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कुमार साहनी (1940-2024) भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक ऐसे महत्वपूर्ण फिल्म निर्माता के रूप में दर्ज हैं, जिन्होंने अपनी कलात्मक और बौद्धिक दृष्टि से फिल्मों को केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि चिंतन और अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। वे समानांतर सिनेमा (Parallel Cinema) या कला सिनेमा (Art Cinema) आंदोलन की प्रमुख हस्तियों में से एक थे, जिन्होंने मुख्यधारा की व्यावसायिक फिल्मों से हटकर, गहन, काव्यात्मक, और अक्सर गूढ़ विषयों पर फिल्में बनाईं। साहनी को भारतीय सिनेमा का “विद्रोही कवि” या “दार्शनिक” कहा जाता है, जिनकी फिल्मों ने दशकों तक दर्शकों और आलोचकों दोनों को चुनौती दी और प्रेरित किया।
प्रारंभिक जीवन और वैचारिक आधार
कुमार साहनी का जन्म 1940 में अविभाजित भारत के सिंध प्रांत (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उन्होंने फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (FTII), पुणे से फिल्म निर्देशन में शिक्षा प्राप्त की। FTII में, वह प्रख्यात फिल्म निर्माता ऋत्विक घटक के छात्र रहे, जिनकी गहरी वैचारिक समझ और कलात्मक स्वतंत्रता का प्रभाव साहनी के शुरुआती काम पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। साहनी ने केवल निर्देशन नहीं सीखा, बल्कि मार्क्सवादी विचारधारा, भारतीय शास्त्रीय संगीत, कला इतिहास और साहित्य का गहन अध्ययन किया, जिसने उनके सिनेमाई दर्शन की नींव रखी।
स्नातक होने के बाद, साहनी को 1960 के दशक के अंत में फ्रांस जाने का अवसर मिला, जहाँ उन्होंने महान फ्रांसीसी निर्देशक रॉबर्ट ब्रेसों के साथ काम किया। ब्रेसों की Minimalism (अतिसूक्ष्मवाद) और अभिनेताओं के उपयोग की विशिष्ट शैली ने साहनी के सिनेमा को और अधिक परिष्कृत किया। साहनी की कलात्मक दृष्टि ऋत्विक घटक के सामाजिक-राजनीतिक यथार्थवाद और रॉबर्ट ब्रेसों के औपचारिक अनुशासन का एक अनूठा संगम थी।
सिनेमाई शैली: कविता, प्रतीक और दर्शन
कुमार साहनी की फिल्में उनकी अत्यंत व्यक्तिगत और काव्यात्मक शैली के लिए जानी जाती हैं। उनकी फिल्में कथावाचन के पारंपरिक रैखिक तरीके का पालन नहीं करतीं; इसके बजाय, वे प्रतीकों, इमेजरी, और एक विशिष्ट लय पर निर्भर करती हैं। उनकी फिल्मों में अक्सर धीमी गति, लंबा टेक (long takes), और एक ध्यानपूर्ण चुप्पी होती है जो दर्शकों को फिल्म के भीतर के दर्शन को समझने के लिए मजबूर करती है।
साहनी ने भारतीय संस्कृति, इतिहास, मिथकों और लोककथाओं से प्रेरणा ली, लेकिन उन्हें एक आधुनिक और आलोचनात्मक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया। उनकी फिल्में सत्ता संरचनाओं, सामाजिक-आर्थिक विषमताओं, और व्यक्ति की आंतरिक दुविधाओं पर सवाल उठाती हैं। उनकी शैली को अक्सर “विचारों का सिनेमा” कहा जाता है, जहाँ चरित्र और कथानक से अधिक महत्वपूर्ण वह विचार या अवधारणा होती है जिसे वह व्यक्त करना चाहते हैं।
प्रमुख फिल्में और योगदान
साहनी के करियर में फिल्मों की संख्या भले ही कम हो, लेकिन उनका महत्व बहुत अधिक है।
’माया दर्पण’ (1972): यह साहनी की पहली फीचर फिल्म थी और इसे भारतीय सिनेमा की सबसे महत्वपूर्ण शुरुआती कला फिल्मों में से एक माना जाता है। यह एक सामंती पृष्ठभूमि की महिला की निराशा और स्वतंत्रता की लालसा को एक स्तंभित, प्रतीकवादी शैली में दर्शाती है। इस फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ हिंदी फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता।
’तरंग’ (1984): यह फिल्म साहनी के मार्क्सवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करती है। यह पूंजीवाद और श्रमिक वर्ग के शोषण पर केंद्रित है, जिसे एक जटिल और परतदार तरीके से फिल्माया गया है।
’ख्याल गाथा’ (1989): साहनी की यह कृति भारतीय शास्त्रीय संगीत (विशेषकर ख्याल गायकी) और उसके इतिहास पर एक अर्ध-वृत्तचित्र, अर्ध-काल्पनिक फिल्म है। यह भारतीय संस्कृति के सौंदर्यशास्त्र और उसकी निरंतरता पर गहन चिंतन प्रस्तुत करती है।
’कस्बा’ (1991): यह फिल्म चेखव की कहानी पर आधारित है और एक छोटे शहर की नैतिकता के पतन को दिखाती है, जिसमें साहनी की विशेषता वाली सूक्ष्मता और सामाजिक आलोचना निहित है।
’बवंडर’ (1996): यह उनकी अंतिम फीचर फिल्म थी, जो राजस्थान की एक महिला की सच्ची कहानी पर आधारित थी, जिसने सामंती व्यवस्था और यौन हिंसा के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
विरासत और प्रभाव
कुमार साहनी का काम भारतीय सिनेमा के छात्रों, गंभीर फिल्म प्रेमियों और निर्देशकों की पीढ़ियों के लिए एक पाठ्यपुस्तक जैसा है। वे उन निर्देशकों में से थे जिन्होंने सौंदर्यशास्त्र और राजनीति को एक साथ लाने की हिम्मत की। उनकी फिल्मों को समझना हमेशा आसान नहीं रहा, लेकिन उनकी कलात्मक ईमानदारी और समझौता न करने वाले दृष्टिकोण ने उन्हें एक पंथ का दर्जा दिया।
साहनी ने केवल फिल्में नहीं बनाईं, बल्कि उन्होंने भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र पर महत्वपूर्ण लेख भी लिखे। उन्होंने हमेशा फिल्मों को एक व्यापक सांस्कृतिक संदर्भ में देखा, जहाँ सिनेमा अन्य कला रूपों—संगीत, नृत्य, चित्रकला और साहित्य—से संवाद करता है।
कुमार साहनी का निधन 2024 में हुआ, लेकिन उनका काम भारतीय सिनेमा को लगातार याद दिलाता रहेगा कि सिनेमा केवल एक उद्योग नहीं, बल्कि एक कला, एक दर्शन, और समाज को बदलने की शक्ति रखने वाला माध्यम भी है। वे सही मायने में भारतीय कला सिनेमा के एक स्तंभ थे।


