विश्व राजनीति की अशांत मिट्टी पर खड़े संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का नैतिक व संस्थागत आधार आज पहले से कहीं अधिक प्रश्नों से घिरा है। जब युद्ध बढ़ते जा रहे हैं, तब शांति का सबसे बड़ा संरक्षक स्वयं अपनी भूमिका सिद्ध करने में असफल दिख रहा है।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) की 1945-आधारित संरचना आज की बहुध्रुवीय और संघर्षग्रस्त दुनिया में शांति बनाए रखने में सक्षम नहीं रह गई है। वीटो शक्ति का राजनीतिक दुरुपयोग, अप्रतिनिधिक सदस्यता, कमजोर राजनीतिक निरंतरता, असंगठित शांति अभियानों और बड़े मानवीय संकटों पर निष्क्रियता ने UNSC को कठघरे में खड़ा कर दिया है। वैश्विक दक्षिण की बढ़ती असंतुष्टि और विश्व व्यवस्था में उभरते शक्ति-संतुलन इस संस्था की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठाते हैं। संयुक्त राष्ट्र को अपनी वैधता और प्रभावशीलता बचाने के लिए गहरे, व्यावहारिक और कार्यात्मक सुधार अपनाने होंगे—अन्यथा शांति का यह सबसे बड़ा संरक्षक स्वयं प्रश्नों का केंद्र बन जाएगा।
— डॉ. सत्यवान सौरभ
सवालों के घेरे में खड़ा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद केवल एक संस्था का संकट नहीं है, बल्कि यह वैश्विक नैतिक नेतृत्व के क्षरण की बड़ी कहानी भी है। जब संयुक्त राष्ट्र का जन्म हुआ था, तब दुनिया दूसरी विश्वयुद्ध की राख से निकल रही थी और मानवता ने सामूहिक रूप से यह प्रण लिया था कि भविष्य में किसी भी बड़े युद्ध को रोका जाएगा। उस सपने का केंद्र था—सुरक्षा परिषद, जिसे शांति का संरक्षक, वैश्विक न्याय का प्रहरी और सामूहिक सुरक्षा का आधार माना गया। मगर आज, लगभग 80 वर्ष बाद, जब दुनिया यूक्रेन, गाज़ा, सूडान, यमन, म्यांमार और साहेल जैसे संघर्षों से दहक रही है, तब यह संस्था अक्सर मौन खड़ी दिखाई देती है।
यह मौन केवल असहायता का प्रतीक नहीं है, बल्कि उस संरचनात्मक कमजोरी का भी संकेत है जिसने वर्षों में इसकी विश्वसनीयता को खोखला कर दिया। जब दुनिया भर के नागरिक शांति की उम्मीद में इस संस्था की ओर देखते हैं, तब यह भू-राजनीतिक हितों की जकड़ में बंधी दिखाई देती है। यही कारण है कि आज शांति का सबसे बड़ा संरक्षक स्वयं सबसे बड़े सवालों का विषय बन गया है।
सबसे बड़ी समस्या है—वीटो शक्ति से पैदा होने वाला शक्ति-असंतुलन। पाँच स्थायी सदस्य देशों के हाथों में केंद्रित यह शक्ति उन्हें किसी भी प्रस्ताव को रोकने का अधिकार देती है, भले वह प्रस्ताव मानवीय त्रासदी को रोकने जितना आवश्यक ही क्यों न हो। यही कारण है कि गाज़ा में हज़ारों बच्चों की मौतें हों, यूक्रेन में शहरों के शहर तबाह हो जाएँ, या म्यांमार में लोकतांत्रिक संस्थाओं का विनाश हो—सुरक्षा परिषद अक्सर पक्षाघात की स्थिति में दिखाई देती है। यह एक ऐसे दरवाज़े का दृश्य बन गया है जिसके बाहर सहायता की गुहार लगाने वाले लाखों लोग खड़े होते हैं, लेकिन उस दरवाज़े को खोलने की चाबी कुछ सीमित देशों के हाथों में होती है, जो अपने राष्ट्रीय हितों को वैश्विक शांति से ऊपर रख देते हैं।
सवाल यहाँ से आगे बढ़ता है—क्या शांति किसी राष्ट्र के हितों से छोटी हो सकती है? क्या हत्या और भूख से जूझते लोग किसी स्थायी सदस्य की भू-नीति के कारण मृत्यु के लिए छोड़ दिए जाएँ? क्या संयुक्त राष्ट्र जैसे वैश्विक संगठन का उद्देश्य केवल औपचारिक बयान देना रह गया है? ये प्रश्न आज तीखे होते जा रहे हैं, क्योंकि दुनिया भर में मीडिया, नागरिक समाज और शांति विशेषज्ञ लगातार यह महसूस कर रहे हैं कि संयुक्त राष्ट्र की नैतिक शक्ति का क्षरण हो चुका है।
दूसरी समस्या है—इस संस्था की संरचना का अप्रतिनिधिक होना। दुनिया 1945 से अब पूरी तरह बदल चुकी है, लेकिन UNSC की संरचना लगभग जड़वत है। अफ्रीका, जो संघर्षों का केंद्र भी है और शांति के लिए सर्वाधिक योगदान भी देता है, उसका कोई स्थायी प्रतिनिधि नहीं है। भारत जैसा विशाल लोकतंत्र, जिसके योगदान शांति रखरखाव से लेकर मानवीय सहायता तक व्यापक हैं, उसे भी अब तक स्थायी सदस्यता नहीं मिली है। यह एक ऐसी वैश्विक व्यवस्था का संकेत है जो वास्तविकता से कट चुकी है।
जहाँ वैश्विक शक्ति-मानचित्र बदल गया है—चीन का उदय हुआ, भारत आर्थिक व राजनीतिक रूप से नई ऊँचाइयों पर पहुँचा, अफ्रीका उभरती संभावनाओं का महाद्वीप बन गया, लातिन अमेरिका राजनीतिक रूप से अधिक मुखर हुआ—वहाँ सुरक्षा परिषद अब भी 1945 की मानसिकता में फंसी है। परिणामस्वरूप, कई देश इसे “वैध” के बजाय केवल “पुरानी व्यवस्था” का अवशेष समझने लगे हैं।
तीसरी समस्या है—शांति अभियानों की राजनीतिक विफलता। संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना अभियानों ने कई जगह हिंसा को रोका जरूर, परंतु राजनीतिक स्थिरता नहीं ला सके। यह ऐसा था मानो किसी टूटते हुए घर की दीवार पर रंग तो कर दिया जाए, लेकिन दरारों की मरम्मत न की जाए। शांति केवल बंदूकें शांत कर देने से नहीं आती; यह आती है संवाद, समावेशन, शासन-सुधार और समाज के भीतर विश्वास पैदा करने से। लेकिन संयुक्त राष्ट्र का तंत्र शांति स्थापना और राजनीतिक समाधान को एकीकृत नहीं कर पाता।
उदाहरण के लिए, कई अफ्रीकी देशों में शांति सेना लगाने के बाद राजनीतिक मार्गदर्शन का अभाव रहा, जिसके कारण थोड़े समय बाद हिंसा फिर भड़क उठी। यह विफलता केवल संसाधन या क्षमता की नहीं, बल्कि दृष्टि-हीन रणनीति की भी है।
चौथी समस्या है—निरंतरता का अभाव। UNSC अक्सर केवल संकट की शुरुआत में सक्रिय होता है, लेकिन जब स्थिति स्थिर होने लगती है, तब उसकी उपस्थिति कम हो जाती है। इससे संघर्षग्रस्त देश राजनीतिक संक्रमण के बीच झूलते रह जाते हैं। यह “अधूरी शांति” का निर्माण करता है, जिसका अंत प्रायः नई हिंसा में होता है।
पाँचवीं समस्या है—इन विफलताओं के कारण संयुक्त राष्ट्र के प्रति भरोसे का क्षरण। आज वैश्विक दक्षिण में यह धारणा तेजी से बढ़ रही है कि सुरक्षा परिषद कुछ देशों की राजनीतिक लड़ाई का मैदान बन गया है। यही कारण है कि अफ्रीकी संघ, आसियान, अरब लीग और यूरोपीय संघ जैसे क्षेत्रीय संगठन अपने-अपने सुरक्षा ढाँचे मजबूत कर रहे हैं, और यह प्रवृत्ति संयुक्त राष्ट्र की भूमिका को सीमित करती जा रही है।
इन सबके बीच प्रश्न उठता है—क्या समाधान है? क्या UNSC को बदलने की जरूरत है? या उसे पुनर्जीवित करने की?
