प्रिंट मीडिया की साख आज भी कायम

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न्यूज चैनलों पर नफरती बयान :

बाल मुकुन्द ओझा
हमारा पड़ोसी देश नेपाल सोशल मीडिया से उत्पन्न हिंसक क्रांति की आग से सुलग रहा है। नेपाल में चल रहे विरोध प्रदर्शनों और हिंसा को लेकर भारत का सियासी पारा भी हाई है। वहीं हमारे यहां के बयानवीर नेता भारत में भी अपने बयानों के जरिये आग लगाने का कुत्सित प्रयास कर रहे है। रही सही कसर टीवी चैनलों की बहस पूरी कर रहे है। विभिन्न न्यूज़ चैनलों पर बहस के दौरान कांग्रेस सहित इंडिया ब्लॉक के नेता भारत में भी ऐसी घटनाओं के घटित होने पर अपनी आग उगलने लगे है। संजय राउत और उदित राज जैसे नेता कहां पीछे रहने वाले है। सोशल मीडिया को कुछ लोगों ने अपना हथियार बनाकर नेपाल के हालात की भारत से तुलना करने लगे हैं। सोशल मीडिया पर कह दिया कि लोग चर्चा कर रहे हैं जिस तरह से नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश में सत्ता को जनता ने उखाड़ फेंका है, क्या भारत में ऐसा नहीं हो सकता।
देश के नामी गिरामी न्यूज़ चैनलों पर अभद्रता, गाली गलौज और मारपीट की घटनाएं अब आम हो गई है। न्यूज चैनल्स की डिबेट्स की भाषाई मर्यादाएं और गरिमा तार तार हो रही है। ऐसा लगता है डिबेट्स में झूठ और नफरत का खुला खेल खेला जा रहा है। डिबेट्स और चैनलों का ये गिरता स्तर लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। प्रमुख पार्टियों के प्रवक्ता जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग कर रहे है वह निश्चय ही निंदनीय और शर्मनाक है। देश में कुकुरमुत्तों की तरह न्यूज़ चैनलों की बाढ़ सी आ गई है। इन चैनलों पर प्रतिदिन देश में घटित मुख्य घटनाओं और नेताओं की बयानबाजी पर टीका टिप्पणियों को देखा और सुना जा सकता है। राजनीतिक पार्टियों के चयनित प्रवक्ता और कथित विशेषज्ञ इन सियासी बहसों में अपनी अपनी पार्टियों का पक्ष रखते है। न्यूज़ चैनलों पर इन दिनों जिस प्रकार के आरोप प्रत्यारोप और नफरती बोल सुने जा रहे है उससे लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ते देखा जा सकता है। बड़े बड़े और धमाकेदार शीर्षकों वाली इन बहसों को सुनकर किसी मारधाड़ वाली फिल्मों की यादें जाग्रत हो उठती है। एंकर भी इनके आगे असहाय नज़र आते है। कई बार छीना झपटी, गाली गलौज और मारपीट की नौबत आ जाती है। सच तो यह है जब से टीवी न्यूज चैनलों ने हमारी जिंदगी में दखल दिया है तब से हम एक दूसरे के दोस्त कम दुश्मन अधिक बन रहे है। समाज में भाईचारे के स्थान पर घृणा का वातावरण ज्यादा व्याप्त हो रहा है। बहुत से लोगों ने मारधाड़ वाली और डरावनी बहसों को न केवल देखना बंद कर दिया है अपितु टीवी देखने से ही तौबा कर लिया है। लोगों ने एक बार फिर इलेक्ट्रॉनिक के स्थान पर प्रिंट मीडिया की ओर लौटना शुरू कर दिया है। आज भी अखबार की साख और विश्वसनीयता अधिक प्रामाणिक समझी जा रही है। डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की अपेक्षा आज भी प्रिंट मीडिया पर लोगों की विश्वसनीयता बरकरार है। आज भी लोग सुबह सवेरे टीवी न्यूज़ नहीं अपितु अखबार पढ़ना पसंद करते है। प्रबुद्ध वर्ग का कहना है प्रिंट मीडिया आज भी अपनी जिम्मेदारी का बखूबी निर्वहन कर रहा है।
इस समय देश के न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया पर नफरत और घृणा के बादल मंडरा रहे है। देश में हर तीसरे महीने कहीं न कहीं चुनावी नगाड़े बजने शुरू हो जाते है। इस साल बिहार में चुनाव होने वाले है। चुनावों के आते ही न्यूज़ चैनलों की बांछें खिल जाती है। चुनावों पर गर्मागरम बहस शुरू हो जाती है। राजनीतिक दलों के नुमाइंदे अपने अपने पक्ष में दावे प्रतिदावे शुरू करने लग जाते है। इसी के साथ ऐसे ऐसे आरोप और नफरत पैदा करने वाली दलीले दी जाने लगती है कि कई बार देखने वालों का सिर शर्म से झुक जाता है। यही नहीं देश में दुर्भाग्य से कहीं कोई घटना दुर्घटना घट जाती है तो न्यूज़ चैनलों पर बढ़चढ़कर ऐसी ऐसी बातों की झड़ी लग जाती है जिन पर विश्वास करना नामुमकिन हो जाता है। इसीलिए लोग इलेक्ट्रॉनिक के स्थान पर प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता को अधिक प्रमाणिक मानते है। इसी कारण लोगों ने टीवी चैनलों पर होने वाली नफरती बहस को देखनी न केवल बंद कर दी अपितु बहुत से लोगों ने टीवी देखने से ही तौबा कर ली।
गंगा जमुनी तहजीब से निकले भारतीय घृणा के इस तूफान में बह रहे हैं। विशेषकर नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद घृणा और नफरत के तूफानी बादल गहराने लगे है। हमारे नेताओं के भाषणों, वक्तव्यों और फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर सुचिता के स्थान पर नफरत, झूठ, अपशब्द, तथ्यों में तोड़-मरोड़ और असंसदीय भाषा का प्रयोग धड़ल्ले से होता देखा जा सकता हैं। हमारे नेता अब आए दिन सामाजिक संस्कारों और मूल्यों को शर्मसार करते रहते हैं। स्वस्थ आलोचना से लोकतंत्र सशक्त, परंतु नफरत भरे बोल से कमजोर होता है, यह सर्व विदित है। आलोचना का जवाब दिया जा सकता है, मगर नफरत के आरोपों का नहीं। आज पक्ष और विपक्ष में मतभेद और मनभेद की गहरी खाई है। यह अंधी खाई हमारी लोकतान्त्रिक परम्पराओं को नष्ट भ्रष्ट करने को आतुर है। देश में व्याप्त नफरत के इस माहौल को खत्म कर लोकतंत्र की ज्वाला को पुर्नस्थापित करने की महती जरूरत है और यह तभी संभव है जब हम खुद अनुशासित होंगे और मर्यादा की लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन नहीं करेंगे।

