पद्मिनी कोल्हापुरी,आज जिनका जन्मदिन है

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पद्मिनी कोल्हापुरी का जन्म 1 नवंबर 1965 को एक मराठी परिवार में हुआ था। वे एक भारतीय अभिनेत्री और गायिका हैं, जो मुख्यतः हिंदी और मराठी फिल्मों में काम करती हैं। कोल्हापुरी को 80 के दशक की अग्रणी अभिनेत्रियों में से एक माना जाता है। अपने चार दशक से ज़्यादा के करियर में, उन्होंने 75 से ज़्यादा फिल्मों में काम किया है और तीन फिल्मफेयर पुरस्कारों सहित कई पुरस्कार प्राप्त किए हैं।

वे पेशेवर संगीतकार पंढरीनाथ कोल्हापुरी की पत्नी निरुपमा कोल्हापुरी की तीन बेटियों में दूसरे नंबर पर हैं। उनकी बड़ी बहन पूर्व अभिनेत्री शिवांगी कोल्हापुरी हैं, जो अभिनेता शक्ति कपूर की पत्नी और अभिनेत्री श्रद्धा कपूर और अभिनेता सिद्धांत कपूर की माँ हैं । उनकी छोटी बहन, तेजस्विनी कोल्हापुरी भी एक अभिनेत्री हैं।

उन्होंने 1972 में सात साल की उम्र में अपने अभिनय करियर की शुरुआत की, और उनकी शुरुआती फ़िल्मों में ज़िंदगी (1976) और ड्रीम गर्ल (1977) शामिल हैं। उन्हें फ़िल्म सत्यम शिवम सुंदरम (1978) से सफलता मिली, जिसमें उन्होंने युवा रूपा की भूमिका निभाई।

15 साल की उम्र में, कोल्हापुरी ने रिवेंज ड्रामा इंसाफ का तराजू (1980) में अपने प्रदर्शन के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता , और 17 साल की उम्र में, संगीतमय रोमांटिक ड्रामा प्रेम रोग (1982) के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता , इस प्रकार संबंधित श्रेणियों में पुरस्कार जीतने वाली दूसरी सबसे कम उम्र की अभिनेत्री बन गईं। उन्हें सौतन (1983) में उनकी भूमिका के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के लिए भी नामांकित किया गया था और उन्हें प्यार झुकता नहीं (1985 ) के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का नामांकन भी मिला था। कोल्हापुरी ने हिंदी सिनेमा में खुद को एक अग्रणी महिला के रूप में स्थापित किया, जिसमें आहिस्ता आहिस्ता (1981), विधाता ( 1982 ) , वो सात दिन ( 1983 ), दो दिलों की दास्तान ( 1985 ), उन्होंने चिमनी पाखर (2000), मंथन: एक अमृत प्याला (2005) और प्रवास (2020) जैसी मराठी फिल्मों में भी काम किया है ।

फ़िल्म ऐसा प्यार कहाँ (1986) में काम करते हुए, कोल्हापुरे की मुलाक़ात प्रदीप शर्मा उर्फ़ टूटू शर्मा से हुई, जो फ़िल्म के निर्माता थे।1986 में उन्होंने शादी कर ली। उनका एक बेटा है जिसका नाम प्रियांक शर्मा है, जिसका जन्म फरवरी 1990 में हुआ था। प्रियांक ने फ़िल्म निर्माता राजकुमार संतोषी को फ़िल्म फटा पोस्टर निकला हीरो में सहायक थे और सब कुशल मंगल (2020) में एक अभिनेता के रूप में काम किया है।

2022 में, उन्हें आउटलुक इंडिया की “75 सर्वश्रेष्ठ बॉलीवुड अभिनेत्रियों” की सूची में रखा गया था। उनके सह-अभिनेता अनिल कपूर ने अपने करियर का श्रेय उन्हें दिया और कहा, “यह इसलिए है क्योंकि वह वो सात दिन करने के लिए सहमत हुईं , इसलिए मैं आज जहाँ हूँ, वहाँ हूँ।”

1981 में, कोल्हापुरी ने राजा चार्ल्स तृतीय के गाल पर चुम्बन दिया था। इसने ब्रिटिश मीडिया में खूब चर्चा बटोरी थी। 2016 में, कोल्हापुरी एक डिज़ाइनर बन गईं और अपनी दोस्त सीता तलवलकर के साथ मिलकर अपना भारतीय और इंडो-वेस्टर्न परिधान ब्रांड शुरू किया। उनकी भतीजी श्रद्धा कपूर ने इस ब्रांड का अनावरण किया।

रविकांत शुक्ला

कथावाचक रामकिंकर उपाध्याय

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रामकिंकर उपाध्याय का जन्म 1 नवम्बर, 1924 में मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में हुआ था। वे भारत के मानस मर्मज्ञ, कथावाचक एवं हिन्दी साहित्यकार थे। उन्हें सन 1999 में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था।

ये जन्म से ही होनहार व प्रखर बुद्धि के थे। इनकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। रामकिंकर उपाध्याय स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक थे। ये बचपन से ही अपनी अवस्था के बच्चों की अपेक्षा कुछ अधिक गम्भीर हुआ करते थे। बाल्यावस्था से ही इनकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में रामकिंकर उपाध्याय पर अपने माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव था।

वे रामचरित मानस का परम ज्ञाता थे जितनी बार बोलते हर बार नए अर्थ उद्घाटित करते।

रामकिंकर आचार्य कोटि के संत थे। सारा विश्व जानता है कि रामायण की मीमांसा जिस रूप में उन्होंने की वह अद्वितीय थी। परन्तु स्वयं रामकिंकर जी ने अपने ग्रंथों में, प्रवचनों में या बातचीत में कभी स्वीकार नहीं किया कि उन्होंने कोई मौलिक कार्य किया है। वे हमेशा यही कहते रहे कि मौलिक कोई वस्तु नहीं होती है भगवान जिससे जो सेवा लेना चाहते हैं वह ले लेते हैं वस्तु या ज्ञान जो पहले से होता है व्यक्ति को केवल उसका सीमित प्रकाशक दिखाई देता है, दिखाई वही वस्तु देती है जो होती है जो नहीं थी वह नहीं दिखाई जा सकती है। वह कहते हैं कि रामायण में वे सूत्र पहले से थे, जो लोगों को लगते हैं कि मैंने दिखाए या बोले, पर सत्य नहीं है। उनका वह वाक्य उनकी और ईश्वर की व्यापकता को सिद्ध करता है।

रामकिंकर आचार्य की ज्ञान-विज्ञान पथ में जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष भक्ति साधना का उनके जीवन में दर्शित होता था। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के कारण इन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया। पर कहीं-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्य भूमि ऋषिकेश में हनुमानजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किए गए, एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ। वैसे ही चित्रकूट धाम की दिव्य भूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परम पूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं। जिनका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला। वे अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।

एक शिष्य ने परमपूज्यपाद रामकिंकर जी से कहा… महाराज! मुझे यह भजन करना झंझट सा लगता है, मैं छोड़ना चाहता हूँ इसे! उदार और सहज कृपालु महाराजश्री उस शिष्य की ओर करुणामय होकर बोले… छोड़ दो भजन! मैं तुमसे सहमत हूँ। स्वाभाविक है कि झंझट न तो करना चाहिए और न ही उसमें पड़ना चाहिए पर मेरा एक सुझाव है जिसे ध्यान रखना कि फिर जीवन में कोई और झंझट भी मत पालना क्योंकि तुम झंझट से बचने की इच्छा रखते हो और कहीं भजन छोड़ कर सारी झंझटों में पड़ गए तो जीवन में भजन छूट जायेगा और झंझट में फँस जाओगे और यदि भजन नहीं छूटा तो झंझट भी भजन हो जाएगा तो अधिक अच्छा यह है कि इतनी झंझटें जब हैं ही तो भजन की झंझट भी होती रहे।

रामकिंकर उपाध्याय ने 9 अगस्त, 2002 को अपना पञ्च भौतिक देह का त्याग कर दिया। इस 78 वर्ष के अन्तराल में उन्होंने रामचरितमानस पर 49 वर्ष तक लगातार प्रवचन दिये थे।

रमाकांत शुक्ल

क्या वन्देमातरम को कांग्रेस ने छोटा किया था

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क्या वन्देमातरम को काटकर छोटा करने का काम कांग्रेस पार्टी ने किया था ? क्या ऐसा करने से ही देश के विभाजन की नींव पड़ी थी ? यह आरोप चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केवड़िया में सरदार पटेल की 150वीं जयंती के आयोजन में बोलते हुए लगाया तो मामला गंभीर है ।

