“नेताओं को सब, कर्मचारियों को कब?”

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“जनता और कर्मचारियों की एक पेंशन ही जीवनभर का सहारा, पर नेताओं के लिए अनेक पेंशन और असीमित सुविधाएँ – यही है लोकतंत्र की असली विसंगति।”

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विधायक या सांसद एक दिन के लिए भी सदन में बैठ जाए तो उसकी पेंशन पक्की। वहीं एक सरकारी कर्मचारी अगर एक दिन कम सेवा पूरी करता है तो उसकी पेंशन ही कट सकती है। संविधान की यही विसंगति नेताओं को “सुपर क्लास” बना देती है। जनता टैक्स चुकाती है, सरकारी खज़ाना भरती है, और उसी पैसे से नेताओं की आलीशान रिटायरमेंट ज़िंदगी चलती है।

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-डॉ. सत्यवान सौरभ

स्वतंत्र पत्रकार, लेखक, कवि

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जनता सर्वोपरि मानी जाती है। संविधान में समानता, न्याय और समान अवसर की बात कही गई है। लेकिन जब बात नेताओं और आम जनता की सुविधाओं की आती है तो तस्वीर बिल्कुल उलट दिखती है। जिस देश में करोड़ों लोग बुढ़ापे की लाठी के तौर पर केवल एक मामूली सी पेंशन पर निर्भर हैं, वहां नेताओं के लिए पेंशन और सुविधाओं की भरमार है। स

वाल उठता है कि आखिर लोकतंत्र में यह असमानता क्यों?

बार-बार पेंशन, सुविधा पर सुविधा, यात्रा भत्ता, सुरक्षा, मेडिकल, स्टाफ़ और आवास—all free. दूसरी ओर, कर्मचारी चाहे 35–40 साल तक ईमानदारी से काम करे, रिटायरमेंट के बाद पेंशन का इंतज़ार करता है और अक्सर अदालतों व आंदोलन का सहारा लेना पड़ता है।

मान लीजिए एक आम कर्मचारी 35 साल नौकरी करता है। सेवा पूरी होने के बाद उसे मुश्किल से इतनी पेंशन मिलती है कि घर का राशन-पानी चल सके। महँगाई, दवाइयों और बच्चों की ज़िम्मेदारी के बीच वह पेंशन अपर्याप्त साबित होती है। अब ज़रा नेताओं का हाल देखिए—उपराष्ट्रपति की पेंशन ₹2.25 लाख मासिक, सांसद की पेंशन ₹27,500 मासिक और विधायक की पेंशन ₹42,000 मासिक। यानी एक ही व्यक्ति अगर अलग-अलग पदों पर रहा है तो उसे तीन-तीन पेंशन मिलेगी। और यह यहीं नहीं रुकती। उसे जीवनभर सरकारी गाड़ी, स्टाफ़, सुरक्षा, हवाई और रेल यात्रा पर छूट, मेडिकल का पूरा ख़र्च और न जाने क्या-क्या मुफ्त मिलता रहता है।

कर्मचारी वर्ग को देखिए—महँगाई राहत का हिसाब सालों तक लटकता है, पेंशन रिवीजन की माँग दशकों तक पूरी नहीं होती। दो-दो वेतन आयोग आ चुके हैं, फिर भी पेंशन सुधार की फ़ाइल धूल खा रही है।

सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि विधायक या सांसद एक दिन के लिए भी सदन में बैठ जाए तो उसकी पेंशन पक्की। वहीं एक सरकारी कर्मचारी अगर एक दिन कम सेवा पूरी करता है तो उसकी पेंशन ही कट सकती है। संविधान की यही विसंगति नेताओं को “सुपर क्लास” बना देती है। जनता टैक्स चुकाती है, सरकारी खज़ाना भरती है, और उसी पैसे से नेताओं की आलीशान रिटायरमेंट ज़िंदगी चलती है।

अगर हम नैतिकता की बात करें तो किसी भी संवैधानिक पद या जनप्रतिनिधि को एक ही पेंशन मिलनी चाहिए। पूर्व उपराष्ट्रपति, पूर्व प्रधानमंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री या पूर्व सांसद—सबको एक पेंशन। लेकिन आज हालत यह है कि वही नेता कई पेंशन ले रहा है और आम जनता एक पेंशन के लिए तरस रही है। नैतिक दृष्टि से देखें तो जब आम आदमी को एक ही पेंशन पर जीवन बिताना पड़ता है तो नेताओं को क्यों विशेषाधिकार मिले? यह सीधी-सीधी असमानता है और लोकतंत्र की आत्मा के खिलाफ है।