बाल मुकुन्द ओझा
वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार
मालवीय नगर, जयपुर

धार्मिकता का ढोंग और मृत संवेदनाएं

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जब यह बच्चे ठेले पर लाश लेकर श्मशान घाट पहुंचे तो बताया गया कि वहां जलाने हेतु लकड़ी नहीं है। और फिर जब यह बेगुनाह मासूम अपने बाप के शव को लेकर क़ब्रिस्तान पहुंचे तो क़ब्रिस्तान वालों ने यह कहकर लाश को दफ़्न करने से मना कर दिया कि यह शव हिन्दू का है ।

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निर्मल रानी
हमारा भारत वर्ष कृषि प्रधान होने के साथ साथ ‘धर्म प्रधान’ देश भी माना जाता है। यहाँ सुबह चार बजे से ही विभिन्न धर्मों के लोग अपने अपने आराध्य को ख़ुश करने के ‘मिशन ‘ में अपने अपने तरीक़े से जुट जाते हैं। धर्मस्थलों में लगे लाउडस्पीकर ब्रह्म मुहूर्त में ही देशवासियों को अपने अपने आराध्य व अपने देवालयों की ओर आकर्षित करने लगते हैं। इसके अलावा भी देश भर में निकलने वाले विभिन्न धर्मों के धार्मिक जुलूस,शोभा यात्रायें,सत्संग में होने वाले संतों के प्रवचन,धर्म जागरण के नाम पर चलने वाले अनेक अतिवादी मिशन, कांवड़ जैसी यात्रायें महाकुंभ जैसे विश्वस्तरीय आयोजन,तीर्थ स्थलों में इकट्ठी होने वाली भक्तों की अनियंत्रित भीड़ आदि को देख कर तो एक बार यही लगेगा कि हर समय श्रद्धा व भक्ति भाव में डूबे रहने वाले हमारे धर्म प्रधान देश के लोग बेहद धार्मिक,संवेदनशील और मानवता की क़द्र करने वाले लोग होंगे। रोज़ाना जगह जगह लगने वाले लंगर,देश भर में संचालित हो रही अनेकानेक जनसेवी संस्थायें भी इसी बात का एहसास दिलाती हैं।
परन्तु इसी ‘धर्म प्रधान देश’ से जहां मानवता की मिसाल पेश करने वाले अनेकानेक क़िस्से सुनाई देते हैं वहीँ कुछ घटनायें ऐसी भी सामने आती हैं जिन्हें सुनकर ऐसा लगता है गोया इसी भारतीय समाज के ही कुछ लोगों की संवेदनायें बिल्कुल ही मुर्दा हो चुकी हैं। ऐसे लोगों में इंसानियत नाम की चीज़ ही नहीं बची है। दिल दहला देने वाली ऐसी ही एक घटना पिछले दिनों उत्तर प्रदेश राज्य के महराजगंज ज़िले में स्थित नौतनवा क़स्बे में पेश आई। भारत-नेपाल सीमा पर स्थित नौतनवा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के शहर गोरखपुर से लगभग 87 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस पूरे पूर्वांचल क्षेत्र में धर्म ध्वजा पूरे वेग से लहराती है। इसी नौतनवा नगर पालिका के अंतर्गत राजेंद्र नगर वॉर्ड से एक बड़ा ही हृदयविदारक दृश्य सामने आया। इस ताज़ातरीन घटना ने तो इंसानियत को झकझोर कर रख दिया।
समाचारों के अनुसार रेहड़ी ठेले पर गली गली चूड़ियां बेचकर अपने परिवार का पालन पोषण करने वाले 50 वर्षीय लव कुमार पटवा नामक एक व्यक्ति का लंबी बीमारी के बाद देहांत हो गया। लव कुमार की पत्नी का निधन भी अभी मात्र छह माह पहले ही हुआ था। अब उसके परिवार में उसके दो बेटे 14 वर्षीय राजवीर व 10 वर्षीय देवराज तथा एक छोटी बेटी बचे थे। अब इन्हीं बच्चों पर अपने मृत पिता के अंतिम संस्कार की ज़िम्मेदारी थी। उसका कोई भी रिश्तेदार या पड़ोसी अंतिम संस्कार करने के लिये सामने नहीं आया। बच्चों की दादी आई भी तो रो पीट कर वापस चली गयी। बच्चे अंतिम संस्कार करने या उसके लिये सहायता करने की भीख समाज से मांगते रहे। यहाँ तक कि तीन दिन तक लाश घर में सड़ती रही। ज़रा सोचिये कि क्या गुज़र रही होगी उन मासूम बच्चों पर जब वे अपने बाप की रेहड़ी पर ही अपने बाप की सड़ी हुई लाश रखकर लोगों से अंतिम संस्कार हेतु पैसे मांगते फिर रहे होंगे ? जब यह बच्चे ठेले पर लाश लेकर श्मशान घाट पहुंचे तो बताया गया कि वहां जलाने हेतु लकड़ी नहीं है। और फिर जब यह बेगुनाह मासूम अपने बाप के शव को लेकर क़ब्रिस्तान पहुंचे तो क़ब्रिस्तान वालों ने यह कहकर लाश को दफ़्न करने से मना कर दिया कि यह शव हिन्दू का है ।
आख़िरकार बच्चे लाश को ठेले पर रखकर सड़क पर खड़े होकर रोने बिलखने लगे। कोई दुर्गन्ध से अपनी नाक बंद कर गुज़र जाता तो कोई उन बदनसीब बच्चों की फ़ोटो खींचता या वीडिओ बनाता परन्तु मदद करने के लिये ‘धर्म जागृत समाज ‘ का कोई भी व्यक्ति सामने न आता। हद तो यह है कि ठेले पर शव रखा देखने व मृतक लव कुमार के स्थानीय व्यक्ति होने के बावजूद कुछ लोग यह कहकर आगे बढ़ जाते कि ‘यह भीख मांगने का नया ट्रेंड है’ । इसी दौरान यह मायूस बच्चे जब अपने बाप की लाश को ठेले पर ढकेलते हुये नदी की ओर रोते बिलखते जा रहे थे तभी राहुल नगर वार्ड के निवासी रशीद क़ुरैशी की नज़र उन बच्चों व उनके साथ दुर्गन्ध मारती लाश पर पड़ी। बच्चों ने रोते बिलखते अपनी सारी पीड़ा रशीद से सांझी की। रशीद ने तुरंत अपने भाई व उसी राहुल नगर (वार्ड 17) के पार्षद वारिस क़ुरैशी को फ़ोन पर पूरी घटने की जानकारी दी। उसके बाद दोनों क़ुरैशी बंधुओं ने सर्वप्रथम उन रोते बच्चों को ढारस बंधाई और उन्हें संभाला। उसके बाद अंतिम संस्कार हेतु लकड़ी व आवश्यक सामग्री का प्रबंध किया। फिर समाज के कुछ लोगों को साथ लेकर शमशान घाट जाकर हिन्दू रीति रिवाज के साथ मृतक का अंतिम संस्कार कराया। आज उस इलाक़े के लोग मानवता की रक्षा करने वाले क़ुरैशी भाइयों की इंसानियत को जहाँ सलाम कर रहे हैं, वहीं उनके रिश्तेदारों और पड़ोसियों की बेरुख़ी तथा नगर पालिका की लापरवाही पर भी घोर ग़ुस्सा जता रहे हैं। साथ ही उस इलाक़े के ‘हिन्दू जागरण अभियान’ में जुटे लोगों को भी कटघरे में खड़ा कर रहे हैं।
पिछले दिनों ऐसा ही एक चित्र जिसे पंजाब की बाढ़ से संबंधित बताया जा रहा है,सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। इस चित्र में एक मासूम बच्चा बाढ़ के पानी में अपनी मां की तैरती लाश को खींच रहा है। शायद इस उम्मीद से कि उसकी मां मरी नहीं है। इस मार्मिक दृश्य को देखने वाले लोग आगे बढ़कर बच्चे को गोद उठाने व उसकी मां की लाश को पानी से बाहर निकालने में मदद करने के बजाय मोबाईल से इस दृश्य का वीडीओ बनाना ज़्यादा ज़रूरी समझ रहे हैं। क्या इस तरह की घटनाएं इस बात का सुबूत नहीं कि हमारे धर्म प्रधान देश में होने वाले इस तरह के हादसों के बाद केवल किसी इंसान की ही मौत नहीं होती बल्कि यह मानवता की मौत भी है। इससे यह भी पता चलता है कि धार्मिकता का ढोंग करने वाले ऐसे लोगों की संवेदनायें पूरे तरह मृत हो चुकी हैं।


