्रह आँकड़ों का साझा उपयोग—ये सभी पहलें विकासशील देशों की आवश्यकताओं से सीधे जुड़ी हैं। विशेषकर “अफ्रीका कौशल वृद्धि योजना” जैसी पहलें लाखों युवाओं के लिए अवसरों का मार्ग खोलती हैं।

भारत ने वैश्विक सुरक्षा से जुड़े महत्त्वपूर्ण मुद्दों को भी प्रमुखता से उठाया, विशेषकर आतंकवाद और नशीली दवाओं के गठजोड़ को। यह विषय लंबे समय से वैश्विक विमर्श में अपेक्षित महत्व नहीं पाता रहा था। भारत ने इसके विरुद्ध कठोर और समन्वित कार्रवाई की आवश्यकता पर बल दिया। इसके साथ ही न्यायपूर्ण ऊर्जा परिवर्तन, जलवायु वित्त, सतत विकास, तकनीक की समान उपलब्धता और खाद्य-सुरक्षा जैसे विषयों पर भी भारत ने विकासशील देशों की सामूहिक आवाज़ को मजबूत किया।

हालाँकि भारत की भूमिका अत्यंत प्रभावशाली रही है, फिर भी इसकी कुछ सीमाएँ स्पष्ट रूप से सामने आती हैं। महाशक्तियों के बीच चल रहे तीव्र संघर्षों के बीच भारत सभी पक्षों को एकजुट नहीं कर सका। प्रमुख देशों की अनुपस्थिति को भारत रोक नहीं पाया, न ही यह सुनिश्चित कर सका कि सभी देश साझा घोषणा-पत्र में कठोर रुख अपनाएँ। आतंकवाद पर अपेक्षित कठोर निंदा का शामिल न हो पाना भारत के लिए निराशाजनक था। इसी प्रकार भारत की कई विकास सम्बन्धी पहलें सभी देशों की समान रुचि और समर्थन प्राप्त नहीं कर पाईं, क्योंकि प्रत्येक देश की प्राथमिकताएँ भिन्न होती हैं।

वैश्विक दक्षिण के भीतर भी कई बार मतभेद देखने को मिलते हैं, जिससे समग्र एजेंडा कमजोर पड़ता है। भारत की कूटनीति संतुलनकारी अवश्य है, परन्तु महाशक्तियों के कठोर और प्रतिस्पर्धी रुख के बीच इसकी प्रभाव सीमा सीमित हो जाती है।

फिर भी यह निर्विवाद है कि आज वैश्विक दक्षिण का ऐसा कोई और देश नहीं है जो भारत जैसी व्यापक, संतुलित, विश्वासयोग्य और दूरदर्शी भूमिका निभा सके। भारत ने जी-20 के मंच को नई ऊर्जा दी है, वैश्विक दक्षिण के हितों को उचित सम्मान दिलाया है, और वैश्विक शासन में समावेशिता की नई परिभाषा प्रस्तुत की है।

अंततः, जी-20 की भविष्य की सफलता उसके सदस्यों की सामूहिकता की भावना, परस्पर विश्वास, और साझा उत्तरदायित्व को पुनर्जीवित करने पर निर्भर करेगी। यदि समूह “उबंटू”—यानी साझा मानवता और साझा दायित्व—के सिद्धांत को पुनः अपनाता है, तो यह वैश्विक चुनौतियों से प्रभावी रूप से निपट सकता है। भारत ने इस दिशा में मजबूत नींव रखी है, और आने वाले समय में उसकी भूमिका और अधिक निर्णायक रूप से उभर सकती है।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार

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