वास्तविकता यह है कि यह मुद्दा केवल पेंशन का नहीं, बल्कि राजनीति की लूट का है। नेता जानते हैं कि जनता स्मृति-विलोप की शिकार है। जनता को आज गुस्सा आता है लेकिन कल भूल जाती है। इसी भूलने की आदत पर भरोसा करके नेता कभी अपने भत्ते बढ़ाते हैं, कभी सुविधाएँ जोड़ते हैं और कभी पेंशन के नए नियम बना लेते हैं। दूसरी तरफ़, कर्मचारियों और पेंशनरों को हर सुविधा के लिए संघर्ष करना पड़ता है। धरना, प्रदर्शन, ज्ञापन और याचिका—फिर भी सुनवाई नहीं होती।

लोकतंत्र में नेता जनता के सेवक माने जाते हैं। लेकिन आज की सच्चाई यह है कि नेता सेवक कम और शासक ज़्यादा बन गए हैं। उन्हें अपने लिए हर सुविधा चाहिए, चाहे जनता पर कितना भी बोझ क्यों न पड़े। जनता टैक्स देती है इस उम्मीद में कि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और आधारभूत ढाँचे में सुधार होगा। लेकिन टैक्स का बड़ा हिस्सा नेताओं की पेंशन और सुविधाओं पर खर्च हो रहा है।

इस स्थिति को बदलने के लिए ज़रूरी है कि एक पद, एक पेंशन का नियम लागू हो। जिस तरह सैनिकों और कर्मचारियों पर यह नियम लागू है, उसी तरह नेताओं पर भी होना चाहिए। किसी भी पदाधिकारी की पेंशन एक निश्चित सीमा से अधिक न हो। रिटायरमेंट के बाद हवाई यात्रा, मेडिकल, गाड़ी और स्टाफ़ जैसी मुफ्त सुविधाएँ बंद की जाएँ। जनप्रतिनिधियों की पेंशन की समीक्षा संसद और विधानसभाओं के बाहर एक स्वतंत्र आयोग से हो। सबसे अहम बात यह कि जनता को जागरूक किया जाए ताकि यह मुद्दा हर चुनाव में उठे और राजनीतिक दलों को इसे अपने घोषणा पत्र में शामिल करना पड़े।

भारत में पेंशन का यह दोहरा मानदंड लोकतंत्र की आत्मा को आहत करता है। एक ओर जनता और कर्मचारी वर्ग अपनी बुढ़ापे की सुरक्षा के लिए संघर्षरत हैं, वहीं नेता टैक्स के पैसों पर ऐश कर रहे हैं। अब वक्त आ गया है कि देश में “एक पद, एक पेंशन” का नियम बने। नेता भी वही पेंशन लें जो एक आम नागरिक लेता है। लोकतंत्र तभी मज़बूत होगा जब जनता और नेताओं के बीच बराबरी का भाव होगा, न कि विशेषाधिकार का फर्क।

आज देश के युवाओं, कर्मचारियों और पेंशनरों को एक स्वर में यह सवाल पूछना चाहिए—“जब हमें एक पेंशन काफ़ी है तो नेताओं को कई पेंशन क्यों?”

भारत में नेताओं को अनेक पेंशन और असीमित सुविधाएँ प्राप्त हैं, चाहे वे एक दिन ही सदन में बैठे हों। वहीं करोड़ों कर्मचारी दशकों तक सेवा करने के बाद भी पेंशन के लिए तरसते हैं। दो-दो वेतन आयोग आने के बावजूद वर्षों से पेंशन संशोधन लंबित है। आम नागरिक एक पेंशन पर जीवन यापन करता है, जबकि नेता तीन-तीन पेंशन और मुफ्त सुविधाओं का उपभोग करते हैं। लोकतंत्र की आत्मा यही कहती है कि सबके लिए नियम समान हों। अब समय आ गया है कि “एक पद, एक पेंशन” का सिद्धांत नेताओं पर भी लागू हो।

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