निर्मल रानी

क्या भारत में भी बन सकते हैं नेपाल जैसे हालात?

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लोकतंत्र में असहमति और आलोचना स्वाभाविक है। लेकिन जब विपक्ष यह कहे कि भारत भी नेपाल जैसी अस्थिरता की ओर बढ़ रहा है, तो वह परोक्ष रूप से जनता को संदेश देता है कि सड़कों पर उतरकर हिंसा और तोड़फोड़ ही बदलाव का रास्ता है।

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नीरज कुमार दुबे

नेपाल की राजनीतिक अस्थिरता और वहाँ बार-बार बदलती सरकारों को आधार बनाकर भारत के विपक्षी नेता यह कह रहे हैं कि “भारत में भी ऐसे हालात हो सकते हैं।” पहली नज़र में यह बयान साधारण राजनीतिक टिप्पणी लगता है, लेकिन गहराई से देखें तो इसके गंभीर निहितार्थ हैं। यह न केवल देश की जनता को असमंजस में डालने की कोशिश है बल्कि अराजकता को हवा देने का भी प्रयास है।

लोकतंत्र में असहमति और आलोचना स्वाभाविक है। लेकिन जब विपक्ष यह कहे कि भारत भी नेपाल जैसी अस्थिरता की ओर बढ़ रहा है, तो वह परोक्ष रूप से जनता को संदेश देता है कि सड़कों पर उतरकर हिंसा और तोड़फोड़ ही बदलाव का रास्ता है। इतिहास गवाह है कि जब भीड़ भड़कती है तो सबसे पहले निशाना सार्वजनिक संपत्ति बनती है— बसों को जलाना, सरकारी कार्यालयों पर हमला करना, रेलमार्ग रोकना। विपक्ष का यह बयान उसी मानसिकता को जन्म देने वाला है।

देखा जाये तो यह तुलना स्वयं में ही बेमानी है। भारत की लोकतांत्रिक जड़ें नेपाल की तुलना में कहीं अधिक मज़बूत हैं। यहाँ स्वतंत्र न्यायपालिका है, सक्रिय चुनाव आयोग है और जनता का भरोसा चुनावी प्रक्रिया में अटूट है। भारतीय मतदाताओं ने हमेशा स्पष्ट किया है कि परिवर्तन यदि होगा तो वह केवल मतदान से होगा, सड़क पर हिंसा से नहीं। ऐसे में विपक्ष का असली मक़सद यह प्रतीत होता है कि जनता में डर और असंतोष का माहौल बनाया जाए ताकि सरकार की वैधता पर सवाल खड़े हों। किंतु प्रश्न यह है कि क्या यह लोकतांत्रिक राजनीति है या केवल अवसरवादी रणनीति? लोकतंत्र में असहमति संविधान की मर्यादाओं में रहकर व्यक्त की जानी चाहिए, न कि अराजकता का वातावरण बनाकर।

विपक्षी नेताओं को यह समझना होगा कि नेपाल और भारत की परिस्थितियों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है। भारत में संस्थाएँ सुदृढ़ हैं और जनता का विश्वास स्थिरता व विकास में है। नेपाल का हवाला देकर भारत को अस्थिर बताना केवल जनता को भड़काने का प्रयास है, जिसका अंतिम परिणाम राष्ट्रहित के विरुद्ध ही होगा। लोकतंत्र की असली ताक़त जनता का विश्वास और संवैधानिक प्रक्रिया में आस्था है। विपक्ष को यह समझना चाहिए कि भारत में परिवर्तन की राह हिंसा या अराजकता से नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक माध्यमों से ही निकलेगी।

इसके अलावा, “नेपाल जैसा आंदोलन” भारत में दोहराया जा सकता है या नहीं, इसका विश्लेषण कुछ बिंदुओं में करना ज़रूरी है। सबसे पहले नेपाल के संदर्भ को देखें तो वहां 2006 का जनआंदोलन (लोकतांत्रिक आंदोलन) राजशाही को समाप्त करके गणतंत्र लाने का कारण बना। उसके पीछे कुछ खास परिस्थितियाँ थीं। जैसे- लंबे समय से चली आ रही राजशाही और लोकतांत्रिक आकांक्षाओं का टकराव देखने को मिल रहा था। माओवादी विद्रोह और सशस्त्र संघर्ष से दबाव उपजा हुआ था। राजनीतिक दलों और जनता का राजशाही के खिलाफ़ व्यापक एकजुट होना भी एक कारण था।