वास्तव में वन्देमातरम जैसे स्वाधीनता आंदोलन की प्रेरणा को बीच से काटकर छोटा करना जिन्ना एंड कंपनी के दबाव में हुआ । बाद में राष्ट्रीय स्वाभिमान से भरा यह राष्ट्रगीत आधे से भी कम रह गया । किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि वन्देमातरम जैसा राष्ट्र स्वाभिमानी गीत भी कभी भारत के बंटवारे की जड़ बन सकता है ।

वन्देमातरम मातृभूमि की वंदना का गीत है । यह गीत बंगाल के प्रसिद्ध राष्ट्रभक्त कवि साहित्यकार पंडित बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने लिखा था । उन्होंने अपने विश्वविख्यात उपन्यास आनंदमठ में भी इसका प्रयोग किया । गुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने इसे बार बार गाया । बंगाल की कलाभूमि पर लिखा गया यह गीत बंगाल से निकलकर सारे देश में फैल गया । धीरे धीरे वन्देमातरम स्वाधीनता आंदोलन का पर्याय बन गया ।

हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई हरेकजुबान पर वन्देमातरम सरस्वती बनकर बैठ गया । वन्देमातरम गाते देशवासी अंग्रेजों की लाठी गोलियां खाते , जेलों में यातनाएं झेलते और सूली पर चढ़ जाते ।
क्रांतिकारियों ने वन्देमातरम गा गाकर समर्पित युवाओं की फौज खड़ी कर दी । उसी दौर में जिन्ना और कुछ इस्लामिक इल्मियों को वन्देमातरम से हिन्दुत्व की बू आने लगी ।

बात बढ़ती गई । तब कांग्रेस ने 1937 के अधिवेशन में वन्देमातरम को काटकर मात्र एक छंद तक सीमित कर दिया । बाद में उतना ही राष्ट्रीय गीत कांग्रेस अधिवेशनों में गया जाने लगा , आंदोलनों में गाया जाने लगा और आजादी के बाद उतना ही आकाशवाणी तथा दूरदर्शन पर बजने लगा । बंकिम बाबू के गीत के टुकड़े कांग्रेस ने कर दिए ।

प्रधानमंत्री के अनुसार ऐसा करने से ही मुस्लिम लीग ने अलग पाकिस्तान की आवाज उठानी शुरू कर दी । यही आवाज आगे चलकर देश के विभाजन का कारण बनी । खैर ! जो हुआ सो हुआ । वन्देमातरम को राष्ट्रगान बनाने के बजाय राष्ट्रगीत बनाया , जन गण मन को राष्ट्रगान बनाया । काश ऐसा न हुआ होता । वन्देमातरम गीत आज भी देश की आत्मा है , सदा सर्वदा तक रहेगा भी ।
,,,,,,,,,कौशल सिखौला

“मेहनत, माटी अरमान — यही सै हरियाणा की पहचान”

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(हरियाणा — जां कर्म, धर्म अर हौंसले का परदेश सै, छोरियां तै लेकर खेतां तक — हरियाणा चमक रया सै) 

हरियाणा दिवस कोई सिरफ दिन ना सै, ये तो माटी का त्योहार सै — जिथे मेहनत ने भगवान माना जावै, अर पसीना इज्जत बन जावै। खेतां तै अखाड़ां तक, छोरे-छोरियां देश का नाम ऊंचा कर रै सै। ये धरती सै वीरां की, गीता के ज्ञान की, अर एकता के मान की। हरियाणा दिवस सिखावै सादगी, स्वाभिमान अर भाईचारे की बात — कि असली तरक्की तब सै, जब माणस अपने धरती तै प्यार करे अर कर्म सै ना हटे।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

हरियाणा म्हारे लिए सिरफ एक राज्य ना सै, ये तो भावना सै, अपनापन सै, अर गर्व सै। 1 नवम्बर 1966 के दिन जब हरियाणा, पंजाब तै अलग होके एक नया परदेश बन्या, तै किसे ना पता था के ये छोटा सा इलाका एक दिन पूरे भारत मं अपनी पहचान छोड़ जावेगा। इब्ब देख लो, हरियाणा खेती तै लेके खेलां तक, फौज तै लेके कारोबार तक — हर जगह अपनी अलग छाप छोड़ै सै।

हरियाणा की मिट्टी मं कुछ बात सै भाई। यहीं कुरुक्षेत्र की धरती पर भगवान कृष्णा ने अर्जुन नै गीता का उपदेश दियो था — कर्म कर, फल की चिंता मत कर। इसी माटी की गोद मे पानीपत के रण लड़े गए, जां वीरां नै अपनी जान दाव पर लगा दी। हर कदम पर इतिहास बसै सै इस धरती का, अर इस धरती नै इतिहास रचण की आदत सै।

किसानां की बात करां त हरियाणा का किसान सबसे मेहनती सै। सूरज चढ़ण तै पहले खेत मं पहुंच जावै सै, अर सूरज डूबे तै बाद घर आवै सै। माटी नै सींचण की ताकद इब्ब भी इस परदेश के हाथां मं सै। दूध-दही की धरती कहे सै इस नै, अर सच मं, यहाँ के घर-घर मं घी की खुशबू, लस्सी की ठंडक अर सच्चाई की मिठास बसै सै।

हरित क्रांति में हरियाणा नै जो योगदान दियो, वो कोई भूल ना सकै। खेती मं नई तकनीक लाण, पानी की बचत करण अर जमीन नै उपजाऊ बनावण — ये सब इस राज्य की पहचान सै। किसान इब्ब सिरफ हल चलावण वाला ना रह्या, वो उद्यमी बन ग्या सै, तकनीक जाणन लाग्या सै, अर खेती नै इज्जत दिलावण लाग्या सै।

खेलां की बात आवै त हरियाणा सै ओ धरती, जां मिट्टी की खुशबू पसीने मं बदल जावे सै। बजरंग पूनिया, साक्षी मलिक, नीरज चोपड़ा, बबीता-विनेश फोगाट — ये सब नाम सिरफ पदक ना, परिश्रम की मिसाल सैं। गाँवां मं अखाड़े सै, पर वो सिरफ कुश्ती के मैदान ना, वो संस्कार के मंदिर सैं। छोरियां भी इब्ब कम ना — ओलंपिक तक का सफर तय कर री सैं।

पहले लोग कहतै थे “बेटा जरूरी सै”, इब्ब हरियाणा कहै सै — “छोरी भी कम ना सै।” “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” सिरफ नारा ना रह्या, इस नै समाज बदल दियो। हरियाणा की छोरियां आज पढ़ लिख के फौज मं, स्कूलां मं, खेलां मं, दफ्तरां मं, हर जगह नाम कमावै सैं। ओ साबित कर रई सैं के हरियाणा की माटी मं साहस सिरफ मर्दां का ना, नारी का भी सै।

संस्कृति की बात करां त हरियाणा का लोकजीवन सादा पर रंगीन सै। यहाँ तीज-त्योहारां का मेला लागै सै — फाग गाऊं, झंझ बजाऊं, ढोलक की थाप पे नाचू। हर गीत मं अपनापन सै, हर रागनी मं कहानी सै। हरियाणवी बोली भले कड़ी लागै, पर सच्चाई की मिठास सै इस मं। यहाँ का आदमी दिल का साफ सै — बोलन मं सीधा, करन मं सच्चा।

गुरुग्राम, फरीदाबाद, पानीपत, हिसार — इब्ब उद्योग और शिक्षा के केंद्र बन चुके सैं। शहर चमक रए सैं, पर गाँवां की मिट्टी आज भी अपनापन ना छोड़ै सै। हरियाणा की प्रति व्यक्ति आमदनी देश मं सबसे ऊपर सै, अर ये मेहनत का नतीजा सै। पर चुनौतियाँ भी सैं — बेरोजगारी, प्रदूषण, पानी की कमी अर जात-पात की दीवार — इन नै मिटावण की जिम्मेदारी हम सबकी सै।

हरियाणवी लोग सीधे सैं, पर दिल के सच्चे सैं। झूठ नै नफरत करैं, मेहनत नै इबादत मानैं। ओ कहैं — “काम बोलै, आदमी ना बोलै।” यही सच्चाई इस परदेश की ताकत सै। यहाँ दिखावा ना सै, पर कर्म सै, सच्चाई सै, अर विश्वास सै।

देश की रक्षा में हरियाणा के जवान सदा आगे रहै सैं। सीमा पे खड़े होके ओ देश की आन-बान की रक्षा करैं सैं। खेत मं किसान, सीमा पे जवान, खेल मं खिलाड़ी — हर कोई इस मिट्टी का बेटा अपनी भूमिका निभा रह्या सै।

हरियाणा दिवस मनाण का मतलब सिरफ झंडा लगाण या भाषण देण ना सै, ये दिन याद करावै सै उस आत्मा नै, जां सादगी, मेहनत, अर एकता बसै सै। ये दिन याद करावै सै के हम सिरफ एक राज्य ना, पर एक परिवार सैं — जो कर्म, धर्म अर सच्चाई मं विश्वास राखै सै।

आज जरूरत सै के हम अपने गाँव, खेत, अर संस्कृति नै सहेज के रखां। आधुनिकता अपनावां, पर अपनी जड़ां नै ना भूलां। पर्यावरण बचावां, शिक्षा बढ़ावां, अर बेटां-बेटी मं फर्क मिटावां। हरियाणा नै स्वच्छ, शिक्षित, समृद्ध अर समान बनावां — यही सच्चा हरियाणा दिवस का संदेश सै।

चलो, आज के दिन सब मिलके प्रण लें —

हम इस मिट्टी की खुशबू नै ना मिटण देंगे,

हम मेहनत अर सच्चाई नै जिंदा रखांगे,

हम अपने हरियाणा नै ऐसे बनावांगे —

जां देख के दुनिया कहे —

“सच मं हरि का वास सै — हरियाणा परदेश!”

