
प्रकाशवीर शास्त्री भारतीय राजनीति, धर्म और समाज-सुधार की उन दुर्लभ विभूतियों में से थे जिन्होंने अपने व्यक्तित्व, विद्वता और तेजस्वी वाणी के बल पर न केवल आर्य समाज को नई दिशा दी, बल्कि भारतीय संसद में भी भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवाद की सशक्त आवाज बनकर उभरे। वे एक ऐसे नेता थे जिनका संपूर्ण जीवन वेद-मार्ग, राष्ट्र-सेवा और सामाजिक जागरण के लिए समर्पित रहा। विद्वान, संत, विचारक और कर्मयोगी — इन सभी विशेषणों को वे सही अर्थों में सार्थक करते थे।
प्रकाशवीर शास्त्री का जन्म 30 दिसंबर 1924 को उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के मवाना क्षेत्र के टिटोली गांव में हुआ। उनका मूल नाम प्रकाश चंद्र था। बचपन से ही उनमें अध्यात्म, अध्ययन और वाक्चातुर्य की अद्भुत प्रवृत्ति दिखाई देती थी। घर का वातावरण धार्मिक था और परिवार का झुकाव वैदिक परंपरा की ओर था। उन्हें संस्कृत और वेदों का अध्ययन कराने हेतु गुरुकुल भेजा गया, जहाँ उनकी प्रतिभा तेज़ी से निखरती चली गई। बाद में उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय और गुरुकुल कांगड़ी से उच्च शिक्षा प्राप्त की और संस्कृत साहित्य में “शास्त्री” की उपाधि के साथ वे एक सिद्धहस्त विद्वान के रूप में सामने आए।
आर्य समाज की सुधारवादी, तार्किक और वैदिक विचारधारा ने प्रकाशवीर शास्त्री को गहराई से प्रभावित किया। वे केवल अनुयायी नहीं रहे, बल्कि संगठन के अग्रणी चिंतक और प्रवक्ता बने।
उनकी प्रवचन शैली अत्यंत ओजस्वी थी। वेद, उपनिषद, संस्कृत साहित्य और तर्क—इन सभी विषयों पर उनकी पकड़ इतनी मजबूत थी कि वे पूरे देश में आर्य समाज के सबसे प्रभावशाली वक्ताओं में गिने जाने लगे।
आर्य समाज के मंचों से उन्होंने—अस्पृश्यता के उन्मूलन,समानता, शिक्षा के प्रसार, नशाबंदी,स्वदेशी,और वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना जैसे मुद्दों पर प्रभावी अभियान चलाए। उनकी वाणी में सत्य और तर्क की ताकत थी, इसलिए वे आम लोगों से लेकर विद्वानों तक सब पर गहरा प्रभाव डालते थे।
सामाजिक सुधारों के योद्धा
प्रकाशवीर शास्त्री ने अपना अधिकांश जीवन समाज में व्याप्त कुरीतियों को चुनौती देने में लगाया। उन्होंने जाति-विभेद, अंधविश्वास, बाल-विवाह, पाखंड और वैदिक मार्ग से हटकर चली आ रही विकृतियों के खिलाफ लगातार आवाज उठाई।
उनका मानना था कि भारत की असली शक्ति उसकी संस्कृति है, और यह शक्ति तभी प्रकट होगी जब समाज शिक्षित, संगठित और नैतिक मूल्यों से संपन्न बनेगा।
वे युवाओं को वैदिक ज्ञान, वैज्ञानिक सोच और राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा देने के लिए सदैव तत्पर रहते थे।
राजनीतिक जीवन का आरंभ