वहीं भारत की परिस्थितियाँ नेपाल से बिल्कुल अलग हैं। भारत 1947 से ही एक लोकतांत्रिक गणराज्य है; यहाँ राजशाही जैसी व्यवस्था का अवशेष नहीं है। भारत का संविधान अत्यंत मज़बूत है और इसमें लोकतांत्रिक अधिकारों, संघीय ढांचे और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को स्पष्ट सुरक्षा प्राप्त है। साथ ही भारत का राजनीतिक परिदृश्य बहुदलीय है, यहां विभिन्न विचारधाराओं को मंच मिलता है, जिससे असंतोष विद्रोह में बदलने से पहले ही संस्थागत रास्ता खोज लेता है। इसके अलावा, भारतीय सेना और सुरक्षा तंत्र राजनीतिक रूप से तटस्थ हैं, जबकि नेपाल में राजशाही का सीधा प्रभाव सेना पर था।

देखा जाये तो संवैधानिक संकट या राजशाही विरोध जैसा आंदोलन भारत में संभव नहीं है क्योंकि यहाँ राजशाही या निरंकुश शासन की गुंजाइश ही नहीं है। जनता के बड़े आंदोलन (जैसे 1975-77 का आपातकाल विरोध, 2011 का अन्ना हज़ारे आंदोलन, किसान आंदोलन आदि) भारत में हुए हैं और आगे भी हो सकते हैं। लेकिन ये आंदोलन संवैधानिक ढांचे के भीतर रहते हैं और सत्ता-परिवर्तन लोकतांत्रिक प्रक्रिया यानि चुनाव से ही होता है। भारत की विविधता, लोकतांत्रिक संस्थाएँ और संघीय ढांचा किसी एक समूह या विचारधारा को पूरे देश पर “क्रांतिकारी” ढंग से हावी होने नहीं देता।

देखा जाये तो भारत का लोकतंत्र दुनिया के सबसे जीवंत और विविध लोकतंत्रों में से एक है। यहाँ असहमति और विरोध प्रदर्शन लोकतांत्रिक परंपरा का स्वाभाविक हिस्सा रहे हैं। पिछले पाँच दशकों में कई ऐसे आंदोलन हुए जिन्होंने देश की राजनीति की दिशा बदल दी, लेकिन महत्वपूर्ण यह रहा कि ये बदलाव लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर ही संपन्न हुए। यही वह अंतर है जो भारत को पड़ोसी देशों की उथल-पुथल से अलग करता है।

1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया, जिसमें नागरिक स्वतंत्रताएँ सीमित कर दी गईं। प्रेस सेंसरशिप, विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी और राजनीतिक दमन ने जनता में गुस्सा भर दिया। दो साल बाद जब चुनाव हुए तो जनता ने इंदिरा गांधी की सरकार को सिरे से नकार दिया। आपातकाल का विरोध साबित करता है कि भारत में जनता अंततः लोकतंत्र की बहाली और सत्ता परिवर्तन का सबसे बड़ा माध्यम है।

इसके अलावा, भ्रष्टाचार के खिलाफ़ अन्ना हज़ारे का जनांदोलन युवाओं और शहरी मध्यम वर्ग का प्रतीक बन गया। लाखों लोग सड़कों पर उतरे और जनलोकपाल की मांग गूँजने लगी। इस आंदोलन ने दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार को सत्ता से हटा दिया और केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व वाली तत्कालीन यूपीए सरकार के खिलाफ भी नाराजगी पैदा की। इसके परिणामस्वरूप आम आदमी पार्टी जैसी नई राजनीतिक शक्ति का उदय हुआ। इस तरह से सत्ता में बदलाव लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के ज़रिए हुआ।

वहीं तीन कृषि कानूनों के विरोध में किसानों का लंबे समय तक चला आंदोलन भी भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता का उदाहरण है। लाखों किसान दिल्ली की सीमाओं पर डटे रहे, लेकिन आंदोलन लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर ही चला। अंततः सरकार को तीनों कृषि कानून वापस लेने पड़े। यह घटना बताती है कि भारत में जनता शांतिपूर्ण और संगठित तरीके से सरकार की नीतियों को बदलने की ताक़त रखती है।

इन तीनों उदाहरणों से स्पष्ट है कि भारत में आंदोलन सत्ता को हिला सकते हैं, सरकारें बदल सकती हैं, लेकिन यह सब संविधान और लोकतंत्र की मर्यादा के भीतर होता है। न तो नेपाल जैसी राजशाही उखाड़ने की स्थिति बनी, न ही सैन्य हस्तक्षेप की। भारत की जनता लोकतांत्रिक मूल्यों में गहरी आस्था रखती है और यही भारत के राजनीतिक ताने-बाने की सबसे बड़ी शक्ति है। लोकतंत्र की यही खूबी है कि यहाँ असहमति बग़ावत नहीं बनती, बल्कि बदलाव का वैधानिक मार्ग प्रशस्त करती है।

इसके अलावा, 2014 से अब तक भारत ने राजनीतिक स्थिरता का जो अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया है, वह दुनिया के कई बड़े लोकतांत्रिक देशों और पड़ोसी राष्ट्रों की स्थिति से बिल्कुल अलग खड़ा होता है। दुनिया के सबसे अमीर देशों के समूह जी-7 पर नज़र डालें तो पिछले दस वर्षों में वहां नेतृत्व बदलने की परंपरा लगातार जारी रही है। अमेरिका में बराक ओबामा से लेकर ट्रम्प और बाइडेन और फिर ट्रम्प तक नेतृत्व बदला। ब्रिटेन में डेविड कैमरन से रिषि सुनक और अब कीर स्टारमर तक प्रधानमंत्री बदलते गए। इटली और जापान में भी प्रधानमंत्री बार-बार बदले। जर्मनी, कनाडा और फ्रांस में भी नेतृत्व का स्वरूप बदला। इन बड़े लोकतंत्रों में अस्थिरता सामान्य बात रही।

भारत के पड़ोसी देशों की स्थिति और भी नाटकीय रही। पाकिस्तान में प्रधानमंत्री कुर्सी का बार-बार बदलना अब चलन-सा हो गया है। नवाज़ शरीफ, इमरान ख़ान और शहबाज़ शरीफ सभी इस दौर में आ-जा चुके हैं। श्रीलंका में आर्थिक संकट ने सरकारें हिला दीं, नेपाल में गठबंधन की राजनीति ने स्थिरता को ग्रहण लगा दिया और बांग्लादेश में भी राजनीतिक टकराव ने नेतृत्व को अस्थिर किया।