जय हरियाणा, जय भारत!

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

एक फैशन बन गया है संघ पर रोक लगाने की मांग

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बाल मुकुन्द ओझा

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर एक बार फिर प्रतिबंध लगाने की बात कही है। इससे पूर्व उनके बेटे और कर्नाटक के आईटी मंत्री प्रियंक खरगे भी ऐसी ही बात कह चुके है। कांग्रेस के शीर्ष नेताओं द्वारा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग पर एकाएक ही देश की सियासत गरमा उठी है और परस्पर आरोप प्रत्यारोपों की राजनीति शुरू हो गई है। सियासी समीक्षकों का मानना है बिहार चुनावों के मधे नज़र कांग्रेस की ऐसी बेतुकी टिप्पणी पार्टी के लिए आत्मघाती हो सकती है, क्योंकि जब जब भी कांग्रेस सरकारों ने संघ पर प्रतिबन्ध लगाया है वह दुगुनी ताकत से उभरकर सामने आया।

खरगे बाप और बेटे दोनों संघ के खिलाफ लगातार जहर उगलते रहे है, यह किसी से छिपा नहीं है। हालांकि उन्होंने कहा कि मेरा व्यक्तिगत विचार है और मैं खुले तौर पर कहता हूं कि आरएसएस पर प्रतिबंध लगना चाहिए। सरदार पटेल का जिक्र करते हुए उन्होंने कही ये बात। कांग्रेस अध्यक्ष तो यहाँ तक कहते है वे मरने से पहले प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को सत्ताच्युत करके रहेंगे। आरएसएस पर प्रतिबंध की मांग से जुड़े खरगे के बयान को आपत्तिजनक बताते हुए भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा कि उन्हें संघ के इतिहास के बारे में जानना चाहिए। गांधी जी की हत्या के बाद कपूर कमीशन ने आरएसएस को क्लीन चिट दी थी। भाजपा नेताओं ने पलटवार करते हुए कहा है, लोकतंत्र में असहमति पर पूरे देश को जेलखाना बना देने वाली यह कांग्रेसी मानसिकता द्वारा संघ पर प्रतिबंध लगाने की बात करना कोई पहला अवसर नहीं है। पहले भी इन लोगों ने अपनी सत्ता और तुष्टिकरण की राजनीति को बचाए रखने के लिए संघ पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की है।

कांग्रेस की सरकारों ने तीन बार 1948 1975 व 1992 में इस पर प्रतिबंध लगाया, लेकिन तीनों बार संघ पहले से भी अधिक मजबूत होकर उभरा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अनेक निर्णयों में माना है कि संघ एक सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन है। आजादी के बाद से ही कांग्रेस के निशाने पर रहा है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। लाख चेष्टा के बावजूद कांग्रेस संघ को समाप्त करना तो दूर हाशिये पर लाने में सफल नहीं हुआ। संघ को खत्म करने के चक्कर में खुद कांग्रेस अपना वजूद समाप्त करने की ओर अग्रसर है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पहली विपदा महात्मा गांधी की हत्या के दौरान आई जब हत्यारे नाथूराम गोडसे को संघ का स्वयंसेवक बताकर संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। बाद में एक जांच समिति ने संघ पर लगे आरोपों को सही नहीं बताया तब संघ से प्रतिबन्ध हटा लिया गया और एक बार फिर संघ ने स्वतंत्र होकर अपना कार्य शुरू किया। संघ पर इस दौरान यह आरोप लगाया गया कि वह हिन्दू अधिकारों की वकालत करता है। मगर संघ का कहना है कि हिन्दुत्व एक जीवन पद्धति है। भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है तो इसका कारण यह है कि यहाँ हिन्दू बहुमत में हैं। बताया जाता है कि 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान संघ के अप्रतिम सेवाभावी कार्यों से प्रभावित होकर तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने 1963 में गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने का संघ को निमंत्रण दिया। दो दिन की अल्प सूचना के बाबजूद तीन हजार गणवेशधारी स्वयं सेवक उस परेड में शामिल हुए। यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि संघ गांधी हत्यारा था तो पं. नेहरू ने उसे देशभक्त संगठन मानकर परेड में शामिल क्यों किया। संघ पर दूसरी विपदा 1975 में तब आई जब आपातकाल के दौरान उस पर प्रतिबन्ध लगाकर हजारों स्वयंसेवकों को कारागार में डाल दिया गया। आपातकाल के बाद संघ से प्रतिबन्ध हटाया गया और संघ ने पुनः अपना कार्य प्रारम्भ किया।

बापू की हत्या के आरोप सहित कई बार प्रतिबन्ध की मार झेल चुका यह संगठन आज भी लोगों के दिलों में बसा है और यही कारण है की इसका एक स्वयं सेवक प्रधान मंत्री की कुर्सी पर काबिज है और अनेक स्वयं सेवक राज्यों के मुख्यमंत्री है। संघ विचारकों का मानना है कि डॉ. राममनोहर लोहिया और लोक नायक जय प्रकाश नारायण सरीखे देश भक्तों ने कभी संघ का विरोध नहीं किया और समय-समय पर संघ कार्यों की प्रशंसा की। विभिन्न गुटों में बंटे उनके कथित समाजवादी अनुयायी अपने राजनैतिक लाभों को हासिल करने के लिए उनका विरोध करते हैं। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भी संघ के नागपुर में आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लेकर कांग्रेस को झटका दे चुके है। उन्होंने संघ के संस्थापक हेडगेवार को बड़ा देशभक्त बताया था।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

मो.- 9414441218

नहीं रहे पदमश्री राम दरश मिश्र

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शताब्दी पुरुष हमारे साहित्यिक पुरखे रामदरश मिश्र जी नहीं रहे। प्रोफेसर स्मिता मिश्र की पोस्ट के अनुसार 102 वर्ष का जीवन जीने वाले हिंदी के जाने-माने साहित्यकार प्रो रामदरश मिश्र नहीं रहे।

पिछली होली के बाद से वे बीमार चल रहे थे और द्वारका नई दिल्ली स्थित बेटे शशांक के घर पर उपचार में थे। 1924 में 15 अगस्त को डुमरी, गोरखपुर में जन्मे रामदरश मिश्र ने बीएचयू में उच्च शिक्षा पाई । गुजरात में कई वर्ष रहे, दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाया।

वे हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकार थे। ये जितने समर्थ कवि थे उतने ही समर्थ उपन्यासकार और कहानीकार भी थे। रामदरश मिश्र की लंबी साहित्य-यात्रा समय के कई मोड़ों से गुजरी और नित्य नूतनता की छवि को प्राप्त होती गई। कविता की कई शैलियों जैसे गीत, नई कविता, छोटी कविता, लंबी कविता में उनकी सर्जनात्मक प्रतिभा ने अपनी प्रभावशाली अभिव्यक्ति के साथ-साथ ग़ज़ल में भी उन्होंने अपनी सार्थक उपस्थिति रेखांकित की। इसके अतिरिक्त उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रावृत्तांत, डायरी, निबंध आदि सभी विधाओं में उनका साहित्यिक योगदान बहुमूल्य है।

इनकी शिक्षा हिन्दी में स्नातक, स्नातकोत्तर तथा डॉक्टरेट रही। सन् 1956 में सयाजीराव गायकवाड़ विश्वविद्यालय, बड़ौदा में प्राध्यापक के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। सन् 1958 में ये गुजरात विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हो गये और आठ वर्ष तक गुजरात में रहने के पश्चात् 1964 में दिल्ली विश्वविद्यालय में आ गये। वहाँ से 1970 में प्रोफेसर के रूप में सेवामुक्त हुए।