उत्तर है—दोनों।
सुरक्षा परिषद में संरचनात्मक बदलाव आवश्यक हैं—नए स्थायी सदस्य, वीटो शक्ति की समीक्षा, क्षेत्रीय संतुलन—परंतु उससे भी अधिक आवश्यक है कार्यप्रणाली में सुधार। संयुक्त राष्ट्र महासभा अनुच्छेद 22 के तहत नए संस्थान बनाकर सुरक्षा परिषद की कमजोरियों की भरपाई कर सकती है। एक शांति एवं सतत सुरक्षा बोर्ड जैसी संस्था यह सुनिश्चित कर सकती है कि राजनीतिक निरंतरता बनी रहे, संघर्ष-बाद सुधारों की निगरानी हो, और शांति केवल युद्धविराम पर आधारित न होकर दीर्घकालिक राजनीतिक स्थिरता में बदले।
इसके साथ क्षेत्रीय संगठनों की भूमिका भी बढ़ानी होगी, क्योंकि वे स्थानीय संस्कृति, राजनीति और जमीनी वास्तविकताओं को बेहतर समझते हैं। शांति स्थापना अभियानों को राजनीतिक रणनीति के साथ जोड़ना होगा ताकि केवल बंदूकें ही नहीं, बल्कि मन भी शांत हो सकें।
सबसे महत्वपूर्ण है—संयुक्त राष्ट्र को स्वयं अपनी नैतिक विश्वसनीयता को पुनः स्थापित करना होगा। वह तभी संभव है जब वह मानवीय संकटों में समयबद्ध, निष्पक्ष और साहसिक निर्णय लेने में सक्षम हो। केवल बयान देने की संस्कृति से आगे बढ़कर, उसे वास्तविक प्रवर्तन-आधारित शांति तंत्र बनना होगा।
आज दुनिया भय, ध्रुवीकरण, तकनीकी संघर्ष, आतंकवाद, जल-संकट, और युद्ध की आशंकाओं से जूझ रही है। ऐसे समय में संयुक्त राष्ट्र की निष्क्रियता मानवता को निराश कर रही है। शांति के इस सबसे बड़े संरक्षक पर उठते सवाल तभी शांत होंगे जब यह संस्था स्वयं को 21वीं सदी के अनुरूप पुनर्निर्मित करेगी।
समय आ गया है कि दुनिया संयुक्त राष्ट्र से वह भूमिका वापस मांगे जिसे निभाने का वादा उसने 80 वर्ष पहले किया था—
प्रेस की स्वतंत्रता लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण शर्त है।
जब पत्रकार निर्भय होते हैं, तब नागरिक सुरक्षित होते हैं।
लेकिन आज सत्ता, बाज़ार और डिजिटल शोर के बीच सत्य की आवाज़ दबती जा रही है। फेक न्यूज़, प्रोपेगेंडा और ट्रेंडिंग कंटेंट ने पत्रकारिता की गंभीरता को चुनौती दी है।
राष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस हमें यह याद दिलाता है कि
यदि सवाल पूछने का साहस खत्म हो गया, तो लोकतंत्र भी केवल एक औपचारिकता बनकर रह जाएगा। स्वतंत्र, निष्पक्ष और साहसी पत्रकारिता ही राष्ट्र की चेतना और जनमत की असली रक्षा करती है।
डॉ. सत्यवान सौरभ
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भारत हर साल 16 नवंबर को राष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाता है—एक ऐसा दिन जो हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र की मज़बूती का असली आधार सत्ता नहीं, सत्य की निर्भय अभिव्यक्ति है। यह दिन केवल पत्रकारों का उत्सव नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र के विवेक का पर्व है। क्योंकि लोकतंत्र तभी जीवित रहता है जब उसके नागरिकों को सच्चाई तक पहुँचने का अधिकार मिले और उसके पत्रकारों को सत्य कहने का साहस।
प्रेस की स्वतंत्रता दरअसल शब्दों की नहीं, विचारों की स्वतंत्रता है। यह केवल घटनाओं को रिपोर्ट करने का दायित्व नहीं, बल्कि उन सच्चाइयों को उजागर करने का संकल्प है जिन्हें सत्ता, व्यवस्था या समाज अक्सर छिपा देना चाहता है। पत्रकारिता की यही निडरता लोकतंत्र को जीवंत रखती है—क्योंकि सत्ता को नियंत्रित करने का सबसे मजबूत माध्यम न बंदूक है, न क़ानून, बल्कि क़लम की नैतिकता है।
1975 के आपातकाल के दौरान जब सेंसरशिप ने प्रेस का गला घोंट दिया था, तब भारतीय लोकतंत्र ने अपनी सबसे कड़ी परीक्षा दी। कई अख़बारों ने डरकर खाली कॉलम छापे, कई पत्रकारों ने जेलें देखीं, और कुछ आवाज़ें हमेशा के लिए खामोश हो गईं। यही कारण है कि यह दिवस उन संघर्षों का स्मरण भी है, जिन्होंने साबित किया कि प्रेस की स्वतंत्रता कोई कृपा नहीं—यह लोकतंत्र का जन्मसिद्ध अधिकार है।
आज डिजिटल युग ने पत्रकारिता को नई गति दी है, पर उसी के साथ अभूतपूर्व चुनौतियाँ भी पैदा की हैं। खबरों की यात्रा अख़बारों से मोबाइल स्क्रीन तक आ गई है। परंतु हर तेज़ समाचार विश्वसनीय हो, यह ज़रूरी नहीं। एल्गोरिद्म तय करते हैं कि जनता क्या देखेगी, और व्यूज़ यह तय करते हैं कि क्या “खबर” कहलाएगा। यही वह बिंदु है जहाँ पत्रकारिता और मनोरंजन की रेखाएँ धुंधली पड़ गई हैं।
ऐसे समय में प्रेस की ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है—क्योंकि जब सूचना का प्रवाह अनियंत्रित हो, तब सत्य की स्पष्टता ही एकमात्र मार्गदर्शक बनी रह जाती है।
पत्रकारिता का मूल यह नहीं है कि कौन सबसे पहले खबर दिखाता है; बल्कि यह है कि कौन सबसे पहले साहसपूर्वक सत्य दिखाता है। भारत के असंख्य पत्रकार आज भी गाँवों की कच्ची पगडंडियों से लेकर महानगरों की चकाचौंध तक, अपराध, भ्रष्टाचार, असमानता और अन्याय को उजागर करने में लगे हैं। वे अक्सर बिना सुरक्षा, बिना संसाधन और बिना संस्थागत संरक्षण के काम करते हैं। सच कहें तो पत्रकारिता आज भी एक पेशा नहीं—एक जोखिमभरा संघर्ष है।
प्रेस की स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं कि वह सामाजिक उत्तरदायित्व से मुक्त है। फेक न्यूज़, आधा–सच और सनसनीखेज़ रिपोर्टिंग ने समाज में भ्रम फैलाया है। इसलिए पत्रकारिता की नैतिकता उसके अस्तित्व की पहली शर्त है। एक स्वतंत्र प्रेस तभी सम्मान पाती है जब वह निष्पक्ष, तथ्याधारित और जनहित में काम करे। सत्य को तोड़ने–मरोड़ने की स्वतंत्रता, स्वतंत्रता नहीं, अराजकता है।
सोशल मीडिया के दौर में पत्रकारिता को सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इन्फ्लुएंसर और पत्रकार के बीच की दूरी कम होती जा रही है। जहाँ पत्रकार सत्य का पीछा करता है, वहीं इन्फ्लुएंसर ट्रेंड का। पत्रकार का लक्ष्य तथ्य होता है, इन्फ्लुएंसर का लक्ष्य व्यूज़। दुखद यह है कि कई बार जनता भी सरल मनोरंजन को कठिन सत्य पर प्राथमिकता देने लगी है।
यदि समाज सच सुनने की इच्छा खो देगा, तो पत्रकारिता की स्वतंत्रता भी धीरे-धीरे महत्वहीन हो जाएगी।
स्वतंत्र प्रेस केवल पत्रकारों की लड़ाई नहीं—यह नागरिकों का अधिकार है। नागरिक जितने जागरूक होंगे, प्रेस उतना ही निर्भीक होगा। अगर जनता आलोचनात्मक सोच खो देगी, तो प्रेस केवल बाज़ार और सत्ता का उपकरण बनकर रह जाएगी। इसलिए लोकतंत्र का स्वास्थ्य इस बात पर निर्भर करता है कि नागरिक अपने समाचार स्रोतों से क्या अपेक्षा रखते हैं—सच? या मनोरंजन?