इन सबके बीच भारत ने 2014 से एक ही नेता नरेंद्र मोदी पर भरोसा जताते हुए स्थिरता की मिसाल कायम की है। जनता ने लगातार तीन बार उन्हें सत्ता सौंपी। मोदी की लगातार जीत केवल चुनावी रणनीति की सफलता नहीं, बल्कि उस विश्वास का प्रमाण है जो जनता उनके नेतृत्व में महसूस करती है। मोदी की राजनीति का मूल मंत्र है— जनता से सीधा संवाद, विकास की ठोस योजनाएँ और राष्ट्रहित में निर्णायक फैसले। स्वच्छ भारत से लेकर डिजिटल इंडिया और आत्मनिर्भर भारत तक, उनकी हर पहल ने जनता को जोड़ा है और भरोसा जगाया है। मोदी की कार्यशैली कर्मठ, दृढ़ और दूरदर्शी मानी जाती है। आलोचना के बावजूद उनकी छवि उस नेता की है जो सिर्फ़ बोलता नहीं, बल्कि काम करके दिखाता है।

बहरहाल, देखा जाये तो आज जब विश्व की बड़ी ताक़तें नेतृत्व की अस्थिरता से जूझ रही हैं, भारत का लोकतंत्र नरेंद्र मोदी के रूप में निरंतरता और विश्वास का प्रतीक बना हुआ है। यही वह राजनीतिक पूँजी है जिसने भारत को न केवल अपने भीतर स्थिर रखा है, बल्कि दुनिया में भी एक आत्मविश्वासी और सशक्त राष्ट्र के रूप में खड़ा किया है। यह सब मिलकर दिखाता है कि नरेंद्र मोदी सिर्फ एक राजनीतिक शक्ति नहीं हैं, बल्कि एक ऐसा नेतृत्व हैं जिसे जनता ने “विश्वास के साथी” के रूप में स्वीकार किया है और यही कारण है कि 2014 से भारत में शासन उनके हाथों में बना हुआ है और आगे भी बना रहेगा। इसलिए विपक्ष के जो लोग भारत में नेपाल जैसे घटनाक्रम का सपना देख रहे हैं उन्हें मुंगेरी लाल के हसीन सपने देखते रहने दीजिये। ऐसे सपने देखने वाले नेता ना तो जनता पर विश्वास करते हैं ना ही खुद पर इसलिए वह आपदा में अवसर की तलाश में हैं।

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)

दिल्ली में सोना 100 रुपये बढ़कर 1,13,100 के नए रिकॉर्ड स्तर पर

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बृहस्पतिवार को राष्ट्रीय राजधानी के सर्राफा बाजार में सोने की कीमत 100 रुपये बढ़कर 1,13,100 रुपये प्रति 10 ग्राम के अबतक के नए उच्चतम स्तर पर पहुंच गईं। अखिल भारतीय सर्राफा संघ ने यह जानकारी दी।वहीं चांदी की कीमत 500 रुपये टूटकर 1,28,000 रुपये प्रति किलोग्राम (सभी करों सहित) पर आ गई। पिछले कारोबारी सत्र में सफेद धातु 1,28,500 रुपये प्रति किलोग्राम पर रही थी। इस साल सोने की कीमतों में तेजी बनी हुई है!

सोना 31 दिसंबर, 2024 को 78,950 रुपये प्रति 10 ग्राम पर था। अबतक इसमें 34,150 रुपये यानी 43.25 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है। 99.5 प्रतिशत शुद्धता वाले सोने की कीमत भी 100 रुपये बढ़कर 1,12,600 रुपये प्रति 10 ग्राम (सभी करों सहित) के नए रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई।

पीएल कैपिटल के सीईओ (खुदरा ब्रोकिंग एवं वितरण) और निदेशक संदीप रायचुरा के अनुसार, सोने के लिए यह एक शानदार वर्ष रहा है…। यह उछाल केंद्रीय बैंकों की भारी खरीदारी, एक्सचेंज-ट्रेडेड फंडों में मजबूत निवेश, दरों में कई कटौती की उम्मीद और शुल्क से जुड़े लगातार वैश्विक तनावों के कारण हुआ है।’’ऑग्मोंट की शोध प्रमुख रेनिशा चैनानी ने कहा, ‘‘मुद्रास्फीति की चिंता, बढ़ता सार्वजनिक ऋण और अमेरिकी वृद्धि की गति कम होने जैसे बाजार जोखिम बढ़ने के कारण सोने की कीमतें सर्वकालिक उच्च स्तर पर पहुंच गई हैं। एक्सचेंज-ट्रेडेड फंड (ईटीएफ) का प्रवाह, विशेष रूप से एशिया में, सोने की कीमतों की तेजी के लिए एक महत्वपूर्ण कारक रहा है।’’

बांके बिहारी मंदिर में अब वीआईपी दर्शन की व्यवस्था समाप्त

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मथुरा के श्री बांके बिहारी मंदिर में अब वीआईपी दर्शन की व्यवस्था समाप्त कर दी गई है। अब मंदिर में वीआईपी पर्ची से दर्शन की व्यवस्था समाप्त हो चुकी है। अब से आम श्रद्धालुओं और वीआईपी एक लाइन में लगकर दर्शन करेंगे। इसके साथ ही दर्शन का समय बढ़ाने का निर्णय लिया गया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति ने गुरुवार को हुई बैठक में ये फैसला लिया ग है। इस फैसले से अब वीआईपी कल्चर पूरी तरह समाप्त हो जाएगा और सभी का समान अवसर प्राप्त होंगे।

अब गर्मी के मौसम में भक्तों को तीन घंटे से ज्यादा ठाकुरजी को दर्शन के लिए मिलेगा। सर्दियों के मौसम में ढाई घंटे से ज्यादा का समय ठाकुरजी के दर्शन के लिए मिलेंगे। 

– बांके बिहारी मंदिर में अब प्रवेश और निकासी के अलग रास्ते हैं। पुलिस तीन दिन में इस नए आदेश का क्रियान्वयनसुनिश्चित करेगी । मंदिर में अभी तक सुरक्षा निजी गार्डों के जिम्मे थी, लेकिन अब पूर्व सैनिकों या किसी नामचीन सिक्योरिटी एजेंसी को इसकी जिम्मेदारी सौंपी जाएगी। वही, मंदिर भवन व मंदिर परिसर की मजबूती और संरचना की जांच के लिए आईआईटी रुड़की की टीम से स्ट्रक्चरल ऑडिट कराने का निर्णय लिया गया था।

बांके बिहारी मंदिर में बड़े बदलाव किए गए हैं। अब बांके बिहारी जी के दर्शन लाइव स्ट्रीमिंग के जरिए होंगे। हर श्रद्धालु को ठाकुर जी का आशीर्वाद पहुंचाया जाएगा। 

