पुतिन का दौरा, पश्चिमी दवाब के बावजूद भारत अपनी स्वायत्त विदेश नीति व साझेदारियों को आगे ले जाने के लिए तैयार

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पुतिन का यह दौरा उस समय हो रहा है जब रूस पर उसके यूक्रेन युद्ध के कारण पश्चिमी संकुचन (sanctions) व राजनीतिक असंतोष गहरा चुका है। पश्चिमी देश — विशेषकर यूएसए तथा कई यूरोपीय देश — रूस को अलग-थलग करने की कोशिश कर रहे थे, ताकि उसकी आर्थिक व सैन्य क्षमता सीमित हो सके। इस पृष्ठभूमि में, जब रूस और भारत के बीच पुराने सैन्य व ऊर्जा-आधारित साझेदारी के अलावा कई नए व्यावसायिक, व्यापारिक व कूटनीतिक समझौते तय हो रहे हैं, तो यह दौरा सिर्फ एक नियमित विदेश यात्रा नहीं बल्कि एक संकेत बनकर उभरा — कि पश्चिमी दवाब व प्रयासों के बावजूद भारत अपनी स्वायत्त विदेश नीति व साझेदारियों को आगे ले जाने के लिए तैयार है।

इस रूप में इस दौरे को कई पश्चिमी मीडिया व विश्लेषकों ने एक प्रकार की ‘चुनौती’ व ‘प्रतिरोध’ का प्रतीक माना है — जिसमें भारत ने पश्चिम विशेषकर अमेरिका द्वारा लगाए जा रहे दवाबों के बावजूद रूस के साथ संबंधों को जारी रखने व गहरा करने का फैसला किया है।

पश्चिमी मीडिया व अमेरिका-यूरोप की प्रतिक्रिया: मुख्य विषय एवं आलोचना एवं कई अंतरराष्ट्रीय मीडिया रिपोर्टों ने इस दौरे को इसलिए महत्व दिया कि यह दर्शाता है कि पश्चिम — विशेषकर अमेरिका और यूरोप — द्वारा रूस को अलग-थलग करने के प्रयास सुचारू रूप से सफल नहीं हो रहे।

    विश्लेषकों का कहना है कि भारत-रूस संबंधों में यह पुनर्कमज़ोरी, पश्चिम को साफ संदेश है कि रूस अभी भी उसके कुछ पुराने साझेदारों के साथ मजबूती से खड़ा है। रियलिस्टिक भू-राजनीतिक दृष्टिकोण से देखा जाए, तो यह पश्चिम की “पीछे मुड़ कर देखो” की दी गई चेतावनी है — कि उसने रूस को पूरी तरह अकेला नहीं छोड़ा है।

    1. पश्चिमी मीडिया व पॉलिटिकल वृत्तों ने यह सवाल उठाया है कि भारत यदि रूस से तेल, ईंधन, हथियार व रक्षा प्रौद्योगिकियाँ लेता रहा, तो क्या यह रूस द्वारा युद्ध जारी रखने में अप्रत्यक्ष रूप से मदद नहीं करेगा? विशेष रूप से, जब रूस-यूक्रेन युद्ध अभी जारी है, तो रूस की ऊर्जा आपूर्ति व हथियार निर्यात को पश्चिम ‘युद्ध अर्थव्यवस्था’ का हिस्सा मानता है।

    कुछ आलोचकों ने यह भी कहा है कि भारत-रूस रक्षा व ऊर्जा साझेदारी, यदि गहराई से चली, तो यह एक प्रकार की सामरिक साझेदारी करने जैसा हो जाएगा — जिससे भारत की तटस्थ या संतुलित विदेश नीति पर सवाल खड़े हो सकते हैं। यूरोपीय मीडिया में इस पहलू को विशेष चिंता के रूप में पेश किया गया है।

    1. पश्चिम की एक आलोचना यह है कि भले समझौतों में बहुसंख्यक क्षेत्रों (श्रम, उर्वरक, कृषि, defence, ऊर्जा आदि) पर बात हो रही हो, लेकिन वास्तविक रूप से भारत-रूस का व्यापार अभी भी रूस के पक्ष में भारी असंतुलित है। यानी ऊर्जा व हथियारों के बदले भारत से लौटने वाला लाभ सीमित व अनिश्चित है।

    इस असंतुलन को देखते हुए पश्चिमी विश्लेषक जोर दे रहे हैं कि यदि भारत इस ओर आगे बढ़ा, तो वह आर्थिक दृष्टि से अधिक निर्भर बन जाएगा, और उसकी विदेश नीति मज़बूत ‘स्वतंत्रता’ धीरे-धीरे सीमित होती जाएगी।

    1. “बहु-अक्षीय” विदेश नीति या “पक्ष-पात”? — राजनीतिक भरोसेमंदता पर सवाल

    कुछ यूरोपीय व अमेरिकी अखबारों व विश्लेषकों ने यह तर्क दिया है कि भारत का रूस के साथ यह पुनरुत्थान, उसकी “बहु-अक्षीय” (multi-alignment) विदेश नीति की प्रामाणिकता पर सवाल खड़ा कर सकता है। वे कहते हैं कि यदि भारत रूस के साथ सैन्य व ऊर्जा सहयोग को आगे बढ़ाता है, तो पश्चिम उसे भरोसेमंद रणनीतिक भागीदार नहीं देख पाएगा।

