जब इलाज भी बाज़ार बन जाए: भारत में स्वास्थ्य अधिकार की लड़ाई

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भारत में बढ़ती निजीकरण प्रवृत्ति और सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय की कमी: क्या ‘स्वास्थ्य का अधिकार’ सच में न्यायालयों में लागू किया जा सकता है? जब उपचार एक सेवा नहीं, बल्कि बाज़ार की वस्तु बन जाए, तब अधिकारों की भाषा कमजोर पड़ जाती है। 

– डॉ सत्यवान सौरभ

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की दिशा और ढांचा तेजी से बदल रहा है। चिकित्सा उपचार, जो कभी सार्वजनिक दायित्व और कल्याणकारी राज्य की बुनियादी जिम्मेदारी माना जाता था, अब अधिकाधिक निजी क्षेत्र के हाथों में जाता दिख रहा है। एक ओर, सरकारी स्वास्थ्य ढांचा सीमित बजट, कम मानव संसाधन और कमजोर बुनियादी ढांचे से जूझता रहता है; दूसरी ओर, निजी अस्पतालों और कॉर्पोरेट मेडिकल चेन की पहुंच और प्रभाव लगातार बढ़ रहा है। इन दोनों के बीच आम नागरिक, विशेषकर गरीब, ग्रामीण, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और हाशिए पर रहने वाले समुदाय, स्वास्थ्य सेवाओं की बढ़ती लागत और असमान पहुंच के बोझ तले दबते जा रहे हैं।

इसी बदलते परिदृश्य में, भारत में यह बहस और तेज़ हो गई है कि क्या स्वास्थ्य को एक न्यायसंगत और लागू करने योग्य मौलिक अधिकार बनाया जाए। क्या न्यायपालिका इस अधिकार को enforce करा सकेगी, जब व्यवस्था ही बुनियादी रूप से असमान, महंगी और निजीकरण-प्रधान हो चुकी हो? यह प्रश्न केवल कानूनी नहीं है; यह गहराई से राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक है। क्योंकि अधिकार तभी सार्थक होता है जब राज्य उसे प्रदान करने की सामर्थ्य और इच्छा दोनों रखता हो।

भारत में स्वास्थ्य का अधिकार अप्रत्यक्ष रूप से अनुच्छेद 21 के अंतर्गत न्यायालयों द्वारा मान्यता प्राप्त है, पर इसे अभी तक स्पष्ट रूप से एक स्वतंत्र मौलिक अधिकार नहीं बनाया गया है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि राज्य अभी तक ऐसी बाध्यकारी जिम्मेदारी स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है जिसमें हर नागरिक को समान, सुलभ और गुणवत्तापूर्ण उपचार मिल सके। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि जब तक इसे एक इंफोर्सेअब्ले राइट नहीं बनाया जाएगा, तब तक असमानता, शोषण और मनमानी शुल्क वसूली जैसे मुद्दे निरंतर बढ़ते रहेंगे।

भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि देश विश्व की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है, परंतु स्वास्थ्य पर होने वाला सार्वजनिक व्यय आज भी दुनिया के सबसे कम आंकड़ों में शामिल है। जब राज्य स्वास्थ्य सेवाओं के लिए पर्याप्त बजट नहीं देता, तब स्वाभाविक रूप से रिक्त स्थान निजी क्षेत्र भरता है—और यही से उत्पन्न होती है असमानता, अनियंत्रित शुल्क, अनावश्यक चिकित्सा प्रक्रियाएँ, और आम व्यक्ति की आर्थिक तबाही।

निजीकरण के विस्तार का दूसरा पहलू यह है कि यह केवल स्वास्थ्य सुविधाओं के संचालन तक सीमित नहीं है; यह स्वास्थ्य नीति, दवाओं की कीमतों, बीमा योजनाओं और सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) की दिशा को भी प्रभावित कर रहा है। जब स्वास्थ्य एक लाभ आधारित उद्योग बन जाता है, तब उपचार की प्रकृति, लागत, पहुंच और गुणवत्ता सभी बाज़ार के नियमों के अधीन हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में स्वास्थ्य का अधिकार कागज़ पर तो हो सकता है, पर धरातल पर वह व्यापक रूप से लागू नहीं हो पाता।

एक और गंभीर समस्या है क्लीनिकल एस्टेब्लिशमेंट एक्ट, 2010 का कमजोर क्रियान्वयन। जिन राज्यों में यह लागू भी है, वहाँ भी नियमन और पारदर्शिता बेहद कमजोर हैं। मरीज़ों से मनमाना शुल्क, अनावश्यक जाँचों की सलाह, महंगे पैकेज, और अत्यधिक दरों पर सर्जरी जैसे मुद्दे आम बात हो चुके हैं। यह स्थिति तब और जटिल हो जाती है जब मरीज़ की ओर से शिकायत या न्याय पाने की व्यवस्था बेहद कमजोर और अप्रभावी हो।

इसके साथ ही, भारत में आउट-ऑफ-पॉकेट एक्सपेंडिचर अभी भी कुल स्वास्थ्य व्यय का 40% के आसपास है। यानी मरीज़ों को अपनी जेब से भारी राशि खर्च करनी पड़ती है। सरकारी बीमा योजनाओं—जैसे आयुष्मान—का उद्देश्य भले ही आर्थिक सुरक्षा देना हो, पर इनके दायरे में आने वाली प्रक्रियाएँ सीमित हैं, और निजी अस्पतालों द्वारा इनका उपयोग कई बार मनमाने ढंग से किया जाता है। बीमा आधारित मॉडल ने स्वास्थ्य खर्च की जड़ समस्या को हल नहीं किया है; बल्कि कई बार यह निजी क्षेत्र के लिए नया ग्राहक-स्रोत बन गया है।