दर्शन और आरती का नया समय

– गर्मियों में: सुबह 7-7:15 आरती

– दोपहर 12:30 तक दर्शन और 12:45 पर आरती

– शाम 4.15- 9:30 दर्शने और 9:30- 9:45 आरती

– सर्दियों में: सुबह 8-8:15 आरती

– दोपहर 1:30 बजे तक दर्शन, 1:45 आरती

– शाम 4-9 बजे तक दर्शन, 9:15 तक आरती

पंजाब में शस्त्रोंं का बड़ा जखीरा बरामद

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पंजाब में सुरक्षा बलों ने शस्त्रोंं का बड़ा जखीरा बरामद किया है। बरामद शस्त्रों में 16 पिस्तौल, 38 मैगज़ीन, 1,847 कारतूस और एक मोटर साइकिल शामिल है। गिरफ़्तार किए जाने वालों की पहचान फाज़िल्का के निवासियों के रूप में हुई है।

सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) और अपराध जाँच एजेंसी (सीआईए) ने पंजाब के फाजिल्का जिले में देर रात एक अभियान में हथियारों और गोला-बारूद का एक बड़ा जखीरा जब्त किया। अधिकारियों ने कहा कि ये पाकिस्तान समर्थित आतंकियों की तस्करी का प्रयास है। छापेमारी में दो संदिग्ध तस्करों को गिरफ्तार किया गया। अधिकारियों के अनुसार, बीएसएफ द्वारा सीआईए फाजिल्का के साथ मिलकर मिली खुफिया जानकारी के आधार पर थेह कलंदर गाँव में यह संयुक्त अभियान चलाया गया। टीमों ने 16 पिस्तौल, 38 मैगज़ीन, 1,847 ज़िंदा कारतूस और एक मोटरसाइकिल बरामद की। गिरफ़्तार किए गए लोगों की पहचान फाज़िल्का के झोक दीपुलाना और महातम नगर गाँवों के निवासियों के रूप में हुई है।

बीएसएफ ने कहा कि खुफिया जानकारी से सीमा पार तस्करी की कोशिश का संकेत मिला था। इसके चलते यह छापेमारी योजनाबद्ध तरीके से की गई। अधिकारियों ने इस ज़ब्ती को एक बड़ी कामयाबी बताया। कहा कि इससे पाकिस्तान से जुड़ी एक बड़ी न-आतंकवादी साजिश को झटका लगा है और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक संभावित ख़तरा टल गया है।

सादगी का संगम है मोदी के मंत्रियों की संपत्ति का ब्यौरा

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-नीरज कुमार दुबे

प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा वर्ष 2024–25 के लिए मंत्रिपरिषद के सदस्यों की संपत्ति का विवरण जारी किया गया है। पहली नज़र में यह सूची केवल आभूषण, ज़मीन, गाड़ियाँ और निवेशों का ब्योरा लगती है, लेकिन गहराई से देखने पर यह भारतीय राजनीति की मानसिकता, सामाजिक प्रतीकवाद और सत्ता की शैली का आईना बन जाती है। सबसे पहले ध्यान आकर्षित करता है जयंत चौधरी का क्रिप्टो निवेश। वह अकेले मंत्री हैं जिन्होंने डिजिटल संपत्ति घोषित की है। उन्होंने करीब 43 लाख रुपये के बिटकॉइन जैसे निवेश किये हैं। यह उस समय में खास महत्व रखता है जब भारत में क्रिप्टो अब भी कानूनी अनिश्चितता में है और RBI लगातार इससे जुड़े जोखिमों की चेतावनी देता रहा है। यह खुलासा दिखाता है कि नए दौर का नेतृत्व जोखिम लेने और नए वित्तीय प्रयोग करने से पीछे नहीं हट रहा।

इसके विपरीत, कई मंत्रियों ने पुराने वाहन अपनी संपत्ति में शामिल किए हैं। नितिन गडकरी की 31 साल पुरानी एम्बेसडर कार, विरेंद्र कुमार का 37 साल पुराना स्कूटर और रवनीत बिट्टू की 1997 मॉडल की मारुति, ये सब केवल धातु के ढाँचे नहीं, बल्कि एक राजनीतिक संदेश हैं। जनता को यह बताना कि नेता अब भी ‘साधारण’ हैं, विलासिता से दूर हैं और परंपरा को सँजोए हुए हैं। लेकिन इस सादगी के बीच एक और पैटर्न साफ़ झलकता है— हथियारों की मौजूदगी। रिवॉल्वर, पिस्तौल और राइफल घोषित करने वाले मंत्री कम नहीं हैं। यह उस सामाजिक और राजनीतिक संस्कृति को दर्शाता है जहाँ ताक़त का प्रदर्शन और व्यक्तिगत सुरक्षा सत्ता के साथ कदमताल करती है।

सबसे बड़ा हिस्सा, अपेक्षा के अनुसार सोने और आभूषणों का है। राव इंदरजीत सिंह के पास 1.2 करोड़ रुपये से अधिक का सोना और हीरे हैं। नितिन गडकरी व एल. मुरुगन के पास भी लाखों के आभूषण हैं। देखा जाये तो भारतीय समाज में आभूषण सदियों से आर्थिक सुरक्षा और सामाजिक प्रतिष्ठा दोनों का प्रतीक रहे हैं, मंत्रियों की संपत्ति भी इस परंपरा को दोहराती है।

मोदी सरकार में महिला मंत्रियों की बात करें तो वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पास 27 लाख से अधिक के आभूषण, म्यूचुअल फंड में 19 लाख से ज्यादा और एक दोपहिया वाहन है। वहीं केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री अन्नपूर्णा देवी के पास भी रिवॉल्वर, राइफल, ट्रैक्टर और लगभग ₹एक करोड़ का म्यूचुअल फंड में निवेश हैं। महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री सावित्री ठाकुर के पास डबल बैरल गन और रिवॉल्वर तथा 67 लाख से ज्यादा के सोने के आभूषण हैं।

देखा जाये तो इन संपत्तियों का सार्वजनिक खुलासा लोकतंत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही की कसौटी है। यह जनता को भरोसा दिलाने का प्रयास भी है कि नेता अपनी आर्थिक स्थिति छिपा नहीं रहे। लेकिन इन घोषणाओं का एक दूसरा पहलू भी है कि संपत्ति अब केवल निजी स्वामित्व नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रतीक बन गई है।

बहरहाल, मोदी सरकार के मंत्रियों की घोषित संपत्तियाँ केवल रकम और वस्तुओं का हिसाब नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति की बदलती शैली का दस्तावेज़ हैं। यह दस्तावेज़ बताता है कि सत्ता में बैठे लोग जनता को साधारण, शक्तिशाली, पारंपरिक और आधुनिक, सभी रूपों में संदेश देना चाहते हैं। सवाल यह है कि क्या ये संदेश वास्तविक जीवन की सच्चाई हैं या केवल राजनीतिक छवि गढ़ने का प्रयास?