यह चुनाव आने वाले समय में पत्रकारिता की दिशा तय करेगा।
आज भारत का मीडिया अनेक दबावों के बीच काम करता है—राजनीतिक, आर्थिक, कॉर्पोरेट और सामाजिक। कई बार सच्चाई कहने का परिणाम नौकरी जाना, मुकदमों में फँसना या जान जोखिम में डालना होता है। इसके बावजूद सैकड़ों पत्रकार आज भी निडर होकर लिखते हैं, बोलते हैं और मैदान में उतरते हैं।
उनका साहस हमें यह याद दिलाता है कि प्रेस की स्वतंत्रता कागज़ पर नहीं, जमीनी संघर्षों से जीवित रहती है।
राष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस का उद्देश्य केवल इतिहास को याद करना नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को यह चेतावनी देना भी है कि प्रेस कमजोर हुआ तो लोकतंत्र भी कमजोर हो जाएगा। जब सवाल पूछना अपराध बन जाए और चुप्पी सुरक्षा का साधन, तब लोकतंत्र का हृदय मंथर होने लगता है।
इसीलिए पत्रकारिता को पुनः उस मूल स्थान पर लौटना होगा जहाँ सच्चाई सर्वोच्च हो—न मालिक से डर, न बाज़ार से, न व्यवस्था से।
समाज के लेखकों, कवियों, शिक्षकों और विद्वानों पर भी यह जवाबदेही है कि वे पत्रकारिता की इस गिरावट और दबाव को समझें। एक राष्ट्र केवल विज्ञान, उद्योग या सेना से महान नहीं बनता; वह महान तब बनता है जब उसमें विचार, संवाद और सत्य की संस्कृति जीवित हो।
और यह संस्कृति प्रेस के बिना संभव नहीं है।
अंततः यह समझना आवश्यक है कि प्रेस की स्वतंत्रता सिर्फ एक संवैधानिक प्रावधान नहीं—यह राष्ट्र की नैतिक आत्मा है। जहाँ प्रेस डरकर लिखे, वहाँ समाज कभी स्वतंत्र नहीं हो सकता। और जहाँ पत्रकारिता सवाल पूछने से हिचक जाए, वहाँ लोकतंत्र धीरे-धीरे रस्म में बदल जाता है।
16 नवंबर इसीलिए महत्वपूर्ण है—क्योंकि यह हमें याद दिलाता है कि
एक राष्ट्र उतना ही स्वतंत्र है,
जितना उसका पत्रकार स्वतंत्र है।
– डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,
भारत में चुनाव केवल राजनीतिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि लोकतंत्र का सबसे जीवंत उत्सव है। मतदान जनता को अपनी आवाज़ सुनाने और नीतिगत दिशा तय करने का अवसर प्रदान करता है। इस दौरान प्रशासन निष्पक्षता, सुरक्षा और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए व्यापक व्यवस्थाएँ करता है—मतदान केंद्रों की तैयारी से लेकर जागरूकता अभियानों तक। चुनाव आयोग द्वारा की गई व्यवस्थाएँ नागरिकों के भरोसे को मजबूत करती हैं। वोट देना केवल अधिकार नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी भी है, जो राष्ट्र के भविष्य को दिशा देती है।
— डॉ. प्रियंका सौरभ
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जहाँ शासन की असली शक्ति जनता के हाथों में निहित मानी जाती है। यहाँ सरकार जनता द्वारा चुनी जाती है और संविधान की स्पष्ट व्यवस्था के अनुसार यह प्रक्रिया चुनाव आयोग की निष्पक्ष संरचना और उसकी कार्यशैली द्वारा संचालित होती है। मतदाता सूची इस पूरी प्रक्रिया की आधारशिला है—क्योंकि उसी के माध्यम से नागरिक अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं। इसलिए मतदाता सूची की विश्वसनीयता और शुचिता लोकतंत्र की स्थिरता के लिए अत्यंत आवश्यक है। यही संदर्भ विशेष गहन पुनरीक्षण प्रक्रिया—स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (Special Intensive Revision – SIR)—को अत्यधिक महत्वपूर्ण बनाता है।
मतदाता सूची में त्रुटियाँ कई रूपों में सामने आती हैं—मृत व्यक्तियों के नाम, एक व्यक्ति का दो स्थानों पर नाम, पात्र मतदाताओं के नाम का गायब होना, या पते के परिवर्तन के बावजूद संशोधन न होना। ऐसी स्थिति चुनावों की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न खड़े करती है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 324 चुनाव आयोग को व्यापक अधिकार देता है, जिसमें चुनाव संचालन, नियंत्रण, निर्देशन और पर्यवेक्षण शामिल हैं। अतः एसआईआर केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि संवैधानिक रूप से स्थापित लोकतांत्रिक दायित्व है।
1950 में संविधान लागू होने के बाद से ही चुनाव आयोग नियमित रूप से मतदाता सूची में संशोधन करता रहा है। कुछ राज्यों में एसआईआर के दौरान बड़ी मात्रा में मृतकों के नाम हटाए गए, गलत प्रविष्टियाँ सुधारी गईं, और स्थानांतरित या नए पात्र मतदाताओं को सूची में जोड़ा गया। बिहार और बंगाल में हुए पुनरीक्षणों के उदाहरण बताते हैं कि लंबे समय से निष्क्रिय पड़े नामों को हटाने से मतदाता सूची अधिक वास्तविक और पारदर्शी बन सकी। बंगाल में 7.6 करोड़ मतदाताओं की सूची में से लगभग 47 लाख नाम हटाए गए, जिससे पता चलता है कि अगर नियमित संशोधन न हो तो सूची कितनी विकृत हो सकती है।
मतदाता सूची में त्रुटियाँ केवल तकनीकी समस्या नहीं—वे चुनावी निष्पक्षता, प्रतिनिधित्व के अधिकार और जनविश्वास पर सीधा आघात करती हैं। यदि किसी नागरिक का नाम सूची से गायब है, तो वह अपने मौलिक लोकतांत्रिक अधिकार—मताधिकार—से वंचित हो जाता है। दूसरी ओर, मृतकों या स्थानांतरित लोगों के नाम बने रहने से फर्जी मतदान या राजनीतिक दुरुपयोग की आशंका बढ़ती है। इन विसंगतियों से लोकतंत्र की वैधता कमजोर होती है।
कुछ लोग एसआईआर को राजनीतिक हस्तक्षेप या सरकार द्वारा मतदाता सूचियों में हस्तक्षेप के रूप में देखने लगते हैं, जबकि यह शंका तथ्यहीन है। मतदाता सूची का शुद्धिकरण किसी दल की जीत या हार के लिए नहीं, बल्कि निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया के लिए आवश्यक है। चुनाव आयोग पूर्णतः स्वायत्त संस्था है और उसके निर्णय न्यायालयों द्वारा भी संरक्षित माने जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कई फैसलों में स्पष्ट कहा है कि निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आधारशिला है और इसके लिए मतदाता सूची की शुचिता सुनिश्चित करना अनिवार्य है।
एसआईआर के दौरान नागरिकों की सक्रिय भागीदारी भी महत्वपूर्ण है। यदि लोग स्वयं अपनी प्रविष्टियों की जाँच न करें, त्रुटियाँ सम्बंधित बूथ लेवल अधिकारियों को न बताएं, और दस्तावेज उपलब्ध न कराएं तो प्रक्रिया धीमी हो जाती है। आज भी बड़ी संख्या में ऐसे नागरिक हैं जिनके नाम गलत होने पर वे स्वयं सुधार के लिए आगे नहीं आते। यह उदासीनता लोकतंत्र को कमजोर करती है। इसलिए चुनाव आयोग ने डिजिटल साधनों—जैसे वोटर हेल्पलाइन ऐप, ऑनलाइन फॉर्म, पोर्टल—का उपयोग बढ़ाया है ताकि लोग आसानी से संशोधन कर सकें।
एसआईआर के विरोध करने वालों को यह समझना चाहिए कि यह प्रक्रिया मतदाता सूची में विसंगतियों को दूर करने, फर्जी मतदान रोकने और सही मतदाता आधार सुरक्षित करने के लिए है। जिन राज्यों में यह प्रक्रिया रोकी गई या राजनीतिक विवाद के कारण ठप हो गई, वहां मतदाता सूची में भारी त्रुटियाँ पाई गईं। ऐसे मामलों में न्यायालयों ने स्वयं दिशा-निर्देश जारी कर मतदाता सूची के शुद्धिकरण की आवश्यकता दोहराई है। अतः एसआईआर का विरोध लोकतांत्रिक मूल्यों का विरोध है।
भारत जैसे विशाल देश में जहाँ 96 करोड़ से अधिक मतदाता हैं, वहां मतदाता सूची का अद्यतन एक अत्यंत जटिल, विशाल और सतत प्रक्रिया है। इसे केवल सरकारी जिम्मेदारी मानना पर्याप्त नहीं; यह नागरिक कर्तव्य भी है। चुनाव आयोग केवल ढाँचा देता है, लेकिन उसे प्रभावी बनाने का दायित्व जनता के सहयोग पर निर्भर है। मतदाता सूची में अपनी प्रविष्टि को सही रखना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना मतदान के दिन वोट देना।
अंततः, लोकतंत्र केवल मतदान का दिन नहीं—पूरी व्यवस्था का नाम है। इस व्यवस्था को मजबूत बनाए रखने के लिए मतदाता सूची की शुचिता सर्वोपरि है। एसआईआर यही सुनिश्चित करता है कि चुनाव निष्पक्ष, पारदर्शी और विश्वसनीय हों। यह लोकतांत्रिक प्रणाली की आत्मा को जीवित रखता है और नागरिकों के अधिकारों को सुरक्षित करता है। इसलिए मतदाता सूची के नियमित शुद्धिकरण को लेकर जागरूकता बढ़ाना, नागरिकों को भागीदारी के लिए प्रेरित करना और एसआईआर जैसी प्रक्रियाओं को सहयोग देना हर जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य है।