रामदरश मिश्र की साहित्यिक प्रतिभा बहुआयामी है। उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना और निबंध जैसी प्रमुख विधाओं में तो लिखा ही है, आत्मकथा- सहचर है समय, यात्रा वृत्त तथा संस्मरण भी लिखे। यात्राओं के अनुभव ‘तना हुआ इन्द्रधनुष, ‘भोर का सपना’ तथा ‘पड़ोस की खुशबू’ में अभिव्यक्त हुए हैं। उन्होंने अपनी संस्मरण पुस्तक ‘स्मृतियों के छन्द’ में उन अनेक वरिष्ठ लेखकों, गुरुओं और मित्रों के संस्मरण दिये हैं जिनसे उन्हें अपनी जीवन-यात्रा तथा साहित्य-यात्रा में काफ़ी कुछ प्राप्त हुआ है। रामदरश मिश्र रचना-कर्म के साथ-साथ आलोचना कर्म से भी जुड़े रहे।

उन्होंने आलोचना, कविता और कथा के विकास और उनके महत्वपूर्ण पड़ावों की बहुत गहरी और साफ़ पहचान की। ‘हिन्दी उपन्यास : एक अंतर्यात्रा, ‘हिन्दी कहानी : अंतरंग पहचान’, ‘हिन्दी कविता : आधुनिक आयाम’, ‘छायावाद का रचनालोक’ उनकी महत्त्वपूर्ण समीक्षा-पुस्तकें हैं।

उनकी रचनाओं के अंग्रेजी सहित कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हुए। राजकमल प्रकाशन से पेपरबैक सीरीज में उनकी “प्रतिनिधि कहानियां” और “प्रतिनिधि कविताएं” प्रकाशित हुए है। सर्वभाषा ट्रस्ट प्रकाशन Sarv Bhasha Trust ने उनके चुनिंदा निबंधों का संग्रह “लौट आया हूं मेरे देश” छापा। अमन प्रकाशन ने उनका संग्रह “समवेत” प्रकाशित किया तो प्रलेक से उनकी पुस्तक “स्मृतियों के छंद” के नए संस्करण सहित मिश्र जी के जीवन और साहित्य पर “रामदरश मिश्र:एक शिनाख्त” पुस्तक भी प्रकाशित की।

रामदरश मिश्र अपनी लंबी रचना-यात्रा में किसी वाद, किसी आन्दोलन के झंडे के नीचे नहीं आये किन्तु वे अपने समय और समाज की वास्तविकताओं तथा चेतना से लगातार जुड़े रहे। समय-यात्रा में बदलता हुआ यथार्थ उनके अनुभव और दृष्टि में समाकर उनकी रचनाओं में उतरता रहा। परिवर्तनशील समय का सत्य उनकी सर्जना को सतत कथ्य की नयी आभा और शिल्प की सहज नवीनता प्रदान करना रहा किन्तु उनकी बुनियाद उनका गांव रहा। गांव को भी वे लगातार उसके परिवर्तनशील रूप में पकड़ने की कोशिश करते रहे। समग्रत: उनके सारे सर्जनात्मक लेखन में अपने कछार अंचल की धरती की पकड़ रही। मूल्य-दृष्टि की जड़ें उनके गांव में ही थीं जिसे उन्होंने अपने जीवन के प्रारंभिक काल में भरपूर जिया था।

उन्हें मिले सम्मान और पुरस्कार निम्न हैं-उदयराज सिंह स्मृति पुरस्कार (2007), व्यास सम्मान (2011), साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी (2015) में मिला। यह उनके 99 वें जन्मदिन का साल उनकी उपलब्धियों का साल रहा जब 27 जून को उन्हे के के बिरला फाउंडेशन द्वारा सर्वोच्च सरस्वती सम्मान से सम्मानित किया गया।

आज उनकी विदाई पर उनके लिखे एक गीत की पंक्तियों याद आती हैं।-

बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे

खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे

किसी को गिराया न खुद को उछाला

कटा ज़िन्दगी का सफ़र धीरे-धीरे

जहाँ आप पहुँचे छलाँगें लगाकर

वहाँ मैं भी पहुँचा मगर धीरे-धीरे

पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी

उठाता गया यों ही सर धीरे-धीरे

गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया

गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे

जमीं खेत की साथ लेकर चला था

उगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरे

न रोकर,न हँस कर किसी में उड़ेला

पिया ख़ुद ही अपना ज़हर धीरे-धीरे

मिला क्या न मुझको,ऐ दुनिया तुम्हारी

मुहब्बत मिली है अगर धीरे-धीरे

उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।

अमृता प्रीतम : प्रेम, पीड़ा और मानवीय संवेदनाओं की कवयित्री

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भारतीय साहित्य में अमृता प्रीतम का नाम स्त्री चेतना, संवेदना और प्रेम के सशक्त स्वर के रूप में अमर है। उन्होंने न केवल पंजाबी साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि हिंदी साहित्य को भी नई दिशा दी। अमृता प्रीतम की रचनाओं में एक औरत की आत्मा बोलती है—जो समाज की बंदिशों के बावजूद अपनी पहचान और अपने प्रेम के लिए संघर्ष करती है। वह कवयित्री ही नहीं, बल्कि कहानीकार, उपन्यासकार, निबंधकार और विचारक भी थीं।

प्रारंभिक जीवन

अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त 1919 को गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। उनके पिता करतार सिंह हितकारी एक कवि और विद्वान थे, जबकि माता हरनाम कौर धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। अमृता का बचपन स्नेह और संस्कारों में बीता, परंतु जब वह 11 वर्ष की थीं, तभी उनकी माँ का निधन हो गया। इस घटना ने अमृता के भीतर गहरी संवेदना और अकेलेपन की अनुभूति भर दी, जो आगे चलकर उनके लेखन का स्थायी भाव बन गई।

साहित्यिक आरंभ और लेखन यात्रा

अमृता ने बहुत छोटी उम्र से ही लेखन आरंभ कर दिया था। 16 वर्ष की आयु में उनका पहला कविता संग्रह “अमृत लेहरां” प्रकाशित हुआ। प्रारंभिक रचनाओं में रोमानी भावनाएँ थीं, परंतु धीरे-धीरे उनमें सामाजिक यथार्थ और स्त्री अस्मिता की गूंज स्पष्ट होने लगी। विभाजन के दौर में उन्होंने जिस दर्द को देखा, उसे उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता “आज आखां वारिस शाह नूं” में उकेरा—

“अज आख्या वारिस शाह नूं, कितों कबर विच्चों बोल…”
यह कविता भारत-पाकिस्तान के विभाजन के दौरान हुई मानवीय त्रासदी का करुण चित्रण है। इस एक कविता ने अमृता प्रीतम को अमर कर दिया।

प्रमुख रचनाएँ

अमृता प्रीतम ने 100 से अधिक पुस्तकें लिखीं, जिनमें कविता, उपन्यास, आत्मकथा, कहानी संग्रह और निबंध शामिल हैं।
उनकी प्रसिद्ध कृतियों में —

कविता संग्रह: आखां वारिस शाह नूं, नागमणि, कागज़ ते कैनवास, संगम, सत्तावन वर्षों के बाद।

उपन्यास: पिंजर, धरती सागर ते सीमा, रसीदी टिकट, कोरे कागज, दूआरे, जिंदगीनामां।
इनमें “पिंजर” (1948) को विशेष प्रसिद्धि मिली। यह उपन्यास भारत विभाजन की पृष्ठभूमि पर आधारित है, जिसमें एक स्त्री ‘पूरो’ की कहानी के माध्यम से अमृता ने स्त्री की पीड़ा, समाज की कठोरता और मानवीय करुणा का अद्भुत चित्रण किया है। इस उपन्यास पर बाद में एक लोकप्रिय फिल्म भी बनी।

स्त्री चेतना की स्वरधारा

अमृता प्रीतम भारतीय समाज की उन कुछ लेखिकाओं में से थीं, जिन्होंने औरत के भीतर की भावनाओं, उसकी स्वतंत्रता और उसकी पहचान को बड़ी निडरता से व्यक्त किया। उन्होंने प्रेम को केवल रोमांटिक दृष्टि से नहीं, बल्कि आत्मा की स्वतंत्रता के रूप में देखा। उनकी कविताएँ और गद्य रचनाएँ पुरुष-प्रधान समाज में औरत की अपनी जगह की तलाश का दस्तावेज़ हैं।

निजी जीवन और प्रेम

अमृता प्रीतम का निजी जीवन भी उतना ही संवेदनशील और चर्चित रहा जितना उनका साहित्य। 16 वर्ष की आयु में उन्होंने प्रीतम सिंह से विवाह किया, परंतु यह वैवाहिक जीवन बहुत सुखद नहीं रहा। विभाजन के बाद वे दिल्ली आ गईं और रेडियो में काम करने लगीं। धीरे-धीरे उन्होंने पारंपरिक रिश्तों से अलग होकर स्वतंत्र जीवन जीना चुना।