-नीरज कुमार दुबे

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)

माता वैष्णो देवी की यात्रा फिर 14 सितंबर

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पिछले 17 दिनों से स्थगित श्री माता वैष्णो देवी यात्रा अब फिर शुरू होने वाली है। श्राइन बोर्ड ने ऐलान किया है कि श्री माता वैष्णो देवी की यात्रा 14 सितंबर यानी रविवार से एक बार फिर शुरू की जाएगी। श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड ने बताया कि खराब मौसम की स्थिति और ट्रैक के आवश्यक रखरखाव के कारण अस्थायी निलंबन के बाद, श्री माता वैष्णो देवी की यात्रा 14 सितंबर (रविवार) से अनुकूल मौसम की स्थिति के अधीन फिर से शुरू होगी। 

लंबे समय तक यात्रा स्थगित रहने से श्रद्धालुओं में निराश थे तो यात्रा पर निर्भर स्थानीय व्यवसायों को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। प्रशासन ने जनता और तीर्थयात्रियों से धैर्य बनाए रखने और अगली सूचना तक मंदिर की ओर अनावश्यक यात्रा से बचने की अपील की थी। 26 अगस्त को हुए भूस्खलन के बाद वैष्णो देवी यात्रा स्थगित कर दी गई थी। इसमें

भूस्खलन में 34 लोग मारे गए थे । कई घायल भी हुए थे। 26 अगस्त को आपदा दोपहर बाद लगभग तीन बजे आई। भारी बारिश के कारण कटरा से मंदिर तक 12 किलोमीटर की यात्रा के बीच में, अर्धकुंवारी में इंद्रप्रस्थ भोजनालय के पास भारी भूस्खलन हुआ।

भारत में सिर्फ़ मणिपुर तक रह गई हिंसा

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नेपाल समेत तमाम देशों में जो आग दिखाई दे रही है, वो भारत में सिर्फ़ मणिपुर तक रह गई!

अपनी सरकार का बलिदान देकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मणिपुर मामले को जिस तरीके से हैंडल किया, वो इतिहास में दर्ज होगा। ऐसा साहस आजतक किसी ने नहीं किया। भाजपा जैसी पार्टी जो हमेशा चुनावी मोड में रहती है, उसने अपनी सरकार को हटाते तनिक भी न सोचा।

केंद्र सरकार ने एक यूनिफॉर्म कमांड की स्थापना कर सबसे पहले सेना और विभिन्न बलों में सामंजस्य स्थापित किया। हिंसा-अपराध के मामलों की जाँच के लिए सीबीआई को लगाया, सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में SIT ने जाँच की और जस्टिस गीता मित्तल पैनल के जरिए राहत-बचाव कार्यों की निगरानी की गई। सीमा पार की ताक़तें इसका फ़ायदा न उठा पाएँ, इसके लिए मणिपुर-म्यांमार सीमा की बाड़ेबंदी की गई। अपनी ही सरकार को हटाकर राष्ट्रपति शासन लगाया, ताकि सबकुछ दिल्ली से सलीके से संचालित हो। AFSPA को आगे बढ़ाकर बड़े स्तर पर हथियारों का समर्पण और आत्मसमर्पण कराया गया।

इतना ही नहीं, RSS भी लगातार शांति कायम करने के अभियान में लगा रहा। संघ ने न केवल राहत व बचाव कार्य में हाथ बँटाया, बल्कि युवाओं को उद्यमी बनाने के लिए प्रशिक्षित किया। मोमबत्ती बनाने से लेकर मशरूम की खेती तक के लिए प्रशिक्षण दिए गए। ख़ुद सरसंघचालक मोहन भागवत ने स्थानीय समूहों से बातचीत के लिए अपनी संघ परिवार की यूनिट्स को लगाया। कई शिविर स्थापित किए गए।

मई-जून 2023 में ख़ुद अमित शाह राज्य में पहुँचे थे। धीरे-धीरे करके इंटरनेट भी आंशिक रूप से बहाल कर दिया गया। अभी भी 300 के क़रीब शिविर चल रहे हैं और केंद्र सरकार सबकुछ देख रही है। अब ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मणिपुर जाने वाले हैं और कुकी-जो काउंसिल उनके दौरे का स्वागत कर रहा है। सब सब कुछ ठीक होने वाला है।

इधर विपक्ष हंगामा करता रहा, उधर सरकार और संघ पर्दे के पीछे से मैराथन कार्य करते रहे। इस तरह विदेशी तत्वों और चर्च द्वारा भड़काई गई इस हिंसा को नासूर बनने से पहले और देशभर में फैलने से पहले ही थाम लिया गया।

दीपक कुमार द्विवेदी की वॉल से

हरियाणा की ड्रीम पॉलिसी: शिक्षक तबादलों के अधूरे सपनों की हकीकत?

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“शिक्षा सुधार का अधूरा सपना या केवल राजनीतिक नारा?”

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सरकार ने घोषणा की थी कि इस वर्ष तबादले अप्रैल में होंगे, किंतु सितंबर तक भी प्रक्रिया शुरू नहीं हुई। यह देरी न केवल शिक्षकों के साथ वादाख़िलाफ़ी है, बल्कि छात्रों की पढ़ाई और विद्यालयों के संचालन पर भी सीधा आघात है। हरियाणा सरकार की “ड्रीम पॉलिसी” का उद्देश्य था शिक्षक तबादलों में पारदर्शिता और निष्पक्षता लाना। शुरुआत में इसे क्रांतिकारी कदम माना गया, लेकिन अब बार-बार शेड्यूल में देरी, तकनीकी पेचीदगियों और राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण यह विवादों में घिर गई है। शिक्षक संगठनों का कहना है कि सरकार ने केवल औपचारिकताएँ थोपकर वादाख़िलाफ़ी की है। इसका असर सीधे शिक्षा व्यवस्था और छात्रों की पढ़ाई पर पड़ रहा है। यदि शीघ्र ठोस कार्रवाई न हुई तो यह नीति उपलब्धि न बनकर सरकार की विफलता का प्रतीक बन जाएगी।