राजस्थान विधानसभा के अंता उप चुनाव ने तीसरे मोर्चे की नींव खड़ी करदी है। राज्य की राजनीति एक बार फिर नए समीकरणों की ओर बढ़ती दिख रही है। इस बार चर्चा है एक तीसरे मोर्चे की, जो भाजपा और कांग्रेस दोनों से अलग अपनी राजनीतिक पहचान बनाने की कोशिश कर रहा है। राजस्थान में एक बार फिर तीसरे मोर्चे की संभावनाएं हिलोरे लेने लगी है। सांसद हनुमान बेनीवाल प्रदेश में तीसरे मोर्चे की संभावनाओं पर बड़े आशान्वित है। बेनीवाल का कहना है कि 2024 में 7 विधानसभा सीटों पर हुए उप -चुनाव में कांग्रेस पार्टी की 6 सीटों पर हार हुई जिसमें से खींवसर सहित 4 सीटों पर कांग्रेस पार्टी की जमानत जब्त हुई और अंता विधानसभा क्षेत्र के उप- चुनाव के परिणाम में तीसरे मोर्चे के उम्मीदवार नरेश मीणा ने लगभग 55 हजार मत लेकर यह स्पष्ट कर दिया कि जब हाड़ौती आंचल में भी तीसरे मोर्चे ने स्थापित दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को कड़ी चुनौती दी है तो आने वाले समय में राजस्थान की जनता तीसरे मोर्चे को बड़ा आशीर्वाद देगी। इस बार तीन लड़ाकू नेता तीसरे मोर्चे के झंडाबरदार बनने जा रहे है। ये नेता है, नरेश मीना, राजेंद्र गुड्डा और हनुमान बेनीवाल। इनमें हनुमान बेनीवाल राजस्थान लोकतान्त्रिक पार्टी की कमान संभाले हुए है, साथ ही वे नागौर से सांसद भी है। वहीं राजेंद्र गुढ़ा दो बार के विधायक और मंत्री रहे है। तीसरे जुझारू नेता नरेश मीना है जो विधानसभा का कोई चुनाव तो अब तक नहीं जीत पाए मगर 50 हज़ार से अधिक वोट लेकर अपने दमख़म का परिचय दिया। अंता उप चुनाव के दौरान ये नेता एक साथ जुड़े थे। इन तीनों नेताओं का कभी न कभी कांग्रेस से जुड़ाव रहा है। हनुमान बेनीवाल अपनी बात मुखरता से रखते है। जाट बाहुल्य इलाकों में उनकी पार्टी के जड़े गहराई से जुडी है। युवाओं में लोकप्रिय है, उनकी एक आवाज पर हजारों लोग इक्कठे होते देर नहीं करते। यही उनकी ताकत है। राजेंद्र गुढ़ा ने एक संघर्षशील नेता के रूप में अपनी पहचान बनाई है। बेनीवाल की भांति कांग्रेस और भाजपा के विरोध में झंडा बुलंद कर रखा है। तीसरे नेता नरेश मीना ने राजस्थान विश्व विधालय के छात्र नेता के रूप में अपनी पहचान बनाई। मीना ने कई बार कांग्रेस से टिकट मांगी मगर टिकट नहीं मिलने से तीनों बार निर्दलीय चुनाव लड़ा। वे चुनाव में सफल तो नहीं हुए मगर अपने स्वजातीय वोटों का बड़ा हिस्सा अपने पक्ष में जरूर कर लिया जिसका खामियाजा कांग्रेस को उठाना पड़ा है। अतः उप चनाव में कई नेताओं ने उनका समर्थन किया था और माना जा रहा है इसी चुनाव से तीसरे मोर्चे की नींव पड़ गई है। तीनों नेता अपनी अपनी जातियों में अच्छा खासा दखल रखते है। इन तीनों के अलावा प्रदेश में दो और नेता है जो कांग्रेस और भाजपा से अलग अपना प्रभुत्व कायम किये हुए है। इनमें राजकुमार रोत बांसवाड़ा से सांसद है और रविंद्र भाटी बाड़मेर जिले से निर्दलीय विधायक है। अगर ये पांचों नेता एक हो जाते है तो राजस्थान में तीसरे मोर्चे की संभावनाएं बलवती हो जाएगी। पांचों नेता लड़ाकू प्रवृति के है। इस तरह जाट, राजपूत, मीना और आदिवासी समुदाय के मतदाताओं में इनके दबदबे से इंकार नहीं किया जा सकता। राजस्थान में चौधरी कुम्भाराम आर्य से लेकर हनुमान बेनीवाल तक तीसरे मोर्चे के अनेक झंडाबरदार हुए है। इनमें आर्य सहित नाथूराम मिर्धा, दौलत राम सारण, दिग्विजय सिंह, देवी सिंह भाटी, लोकेन्द्र सिंह कालवी, किरोड़ी लाल मीणा, घनश्याम तिवाड़ी और हनुमान बेनीवाल के नाम मुख्य रूप से लिए जा सकते है। इन लोगों ने भारी शोर शराबे और धूम धड़ाके से तीसरे मोर्चे की हुंकार भरी थी मगर प्रदेश की मरुभूमि में ये मोर्चा सरसब्ज नहीं हुआ। अनेक की भ्रूण हत्या भी हो गई। राजस्थान में कई बार तीसरे मोर्चे की बुनियाद रखी गई मगर हर बार दीवार खड़ी होने से पहले ही धराशाही हो गई। आजादी के बाद राज्य में तीस साल तक कांग्रेस का एकछत्र राज रहा। 1977 में पहली बार कांग्रेस का राज पलटा और विभिन्न दलों को मिलाकर बनी जनता पार्टी सत्तारूढ़ हुई। बाद के दो दशकों में राज्य की राजनीति अस्थिर रही। जनता पार्टी टुकड़े टुकड़े होकर बिखर गई। भाजपा के रूप में जनसंघ का पुनः उदय हुआ। इस पार्टी ने कद्दावर नेता भैरोंसिंह शेखावत के नेतृत्व में विभिन्न क्षेत्रीय और अपने अपने इलाकों में जमीन से जुड़े नेताओं को भाजपा में शामिल कर पार्टी को मजबूत बनाया। इस भांति प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा में सीधे मुकाबले की स्थिति बनी। साम्यवादी, समाजवादी और अन्य जातीय दल मिलकर तीसरा मोर्चा खड़ा नहीं कर पाए। राजपूत नेता कल्याण सिंह कालवी, देवीसिंह भाटी जाट नेता कुंभाराम आर्य, नाथूराम मिर्घा, दौलत राम सहारण, किरोड़ी मीणा, हनुमान बेनीवाल और घनश्याम तिवाड़ी लाख प्रयासों के बाद भी राज्य में तीसरा मोर्चा खड़ा नहीं कर पाए। हारकर देवी सिंह भाटी, किरोड़ी और तिवाड़ी अपनी मूल पार्टी भाजपा में लौट आये। हनुमान बेनीवाल अभी मैदान में डटे है और दोनों मुख्य दलों को ललकार रहे है।
अन्य करोड़ों लोगों की तरह मैं भीफ़िल्म जगत में ‘ही मैन’ के नाम से प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता धर्मेंद्र का बचपन से ही प्रशंसक हूँ। 1985-87 के मध्य इलाहाबाद में अमिताभ बच्चन के साथ काम करने का अवसर मिला। उसी दौर में मुंबई आना जाना रहा। उन दिनों मुझे संजय ख़ान,दारा सिंह,रणजीत,देव कुमार उनकी सुपुत्री मिस इंडिया मनीषा कोहली सहित अन्य कई कलाकारों से व्यक्तिगत रूप से मिलने का अवसर मिला। परन्तु इत्तेफ़ाक़ से दो बार कोशिशों के बावजूद धर्मेंद्र से इसलिये न मिल सका क्योंकि मेरे मुंबई के प्रवास के दौरान वे शूटिंग पर कहीं बाहर होते। बहरहाल उनसे मिलने व उनके साथ बैठने की हसरत दिल में ही रही। इत्तेफ़ाक़ से 2005 में जब मैं लोकसभा की कार्रवाई देखने के लिये दिल्ली गया था उसी दौरान संसद के मुख्य द्वार पर मेरी नज़र इस महान अभिनेता पर पड़ी। उस समय वे 2004 से 2009 के मध्य बनी 14वीं लोकसभा में राजस्थान के बीकानेर लोकसभा क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी की ओर से निर्वाचित हुये सांसद थे। मैं उन्हें देखकर ज़ोर से बोल पड़ा –अरे …बीरु .. और धर्मेंद्र ने मेरी तरफ़ दोनों हाथ बढ़ाते हुये ज़ोर से कहा –आ जा मेरी जान। मैं उनकी तरफ़ तेज़ी से बढ़ा ,उन्होंने बी आगे बढ़कर पूरी गर्मजोशी से मुझे दोनों हाथों से झप्पी डालते हुये इतनी ज़ोर से उठाया की मेरे दोनों पैर ज़मीन से ऊपर उठ गये। उस अविस्मरणीय क्षण को मैं आज भी भी याद करता हूँ।
बहरहाल पिछले दिनों भारत के बदनाम ज़माना ‘गोदी मीडिया ‘ ने देश के उस हरदिलअज़ीज़ अभिनेता को उनके जीवनकाल में ही अपनी ‘ख़बरों’ में श्रद्धांजलि दे डाली। ग़ौर तलब है कि सांस लेने में दिक़्क़त होने के कारण उन्हें पिछले दिनों मुंबई के ब्रीच कैंडी हॉस्पिटल में उन्हें भर्ती कराया गया था। उनके अस्पताल में भर्ती होते ही टी आर पी के भूखे गोदी मीडिया ने अपने मुख्य वाक्य ‘सबसे तेज़’ को साकार करने के मक़सद से मोर्चा संभाल लिया। और 10-11 नवंबर के बीच अच्छे ख़ासे बोलते बात चीत करते इस लोकप्रिय अभिनेता की मौत की झूठी अफ़वाहें तेज़ी से फैला दीं। ऐसी अफ़वाहबाज़ी कि केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ,कांग्रेस सांसद अभिषेक मनु सिंहवी, तेलुगु सुपरस्टार चिरंजीवी,अभिनेत्री भाग्यश्री, गीतकार व पटकथा लेखक जावेद अख़्तर यहाँ कि ख़ुद गोदी मीडिया की ही एक चर्चित पत्रकार चित्रा त्रिपाठी तक ने इसी झूठी ख़बर पर विश्वास करते हुये धर्मेंद्र को श्रद्धांजलि व श्रद्धासुमन अर्पित कर डाले। बाद में इनमें से कई हस्तियों ने अपने ऐसे ट्वीट डिलीट भी किये ? यहाँ तक कि कई बड़े अख़बारों ने भी इसी गोदी मीडिया की इस झूठी ख़बर पर विश्वास हुये मुख्य पृष्ठ पर ख़बरें प्रकाशित कर डालीं। उधर वही धर्मेंद्र अपनी मौत की झूठी ख़बर फैलने के अगले ही दिन यानी 12 नवंबर को अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिए गए। अस्पताल से छुट्टी के बाद वे सजे संवरे सर पर हैट धारण किये अपने अभिनेता पुत्रों के साथ हँसते मुस्कुराते और उसी मीडिया का अभिवादन करते हुये अपने घर जाते नज़र आये।