उनके जीवन में प्रसिद्ध कवि साहिर लुधियानवी का नाम गहराई से जुड़ा है। अमृता ने साहिर के प्रति अपने गहरे प्रेम को कभी छिपाया नहीं। उनकी आत्मकथा “रसीदी टिकट” में उन्होंने इस संबंध की अंतरंग झलकियाँ दी हैं। साहिर के प्रति उनके भावों को उन्होंने अपनी अनेक कविताओं में उकेरा। बाद के वर्षों में प्रसिद्ध चित्रकार इमरोज़ उनके जीवन में आए, जिन्होंने अमृता के साथ कई दशकों तक गहरी मित्रता और आत्मिक साझेदारी निभाई। अमृता ने कहा था—

“इमरोज़ मेरा आज है, और साहिर मेरा बीता हुआ कल।”

साहित्यिक सम्मान और योगदान

अमृता प्रीतम को उनके साहित्यिक योगदान के लिए अनेक पुरस्कार और सम्मान मिले। उन्हें 1956 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1969 में पद्मश्री, 1982 में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार और 2004 में पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया। वह स्वतंत्र भारत की पहली प्रमुख पंजाबी महिला लेखिका थीं, जिन्हें इस स्तर पर मान्यता मिली।

उनकी आत्मकथा “रसीदी टिकट” भारतीय आत्मकथात्मक साहित्य की कालजयी कृति मानी जाती है। इसमें उन्होंने न केवल अपने जीवन का लेखा-जोखा दिया, बल्कि अपने समय, समाज और स्त्री की स्थिति पर गहरा विमर्श प्रस्तुत किया।

अंत समय और विरासत

अमृता प्रीतम का निधन 31 अक्टूबर 2005 को दिल्ली में हुआ। उनके साथ इमरोज़ अंत तक रहे। अमृता आज भी भारतीय साहित्य में एक प्रेरणा हैं—एक ऐसी स्त्री लेखिका, जिसने अपनी कलम से समाज की रूढ़ियों को चुनौती दी और प्रेम, मानवीयता तथा स्वतंत्रता के नए आयाम स्थापित किए।

निष्कर्ष

अमृता प्रीतम केवल एक कवयित्री नहीं, बल्कि एक युग थीं। उन्होंने अपने जीवन और लेखन दोनों में यह साबित किया कि स्त्री भी सोच सकती है, लिख सकती है और अपने दिल की बात कह सकती है। उनका साहित्य स्त्री के मौन को शब्द देता है, और उनकी कविताएँ आज भी हर संवेदनशील आत्मा में गूंजती हैं।

‘अहिराणा’ शब्द से हुई है ‘हरियाणा’ की व्युत्पत्ति

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*’हरयान’ या ‘हरियान’ शब्द से नहीं, ‘अहिराणा’ शब्द से हुई है ‘हरियाणा’ की व्युत्पत्ति : डॉ. रामनिवास ‘मानव’*

*(डॉ. रामनिवास ‘मानव’ हरियाणा के जाने-माने साहित्यकार और शिक्षाविद् होने के साथ-साथ हरियाणा के समकालीन हिंदी-साहित्य के प्रथम शोधार्थी और अधिकारी विद्वान भी हैं। ‘हरियाणा में रचित सृजनात्मक हिंदी-साहित्य’ पर पीएचडी और ‘हरियाणा में रचित हिंदी-महाकाव्य’ विषय पर डीलिट् की उपाधि प्राप्त करने वाले डॉ. ‘मानव’ हरियाणा के प्रथम और ये दोनों उपाधियाँ प्राप्त करने वाले अद्यतन एकमात्र विद्वान हैं। हरियाणवी भाषा और साहित्य के विकास में भी इन्होंने बहुआयामी और महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। साहित्य अकादमी, नई दिल्ली की ‘हिंदी की सहभाषा’ श्रृंखला के अंतर्गत हरियाणवी भाषा पर प्रथम पुस्तक लिखने का गौरव भी डॉ. ‘मानव’ को ही प्राप्त हुआ है। इस दृष्टि से इनकी साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘हरियाणवी’  ऐतिहासिक महत्त्व रखती है। विभिन्न विधाओं की चौंसठ महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के लेखक और संपादक तथा वर्तमान में सिंघानिया विश्वविद्यालय, पचेरी बड़ी (राजस्थान) में आचार्य तथा सांस्कृतिक संकाय के अधिष्ठाता के पद पर कार्यरत डॉ. ‘मानव’ ने अब हरियाणा प्रदेश के नामकरण को लेकर भी सर्वथा मौलिक और नवीन अवधारणा प्रस्तुत की है। इनकी यह अवधारणा पुरानी और परंपरागत मान्यताओं से कहीं अधिक तथ्यपरक और तर्कसंगत जान पड़ती है। अतः हरियाणा दिवस के सुअवसर पर, इसी संदर्भ में प्रस्तुत हैं डॉ. ‘मानव’ के विशिष्ट विचार।)*

        ‘हरियाणा’ शब्द की व्युत्पत्ति के संदर्भ में चर्चा करने पर डॉ. रामनिवास ‘मानव’ बताते हैं कि ‘हरियाणा’ वैदिक कालीन शब्द है। इसका सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है-“ऋजुभुक्षस्याने रजतं हरियाणे। रथं युक्तं असनाम सुषामणि।” (8:25:22) यहांँ प्रयुक्त ‘हरियाणे’ शब्द के कष्टों को सहने वाला, हरणशील, हरि का यान आदि अनेक अर्थ हो सकते हैं, किंतु इससे प्रदेश-विशेष के नाम का स्पष्ट बोध नहीं होता। मुख्यतः ‘हरियाणा’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘हरयान’ अथवा ‘हरि‌यान’ शब्द से‌ मानी जाती है। इसीलिए इसे अंग्रेजी में ‘हरयाणा’ तथा हिंदी में ‘हरियाणा’ लिखा जाता है। किंतु मेरे मतानुसार यह थ्योरी गलत है। हर (शिव) और हरि (विष्णु) के इस क्षेत्र में यान द्वारा विचरण करने का सटीक उल्लेख नहीं मिलता। फिर यान के विचरण करने से किसी क्षेत्र ‌के नामकरण की बात भी गले नहीं उतरती। ‘हरियानक’, ‘हरितारण्यक’, ‘हरिताणक’, ‘आर्यायन’, ‘दक्षिणायन’, ‘उक्षणायन’, ‘हरिधान्यक’, ‘हरिबांँका’ आदि शब्दों से हरियाणा की व्युत्पत्ति की अन्य थ्योरियाँ भी अविश्वसनीय, बल्कि कुछ तो हास्यास्पद लगती हैं। डॉ. बुद्धप्रकाश और प्राणनाथ चोपड़ा ने हरियाणा की व्युत्पत्ति ‘अभिरायण’ शब्द से मानी है, किंतु इसे भी आंशिक रूप में ही सही माना जा सकता है।

        अपनी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए डॉ. ‘मानव’ ने कहा कि मेरी सुनिश्चित मान्यता है कि ‘हरियाणा’ की व्युत्पत्ति ‘अहिराणा’ शब्द से हुई है। पशुपालन और कृषि का व्यवसाय करने वाले यदुवंशियों को अभिर या आभीर कहा जाता था, कालांतर में, जिसका तद्भव  रूप अहीर हो गया। अहीर बहादुर योद्धा माने जाते थे, जिनके अस्तित्व के प्रमाण ईसा से छह हजार वर्ष पूर्व भी मिलते हैं। किसी समय अहीर जाति हरियाणा, दिल्ली, बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान से लेकर गुजरात और महाराष्ट्र तक फैली हुई थी। किंतु वर्तमान हरियाणा, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उसका पूरा आधिपत्य और संपूर्ण वर्चस्व रहा। अहीरों का बाहुल्य होने के कारण ही इस क्षेत्र को ‘अहिराणा’ कहा जाने लगा। (जैसे राजपूतों के कारण राजपुताना, मराठों के कारण मराठवाड़ा और भीलों के कारण भीलवाड़ा कहा जाता है।) बाद‌ में, हरियाणवी बोली की उदासीन अक्षरों के लोप की प्रकृति और प्रवृत्ति के चलते, अखाड़ा-खाड़ा, अहीर-हीर, उतारणा-तारणा, उठाणा-ठाणा और स्थाण-ठाण की तर्ज पर, ‘अहिराणा’ से ‘हिराणा’ और फिर ‘हरयाणा’ या ‘हरियाणा’ हो गया। ‘अहिराणा’ शब्द का अर्थ है- ‘अहीरों का क्षेत्र’। इसे ‘अहीरवाल’ का पर्यायवाची माना जा सकता है।