    कुछ विश्लेषकों का कहना है कि यह दौरा भारत के लिए दीर्घकालीन कूटनीतिक जोखिम लेकर आता है — खासकर जब उस पर पश्चिमी देशों के साथ व्यापार व रक्षा समझौते भी निर्भर हो। ऐसे में, संतुलन बनाए रखने की रणनीति जोखिम–प्रधान हो सकती है।

    1. पश्चिमी देशों में यह चिंता जताई जा रही है कि यदि भारत तथा रूस ऐसे रिश्ते मजबूत करते रहेंगे, तो युद्ध विराम या रूस-यूक्रेन संघर्ष को हल करने में अंतरराष्ट्रीय दबाव कमजोर होगा। विशेषकर उन यूरोपीय देशों के लिए जो शांति प्रक्रिया का समर्थन करते आए हैं। इस दृष्टिकोण से, भारत-रूस गठजोड़ को युद्ध-विरोधी अंतरराष्ट्रीय एकता का कमजोर संकेत माना जा रहा है।

    कुछ आलोचक यह भी कहते हैं कि भारत-रूस संबंधों में यह “वार्ता व समझौते” का नया दौर — यदि हथियारों व ऊर्जा व्यापार तक सीमित रहा — तो यह शांति की दिशा में नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक धुरी (axis) मजबूत करने जैसा हो सकता है।

    भारत के लिए: वह अपनी ऊर्जा आवश्यकता, रक्षा जरूरतों, आर्थिक व रणनीतिक हितों के लिए रूस पर भरोसा करना चाहता है; वहीं पश्चिम से उससे बढ़ते रिश्ते — व्यापार, टेक्नोलॉजी, बहुपक्षीय गठजोड़ — भी उसके लिए महत्वपूर्ण हैं। इस संतुलन को बनाए रखना आसान नहीं।

    दूसरी ओर, अगर वह रूस के साथ खुले तौर पर आगे बढ़ा, तो पश्चिमी दबाव व आलोचनाएँ — राजनीतिक, आर्थिक व कूटनीतिक — बढ़ेंगी।

    यह दुविधा केवल रणनीतिक नहीं; नैतिक व कूटनीतिक स्तर पर भी है: क्या युद्धरत रूस के साथ गहरा जुड़ाव पूरी दुनिया की शांति व समाधान-प्रयासों से समझौता नहीं है?

    पश्चिमी मीडिया व विश्लेषकों की यह चिंताएँ — आर्थिक निर्भरता, असंतुलन, भरोसे की कमी, शांति-प्रतिकूल संकेत — भारत को दीर्घकालीन रणनीति बनाते समय ध्यान देने लायक बनाती हैं।

    जैसा कि पश्चिमी मीडिया कह रही है, भारत-रूस का यह नया गठजोड़ एक प्रकार की रणनीतिक उत्तरजीविता की कोशिश है — जिसमें भारत अपनी ऊर्जा व रक्षा सुरक्षा चाहता है, और रूस आर्थिक अस्थिरता से बचने के लिए भारत-भारत जैसे भरोसेमंद साझेदार तलाश रहा है। पर यह गठजोड़ अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में भारत के विश्वास-स्तर और विकल्पों को प्रभावित कर सकता है।

    यदि रूस-यूक्रेन संकट जारी रहा और पश्चिम ने सख्त प्रतिबंध बनाए रखे — तो भारत के लिए रूस-आश्रित ऊर्जा, रक्षा एवं व्यापार समझौतों को टिकाए रखना चुनौतीपूर्ण होगा। पश्चिमी देश भारत-पुतीन साझेदारी को दबाव व प्रतिक्रियात्मक नीति के रूप में देख सकते हैं।

    भारत को अपनी विदेश नीति में स्पष्टता — स्वायत्तता और पारदर्शिता दोनों — बनाए रखनी होगी ताकि वह न सिर्फ रक्षा व ऊर्जा, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मानकों, शांति व कूटनीति के दृष्टिकोण से विश्वसनीय बना रहे।

    पुतिन का यह भारत दौरा और जो समझौते हुए हैं — वे सिर्फ द्विपक्षीय साझेदारी नहीं, बल्कि एक प्रकार की रणनीतिक पिच (pitch) हैं: रूस चाहता है कि वह पश्चिम के दबाव के बीभी अपने पुराने मित्र को स्थिर रखे; भारत चाहता है कि उसकी ऊर्जा, रक्षा, आर्थिक व भू-राजनीतिक आवश्यकताएँ पूरी हों। पश्चिमी मीडिया व पॉलिटिकल वृत्तों की प्रतिक्रिया — चाहे वह अमेरिका हो या यूरोप — इस प्रयास के प्रति संदेह और सावधानी दिखाती है।

    यह समय भारत के लिए बहुत संवेदनशील है: वह निर्णय ले रहा है कि उसकी विदेश नीति “स्वतंत्र + सामरिक” रहे या “गतिशील + संतुलित” बने। यह तय करना होगा कि भारत-रूस साझेदारी उसकी स्व-रक्षा, विकास व आत्मनिर्भरता को स्थायी रूप दे पाएगी या पश्चिमी देशों के साथ उसके रिश्तों और उसकी अंतरराष्ट्रीय विश्वसनीयता पर दीर्घकालीन असर डालेगी।

    (चैट जीपीटी)

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