परन्तु पहले भी इस तरह की अफ़वाह फैलाते रहने वाले गोदी मीडिया को इस बार कुछ ज़्यादा ही मुँह की खानी पड़ी। न केवल धर्मेंद्र के परिवार के सदस्यों ने बल्कि धर्मेंद्र के प्रशंसकों ने भी सोशल साइट्स पर गोदी मीडिया की धज्जियाँ उड़ाकर रख दीं। धर्मेंद्र की बेटी अभिनेत्री ईशा देओल ने सबसे पहले अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि “मीडिया हद से ज़्यादा सक्रिय है और झूठी ख़बरें फैला रहा है। मेरे पापा स्थिर हैं और रिकवर कर रहे हैं। परिवार को प्राइवेसी दें। पापा के जल्द ठीक होने की दुआओं के लिए शुक्रिया।” उसके फ़ौरन बाद अभिनेत्री पत्नी व सांसद हेमा मालिनी ने X (ट्विटर) पर ग़ुस्से में लिखा कि “जो हो रहा है वो अक्षम्य है! ज़िम्मेदार चैनल ऐसे व्यक्ति के बारे में झूठी ख़बरें कैसे फैला सकते हैं जो इलाज पर अच्छी प्रतिक्रिया दे रहा है और रिकवर कर रहा है? ये बेहद असम्मानजनक और ग़ैर -ज़िम्मेदाराना है। परिवार की प्राइवेसी का सम्मान करें।” बाद में अभिनेता पुत्र सनी देओल की टीम की ओर से आधिकारिक बयान जारी कर कहा गया कि “मिस्टर धर्मेंद्र स्थिर हैं और ऑब्ज़र्वेशन में हैं। वे अच्छी प्रतिक्रिया दे रहे हैं। झूठी अफ़वाहें न फैलाएं, प्राइवेसी का सम्मान करें और जल्द स्वस्थ होने की दुआ करें।”
इस अफ़वाहबाज़ गोदी मीडिया को सबसे अधिक ज़लालत व अपमान का सामना सोशल मीडिया में करना पड़ा। इतना आक्रोश तो उस समय भी देखना नहीं पड़ा था जब पहले भी कई बार यही ग़ैर ज़िम्मेदार और झूठ परोसने वाला मीडिया कभी अमिताभ बच्चन तो कभी राजिनीकांत कभी शाहरुख ख़ान तो कभी फ़रीदा जलाल कभी लता मंगेशकर,राजेश खन्ना,कॅटरीना कैफ़ व आयुष्मान खुराना जैसे कई कलाकारों को उनके जीवित रहते हुये भी ‘मारने की ख़बरें चलाता रहा है। इस बार तो धर्मेंद्र के प्रशंसकों ने व गोदी मीडिया को देश की पत्रकारिता पर कलंक समझने वाले देश के एक प्रबुद्ध वर्ग ने ऐसी पत्रकारिता ऐसे ऐंकरों व ‘ ऐंकराओं ‘ की तो धज्जियाँ उड़ाकर रख दीं। सीधे तौर पर धर्मेंद्र की मौत की झूठी ख़बर शोकपूर्ण भाव भंगिमा से पेश करने वाली गोदी मीडिया की उस बदनाम ‘ऐंकरा’ के चित्र पर ही माला डालकर उसी को श्रद्धांजलि अर्पित कर डाली। लाखों लोगों द्वारा ऐसी ग़ैर ज़िम्मेदाराना पत्रकारिता की घोर भर्तस्ना की गयी। कई मशहूर यू ट्यूबर पत्रकारों ने धर्मेंद्र की बीमारी के संबंध में तो नहीं परन्तु अफ़वाहबाज़ मीडिया द्वारा फैलाई गयी धर्मेंद्र संबंधी अफ़वाह को लेकर विशेष कार्यक्रम ज़रूर बनाये और ग़ैर ज़िम्मेदार गोदी मीडिया की जम कर धुलाई की।
आश्चर्य है कि पिछले दस वर्षों से घोर अपमान झेल रहा यह पक्षपाती,समाज में दुर्भावना फैलाने वाला,लोगों को झूठी ख़बरों से गुमराह करने वाला,सरकारी विज्ञापनों व पैसों की लालच में अपना ज़मीर बेचने वाला तथा अपनी इन्हीं ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकतों से देश व पत्रकारिता को कलंकित करने वाला अनियंत्रित ‘गोदी मीडिया ‘ अभी भी झूठी,बेबुनियाद,उकसाऊ व अफ़वाहपूर्ण ख़बरों को प्रसारित करने से बाज़ नहीं आ रहा। यही वजह है कि धर्मेंद्र के सम्बन्ध में विश्वसनीय नहीं बल्कि ‘सबसे तेज़’ चैनल बनने के चक्कर में मीडिया स्वयं ‘श्रद्धांजलि ‘ का पात्र बन बैठा।
राष्ट्रीय प्रेस दिवस यानि भारतीय पत्रकारिता दिवस 16 नवम्बर को मनाया जाता है। पत्रकारिता दिवस पर आज राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की ‘कलम आज उनकी जय बोल’ कविता बड़ी शिद्दत से याद आ रही है। इसी कलम को लेकर आज तरह तरह की बातें सुनने को मिल रही है। कलम की ताकत से हर कोई परिचित है, मगर यह कलम आज कहां खो गई है, उस पर स्वतंत्र भाव से चिंतन मनन की जरुरत है। प्रेस को आज चौतरफा खतरे का सामना करना पड़ रहा है। कहीं शासन के कोपभाजन का सामना करना पड़ता है तो कहीं राजनीतिज्ञों, बाहुबलियों और अपराधियों से मुकाबला करना पड़ता है। समाज कंटकों के मनमाफिक नहीं चलने का खामियाजा प्रेस को भुगतना पड़ता है। दुनिया भर में प्रेस को निशाना बनाया जा रहा है। रिपोर्टिंग के दौरान मीडियाकर्मी को कहीं मौत के घाट उतारा जाता है तो कहीं जेल की सलाखों की धमकियाँ दी जाती है। मीडिया पर भी आरोप है कि वह अपनी जिम्मेदारियों का सही तरीकें से निर्वहन नहीं कर पा रहा है। कहा जा रहा है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने हमारे सामाजिक सरोकारों को विकृत कर बाजारू बना दिया है। बाजार ने हमारी भाषा और रचनात्मक विजन को नष्ट भ्रष्ट करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। ऐसे में प्रेस की चुनौतियों को नए ढंग से परिभाषित करने की जरुरत है।
प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। पत्रकारिता की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और नैतिक मूल्यों को बनाये रखने के लिए 1956 में प्रथम प्रेस आयोग स्थापित का निर्णय लिया गया था। तत्पश्चात 4 जुलाई 1966 को भारत में प्रेस परिषद की स्थापना की गई। इस परिषद ने 16 नवंबर, 1966 को पूर्ण रूप से कार्य करना शुरू किया। तब से लेकर हर वर्ष भारतीय प्रेस परिषद को सम्मानित करने के लिए 16 नवंबर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस यानि भारतीय पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। स्वतंत्र, निष्पक्ष और जिम्मेदार प्रेस की आवश्यक भूमिका का सम्मान करते हुए, हर साल 16 नवंबर को ‘राष्ट्रीय प्रेस हदवस’ मनाया जाता है। भारतीय प्रेस परिषद की ऑफिशियल वेबसाइट पर मौजूद एक नोटिफिकेशन के अनुसार, परिषद के अध्यक्ष के साथ ही कुल 28 सदस्य भी होंगे। परिषद का अध्यक्ष परिपाटी के अनुसार, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश होंगे। वहीं 28 सदस्य में से 20 भारत में संचालित होने वाले मीडिया समूहों से संबंधित होते हैं। वहीं 5 सदस्य को संसद के दोनों सदनों से नामित किया जाता है। बाकी बचे 3 सदस्यों का नामांकन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, भारतीय विधिज्ञ परिषद और साहित्य अकादमी द्वारा किया जाता है।
आपातकाल को अपवाद के रूप में छोड़ दें तो भारत में प्रेस की स्वतंत्रता को कभी कोई गंभीर आंच का सामना नहीं करना पड़ा। मगर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के उदय के बाद प्रेस की स्वतंत्रता पर अंगुली उठाई जाने लगी। पक्ष और विपक्ष के दो धड़ों के बीच मीडिया को निशाना बनाया जाने लगा। विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक (2024) की बात करें तो भारत को 180 देशों की सूची में 159वाँ स्थान प्राप्त हुआ है, जो विशेष रूप से विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में इसकी स्थिति को देखते हुए चिंताजनक है। हालाँकि भारत की रैंकिंग में कुछ सुधार हुआ है, लेकिन यह सुधार देश की प्रगति के कारण नहीं बल्कि अन्य देशों में प्रेस स्वतंत्रता में गिरावट के कारण हुआ है।
प्रेस समाज का आइना होता है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में प्रेस की स्वतंत्रता बुनियादी जरूरत है। मीडिया की आजादी का मतलब है कि किसी भी व्यक्ति को अपनी राय कायम करने और सार्वजनिक तौर पर इसे जाहिर करने का अधिकार है। प्रेस के सामने पहले भी चुनौतियां थीं और आज भी हैं। पत्रकारिता में निर्भीकता एवं निष्पक्षता होनी चाहिए। यह एक गम्भीर व कठिन विषय माना जाता है। पत्रकारिता की मर्यादा बनाये रखना सबकी नैतिक जिम्मेदारी है। भय और पक्षपात रहित पत्रकारिता के मार्ग में बड़ी चुनौतियां है। यह जोखिम भरा मार्ग है जिस पर चलना तलवार की धार पर चलना है। आज पत्रकारिता पर कई प्रकार का दवाब है। निष्पक्ष पत्रकारिता खण्डे की धार हो गयी है।