असमानता का एक और स्तर सामाजिक बहिष्कार है। दलित, आदिवासी, मुस्लिम, महिलाएँ, ट्रांसजेंडर व्यक्ति, दिव्यांग नागरिक—इनके लिए स्वास्थ्य सेवाएँ पाने की राह और भी कठिन है। कई बार सरकारी अस्पतालों में संवेदनशीलता की कमी, भेदभाव, संचार अंतर, या संरचनात्मक बाधाएँ उन्हें गुणवत्तापूर्ण सेवा से वंचित रखती हैं। ऐसे में स्वास्थ्य का अधिकार केवल क़ानूनी भाषा भर नहीं रहना चाहिए; इसे सामाजिक न्याय की दृष्टि से समझना होगा।

स्वास्थ्य अधिकार को न्यायिक रूप से लागू करना तभी संभव है जब स्वास्थ्य प्रणाली मजबूत हो। इसके लिए सबसे पहले आवश्यक है कि सरकार सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय को बढ़ाए। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार स्वास्थ्य पर GDP का कम से कम 5% खर्च होना चाहिए; जबकि भारत अभी 2% से भी कम खर्च करता है। प्राथमिक स्वास्थ्य ढांचे को मजबूत किए बिना, विशेषज्ञ डॉक्टरों, नर्सों और सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ाए बिना, दवाओं और जांचों को सस्ता किए बिना, और स्वास्थ्य संस्थानों में जवाबदेही मजबूत किए बिना—किसी भी अधिकार का लागू होना केवल सैद्धांतिक रहेगा।

दवाओं की ऊँची कीमतें और दवा कंपनियों का प्रभाव भारत की स्वास्थ्य असमानता का एक अन्य कारण है। लगभग 80% दवाएँ अभी भी मूल्य नियंत्रण से बाहर हैं। जब तक आवश्यक दवाओं पर सख्त मूल्य नियंत्रण नहीं होगा तथा जनऔषधि प्रणाली का विस्तार नहीं होगा, गरीब और मध्यमवर्गीय परिवार महंगी दवाओं के भार तले दबते रहेंगे।

साथ ही, स्वास्थ्य कर्मियों की स्थितियाँ भी इस संकट का एक महत्वपूर्ण पक्ष हैं। अस्थायी नियुक्तियाँ, कम वेतन, कार्यभार का दबाव और असुरक्षित कार्य वातावरण—ये सभी कारक चिकित्सा सेवा की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं। मजबूत सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा तभी संभव है जब सरकार मानव संसाधनों में उचित निवेश करे।

इन सभी परिस्थितियों में, स्वास्थ्य का अधिकार तभी वास्तविक रूप से लागू हो सकता है, जब शासन संरचना अधिक पारदर्शी, विकेंद्रीकृत और जवाबदेह बने। समुदाय आधारित निगरानी तंत्र, जिला स्वास्थ्य समितियों की मजबूती, डिजिटल पारदर्शिता, और शिकायत निवारण के प्रभावी तंत्र यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि नागरिक अपने अधिकारों का दावा कर सकें और शासन उन्हें जवाब देने के लिए बाध्य रहे।

नीतिगत परिवर्तन के साथ-साथ राजनीतिक इच्छाशक्ति भी आवश्यक है। स्वास्थ्य प्रणाली में सुधार लंबी अवधि का कार्य है; परंतु इसकी शुरुआत तत्काल बजट बढ़ाने, निजी अस्पतालों को सख्त नियामक दायरे में लाने, दवाओं की कीमतें नियंत्रित करने, तथा प्राथमिक स्वास्थ्य ढाँचे को मजबूत करने से हो सकती है। यह न केवल स्वास्थ्य क्षेत्र को अधिक न्यायसंगत बनाएगा बल्कि भविष्य के लिए स्वस्थ और उत्पादक समाज की नींव भी रखेगा।

अंततः, स्वास्थ्य को न्यायिक रूप से लागू करने योग्य बनाना भारत के संवैधानिक दर्शन—विशेषकर सामाजिक न्याय—की पुनर्पुष्टि होगा। लेकिन यह तभी सम्भव है जब सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था इतनी मजबूत हो कि वह इस अधिकार को प्रत्येक नागरिक तक पहुँचाने में सक्षम हो। यदि राज्य की प्राथमिकताएँ स्वास्थ्य सुरक्षा की बजाय बाज़ार आधारित मॉडल को बढ़ावा देने में लगी रहेंगी, तो ‘अधिकार’ शब्द अपनी प्रासंगिकता खो देगा और नागरिकों की पीड़ा बढ़ती जाएगी।

भारत को आज यह स्वीकार करना चाहिए कि स्वास्थ्य केवल आर्थिक विकास का फल नहीं, बल्कि मानव गरिमा की बुनियाद है। और जब तक इस बुनियाद को समान रूप से मजबूत नहीं किया जाएगा, तब तक स्वास्थ्य का अधिकार कागज़ पर तो रहेगा, पर जनता के जीवन में नहीं।

– डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट

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