-डॉ. सत्यवान सौरभ

हरियाणा सरकार ने शिक्षा व्यवस्था को अधिक पारदर्शी और सुचारु बनाने के उद्देश्य से कुछ वर्ष पूर्व शिक्षक तबादलों के लिए ऑनलाइन प्रणाली लागू की थी, जिसे बड़े गर्व से “ड्रीम पॉलिसी” का नाम दिया गया। इस नीति को लागू करने का तात्पर्य यह था कि अब शिक्षकों के तबादले केवल वरिष्ठता, मेरिट और प्राथमिकताओं के आधार पर होंगे, न कि सिफ़ारिश या दबाव से। आरंभ में इसे एक क्रांतिकारी कदम माना गया। किंतु बीते वर्षों में इस नीति की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगने लगे हैं। सरकार ने घोषणा की थी कि इस वर्ष तबादले अप्रैल में होंगे, किंतु सितंबर तक भी प्रक्रिया शुरू नहीं हुई। यह देरी न केवल शिक्षकों के साथ वादाख़िलाफ़ी है, बल्कि छात्रों की पढ़ाई और विद्यालयों के संचालन पर भी सीधा आघात है।

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शिक्षा केवल विद्यालय भवन या पाठ्यपुस्तकों पर निर्भर नहीं करती; उसकी वास्तविक धुरी शिक्षक ही हैं। हरियाणा जैसे राज्य में, जहाँ ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में शिक्षा की गुणवत्ता में स्पष्ट असमानता है, वहाँ शिक्षकों की उचित तैनाती अत्यंत आवश्यक हो जाती है। ग्रामीण अंचलों के विद्यालय अक्सर योग्य और अनुभवी शिक्षकों से वंचित रहते हैं, जबकि शहरी विद्यालयों में अपेक्षाकृत अधिक संख्या में शिक्षक तैनात मिलते हैं। ऐसी परिस्थिति में तबादला नीति मात्र प्रशासनिक प्रक्रिया न होकर शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने का एक सशक्त साधन बन जाती है।

सरकार ने दावा किया था कि ड्रीम पॉलिसी से भ्रष्टाचार और पक्षपात का अंत होगा। परंतु, वास्तविकता यह है कि नीति का क्रियान्वयन अनेक समस्याओं से ग्रस्त रहा है। शिक्षकों को बार-बार एमआईएस अपडेट कराने के निर्देश दिए गए, जिनमें व्यक्तिगत विवरणों से लेकर मोबाइल नंबर तक शामिल रहे। दोहराई जाने वाली इन औपचारिकताओं ने असंतोष को जन्म दिया और तकनीकी त्रुटियों व डेटा की ग़लतियों ने पारदर्शिता के दावे पर प्रश्न खड़े किए। इसके साथ ही सबसे गंभीर शिकायत यह रही कि समय पर ट्रांसफर शेड्यूल जारी नहीं किया गया। इस देरी के कारण न केवल शिक्षकों के निजी जीवन पर प्रभाव पड़ा, बल्कि विद्यालयों की शैक्षणिक गतिविधियाँ भी बाधित हुईं। भले ही प्रक्रिया को पूर्णतः ऑनलाइन बताया गया, परंतु शिक्षकों का आरोप है कि आज भी रसूख और सिफ़ारिशों का असर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।

हाल ही में कैथल में हुई बैठक में शिक्षक संगठनों ने स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दी कि यदि शीघ्र ही ट्रांसफर शेड्यूल जारी नहीं किया गया तो सरकार की ड्रीम पॉलिसी स्वयं सरकार के लिए ही बदनामी का कारण बन जाएगी। उनका कहना है कि सरकार ने उन्हें अनावश्यक औपचारिकताओं में उलझा रखा है। मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री कई बार आश्वासन दे चुके हैं, किंतु अब तक वादे पूरे नहीं हुए। शिक्षा विभाग इस प्रक्रिया को जानबूझकर लंबित रखता है। यह असंतोष केवल तबादलों तक सीमित न रहकर सरकार की नीयत और वादाख़िलाफ़ी पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है।

यदि कोई यह मान ले कि यह विवाद केवल शिक्षकों के हितों तक सीमित है, तो यह गंभीर भूल होगी। अनेक विद्यालय रिक्तियों से जूझते हैं और छात्रों की पढ़ाई प्रतिकूल रूप से प्रभावित होती है। बार-बार के विलंब और वादाख़िलाफ़ी से शिक्षकों का मनोबल टूटता है। असंतुष्ट शिक्षक शिक्षा की गुणवत्ता में अपेक्षित योगदान नहीं दे पाते। जब स्वयं शिक्षक ही नीति पर भरोसा न करें तो समाज और विद्यार्थियों का विश्वास स्वतः डगमगा जाता है।

हरियाणा की राजनीति में शिक्षा सदा ही प्रमुख विषय रही है। सरकारें शिक्षा सुधार के दावे करती रही हैं, किंतु शिक्षक भर्ती, तबादला और पदस्थापन सबसे विवादित मुद्दे बने रहे हैं। ड्रीम पॉलिसी का विवाद अब राजनीतिक रंग लेने लगा है। विपक्ष इसे सरकार की नाकामी बताते हुए जनता के बीच उभारने की तैयारी में है। यदि यह असंतोष बढ़ा तो आगामी चुनावों में यह मुद्दा सरकार के लिए भारी पड़ सकता है।

सरकार के पास अभी अवसर है कि वह इस नीति को वास्तव में “ड्रीम पॉलिसी” बनाए। इसके लिए ट्रांसफर प्रक्रिया का स्पष्ट कैलेंडर बनाना और उसका पालन करना आवश्यक है। एमआईएस और अन्य ऑनलाइन तंत्र को अधिक सरल व विश्वसनीय बनाना होगा। प्रक्रिया को पूर्णतः स्वचालित और मेरिट-आधारित बनाया जाए तथा शिक्षकों के संगठनों से नियमित संवाद स्थापित किया जाए। निर्णय प्रक्रिया जितनी पारदर्शी होगी, उतना ही विश्वास बहाल होगा।

हरियाणा की ड्रीम पॉलिसी का उद्देश्य प्रशंसनीय था, किंतु इसके क्रियान्वयन में गंभीर कमियाँ सामने आई हैं। यदि सरकार ने इन्हें शीघ्र दूर नहीं किया तो यह नीति सरकार की उपलब्धि न बनकर उसकी विफलता का प्रतीक सिद्ध होगी। शिक्षा किसी भी समाज की आधारशिला है और शिक्षक उसकी नींव। यदि शिक्षक ही असंतुष्ट और उपेक्षित रहेंगे, तो शिक्षा सुधार का सपना अधूरा रह जाएगा। अतः आवश्यक है कि सरकार वादों से आगे बढ़कर वास्तविक कार्रवाई करे, ताकि हरियाणा की ड्रीम पॉलिसी सचमुच “सपनों की नीति” सिद्ध हो सके, न कि केवल एक राजनीतिक नारा।

-डॉ. सत्यवान सौरभ