        डॉ. ‘मानव’ ने कहा कि एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य से भी मेरे मत की पुष्टि होती है। आज भी महाराष्ट्र के खानदेश, जिसे कभी हीरदेश भी कहा जाता था और जिसमें महाराष्ट्र के मालेगांव, नंदुरबार और धुले जिलों के अतिरिक्त नासिक जिले के धरनी, कलवण, सटाणा और बागलान तथा औरंगाबाद जिले के देवला क्षेत्र, गुजरात के सूरत और व्यारा तथा मध्यप्रदेश के अंबा और वरला क्षेत्र शामिल हैं, जहांँ आज भी ‘अहिराणी’ बोली, बोली जाती है। देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली और बीस-बाईस लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली ‘अहिराणी’ का अर्थ है- ‘अहीरों की बोली’। इससे स्पष्ट है कि ‘अहिराणा’ और ‘अहिराणी’ में सीधा संबंध और पूरी समानता है। 

        अंत में निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए डॉ. ‘मानव’ कहते हैं कि ‘हरयाणा’ अथवा ‘हरियाणा’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘हरयान’ या ‘हरियान’ से नहीं, बल्कि ‘अहिराणा’ शब्द से हुई है। निश्चय ही, डॉ. ‘मानव’ का यह मत पूर्णतया तथ्यपरक, तर्कसंगत और प्रामाणिक है।

*प्रस्तुति : डॉ. सत्यवान सौरभ, हिसार (हरियाणा)*

*(डॉ. रामनिवास ‘मानव’ हरियाणा के जाने-माने साहित्यकार और शिक्षाविद् होने के साथ-साथ हरियाणा के समकालीन हिंदी-साहित्य के प्रथम शोधार्थी और अधिकारी विद्वान भी हैं। ‘हरियाणा में रचित सृजनात्मक हिंदी-साहित्य’ पर पीएचडी और ‘हरियाणा में रचित हिंदी-महाकाव्य’ विषय पर डीलिट् की उपाधि प्राप्त करने वाले डॉ. ‘मानव’ हरियाणा के प्रथम और ये दोनों उपाधियाँ प्राप्त करने वाले अद्यतन एकमात्र विद्वान हैं। हरियाणवी भाषा और साहित्य के विकास में भी इन्होंने बहुआयामी और महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। साहित्य अकादमी, नई दिल्ली की ‘हिंदी की सहभाषा’ श्रृंखला के अंतर्गत हरियाणवी भाषा पर प्रथम पुस्तक लिखने का गौरव भी डॉ. ‘मानव’ को ही प्राप्त हुआ है। इस दृष्टि से इनकी साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘हरियाणवी’  ऐतिहासिक महत्त्व रखती है। विभिन्न विधाओं की चौंसठ महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के लेखक और संपादक तथा वर्तमान में सिंघानिया विश्वविद्यालय, पचेरी बड़ी (राजस्थान) में आचार्य तथा सांस्कृतिक संकाय के अधिष्ठाता के पद पर कार्यरत डॉ. ‘मानव’ ने अब हरियाणा प्रदेश के नामकरण को लेकर भी सर्वथा मौलिक और नवीन अवधारणा प्रस्तुत की है। इनकी यह अवधारणा पुरानी और परंपरागत मान्यताओं से कहीं अधिक तथ्यपरक और तर्कसंगत जान पड़ती है। अतः हरियाणा दिवस के सुअवसर पर, इसी संदर्भ में प्रस्तुत हैं डॉ. ‘मानव’ के विशिष्ट विचार।)*

        ‘हरियाणा’ शब्द की व्युत्पत्ति के संदर्भ में चर्चा करने पर डॉ. रामनिवास ‘मानव’ बताते हैं कि ‘हरियाणा’ वैदिक कालीन शब्द है। इसका सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है-“ऋजुभुक्षस्याने रजतं हरियाणे। रथं युक्तं असनाम सुषामणि।” (8:25:22) यहांँ प्रयुक्त ‘हरियाणे’ शब्द के कष्टों को सहने वाला, हरणशील, हरि का यान आदि अनेक अर्थ हो सकते हैं, किंतु इससे प्रदेश-विशेष के नाम का स्पष्ट बोध नहीं होता। मुख्यतः ‘हरियाणा’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘हरयान’ अथवा ‘हरि‌यान’ शब्द से‌ मानी जाती है। इसीलिए इसे अंग्रेजी में ‘हरयाणा’ तथा हिंदी में ‘हरियाणा’ लिखा जाता है। किंतु मेरे मतानुसार यह थ्योरी गलत है। हर (शिव) और हरि (विष्णु) के इस क्षेत्र में यान द्वारा विचरण करने का सटीक उल्लेख नहीं मिलता। फिर यान के विचरण करने से किसी क्षेत्र ‌के नामकरण की बात भी गले नहीं उतरती। ‘हरियानक’, ‘हरितारण्यक’, ‘हरिताणक’, ‘आर्यायन’, ‘दक्षिणायन’, ‘उक्षणायन’, ‘हरिधान्यक’, ‘हरिबांँका’ आदि शब्दों से हरियाणा की व्युत्पत्ति की अन्य थ्योरियाँ भी अविश्वसनीय, बल्कि कुछ तो हास्यास्पद लगती हैं। डॉ. बुद्धप्रकाश और प्राणनाथ चोपड़ा ने हरियाणा की व्युत्पत्ति ‘अभिरायण’ शब्द से मानी है, किंतु इसे भी आंशिक रूप में ही सही माना जा सकता है।

        अपनी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए डॉ. ‘मानव’ ने कहा कि मेरी सुनिश्चित मान्यता है कि ‘हरियाणा’ की व्युत्पत्ति ‘अहिराणा’ शब्द से हुई है। पशुपालन और कृषि का व्यवसाय करने वाले यदुवंशियों को अभिर या आभीर कहा जाता था, कालांतर में, जिसका तद्भव  रूप अहीर हो गया। अहीर बहादुर योद्धा माने जाते थे, जिनके अस्तित्व के प्रमाण ईसा से छह हजार वर्ष पूर्व भी मिलते हैं। किसी समय अहीर जाति हरियाणा, दिल्ली, बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान से लेकर गुजरात और महाराष्ट्र तक फैली हुई थी। किंतु वर्तमान हरियाणा, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उसका पूरा आधिपत्य और संपूर्ण वर्चस्व रहा। अहीरों का बाहुल्य होने के कारण ही इस क्षेत्र को ‘अहिराणा’ कहा जाने लगा। (जैसे राजपूतों के कारण राजपुताना, मराठों के कारण मराठवाड़ा और भीलों के कारण भीलवाड़ा कहा जाता है।) बाद‌ में, हरियाणवी बोली की उदासीन अक्षरों के लोप की प्रकृति और प्रवृत्ति के चलते, अखाड़ा-खाड़ा, अहीर-हीर, उतारणा-तारणा, उठाणा-ठाणा और स्थाण-ठाण की तर्ज पर, ‘अहिराणा’ से ‘हिराणा’ और फिर ‘हरयाणा’ या ‘हरियाणा’ हो गया। ‘अहिराणा’ शब्द का अर्थ है- ‘अहीरों का क्षेत्र’। इसे ‘अहीरवाल’ का पर्यायवाची माना जा सकता है।

        डॉ. ‘मानव’ ने कहा कि एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य से भी मेरे मत की पुष्टि होती है। आज भी महाराष्ट्र के खानदेश, जिसे कभी हीरदेश भी कहा जाता था और जिसमें महाराष्ट्र के मालेगांव, नंदुरबार और धुले जिलों के अतिरिक्त नासिक जिले के धरनी, कलवण, सटाणा और बागलान तथा औरंगाबाद जिले के देवला क्षेत्र, गुजरात के सूरत और व्यारा तथा मध्यप्रदेश के अंबा और वरला क्षेत्र शामिल हैं, जहांँ आज भी ‘अहिराणी’ बोली, बोली जाती है। देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली और बीस-बाईस लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली ‘अहिराणी’ का अर्थ है- ‘अहीरों की बोली’। इससे स्पष्ट है कि ‘अहिराणा’ और ‘अहिराणी’ में सीधा संबंध और पूरी समानता है। 

        अंत में निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए डॉ. ‘मानव’ कहते हैं कि ‘हरयाणा’ अथवा ‘हरियाणा’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘हरयान’ या ‘हरियान’ से नहीं, बल्कि ‘अहिराणा’ शब्द से हुई है। निश्चय ही, डॉ. ‘मानव’ का यह मत पूर्णतया तथ्यपरक, तर्कसंगत और प्रामाणिक है।