सत्य और तथ्य को बेलाग उद्घाटित करना सच्ची पत्रकारिता है। कलम में बहुत ताकत होती है, आजादी के दौरान पत्रकारों ने अपनी कलम के बल पर अंग्रेजों को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। प्रेस सरकार और जनता के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में अपनी महती भूमिका का निर्वहन करता है। प्रेस की चुनौतियां लगातार बढ़ती ही जा रही है। प्रेस को आंतरिक और बाहरी दोनों मोर्चों पर संघर्ष करना पड रहा है। इनमें आंतरिक संघर्ष अधिक गंभीर है। प्रेस आज विभिन्न गुटों में बंट गया है जिसे सुविधा के लिए हम पक्ष और विपक्ष का नाम देवे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। जनमत निर्माण में मीडिया की सशक्त भूमिका है, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की पहुँच घर घर में हो गई है। मगर लोग आज भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की अपेक्षा प्रिंट मीडिया को अधिक विश्वसनीय मान और स्वीकार कर रहे है।
डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स तेज़ मुनाफ़े की दौड़ में कला, संवेदनशीलता और समाजिक मूल्यों को पीछे छोड़ते हुए अश्लीलता को नया ‘मनोरंजन’ बना रहे हैं — इसका दुष्प्रभाव विशेषकर युवाओं की मानसिकता पर गहरा और खतरनाक है।
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– डॉ सत्यवान सौरभ
डिजिटल क्रांति ने जिस तेज़ी से दुनिया को बदला है, उतनी ही तीव्रता से उसने हमारे मनोरंजन के साधनों को भी प्रभावित किया है। मोबाइल फोन, इंटरनेट और सस्ते डेटा ने मनोरंजन को घरों से निकलकर सीधा हर व्यक्ति की जेब और हाथों तक पहुँचा दिया है। आज सैकड़ों एंटरटेनमेंट ऐप्स—वेब सीरीज़, शॉर्ट वीडियो प्लेटफॉर्म, सोशल मीडिया स्ट्रीमिंग और लाइव शो—हर सेकंड दर्शकों का ध्यान खींचने की होड़ में हैं। यह सुविधा जितनी शानदार लगती है, उतनी ही गहरी चिंताओं को भी जन्म देती है। क्योंकि इसी आसानी ने मनोरंजन की परिभाषा को खतरनाक रूप से बदल दिया है। अब मनोरंजन का अर्थ कला, संस्कृति, कहानी या संवेदनशीलता नहीं रह गया है—बल्कि तेज़ व्यूज़, वायरल कंटेंट और उत्तेजक दृश्यों की अंधी प्रतिस्पर्धा बन गया है।
आज स्थिति यह है कि अनेक ऐप्स जान-बूझकर अश्लीलता, फूहड़ हरकतों, भद्दे संवादों और उत्तेजक दृश्यों को परोस रहे हैं। यह सामग्री न तो किसी रचनात्मकता की मिसाल है और न ही इससे समाजिक चेतना का विस्तार होता है। इसके पीछे केवल एक लक्ष्य है—तेज़ी से अधिक दर्शक, और इन दर्शकों के माध्यम से विज्ञापन व सब्सक्रिप्शन से होने वाला मुनाफ़ा। मनोरंजन उद्योग ऐसे मोड़ पर आ खड़ा हुआ है जहाँ कला और संस्कृति की प्रतिष्ठा आर्थिक लालच के सामने निरर्थक होती जा रही है।
कभी भारतीय सिनेमा, थियेटर और साहित्य समाज के जीवन-मूल्यों को सहेजने का माध्यम माने जाते थे। कहानी, संवाद, अभिनय और कल्पना की शक्ति दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती थी। आज डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स ने इसका बिल्कुल उल्टा माहौल तैयार कर दिया है। वेब सीरीज़ और शॉर्ट वीडियो में आपत्तिजनक भाषा, निर्बाध अश्लीलता और अनावश्यक अंतरंग दृश्यों को ऐसे दिखाया जा रहा है जैसे यही “आधुनिकता” या “यथार्थवाद” हो। जबकि सच्चाई यह है कि यह यथार्थ नहीं, बल्कि एक जानबूझकर पैदा किया गया भ्रम है—जिसमें दर्शक को उत्तेजना व सनसनी के माध्यम से बांधकर रखा जाए।
इस दौड़ की सबसे बड़ी कीमत युवा पीढ़ी चुका रही है। किशोरों के हाथ में मोबाइल है और मोबाइल के अंदर ऐसी दुनिया है जो बिना किसी रोक-टोक के उन्हें प्रभावित कर रही है। किशोरावस्था वह समय होता है जब व्यक्तित्व, सोच, नैतिकता और सामाजिक मूल्य बनते हैं। लेकिन इन ऐप्स पर उपलब्ध सामग्री उन्हें तेज़-तर्रार, उथला और अक्सर भ्रमित कर देने वाला दृष्टिकोण देती है। संबंधों के प्रति गलत धारणाएँ बनती हैं, महिलाओं के प्रति सम्मान घटता है, और जीवन को केवल शारीरिक आकर्षण, भौतिकता और दिखावे के रूप में समझने की प्रवृत्ति बढ़ती है।
आज का युवा जिस प्रकार की सामग्री रोज़ देख रहा है, वह उसके व्यवहार, शब्दों, संवेदनाओं और जीवन के आकलन को धीरे-धीरे बदल रही है। जिस चीज़ को वह “मनोरंजन” या “ट्रेंड” समझ रहा है, वह वास्तव में उनके भीतर मूल्यहीनता और अवसाद पैदा कर रही है। कई मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि इस प्रकार का कंटेंट आँखों को आकर्षित भले करे, लेकिन दिमाग पर भारी बोझ डालता है। तेज़–तेज़ दृश्यों, अश्लील संवादों, अनियंत्रित भावनाओं और आक्रामक प्रस्तुतियों से किसी भी किशोर का मानसिक संतुलन प्रभावित होना स्वाभाविक है।
लेकिन समस्या का एक और पहलू भी है—कंटेंट निर्माता और ऐप कंपनियाँ ज़िम्मेदारी से बचने के लिए ‘यूज़र चॉइस’, ‘एडल्ट टैग’ या ‘व्यूअर डिस्क्रेशन’ जैसे शब्दों का सहारा लेती हैं। वे यह कहती हैं कि दर्शक स्वयं चयन करें कि वे क्या देखना चाहते हैं। यह तर्क पूरी तरह गलत नहीं, लेकिन अधूरा अवश्य है। क्योंकि जब कोई ऐप अपनी पूरी मार्केटिंग रणनीति ही उत्तेजक और भड़काऊ सामग्री पर आधारित रखता है, तब दर्शक का चुनाव स्वतंत्र कम और प्रभावित अधिक होता है। जिस सामग्री को लगातार प्रमोट किया जाएगा, वही अधिक देखी जाएगी।
नियामक तंत्र की स्थिति भी उतनी ही कमज़ोर है। भारत में फिल्मों के लिए सेंसर बोर्ड है, टीवी के लिए प्रसारण नियंत्रण है, लेकिन डिजिटल ऐप्स लगभग बिना किसी प्रभावी नियंत्रण के चल रहे हैं। दिशा-निर्देश तो बनाए गए हैं, पर उनका पालन न तो कठोर है और न ही नियमित। डिजिटल प्लेटफॉर्म्स को लगता है कि वे आम मीडिया कानूनों से ऊपर हैं। उनका तर्क है कि इंटरनेट एक “स्वतंत्र माध्यम” है। लेकिन क्या स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि समाजिक संतुलन को बिगाड़ने वाली सामग्री को खुली छूट दे दी जाए? क्या संस्कृति, नैतिकता और संवेदनाओं को नज़रअंदाज़ कर देना ही स्वतंत्रता है?
समस्या का एक सामाजिक आयाम भी है। परिवार अपने स्तर पर बच्चों को रोकने की कोशिश करते हैं, लेकिन डिजिटल दुनिया की जटिलता इतनी है कि पूरी तरह नियंत्रण लगभग असंभव है। विशेषकर मध्यम वर्गीय और ग्रामीण परिवारों में डिजिटल साक्षरता अभी विकसित नहीं हुई है। माता-पिता यह नहीं जानते कि कौन-सा कंटेंट बच्चों के लिए अच्छा है और कौन-सा हानिकारक। ऐप कंपनियाँ भी माता-पिता को मार्गदर्शन देने के बजाय उनका उपयोगकर्ता विस्तार करने में अधिक रुचि रखती हैं।
ऐसे समय में हमें यह समझना होगा कि समाधान केवल प्रतिबंधों में नहीं है। समाधान एक व्यापक सामाजिक जागरूकता, नैतिक उत्पादन नीति और कड़े नियमन के संतुलन में है। मनोरंजन कंपनियाँ स्वयं यह तय करें कि क्या दिखाना उचित है। वे कला और व्यावसायिकता के बीच संतुलन बनाएं। अश्लीलता के सहारे व्यूज़ पाने की आदत छोड़ें और रचनात्मक, भावनात्मक तथा सामाजिक रूप से उपयोगी सामग्री प्रस्तुत करें।
साथ ही, सरकार को डिजिटल प्लेटफार्मों पर वैसा ही नैतिक नियंत्रण लागू करना होगा जैसा टीवी या फिल्मों पर होता है। पारदर्शी नियम, कठोर दंड और स्पष्ट श्रेणीकरण इस दिशा में आवश्यक कदम हो सकते हैं।
समाज का कर्तव्य भी उतना ही महत्वपूर्ण है। अभिभावकों को डिजिटल साक्षरता दी जानी चाहिए। युवाओं को यह समझाया जाना चाहिए कि मनोरंजन और उत्तेजना में बहुत अंतर होता है। फूहड़ता से मिली त्वरित प्रसन्नता जीवन के गहरे अनुभवों और रचनात्मक आनंद का विकल्प नहीं हो सकती।
मनोरंजन का उद्देश्य केवल चौंकाना या उत्तेजित करना नहीं है; उसका उद्देश्य मन को संवेदनशील बनाना, सोच को गहराई देना और समाज को बेहतर दिशा देना है। लेकिन जब ऐप्स की दुनिया कला को छोड़कर अश्लीलता की ओर भागने लगे, तब संस्कृति और सभ्यता दोनों संकट में पड़ती हैं।
हमारे सामने आज यही प्रश्न है—क्या हम ऐसी डिजिटल दुनिया चाहते हैं जहाँ मनोरंजन का आधार रचनात्मकता, सांस्कृतिक मूल्य और सामाजिक ज़िम्मेदारी हो? या हम ऐसे युग में प्रवेश करने जा रहे हैं जहाँ उत्तेजना ही कला बन जाएगी और सनसनी ही मनोरंजन?
समय की मांग है कि हम स्पष्ट रूप से कहें: हमें मनोरंजन चाहिए—लेकिन ऐसा नहीं जो समाज को खोखला कर दे।
अगर डिजिटल दुनिया इस दिशा में नहीं बदली, तो आने वाली पीढ़ियाँ एक ऐसे सांस्कृतिक अंधकार में प्रवेश करेंगी, जहाँ मनोरंजन तो बहुत होगा, पर उसका कोई अर्थ नहीं बचेगा।
– डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,
देश में ऐसे बहुत कम लोग हुए जिन्हें लोगों ने भगवान का दर्ज़ा दिया। इनमें जनजाति अस्मिता के नायक बिरसा मुंडा का नाम सर्वोपरि है। देश आज भगवान बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती जनजातीय गौरव दिवस के तौर पर मनाने जा रहा हैं। पूरे देश में भगवान बिरसा मुंडा को महान क्रांतिकारी के रूप में याद किया जाता है। झारखंड के उलिहातु में 15 नवम्बर 1875 में उनका जन्म हुआ था। बिरसा मुंडा देश के इतिहास में ऐसे नायक थे जिन्होंने आदिवासी समाज की दिशा और दशा बदल कर रख दी थी। उन्होंने आदिवासियों को अंग्रेजी हुकूमत से मुक्त होकर सम्मान से जीने के लिए प्रेरित किया था। अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासी आंदोलन के लोकनायक थे बिरसा मुंडा। भगवान बिरसा मुंडा का जीवन किसी प्रेरणास्रोत से कम नहीं है। उनका पूरा जीवन देशवासियों को अदम्य साहस, संघर्ष और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्ध रहने का संदेश देता है। अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासी आंदोलन के लोकनायक थे बिरसा मुंडा। बिरसा मुंडा का 24 वर्ष की आयु में 9 जून 1900 को रांची की जेल में निधन हो गया था।
जनजाति समाज के भगवान माने जाने वाले बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती के अवसर पर देश को आदिवासियों की दशा और दिशा पर स्वतंत्र चिंतन मनन की जरुरत है। आज़ादी के बाद से ही यह समुदाय पग पग पर छला गया और सियासत की ठगी का शिकार बना, मगर आज भी आर्थिक और सामाजिक प्रगति की बाट जोह रहा है यह समुदाय। चुनावों के दौरान आदिवासी सियासत को लेकर देश में गर्माहट और छटपटाहट देखने को मिलती है। सच तो यह भी है इनके साथ छल करने वाले और कोई नहीं अपितु इनके ही समुदाय के कथित नेता है जो सत्ता और वोटों के लालच में अपने लोगों को गिरवी रख देते है। सामाजिक बराबरी के लिए आज जल, जंगल, जमीन और प्रकृति के रखवाले आदिवासियों के आर्थिक सामाजिक और शैक्षिक विकास की जरुरत है। जनजातियों का भारत की स्वतंत्रता और समृद्धि में बहुत बड़ा योगदान है। दुनिया के लगभग 90 से अधिक देशों मे आदिवासी समुदाय की आबादी लगभग 37 करोड़ है। आज आदिवासियों की दशा और दिशा पर गहन चिंतन और मंथन की जरुरत है। आदिवासी समुदाय को प्रकृति का सबसे करीबी माना जाता है। इस समुदाय ने संसाधनों के आभाव में भी अपनी एक खास पहचान बनाई है। भारत में आदिवासी संस्कृति की अपनी विशिष्ट पहचान है। यह जनजाति लोगों का एक ऐसा समूह है, जिनकी भाषा, संस्कृति, जीवनशैली और सामाजिक-आर्थिक स्थिति भिन्न है। मगर देशभक्ति और राष्ट्र निर्माण की भावना उनमें कूट कूट कर भरी है। प्रकृति के सवसे करीब होने के साथ ही इस समुदाय का गीत, संगीत और नृत्य से सदा ही गहरा लगाव रहा है। वर्षो पूर्व जब अंग्रेज इस देश को गुलाम बनाकर शासन करने आये तो यहाँ के आदिवसियों ने ही सबसे पहले सशत्र विरोध कर स्वतन्त्रता संग्राम का बिगुल फूंका था। कालांतर में यह वर्ग देश की प्रगति और विकास से समान रूप से नहीं जुड़ पाया। आजादी के आंदोलन में आदिवासियों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। करो या मरो, अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो, सिद्धु-कान्हू नाम के दो भाईयों के नेतृत्व में 30 जून 1855 को संथाल परगना में सशत्र विद्रोह किया गया जिसमें अंग्रेजों को भारी क्षति पहुंची थी। इस लड़ाई ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये थे। अंग्रेजों से लड़ते हुए तकरीबन बीस हजार लोगों ने अपनी जान दे दी थी। इस विद्रोह को इतिहास में संथाल विद्रोह के रूप में जाना जाता है।
आजादी के बाद एक लम्बी जद्दोजहद के बाद भी यह तय नहीं हो पाया की हमारे देश में आदिवासी कौन है। साधारण रूप से कहा जाये तो वे लोग जो आधुनिक सभ्यता और प्रगति से दूर रहकर जंगलों में निवास करते है। जमीन होते हुए भी जमीन हीन है। आज भी उनका खाना मोटा है। जंगल के इलाकों में रहने के कारण सरकार संचालित विकास योजनाएं इन तक नहीं पहुंच पाती। केंद्र और राज्य सरकार की रोजगार गारंटी योजना सहित दूसरी योजनाओं से ये आदिवासी पूरी तरह दूर हैं। पौष्टिक भोजन के आभाव में कुपोषण और बीमारी इनके लिए जानलेवा साबित हो रही है। मानव की मूल जरुरत साफ पानी भी इन लोगों को उपलब्ध नहीं होता।
भारत की जनगणना 1951 के अनुसार आदिवासियों की संख्या 1,91,11,498 थी जो 2001 की जनगणना के अनुसार 8,43,26,240 हो गई। वर्तमान में देश में लगभग 11 करोड़ आदिवासियों की आबादी है और विभिन्न आंकड़ों की मानें तो हर दसवां आदिवासी अपनी जमीन से विस्थापित है। बढ़ती जनसंख्या, नगरों के विकास और औद्योगिकीकरण के कारण आदिवासियों की जमीने छिन गईं, जिसके कारण इनकी परंपरागत जीवन पद्धति में भारी बदलाव आया है। धरती पर सबसे पहले सभ्य होने वाली यही जन-जातियां ही थीं। लेकिन, विडंबना यह है कि उनके बाद सभ्यता का मुंह देखने वाली जातियां आज उन्हें आदिवासी कहने लगी हैं। भारत के संविधान में आदिवासी समुदाय को जन जाति का दर्जा दिया गया है।
“बचपन को केवल देखा नहीं, समझा जाना चाहिए। हर मुस्कुराता बच्चा एक जीवित कविता है, जो हमें मानवता की सच्ची परिभाषा सिखाता है। बाल दिवस पर आइए, हम सब मिलकर यह संकल्प लें — हर बच्चे की हँसी और हर सपने की सुरक्षा हमारी जिम्मेदारी है।”
— डॉ. प्रियंका सौरभ
हर वर्ष 14 नवम्बर को भारत में बाल दिवस बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यह दिन स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की जयंती के रूप में समर्पित है। बच्चों के प्रति उनके गहरे प्रेम और स्नेह के कारण बच्चे उन्हें स्नेहपूर्वक चाचा नेहरू कहकर पुकारते थे। नेहरू जी का मानना था कि “आज के बच्चे कल का भविष्य हैं, उन्हें सही दिशा देना ही सच्ची राष्ट्र सेवा है।” उनका यह विश्वास था कि अगर बच्चों को उचित वातावरण, शिक्षा और अवसर मिले तो वे भारत को विश्व में गौरव की ऊँचाइयों तक पहुँचा सकते हैं।
नेहरू जी बच्चों में भारत के उज्ज्वल भविष्य की झलक देखते थे। उनका कहना था कि किसी भी राष्ट्र की असली पूँजी उसके बच्चे हैं — न कि उसकी सेना या संपत्ति। बच्चों में असीम ऊर्जा, कल्पनाशक्ति और सृजनात्मकता होती है, जिसे यदि सही दिशा दी जाए तो वही समाज की सबसे बड़ी ताकत बनती है। उन्होंने स्वतंत्र भारत के निर्माण के साथ-साथ बच्चों के विकास को भी सर्वोच्च प्राथमिकता दी। उनके नेतृत्व में शिक्षा, विज्ञान और बाल कल्याण से जुड़ी कई योजनाएँ प्रारंभ की गईं। उन्होंने बच्चों के लिए ‘राष्ट्रीय बाल निधि’, ‘बाल भवन’, ‘शिशु कल्याण परिषद’ जैसी संस्थाओं की नींव रखी, जिनका उद्देश्य बच्चों की प्रतिभा को निखारना और उन्हें रचनात्मक मार्ग पर प्रेरित करना था।
बाल दिवस केवल एक स्मृति दिवस नहीं, बल्कि उस सोच का प्रतीक है जो बच्चों को राष्ट्र के केंद्र में रखती है। इस अवसर पर हमें यह चिंतन करना चाहिए कि हमारे बच्चे आज किन परिस्थितियों में पल बढ़ रहे हैं। आधुनिक युग में तकनीकी क्रांति ने बच्चों के जीवन को कई मायनों में प्रभावित किया है। इंटरनेट, मोबाइल और सोशल मीडिया ने जहाँ ज्ञान के द्वार खोले हैं, वहीं बचपन की मासूमियत और संवाद की परंपरा को भी कमज़ोर किया है। बच्चे अब खेल के मैदान से अधिक स्क्रीन पर समय बिताते हैं। शिक्षा का स्वरूप भी अंकों की दौड़ में सिमट गया है, जहाँ नैतिकता और संवेदनशीलता पीछे छूटती जा रही है।
आज के बच्चे अपार संभावनाओं के धनी हैं, पर उन पर प्रतिस्पर्धा और सफलता का बोझ बहुत अधिक बढ़ गया है। माता-पिता और समाज दोनों ही उनसे अपेक्षाओं का पहाड़ खड़ा कर देते हैं। इस दबाव के कारण अनेक बच्चे मानसिक तनाव, अवसाद और भय से ग्रसित हो रहे हैं। यह स्थिति चिंताजनक है, क्योंकि स्वस्थ समाज की नींव तभी मजबूत होती है जब उसका बचपन खुश, स्वस्थ और सुरक्षित हो।
इस परिप्रेक्ष्य में बाल दिवस हमें यह याद दिलाता है कि बच्चे केवल माता-पिता की जिम्मेदारी नहीं हैं, बल्कि सम्पूर्ण समाज की धरोहर हैं। हर बच्चे के भीतर एक कलाकार, वैज्ञानिक, शिक्षक या नेता छिपा है। हमें केवल उसे पहचानने और प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। शिक्षा व्यवस्था को इस प्रकार रूपांतरित किया जाना चाहिए कि वह केवल परीक्षा आधारित न होकर अनुभव, मूल्य और सृजनशीलता पर आधारित हो। आज ज़रूरत है कि स्कूलों में खेल, संगीत, कला और साहित्य को शिक्षा का अभिन्न हिस्सा बनाया जाए ताकि बच्चे जीवन को सम्पूर्णता से जीना सीख सकें।
नेहरू जी ने जिस भारत का सपना देखा था, वह केवल आर्थिक या तकनीकी रूप से प्रगतिशील नहीं, बल्कि मानवीय मूल्यों से संपन्न भारत था। उन्होंने बच्चों को स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की भावना के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। उनके लिए शिक्षा केवल ज्ञान का साधन नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण की नींव थी। नेहरू जी ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए आईआईटी, आईआईएससी और नेशनल साइंस पॉलिसी जैसी संस्थाएँ स्थापित कीं, ताकि भावी पीढ़ी आधुनिक भारत के निर्माण में योगदान दे सके।
आज जब हम बाल दिवस मनाते हैं, तो यह हमारे लिए आत्ममंथन का समय भी है। क्या हमने नेहरू जी के आदर्शों के अनुरूप बच्चों के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण बनाया है? क्या हर बच्चे को समान अवसर, शिक्षा और सुरक्षा मिल पा रही है? वास्तविकता यह है कि आज भी हमारे देश में करोड़ों बच्चे शिक्षा से वंचित हैं, अनेक बच्चे बाल श्रम और बाल शोषण के शिकार हैं। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में बाल सुरक्षा की स्थिति समान रूप से चिंताजनक है।
यदि हमें सच में बाल दिवस का अर्थ समझना है, तो हमें इन चुनौतियों का सामना करना होगा। समाज को यह स्वीकार करना होगा कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति उसके बच्चों के कल्याण से जुड़ी है। बाल अधिकारों की रक्षा केवल कानून बनाने से नहीं, बल्कि संवेदनशील समाज के निर्माण से होगी। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी बच्चा भूखा न सोए, कोई भी बच्चा भय में न जिए, और हर बच्चे को अपने सपनों को पूरा करने का अवसर मिले।
आधुनिक भारत में बाल अधिकारों की दिशा में सरकार और समाज दोनों ने प्रयास किए हैं। राष्ट्रीय बाल नीति (2013), समग्र शिक्षा अभियान, पोषण अभियान और बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) जैसी पहलें इस दिशा में सराहनीय कदम हैं। किंतु केवल नीतियाँ काफी नहीं हैं, जब तक उन्हें ज़मीनी स्तर पर सशक्त रूप से लागू न किया जाए। हर स्कूल, हर अभिभावक और हर नागरिक को इस दिशा में संवेदनशील बनना होगा।
बाल दिवस हमें यह भी याद दिलाता है कि बच्चों की हँसी सबसे पवित्र संगीत है। जब कोई बच्चा निडर होकर मुस्कुराता है, तो वह राष्ट्र की आत्मा की मुस्कान होती है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि यह मुस्कान कभी न बुझे। इसके लिए केवल सरकारी नीतियाँ नहीं, बल्कि सामाजिक सहयोग और पारिवारिक स्नेह आवश्यक है।
बच्चों को केवल जानकारी नहीं, बल्कि प्रेरणा चाहिए। उन्हें केवल किताबें नहीं, बल्कि उदाहरण चाहिए। यदि हम अपने जीवन में नैतिकता, संवेदना और करुणा को अपनाएँ, तो वही बच्चे उनसे सीखेंगे। परिवार बच्चों की पहली पाठशाला है, जहाँ उन्हें संस्कार, सहयोग और सामंजस्य का ज्ञान मिलता है।
आज का बाल दिवस हमें यह संकल्प लेने का अवसर देता है कि हम अपने बच्चों के लिए एक ऐसा समाज बनाएँ, जहाँ वे भयमुक्त होकर सोच सकें, अपने सपनों को साकार कर सकें और अपनी सृजनात्मकता से भारत का भविष्य गढ़ सकें। नेहरू जी का सपना तभी साकार होगा जब हर बच्चा सुरक्षित, शिक्षित और प्रसन्न होगा।
बाल दिवस केवल बच्चों का उत्सव नहीं, बल्कि मानवता की नयी शुरुआत का प्रतीक है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि बचपन केवल उम्र का पड़ाव नहीं, बल्कि जीवन की वह सुंदर अवस्था है जिसमें आशा, ऊर्जा और प्रेम का सबसे शुद्ध रूप बसता है। हमें इस बचपन की रक्षा करनी है, इसे खिलने देना है, क्योंकि जहाँ बच्चे मुस्कुराते हैं, वहीं राष्ट्र खिलता है।
यह पुस्तक हमारी वरिष्ठ साथी और सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग की पूर्व अतिरिक्त निदेशक अलका सक्सेना की बत्तीस वर्ष से अधिक की जनसम्पर्क यात्रा की केवल कहानी मात्र नहीं है अपितु लेखक की सेवा यात्रा, संघर्ष और उपलब्धियों का दस्तावेज भी है। अपनी बात बेबाकी से रखने का साहस हर किसी के बस की बात नहीं होती, मगर अलका ने इसे कर दिखाया है। प्रस्तुत पुस्तक में अलका ने सच को सच कहने की हिम्मत दिखाते हुए एक ऐसी कृति हमारे हाथों में दी है जो जनसंपर्क कर्मियों की नई पीढ़ी को ही नहीं बल्कि हम सब को भी जीने की राह दिखाएगी। जनसंपर्क पर सैद्धांतिक ज्ञान की बेशक अनेक किताबें पहले से उपलब्ध हैं पर जमीनी हकीकत बताने वाली और व्यवहारिक ज्ञान देने वाली यह किताब अपने आप में अनूठी साबित होगी। अलका ने बिना किसी लाग लपेट और बिना चाशनी लपेटे सब कुछ कितना खुल कर लिखा है। पुस्तक में अलका हमें अपने साथ अपनी पूरी राजकीय सेवा की यात्रा पर ले जाती हैं और जहाँ मिले अपने खट्टे मीठे, अच्छे बुरे, अनुकूल प्रतिकूल सारे अनुभव क्रम दर क्रम हमसे साझा करती जाती हैं। उन्होंने अपनी इस पूरी यात्रा का बेहद संजीदगी से और सयंमित भाषा में वर्णन किया है। अपनी किताब में वे बिना किसी झिझक और डर के राजकीय व्यवस्था के प्रति अपना गुस्सा भी जाहिर करती हैं। भ्र्ष्टाचार के विरुद्ध ज़ीरो टोलरेंस और महिला सशक्तिकरण का राग अलापने वाली सरकारों के प्रति भी उनके मन में जो आक्रोश उसे भी यहाँ लिखने से वे अपने आप को रोक नहीं पातीं। यह किताब जनसम्पर्क का एक ऐसा दस्तावेज है जिसमें जनसम्पर्क क्या है, क्यों जरूरी है ,कितने प्रकार का है, इसके क्या उपकरण हैं, इस क्षेत्र में काम करने वालों के लिए आने वाली चुनौतियां तथा समस्याएं और उनके निराकरण के लिए निकाले गए रास्ते, विधान सभा कवरेज ,जनादेश ,जनसम्पर्क और जमीनी हकीकत ,सत्ता परिवर्तन और जनसम्पर्क ,जनसंपर्क के क्षेत्र में महिलाओं के लिए चुनौतियां, जनसंपर्क अधिकारी की गिरती साख जैसे अनेक बिंदुओं को समेटने की कोशिश की गयी है। लेखक ने पुस्तक में अपने पूरे जनसम्पर्क सफर की यादों को गागर में सागर की तरह भरने का सफल प्रयास किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वे हर दृष्टि से विलक्षण प्रतिभा की धनी हैं। वे उच्च कोटि की जनसम्पर्क कर्मी, संपादक, पत्रकार और प्रतिष्ठित संवादकर्मी के साथ हिंदी और अंग्रेजी की ज्ञाता हैं। निडरता, साहस, कार्य के प्रति समर्पण और कर्तव्यनिष्ठा उनकी प्रमुख विशेषता है। आशा है यह पुस्तक सुधि पाठकों के लिए बेहद उपयोगी साबित होगी। लेखक : अलका सक्सेना प्रकाशक : साहित्यागार, जयपुर । पृष्ठ : 315 मूल्य : 500 रूपये समीक्षक — वीना करमचंदानी वरिष्ठ लेखक और जनसम्पर्ककर्मी