उनकी लोकप्रियता, विद्वत्ता और समाज में प्रभाव के कारण उन्हें राजनीति में आने का निमंत्रण मिला, परंतु वे सत्ता से ज्यादा सेवा को महत्व देते थे। फिर भी, जब महसूस हुआ कि संसद देश की निर्णायक संस्था है और वहां भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवादी विचारधारा की सशक्त आवाज की आवश्यकता है, तब उन्होंने लोकसभा चुनाव लड़ा।वे 1967 में तीसरी लोकसभा के लिए चुने गए। शास्त्री जी आर्य समाज, वेद-धर्म और राष्ट्रीय हितों से जुड़े मुद्दों पर संसद में अत्यंत तार्किक, प्रभावी और निर्भीक ढंग से अपनी बात रखते थे।उनके भाषण न सिर्फ तथ्यपूर्ण होते थे, बल्कि उनमें वैदिक संस्कृति का ओज भी होता था। यही कारण है कि शत्रु-दल के नेता भी उनका सम्मान करते थे।
प्रकाशवीर शास्त्री ने संसद में—धर्मांतरण रोकने, कश्मीर नीति, शिक्षा सुधार, भारतीय भाषाओं के संवर्धन,गौ-रक्षा,और राष्ट्रीय चरित्र निर्माण जैसे मुद्दों पर अपनी प्रभावी आवाज उठाई।
वे हिंदी के प्रबल समर्थक थे। उनका मत था कि भारत की पहचान उसकी मातृभाषा से है और शासन-प्रशासन में भारतीय भाषाओं का उपयोग बढ़ाना आवश्यक है। संसद में कई बार उन्होंने संस्कृत और हिंदी के पक्ष में ऐतिहासिक भाषण दिए, जिन्हें आज भी विद्वान लोग उदाहरण के रूप में उद्धृत करते हैं।
वेद-धर्म और भारतीयता के प्रचारक
शास्त्री जी ने देश के कोने-कोने में जाकर वैदिक धर्म और संस्कृत साहित्य के पुनर्जागरण का अभियान चलाया। वे कहते थे—
“भारत की आत्मा वेदों में है; यदि हम वेदों से दूर हो गए तो हमारी संस्कृति खो जाएगी।”उनकी प्रवचन शैली लोगों के मन में वैदिक आस्था का संचार करती थी। वे logic-based spirituality के पक्षधर थे—जहां धर्म अंधविश्वास नहीं, बल्कि ज्ञान और अनुशासन का मार्ग है।
लेखन और विचारधारा
प्रकाशवीर शास्त्री केवल वक्ता ही नहीं, उच्चकोटि के लेखक भी थे।
उनकी कई पुस्तकें, निबंध और भाषण आज भी आर्य समाज और वैदिक साहित्य के महत्वपूर्ण ग्रंथों में गिनी जाती हैं।
उनका लेखन—प्रखर तर्क,सरल भाषा, और गहरी राष्ट्रीय चेतना से भरा हुआ होता था।
असमय निधन पर शोक
1977 में अचानक उनका निधन हो गया। वे मात्र 52 वर्ष के थे। इतने कम जीवन में उन्होंने जितना काम किया, वह किसी बड़े आंदोलनकारी या आध्यात्मिक नेता के लिए भी प्रेरणा है। उनके जाने से भारतीय राजनीति, आर्य समाज और धर्म-सुधार आंदोलनों को अपूरणीय क्षति पहुँची।
प्रकाशवीर शास्त्री एक ऐसे व्यक्ति थे जिनके व्यक्तित्व में धर्म, राष्ट्र, विद्या और सेवा चारों एक साथ प्रवाहित होती थीं।
वे आर्य समाज के अग्रणी नेता, तेजस्वी वक्ता, विद्वान संस्कृताचार्य, सामाजिक सुधारक और सशक्त सांसद थे।आज भी भारत की सांस्कृतिक चेतना, राष्ट्रवाद और वैदिक परंपराओं की चर्चा जब भी होती है, प्रकाशवीर शास्त्री का नाम सम्मानपूर्वक याद किया जाता है। उनका जीवन हमें यह प्रेरणा देता है कि स्पष्ट विचार, उच्च चरित्र और समर्पण से कोई भी व्यक्ति समाज और राष्ट्र के लिए महान कार्य कर सकता है। वे सचमुच भारत के तेजस्वी दीप थे, जिनकी ज्योति आज भी वैदिक सत्य और राष्ट्रभक्ति का प्रकाश फैलाती है।