*प्रस्तुति : डॉ. सत्यवान सौरभ, हिसार (हरियाणा)*

– डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,

किताबें उधार नहीं, अनुभूति होती हैं

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(जब समाज सेवा की शुरुआत दूसरों की अलमारी से होती है, तो किताबें वस्तु बन जाती हैं, अनुभूति नहीं।) 

किताबों का रिश्ता सिर्फ़ कागज़ और अक्षरों का नहीं होता, यह मन और आत्मा का संवाद है। आज जब लोग समाज सेवा या मित्रता के नाम पर किताबें माँगते हैं, तो यह सवाल उठता है — क्या उन्हें सच में किताबों से प्रेम है या केवल उन्हें मुफ़्त में पाने से? किताबें दान का सामान नहीं, एक अनुभव हैं। जो व्यक्ति अपने श्रम और जिज्ञासा से किताबें जुटाता है, वही उनकी असली कीमत समझता है। किताबें हमें आत्मनिर्भर बनाती हैं, हमें यह सिखाती हैं कि ज्ञान किसी की कृपा से नहीं, अपने प्रयास से अर्जित होता है।

— डॉ. प्रियंका सौरभ

कभी कोई व्हाट्सएप पर लिखता है, कभी मैसेंजर पर, तो कभी ईमेल में — “हमने समाज सेवा के लिए एक लाइब्रेरी बनाई है, आप कुछ किताबें भेज दीजिए।” शुरुआत में यह संदेश मुझे अच्छे लगते थे। लगा कि लोग पढ़ने की संस्कृति को बढ़ावा देना चाहते हैं, किताबों को जीवित रखना चाहते हैं। लेकिन धीरे-धीरे यह सिलसिला कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया। अब हर कुछ दिनों में कोई न कोई संदेश आता है — वही आग्रह, बस शब्द थोड़े बदल जाते हैं। मैं हर बार विनम्रता से मना करती हूँ, और कुछ दिन बाद फिर वही निवेदन लौट आता है।

कभी-कभी सोचती हूँ — क्या सच में लोग किताबों से प्रेम करते हैं, या सिर्फ़ उन्हें मुफ़्त में पाने से? कुछ तो ऐसे भी हैं जो दोस्ती ही इस उम्मीद से करते हैं कि मैं उन्हें किताबें दूँगी — जैसे मेरी अलमारी किसी सार्वजनिक पुस्तकालय की शाखा हो और मैं उसकी अनिच्छुक लाइब्रेरियन। ऐसे लोगों की सोच यह होती है कि “आपके पास तो बहुत किताबें हैं, कुछ हमें भी दे दीजिए, समाज का भला हो जाएगा।” लेकिन मैं सोचती हूँ — समाज सेवा की शुरुआत हमेशा दूसरों की अलमारी से क्यों होती है?

अगर सच में किताबों से प्रेम है, तो अपने श्रम से उन्हें जुटाइए। किताबें पाने का आनंद तभी होता है जब उन्हें पाने में थोड़ी मेहनत, थोड़ा इंतज़ार और बहुत-सा लगाव शामिल हो। वो किताबें, जिन्हें आपने अपनी पहली तनख्वाह से खरीदा हो, जिनके पन्नों पर कॉफ़ी के निशान हों या जिनमें आपकी उंगलियों के मोड़ से पन्ने मुड़े हों — वही किताबें आपके जीवन का हिस्सा बनती हैं। किताबों से प्रेम का अर्थ यह नहीं कि आप उन्हें जमा कर लें या दूसरों से माँगकर अपने रैक में सजा लें। किताबों से प्रेम का अर्थ है — उन्हें पढ़ना, उनसे प्रश्न करना, उनसे बहस करना और कभी-कभी उनसे असहमति जताना। किताबें जीवित प्राणी की तरह हैं — वे संवाद चाहती हैं, मौन नहीं।

आजकल किताबें माँगने का एक नया चलन शुरू हो गया है — समाज सेवा के नाम पर। कोई संगठन कहता है कि वह “गरीब बच्चों के लिए लाइब्रेरी” बना रहा है, कोई “महिला सशक्तिकरण केंद्र” के लिए किताबें चाहता है। शुरुआत में यह सब बहुत प्रेरक लगता है। लेकिन जब वही लोग साल दर साल, बार-बार वही संदेश भेजते हैं, तो शक होने लगता है — क्या सच में ये लाइब्रेरियाँ बन रही हैं, या किताबें किसी के ड्राइंगरूम की सजावट बन रही हैं? समाज सेवा की भावना प्रशंसनीय है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि हम दूसरों की मेहनत, लगाव और निजी संपदा को अपने नाम के झंडे तले बाँट लें।

किताबें सिर्फ़ कागज़ और शब्दों का ढेर नहीं होतीं — वे किसी व्यक्ति की यात्रा का हिस्सा होती हैं। उनमें उसकी सोच, उसकी भावनाएँ, उसके समय की छाप होती है। इसलिए जब कोई किताब माँगता है, तो वह केवल एक वस्तु नहीं माँग रहा होता, बल्कि किसी के जीवन का अंश माँग रहा होता है। यही कारण है कि जब कोई कहता है, “आपके पास तो इतनी किताबें हैं, कुछ हमें दे दीजिए,” तो मुझे यह एक भावनात्मक हस्तक्षेप जैसा लगता है। किताबों से जो रिश्ता बनता है, वह व्यक्तिगत होता है। वह संग्रह नहीं, संगति होती है।

लोग कहते हैं कि देश में लाइब्रेरियाँ नहीं हैं, इसलिए वे व्यक्तिगत संग्रहों से किताबें माँगते हैं। पर क्या सच में ऐसा है? मेरे अपने शहर में डॉ. कामिल बुल्के की लाइब्रेरी है — शब्दों और भाषाओं का अद्भुत संग्रह। राज्य पुस्तकालय और ब्रिटिश लाइब्रेरी — दोनों ही ज्ञान के खज़ाने से भरे पड़े हैं। मैंने अपनी पढ़ाई के दिनों में इन्हीं लाइब्रेरियों से किताबें लीं, घंटों वहीं बैठकर पढ़ा। उन पन्नों की महक, लकड़ी की अलमारियों की ठंडक और पुराने कागज़ की स्याही में घुली हुई ख़ामोशी आज भी मेरे मन में जीवित है।

लाइब्रेरी जाना एक अनुशासन सिखाता है। किताबों के साथ समय बिताने की एक लय बनती है। वहाँ आपको केवल ज्ञान नहीं मिलता, बल्कि धैर्य और विनम्रता भी मिलती है। आज जब सब कुछ ऑनलाइन उपलब्ध है, तब भी असली किताबों की दुनिया की तुलना नहीं की जा सकती। डिजिटल पन्ने रोशनी देते हैं, लेकिन कागज़ के पन्ने आत्मा देते हैं।

अब जब मैं किताबें खरीदती हूँ, तो वह मेरे लिए कोई साधारण ख़रीदारी नहीं होती। यह मेरे भीतर की यात्रा होती है। कुछ किताबें मेरे अकेलेपन की सखी हैं — वे तब साथ होती हैं जब शब्दों की ज़रूरत होती है, लेकिन लोग नहीं। कुछ किताबें मेरे विचारों की हमसफ़र हैं — वे तब जवाब देती हैं जब दुनिया सवाल पूछती है। हर किताब मेरे मन का एक कोना है, एक स्मृति है, एक विचार का विस्तार है। कभी-कभी मैं सोचती हूँ — किसी किताब को उधार देना वैसा ही है जैसे अपने दिल का एक टुकड़ा किसी को दे देना और फिर रोज़ यह सोचना कि क्या वह लौटेगी भी या नहीं।

कई बार किताबें लौटती नहींं। कई बार वे लौटती हैं, लेकिन उनके पन्नों से वह अपनापन गायब होता है जो पहले था। इसीलिए मैंने सीखा है कि किताबों को दान नहीं करती, बस उन्हें जीती हूँ। हमारे समाज में “दान” का एक विशेष स्थान है, लेकिन हर चीज़ दान योग्य नहीं होती। किताबें उनमें से एक हैं। किताबें तब दान बन जाती हैं जब उन्हें देने वाला उन्हें केवल वस्तु समझता है, और पाने वाला उन्हें केवल सजावट समझता है। लेकिन जब दोनों उन्हें “अनुभव” मानते हैं, तब वे आत्मा का आदान-प्रदान बन जाती हैं।

