
आलोक पुराणिक
गालिब शायरी के वह सूरज हैं, जिनके करीब के बड़े सितारों की चमक भी मद्धम दिखती है। जौक शायरी के ऐसे सितारे हैं, जिनकी चमक मद्धम दिखती है गालिब की रोशनी के सामने। पर जौक जौक हैं, उर्दू शायरी में अपना मुकाम रखते हैं, बल्कि जौक का मुकाम आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के दरबार में बहुत ऊंचा था। जफर जौक को अपना उस्ताद मानते थे। गालिब को कहीं ना कहीं यही बात चुभती थी। गालिब फब्ती कसते थे जौक पर कुछ इस तरह से-
हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगरना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है
चोट सीधी जौक पर थी, शाह का दरबारी हो गया है जौक, तो ही इज्जत है, वरना जौक को कौन पूछता है, यह कहना चाहते हैं गालिब। पर वक्त सबको खाक करता है दोनों शायर दिल्ली में खाक हुए। दोनों की शायरी वक्त के पार आकर हम तक पहुंचती है। कुछ शेर देखिये जौक के-
तुम भूल कर भी याद नहीं करते हो कभी
हम तो तुम्हारी याद में सब कुछ भुला चुके
++++++++
ऐ ‘ज़ौक़’ तकल्लुफ़ में है तकलीफ़ सरासर
आराम में है वो जो तकल्लुफ़ नहीं करता
+++++++++++
हम रोने पे आ जाएँ तो दरिया ही बहा दें
शबनम की तरह से हमें रोना नहीं आता
+++++++++=
कुछ और शेर देखिये-
मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे
न दवा याद रहे और न दुआ याद रहे
तुम जिसे याद करो फिर उसे क्या याद रहे
न ख़ुदाई की हो परवा न ख़ुदा याद रहे