किताबें किसी भी समाज का बौद्धिक आधार हैं। लेकिन जब हम उन्हें सिर्फ़ “मुफ़्त में पाने” की मानसिकता से देखते हैं, तो हम उस ज्ञान की गरिमा को छोटा कर देते हैं। किताबें खरीदना, पढ़ना, संभालना — यह सब एक संस्कृति है, जो धीरे-धीरे गायब हो रही है। हम चाहते हैं कि सब हमें “मुफ़्त” मिले — शिक्षा, किताबें, विचार, प्रेरणा — लेकिन कोई यह नहीं पूछता कि उनके निर्माण में कितना श्रम और समर्पण लगा है।

अगर सच में किसी को किताबों से प्रेम है, तो वह उन्हें पाने की कोशिश करेगा। वह अपनी तनख्वाह का थोड़ा हिस्सा किताबों के लिए रखेगा। वह बुकफेयर में जाएगा, सेकंड हैंड स्टॉल पर पुराने शीर्षक खोजेगा, या किसी लेखक से संवाद करेगा। सच्चा पाठक किताबों को उधार नहीं माँगता — वह उन्हें खोजता है, अर्जित करता है, और पढ़ने के बाद अपने भीतर उन्हें जीवित रखता है। किताबों की असली कीमत वही समझ सकता है, जिसने उन्हें अपने श्रम, अपनी जिज्ञासा और अपने प्रेम से पाया हो।

वो जानता है कि किताबें सिर्फ़ ज्ञान नहीं देतीं, वे जीवन का नज़रिया देती हैं। किताबें किसी के विचारों का संग्रह नहीं, बल्कि आत्मा का विस्तार हैं। वे हमें यह सिखाती हैं कि पढ़ना केवल जानकारी पाना नहीं, बल्कि अपने भीतर के संसार को गहराई देना है।

कभी-कभी मैं सोचती हूँ — किताबों की असली ताक़त यही है कि वे हमें आत्मनिर्भर बनाती हैं। वे सिखाती हैं कि ज्ञान किसी की दया पर निर्भर नहीं होता। और शायद यही कारण है कि मैं अपनी किताबें आसानी से किसी को नहीं देती — क्योंकि उन्होंने मुझे वही सिखाया है जो शायद कोई इंसान नहीं सिखा सका। किताबें दान की वस्तु नहीं, आत्मा की भाषा हैं। वे अपने भीतर हमारे विचारों, संवेदनाओं और संघर्षों का संग्रह रखती हैं।

इसलिए जब कोई मुझे कहता है — “आपके पास इतनी किताबें हैं, कुछ दे दीजिए,” तो मैं मुस्कुरा कर कहती हूँ — “अगर सच में किताबों से प्रेम है, तो उन्हें खोजिए, खरीदिए, और पढ़िए।”

क्योंकि किताबों से प्रेम का असली प्रमाण उन्हें माँगना नहीं, बल्कि उन्हें जीना है। और जब आप किसी किताब को जी लेते हैं — तब वह कभी छूटती नहीं, वह आपके भीतर बस जाती है — हमेशा के लिए।

(लेखिका — प्रियंका सौरभ, स्वतंत्र लेखिका एवं सामाजिक चिंतक)

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

बिहार चुनाव में सियासत और अपराध का नापाक गठजोड़

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बाल मुकुन्द ओझा

भारतीय लोकतंत्र में अपराधी इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं कि कोई भी राजनीतिक दल उन्हें नजरअंदाज नहीं कर पा रहा। पार्टियाँ उन्हें नहीं चुनती बल्कि वे चुनते हैं कि उन्हें किस पार्टी से लड़ना है। उनके इसी बल को देखकर उन्हें बाहुबली का नाम मिला है। कभी राजनीति के धुरंधर, अपराधियों का अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करते थे अब दूसरे को लाभ पहुँचाने के बदले उन्होंने खुद ही कमान संभाल ली है। चुनाव आते हैं तो राजनीति और अपराध जगत का संबंध भी सुर्खियों में आ जाता है। हम बात कर रहे है बिहार की जहां चुनाव सुधारों को बेहतर बनाने के लिए काम करने वाले संगठन एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और बिहार इलेक्शन वॉच की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में पहले चरण का चुनाव लड़ रहे  हर तीसरे उम्मीदवार पर आपराधिक मुकदमा दर्ज है। पहले चरण में चुनावी रण में कुल 1,314 उम्मीदवार ताल ठोंक रहे हैं। ADR और बिहार इलेक्शन वॉच ने इन सभी के शपथ पत्रों का गहन विश्लेषण किया तो पता चला कि इसमें से 423 कैंडिडेट ने अपने ऊपर दर्ज हुए आपराधिक मुकदमों का ब्यौरा दिया है। हलफनामे के अनुसार 1,314 में से 354 उम्मीदवारों पर गंभीर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं। इनमें से 33 ने हत्या,  86 उम्मीदवारों ने हत्या की कोशिश, 42 ने महिला अपराध और 2 ने खुद पर दुष्कर्म के आरोपों की जानकारी दी है। इनमें CPI ML के 14 में 13, CPI के 3 में 3, जबकि राजद के 70 में से 53 उम्मीदवारों पर आपराधिक मुकदमें दर्ज़ है। जबकि बीजेपी के 48 में से 31, कांग्रेस के 23 में से 15,  लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के 13 में 7, जनसुराज पार्टी के 114 में 50 तथा जदयू के 57 में 22 उम्मीदवारों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज है। कहने का तात्पर्य है कोई भी पार्टी अपराधी तत्वों को टिकट थमाने में पीछे नहीं है। अन्य पार्टियों की भी कमोवेश यही स्थिति है। ये आंकड़ा बताता हैं कि राजनीति को अपराध मुक्त बनाने की लाखों कोशिशों के बावजूद ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है जिनके खिलाफ आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। लोकतंत्र की दुहाई देने वाले नेताओं और सियासी पार्टियों के नापाक गठजोड़ से जनता जनार्दन को जागरूक होने की जरुरत है। अपराधियों को नेताओं का समर्थन हो या नेताओं की अपराधियों को कानून के शिकंजे से बचाने की कोशिश, आखिर राजनैतिक दलों पर अपराधियों का ये कैसा असर है। 

राजनीति में शुचिता को लेकर ऊपरी तौर पर सभी सियासी दल सहमत है मगर व्यवहार में उनकी कथनी और करनी में भारी अंतर है। लगभग सभी दल चुनाव जीतने के लिए ऐसे उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारते है जो बाहुबली होने के साथ आपराधिक आचरण वाले है। नेताओं के खिलाफ अदालती मुकदमें कोई नयी बात नहीं है। आजादी के बाद से ही नेताओं को विभिन्न धाराओं में दर्ज मुकदमों का सामना करना पड़ रहा है। पिछले दो दशकों में ऐसे मामलों में यकायक ही तेजी आयी। दर्ज मुकदमों में हत्या, हत्या के प्रयास, सरकारी धन का दुरूपयोग, भ्रष्टाचार, बलात्कार जैसे गंभीर प्रकृति के मुकदमें भी शामिल है। कई नामचीन नेता आज भी जेलों में बंद होकर सजा भुगत रहे है और अनेक नेता जमानत पर बाहर आकर मुकदमों का सामना कर रहे है। वर्षों से इन मुकदमों का फैसला नहीं होने से हमारी लोकतान्त्रिक प्रणाली पर सवाल उठते रहे है। लम्बे मुकदमें चलने से सबूत मिलने में काफी परेशानी होती है और अंततोगत्वा आरोपी बरी हो जाते है। सुप्रीम अदालत यदि ऐसे मुकदमों के शीघ्र निस्तारण के लिए कोई सख्त कदम उठाये तो पीड़ितों को न्याय मिल पायेगा।

पिछले सालों में देश में जिस तरह हमारी राजनीति का अपराधीकरण हुआ है और आपराधिक तत्वों की ताकत बढ़ी है, वह जनतंत्र में हमारी आस्था को कमजोर बनाने वाली बात है। राजनीतिक दलों द्वारा अपराधियों को शह देना, जनता द्वारा वोट देकर उन्हें स्वीकृति और सम्मान देना और फिर कानूनी प्रक्रिया की कछुआ चाल, यह सब मिलकर हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था और जनतंत्र के प्रति हमारी निष्ठा, दोनों, को सवालों के घेरे में खड़ा कर देते हैं। प्रधानमंत्रीजी आपने वादा किया था देश को दागी राजनीति से मुक्त कराने का। केवल एक परिवार पर कार्यवाही से देश इस दंश से मुक्त नहीं होगा। आज हर दल में दागी शीर्ष पर बैठे है। वे देश के भाग्यविधाता बन बैठे है। थोड़ी हिम्मत दिखाइए और इन काले नागों का फन कुचल दीजिये। पूरा देश आपको सदियों याद रखेगा। दागी राजनीति को समाप्त करने में आपके अप्रतिम योगदान को इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32 मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर