विनोद खन्ना ,आज जिनका जन्मदिन है

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विनोद खन्ना का जन्म 6 अक्टूबर, 1946 में पेशावर, पाकिस्तान में हुआ था, लेकिन विभाजन के बाद इनका परिवार मुंबई आकर बस गया था। इनके पिता किशनचन्द्र खन्ना एक बिजनेसमैन थे और माता कमला खन्ना एक कुशल गृहणी रहीं। विनोद खन्ना ने दो विवाह किये थे। पहली पत्नी गीतांजलि थीं, जिनसे 1985 में तलाक हो गया। बाद में उन्होंने उन्होंने कविता से शादी की। उनके तीन बेटे अक्षय खन्ना, राहुल खन्ना और साक्षी खन्ना हैं। उनकी एक बेटी है, जिसका नाम श्रद्धा खन्ना है।

1968 में सुनील दत्त की फिल्म ‘मन का मीत’ से विनोद खन्ना ने अपना फिल्मी कॅरियर शुरू किया था। विनोद खन्ना का नाम ऐसे अभिनेताओं में शुमार था जिन्होंने शुरुआत तो विलेन के किरदार से की थी लेकिन बाद में हीरो बन गए। ये फिल्में थीं, पूरब और पश्चिम, सच्चा झूठा, आन मिलो सजना, मस्ताना, मेरा गांव मेरा देश, ऐलान आदि। ‘मेरे अपने’, ‘दयावान’, ‘कुर्बानी’, ‘मेरा गांव मेरा देश’ जैसी फिल्मों को उनकी यादगार भूमिकाओं के लिए याद किया जाता है।

विनोद खन्ना ने 1971 में सोलो लीड रोल में फिल्म ‘हम तुम और वो’ में काम किया था। गुलजार के ‘मेरे अपने’ में शत्रुघ्न सिन्हा के अपोजिट निभाए गए उनके किरदार को आज भी लोग याद करते हैं। गुलजार की ही फिल्म ‘अचानक’ में मौत की सजा पाए आर्मी अफसर का किरदार निभाने के लिए भी उन्हें काफ़ी तारीफ मिली। बाद में अमिताभ के अपोजिट हेराफेरी, खून पसीना, अमर अकबर एंथनी, मुकद्दर का सिकंदर में भी उन्होंने यादगार रोल निभाया। कहा जाता है कि अगर विनोद खन्ना ओशो के आश्रम न जाते तो आने वाले वक्त में वह अमिताभ बच्चन के स्टारडम को फीका कर देते। बहुत कम लोग ही जानते हैं कि विनोद खन्ना की सबसे हिट फिल्मों में से एक ‘कुर्बानी’ का रोल पहले अमिताभ बच्चन को ही ऑफर किया गया था। उन्होंने यह रोल ठुकरा दिया, जिसके बाद विनोद खन्ना ने यह किरदार निभाया। बाद में विनोद को ‘रॉकी’ फिल्म ऑफर की गई, लेकिन उन्होंने यह फिल्म नहीं की। इस फिल्म से संजय दत्त ने बॉलीवुड में एंट्री ली।

उनकी यादगार फ़िल्मों में ‘मेरे अपने’, ‘कुर्बानी’, ‘पूरब और पश्चिम’, ‘रेशमा और शेरा’, ‘हाथ की सफाई’, ‘हेरा फेरी’, ‘मुकद्दर का सिकंदर’, ‘अमर अकबर एंथनी’, ‘दयावान’, ‘मेरा गांव मेरा देश’ रही हैं।

अपने करियर के शिखर दौर में विनोद खन्ना अचानक अभिनय को विदा कहकर आध्यात्मिक गुरु रजनीश के शिष्य हो गए थे।

विनोद खन्ना ने 1998 में राजनीति में कदम रखा और उसी साल 12वीं लोकसभा चुनावों में पंजाब के गुरदासपुर से पहली बार भारतीय जनता पार्टी टिकट पर संसद पहुंचे। यह सिलसिला लगातार तीन बार चला। 1999 और 2004 के आम चुनावों में भी वह लगातार इसी सीट से जीते।

2002-03 में वह अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्‍व में केंद्र की बीजेपी सरकार में पर्यटन एवं संस्‍कृति राज्‍यमंत्री और 2003-04 में विदेश राज्‍यमंत्री रहे। 2009 में उन्‍होंने चुनाव नहीं लड़ा। उसके बाद 2014 में एक बार फिर उन्‍होंने बीजेपी के टिकट पर गुरदासपुर से चुनाव जीता और इस तरह चौथी बार 16वीं लोकसभा के सदस्‍य बने। संसद में वह कई कमेटियों के भी सदस्‍य रहे। 1 सितंबर, 2014 से वह रक्षा मामलों पर गठित स्‍टैंडिग कमेटी के सदस्‍य थे। इसके अलावा कृषि मंत्रालय की परामर्श कमेटी के भी सदस्‍य थे।

1999 में उनको फिल्मों में उनके 30 वर्ष से भी ज्यादा समय के योगदान के लिए फिल्मफेयर के लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित भी किया गया। 140 से भी अधिक फिल्‍मों में विविध किरदार निभाने वाले विनोद खन्‍ना को सबसे पहले 1974 में ‘हाथ की सफाई’ फिल्‍म के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार मिला। उसी साल उनको नेशनल यूथ फिल्‍म अवार्ड भी मिला।

विनोद खन्ना के पिता का टेक्सटाइल, डाई और केमिकल का बिजनेस था। विनोद खन्ना के एक भाई और तीन बहनें हैं।
विनोद खन्ना बचपन में बेहद शर्मीले थे और जब वह स्कूल में पढ़ते थे, तो उन्हें एक टीचर ने जबरदस्ती नाटक में उतार दिया और तभी से उन्हें अभिनय करना अच्छा लगने लगा।
स्कूल में पढ़ाई के दौरान विनोद खन्ना ने ‘सोलहवां साल’ और ‘मुग़ल-ए-आजम’ जैसी फिल्में देखीं और इन फिल्मों ने उन पर गहरा असर छोड़ा।

विनोद खन्ना के पिता नहीं चाहते थे कि उनका बेटा फिल्मों में जाए, लेकिन अंत में विनोद की ज़िद के आगे उनके पिता झुक गए और उन्होंने विनोद को दो साल का समय दिया। विनोद ने इन दो सालों में मेहनत कर फिल्म इंडस्ट्री में जगह बना ली। सुपरस्टार राजेश खन्ना, विनोद खन्ना के बेहद पसंदीदा अभिनेताओं में एक थे।

विनोद खन्ना को सुनील दत्त ने साल 1968 में फिल्म ‘मन का मीत’ में विलेन के रूप में लॉन्च किया। दरअसल यह फिल्म सुनील दत्त ने अपने भाई को बतौर हीरो लॉन्च करने के लिए बनाई थी। वह तो पीछे रह गए, लेकिन विनोद ने फिल्म से अपनी अच्छी पहचान बना ली।

हीरो के रूप में स्थापित होने के पहले विनोद ने ‘आन मिलो सजना’, ‘पूरब और पश्चिम’, ‘सच्चा झूठा’ जैसी फिल्मों में सहायक या खलनायक के रूप में काम किया।

गुलजार द्वारा निर्देशित ‘मेरे अपने’ (1971) से विनोद खन्ना को चर्चा मिली और बतौर नायक वे नजर आने लगे।
मल्टीस्टारर फिल्मों से विनोद को कभी परहेज नहीं रहा और उन्होंने उस दौर के सितारे अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, सुनील दत्त आदि के साथ कई फिल्में साथ में कीं।

बागवानी के बेहद शौकीन विनोद खन्‍ना को ध्‍यान, क्रिकेट, खेल, संगीत, फोटोग्राफी और ड्राइविंग का भी बेहद शौक था। उनको बैडमिंटन खेलने का शौक था। स्‍कूल और कॉलेज के दिनों में वह खेलों में हिस्‍सा लेते थे। वह कॉलेज के दिनों में जिमनास्‍ट और बॉक्‍सर भी थे।

विनोद खन्ना का 27 अप्रैल, 2017 को कैंसर की बीमारी से जूझते निधन हो गया। वे 70 साल के थे!

−रविकांत शुक्ला

महेंद्र सिंह टिकैत ने किसानों को संगठित करने का बड़ा काम किया

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महेंद्र सिंह टिकैत के जन्म दिन छह अक्तूबर पर विशेष

किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत का किसानों में जन चेतना जगाने और उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ने में असाधारण योगदान रहा है। उन्हें सही मायनों में किसानों का मसीहा कहा जाता था। महेंद्र सिंह टिकैत का जन्म छह अक्टूबर 1935 को सिसौली, मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश में हुआा।भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) की स्थापना में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसके माध्यम से उन्होंने देश भर के किसानों को एक मजबूत गैर-राजनीतिक मंच पर संगठित किया।

​उन्होंने किसानों को जाति, धर्म और क्षेत्र के भेदों से ऊपर उठकर एक झंडे के नीचे आने के लिए प्रेरित किया, जिससे किसान आंदोलन को एक नई पहचान और शक्ति मिली।टिकैत ने किसानों की समस्याओं को सरकार और देश के सामने रखने के लिए कई विशाल और सफल आंदोलनों का नेतृत्व किया। 1987 का मुजफ्फरनगर आंदोलन: उन्होंने किसानों के बिजली बिल माफ कराने और उचित मांगों को लेकर एक बड़ा आंदोलन किया।   इस आंदोलन ने  उन्हें एक प्रमुख किसान नेता के रूप में स्थापित किया।

1988 की दिल्ली बोट क्लब रैली  उनके करियर की सबसे बड़ी और ऐतिहासिक रैलियों में से एक थी। लगभग पांच लाख किसानों ने दिल्ली के केंद्र में डेरा डाल दिया था। किसानों की 35-सूत्रीय मांगें थीं। इनमें फसलों के उच्च मूल्य, बिजली और पानी के बिलों में छूट शामिल थी। इस आंदोलन ने राजीव गांधी सरकार को झुकने पर मजबूर कर दिया और उनकी कई मांगें मान ली गईं।

​इन आंदोलनों के माध्यम से, उन्होंने यह चेतना जगाई कि किसान संगठित होकर अपनी आवाज़ उठा सकते हैं और सरकारों को अपनी माँगें मानने के लिए बाध्य कर सकते हैं।उन्होंने किसानों के लिए गन्ने का उचित मूल्य, बिजली और सिंचाई की दरों में कमी, फसलों का लाभकारी मूल्य, और किसान ऋण माफ़ी जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को राष्ट्रीय बहस का विषय बनाया।उनकी आवाज़ में एक देहाती और सीधापन था, जिसने किसानों के दर्द और उनकी मांगों को सीधे सत्ता के गलियारों तक पहुँचाया।

टिकैत अपनी सादगी और देहाती अंदाज़ के लिए जाने जाते थे। वह हमेशा किसानों के बीच बैठकर खाना खाते थे और आंदोलन के दौरान भी मंच के बजाय किसानों के बीच बैठना पसंद करते थे।उनका यह आचरण किसानों के साथ उनके गहरे व्यक्तिगत जुड़ाव को दर्शाता था, जिससे किसान उनसे और अधिक प्रेरित होते थे।

​संक्षेप में, महेंद्र सिंह टिकैत ने किसानों को संगठित होने का महत्व सिखाया। उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ना सिखाया, और यह साबित किया कि किसानों की एकता किसी भी सरकार को चुनौती दे सकती है। उन्होंने ही किसान आंदोलन को एक ऐसी शक्ति के रूप में स्थापित किया, जो आज भी भारत की राजनीति को प्रभावित करती है। 15 मई 2011 को उनका निधन हुआ।

बुखार का इलाज

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यदि आप काफी दिनों से बुखार से पीड़ित हैं या मियादी बुखार (टायफाइड) से पीड़ित हैं तो गिलोय, चिरायता , अजवायन का क्वाथ बनाकर उसकी भाप सूंघे और गुनगुना रहने पर पीलें ३-४दिन के प्रयोग से ज्वर उतर जाता है बुखार के बाद की कमज़ोरी दूर करने के लिए सुबह साम 5-5, मुनक्का तवे पर सेक कर बीज निकालकर नमक तथा खूबकलां भरकर खायें *हमारा लक्ष्य स्वस्थ तन और मन ! स्वास्थ चेतना सरल जीवन शैली।

यशपाल सिंह आयुर्वेद रत्न

बुलडोेजर एक्शन अमेरिका और फ्रांस तक पहुंचा

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यूपी का बुलडोजर एक्शन और बदमाशों का लंगड़ा ऑपरेशन अपराधियों के साथ एक नए न्याय के रूप में उभरकर आए हैं । बुलडोजर न्याय तो न केवल पूरे देश में फैला अपितु अमेरिका और फ्रांस तक भी जा पहुंचा । देश के कईं राज्यों में योगी मॉडल काफी लोकप्रिय हो चुका है ।

योगी ब्रांड का शिकार चूंकि एक समुदाय के लोग ज्यादा हैं, अतः यह समुदाय जिनका वोटबैंक हैं वे राजनैतिक दल खासे तमतमाए हुए हैं । यह स्वाभाविक है चूंकि सीएम योगी आदित्यनाथ सरेआम बयान दे चुके हैं कि यूपी में न तो दादागिरी चलेगी , न किसी वर्ग की बलवागिरी चलेगी , न धर्मांतरण चलेगा और जो लोग गजवा ए हिन्द का ख्वाब देख रहे हैं उन्हें बक्शा नहीं जाएगा ।

योगी सरकार की इस नीति पर सुप्रीमकोर्ट खासा नाराज है । चीफ जस्टिस गवई ने तो कल ही कहा कि बुलडोजर एक्शन बिना कोर्ट की अनुमति नहीं किया जा सकेगा , लेकिन बुलडोजर एक्शन केवल भाजपा शासित राज्यों में नहीं छत्तीसगढ़ , तेलंगाना , पंजाब , कर्नाटक आदि राज्यों में भी चल रहा है । दरअसल इसके लिए घोर रिश्वतखोर सिस्टम और नेताओं की दबंगई भी जिम्मेदार है ।

खुद न्यायपालिकाएं सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं जहां न्याय पाने के लिए वादकारी दशकों तक लटकते रहते हैं ? इसका लाभ भूमाफिया और सरकारी संपत्ति कब्जाओ माफिया खूब उठा रहे हैं । इसमें कोई शक नहीं कि वक्फबोर्ड जैसी संस्थाओं और धार्मिक इदारों की आड में जमीनें कब्जाने की गुंडई खूब हो रही है । अफसोस कि बात है कि बुलडोजर एक्शन उन अधिकारियों के घरों पर नहीं होता जो इस सब के लिए जिम्मेदार हैं ।

देखिए जरायमपेशा नामी गुंडों की क्या हालत है । घर भी तोड़े जा रहे हैं , एनकाउंटर भी हो रहे हैं , लंगड़े भी बनाए जा रहे हैं । अतीक और मुख्तार जैसे बेहद खतरनाक राजनैतिक डॉन अभियुक्तों का सफाया हो चुका है । लारेंस गैंग को निपटाने का काम भारत सरकार शुरू कर चुकी है । जिन दुर्दांत अपराधियों को अदालतें बरसों से पालती आ रही हैं उनका इलाज इसी तरह संभव है । यह सब हमारे तंत्र को टोटल फेल्योर है । इसके लिए राजनीति , ब्यूरोक्रेसी , न्यायव्यवस्था और पुलिस कॉकस पूरी तरह जिम्मेदार है ।

…..कौशल सिखौला

वरिष्ठ पत्रकार

औषधीय गुणों की खान है शरद पूर्णिमा की खीर

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बाल मुकुन्द ओझा

भारत त्योहारों का देश है। यहां हर त्योहार का कोई न कोई निहितार्थ है। त्योहार देश की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय एकता के जीवन्त प्रतीक होते हैं। इसमें देश के इतिहास का समावेश होता है। त्योहार बिना जाति, धर्म ओर भेदभाव के सभी लोग मिलजुल कर मनाते हैं और एक दूसरे के सुख दुख में भागीदारी देते हैं। ऐसा ही एक त्योहार शरद पूर्णिमा है। शरद पूर्णिमा पर देश के अनेक भागों में औषधीय खीर का वितरण सभी धर्मों के लोगों को समान रूप से किया जाता है। मान्यता है शरद पूर्णिमा के दिन चंद्रमा अपनी 16 कलाओं में रहकर पृथ्वी के काफी करीब रहता है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन चंद्रमा से निकलने वाली किरणों में सभी प्रकार के रोगों को हरने की क्षमता होती है। इसीलिए कहा गया है कि शरद पूर्णिमा की रात आकाश से अमृत वर्षा होती है। इसी अमृत वर्षा को चखने के लिए घर घर में खुले आसमान के नीचे खीर बनायीं जाती है। इस खीर को प्रसाद के रूप में अगली सुबह वितरित किया जाता है। हिंदू पंचांग के अनुसार शरद पूर्णिमा का पावन पर्व इस वर्ष 6 अक्टूबर, को देशभर में मनाया जाएगा। पंचांग के अनुसार, आश्विन माह की पूर्णिमा तिथि 6 अक्टूबर 2025, दोपहर 12 बजकर 23 मिनट पर शुरू होगी जिसका समापन 7 अक्टूबर, सुबह 9 बजकर 16 मिनट पर होगा। पंचांग के अनुसार इस बार शरद पूर्णिमा का पर्व 6 अक्टूबर 2025 को मनाया जाएगा। इस दिन चन्द्रोदय का समय शाम 5 बजकर 27 मिनट पर होगा। शरद ऋतु की पूर्णिमा काफी महत्वपूर्ण तिथि है। साल की 12 पूर्णिमा में से शरद पूर्णिमा सबसे खास होती है। शरद पूर्णिमा तन, मन और धन तीनों के लिए सर्वश्रेष्ठ होती है। शरद पूर्णिमा पर लक्ष्मी जी की उपासना कर कोजागर पूजा की जाती है, ये पूजा सर्वसमृद्धिदायक मानी गई है। देशभर में शरद पूर्णिमा का त्योहार काफी धूम-धाम और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसे कौमुदी उत्सव, कुमार उत्सव, शरदोत्सव, कमला पूर्णिमा और रास पूर्णिमा के नाम से भी इसे जाना जाता है। हिंदू धर्म में सभी पूर्णिमा में आश्विन पूर्णिमा का विशेष महत्त्व है। शास्त्रों के अनुसार यह दिन आमजन के लिए लाभकारी है।

शरद पूर्णिमा पर खीर बनाकर चांदनी रात में रखने की परंपरा अब तक चली आ रही है।  माना जाता है कि इस रात चंद्रमा की रोशनी में खीर रखने से खीर में औषधीय गुण आ जाते हैं। मान्यता है इस खीर को खाने से पित्त से जुड़ी समस्याएं कम होती हैं, साथ ही एसिडिटी, स्किन रेशेज, पेट में जलन, आर्टिकेरिया जैसी बीमारियों से इस खीर से राहत मिलती है। आयुर्वेद के अनुसार, चंद्रमा की किरणों में औषधीय गुण होते हैं, जो खीर में मौजूद दूध और चावल के साथ मिलकर स्वास्थ्यवर्धक प्रभाव डालते हैं। दूध में लैक्टिक एसिड और अन्य पोषक तत्व होते हैं, जो चंद्रमा की किरणों के संपर्क में आने पर और अधिक प्रभावी हो सकते हैं। चांदनी रात में खीर को खुले आसमान के नीचे रखने से यह ठंडी रहती है, और बैक्टीरिया के विकास की संभावना कम होती है। इसके अलावा, शरद ऋतु में तापमान संतुलित होता है, जो खीर को रात भर ताजा रखने में मदद करता है। पूर्णिमा की चांदनी में खीर बनाकर खुले आसमान के नीचे रखने के पीछे वैज्ञानिक तर्क यह है कि चंद्रमा के औषधीय गुणों से युक्त किरणें पड़ने से खीर भी अमृत के समान हो जाएगी। उसका सेवन करना स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होगा। इस दिवस से वर्षा काल की समाप्ति तथा शीत काल की शुरुआत होती है।

शरद पूर्णिमा को भगवान कृष्ण से भी जोड़ कर देखा गया है। इसे रास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता यह है कि शरद पूर्णिमा की रात्रि को भगवान् श्री कृष्ण ने गोपियों के साथ महा रास नामक दिव्य नृत्य किया था। इस दिन धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है। धार्मिक  मान्यता के मुताबिक  शरद पूर्णिमा को माता लक्ष्मी रातभर विचरण करती हैं। जो लोग माता लक्ष्मी की पूजा करते हैं और अपने घर में उनको आमंत्रित करते हैं, उनके यहां वर्ष भर धन वैभव की कोई कमी नहीं रहती है। शरद पूर्णिमा के अवसर पर देश के अनेक स्थानों पर अस्थमा पीड़ितों के लिए खास औषधि का वितरण किया जाता है। यह औषधि चंद्रकिरणों से तैयार की जाती है।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी-32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

“आपातकाल के अंधकार से शताब्दी के प्रकाश तक : संघ की यात्रा”

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“लोकतंत्र की रक्षा के प्रहरी : संघ के शताब्दी वर्ष का संदेश”

“संघ का शताब्दी वर्ष : आपातकाल की ज्वाला से सेवा की ज्योति तक”

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है। 1975 के आपातकाल के दौरान लाखों स्वयंसेवकों ने जेल यातनाएँ सही और भूमिगत रहकर लोकतंत्र की रक्षा की। यह संघर्ष केवल संगठन की शक्ति का प्रमाण नहीं था, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को गहराई से सींचने वाला अध्याय भी था। संघ ने आपातकाल की ज्वाला से निकलकर समाज सेवा, शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्राम विकास और राष्ट्रीय एकता के क्षेत्र में नए आयाम स्थापित किए। शताब्दी वर्ष का उत्सव अतीत की गौरवगाथा और भविष्य के भारत निर्माण का संकल्प है।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

भारत का आधुनिक इतिहास अनेक उतार-चढ़ावों और संघर्षों से भरा हुआ है। स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर आज़ादी के बाद लोकतंत्र की रक्षा तक, कई संगठन और व्यक्तित्व देश की दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे। इनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) एक ऐसा संगठन है जिसने न केवल राष्ट्र निर्माण के सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्र में योगदान दिया, बल्कि कठिनतम परिस्थितियों में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए भी अग्रणी भूमिका निभाई। विशेष रूप से 1975-77 का आपातकाल भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी परीक्षा थी। इस कालखंड ने संघ की संगठनात्मक क्षमता, साहस और राष्ट्रनिष्ठा को परखने का अवसर दिया। आज जबकि संघ अपने शताब्दी वर्ष (2025-26) की ओर बढ़ रहा है, यह स्मरण करना स्वाभाविक है कि आपातकाल के समय किए गए संघर्ष ने भारतीय राजनीति और समाज को किस प्रकार नई दिशा दी।

आपातकाल की पृष्ठभूमि

25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू करने की घोषणा की। आधिकारिक रूप से इसका कारण आंतरिक अशांति बताया गया, परंतु वास्तविक कारण राजनीतिक था। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित किया था, जिससे उनके प्रधानमंत्री पद पर संकट आ गया था। सत्ता बचाने के लिए उन्होंने संविधान की मूल भावना को ही दरकिनार करते हुए आपातकाल लागू कर दिया।

इस दौरान नागरिक स्वतंत्रताएँ समाप्त कर दी गईं। प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई, विरोध करने वाले लाखों लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया। विपक्षी दलों के नेताओं के साथ-साथ सामाजिक संगठनों और कार्यकर्ताओं को भी निशाना बनाया गया। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह एक अंधकारमय काल था।

संघ की परीक्षा और संघर्ष

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उस समय एक विशाल संगठन था। लाखों स्वयंसेवक गाँव-गाँव, शहर-शहर सामाजिक सेवा और राष्ट्रभक्ति की भावना जगाने में लगे हुए थे। आपातकाल लागू होते ही सरकार ने संघ को भी प्रतिबंधित कर दिया। हजारों स्वयंसेवक जेलों में डाल दिए गए। अनुमान है कि 1,00,000 से अधिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया और लगभग 30,000 से अधिक स्वयंसेवक भूमिगत होकर गुप्त रूप से आंदोलन चलाते रहे।

संघ की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि उसने भयभीत हुए बिना लोकतंत्र की रक्षा का बीड़ा उठाया। जहां विपक्षी दलों के कई नेता जेलों में बंद थे, वहीं संघ के स्वयंसेवक भूमिगत होकर जनता को जागरूक कर रहे थे। वे गुप्त पत्रक निकालते, संदेश पहुँचाते और सत्याग्रह के माध्यम से जनता में प्रतिरोध की भावना जगाते। यह संगठनात्मक अनुशासन और साहस ही था कि पूरे देश में लोकतंत्र बचाने का अभियान जीवित रहा।

भूमिगत आंदोलन और संगठनात्मक क्षमता

आपातकाल के दौरान संघ ने अपनी मजबूत शाखा व्यवस्था और अनुशासित संगठन का उपयोग किया। हजारों कार्यकर्ताओं ने भूमिगत रहते हुए आंदोलन की मशाल जलाए रखी। दिल्ली, मुंबई, जयपुर, नागपुर, कोलकाता, चेन्नई और लखनऊ जैसे बड़े शहरों से लेकर गाँव-गाँव तक संदेश पहुँचाए जाते रहे।

केंद्र सरकार ने बार-बार यह दावा किया कि विरोध समाप्त हो चुका है, लेकिन संघ की गुप्त गतिविधियों ने सरकार की नींद हराम कर दी। यही कारण था कि इंदिरा गांधी सरकार ने संघ को विशेष रूप से निशाना बनाया और इसे कुचलने के लिए पूरी ताकत लगा दी। परंतु सत्य यह है कि जितना दमन बढ़ता गया, उतनी ही ताक़त से संघ का प्रतिरोध भी बढ़ता गया।

लोकतंत्र की बहाली और जनता पार्टी की सरकार

आपातकाल की 21 महीनों की अवधि ने जनता को यह सिखा दिया कि स्वतंत्रता और लोकतंत्र का महत्व क्या होता है। जब 1977 में चुनाव की घोषणा हुई, तो पूरे देश में इंदिरा गांधी और कांग्रेस के खिलाफ आक्रोश फूट पड़ा। संघ के स्वयंसेवकों ने विपक्षी दलों के नेताओं के साथ मिलकर चुनाव प्रचार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

जनता पार्टी का गठन हुआ और उसे अप्रत्याशित विजय मिली। इंदिरा गांधी की करारी हार हुई। यह भारतीय राजनीति में एक ऐतिहासिक मोड़ था, जहां संघ ने न केवल लोकतंत्र की रक्षा की बल्कि एक वैकल्पिक राजनीतिक धारा को भी मजबूत आधार प्रदान किया।

समाज पर आपातकाल का प्रभाव

आपातकाल का एक बड़ा सकारात्मक पहलू यह रहा कि इसने जनता को जागरूक कर दिया। नागरिक स्वतंत्रताओं के महत्व का बोध हुआ और लोकतंत्र की रक्षा का संकल्प और मजबूत हुआ। संघ ने इस जागरूकता को स्थायी बनाने के लिए समाज में व्यापक अभियान चलाए।

आज भी जब लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की चर्चा होती है, तो आपातकाल का उदाहरण दिया जाता है। यह कालखंड इस बात का प्रतीक है कि किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र में सत्ता के दमन के विरुद्ध संगठित प्रतिरोध आवश्यक है।

संघ की वर्तमान भूमिका और शताब्दी वर्ष का महत्व

संघ आज अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है। 1925 में विजयादशमी के दिन नागपुर में डॉ. हेडगेवार द्वारा स्थापित इस संगठन ने बीते सौ वर्षों में सेवा, संगठन और राष्ट्र निर्माण का एक अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया है।

आपातकाल के संघर्ष ने संघ की छवि को और भी प्रखर बनाया। आज संघ केवल शाखाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्राम विकास, आपदा प्रबंधन, पर्यावरण संरक्षण, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक समरसता जैसे अनेक क्षेत्रों में कार्यरत है।

शताब्दी वर्ष के अवसर पर संघ ने व्यापक जनजागरण अभियान की योजना बनाई है। देशभर में लाखों स्वयंसेवक घर-घर जाकर संपर्क करेंगे। समाज के हर वर्ग तक पहुँचने का प्रयास होगा ताकि राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक जागरण को और मजबूत किया जा सके।

संघ का संघर्ष और समर्पण

आपातकाल भारतीय लोकतंत्र की सबसे कठिन परीक्षा थी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस परीक्षा में उत्तीर्ण होकर यह सिद्ध कर दिया कि संगठन की शक्ति ही परिवर्तन की सच्ची साथी होती है। हजारों स्वयंसेवकों ने जेल की यातनाएँ सहीं, भूमिगत रहकर संघर्ष किया और लोकतंत्र की लौ बुझने नहीं दी।

आज जब संघ अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है, तो यह केवल एक संगठन का उत्सव नहीं है बल्कि राष्ट्र की उस जीवटता का प्रतीक है जिसने हर संकट में लोकतंत्र और स्वतंत्रता को सर्वोपरि रखा। आपातकाल का संघर्ष आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्रोत है और यह संदेश देता है कि परिवर्तन की धारा को कोई भी सत्ता, कोई भी दमन लंबे समय तक रोक नहीं सकता।

इस शताब्दी वर्ष में संघ केवल अतीत की गौरवगाथा का स्मरण ही नहीं कर रहा, बल्कि भविष्य के भारत के निर्माण की दिशा भी तय कर रहा है। एक ऐसा भारत जो सांस्कृतिक रूप से समृद्ध, सामाजिक रूप से समरस, और राजनीतिक रूप से सशक्त हो।

– डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,

जब अटल जी ने संयुक्त राष्ट्र सभा में हिंदी में भाषण दिया

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चार अक्टूबर 1977 को तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के 32वें अधिवेशन को हिंदी में संबोधित कर एक ऐतिहासिक क्षण बनाया था। यह संयुक्त राष्ट्र के मंच से किसी भारतीय द्वारा हिंदी में दिया गया पहला भाषण था। इस भाषण में उन्होंने भारत की दृढ़ आस्था, लोकतंत्र की पुनर्स्थापना, विश्व बंधुत्व और कई महत्वपूर्ण वैश्विक मुद्दों को प्रमुखता से उठाया था।
संयुक्त राष्ट्र महासभा में ऐतिहासिक हिंदी भाषण (1977)

​वाजपेयी जी ने अपने भाषण की शुरुआत में भारत की जनता की ओर से संयुक्त राष्ट्र के लिए शुभकामनाओं का संदेश देते हुए, संस्था में भारत की दृढ़ आस्था को व्यक्त किया।

​1. लोकतंत्र और मौलिक अधिकारों की पुनर्स्थापना

​यह भाषण मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार बनने के केवल छह माह बाद दिया गया था, जिसने भारत में आपातकाल के बाद सत्ता संभाली थी। वाजपेयी जी ने अपनी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि के रूप में भारत में लोकतंत्र और मूलभूत मानव अधिकारों की पुनर्प्रतिष्ठा पर ज़ोर दिया।
​उन्होंने कहा:

​”जनता सरकार को शासन की बागडोर संभाले केवल छह मास हुए हैं। फिर भी इतने अल्प समय में हमारी उपलब्धियां उल्लेखनीय हैं। भारत में मूलभूत मानव अधिकार पुनः प्रतिष्ठित हो गए हैं। जिस भय और आतंक के वातावरण ने हमारे लोगों को घेर लिया था, वह अब दूर हो गया है। ऐसे संवैधानिक कदम उठाए जा रहे हैं जिनसे यह सुनिश्चित हो जाए कि लोकतंत्र और बुनियादी आजादी का अब फिर कभी हनन नहीं होगा।”

​यह वक्तव्य दुनिया को यह बताने के लिए महत्वपूर्ण था कि भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में अपनी जड़ों की ओर लौट आया है और व्यक्ति की स्वतंत्रता को सर्वोच्च महत्व देता है।

​2. वसुधैव कुटुंबकम् और आम आदमी की महत्ता

​वाजपेयी जी ने अपने भाषण में भारतीय संस्कृति के मूल विचार ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ (सारा संसार एक परिवार है) की परिकल्पना को प्रस्तुत किया। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र को इस स्वप्न को साकार करने की संभावना के रूप में देखा।
​उन्होंने स्पष्ट किया कि उनके लिए राष्ट्रों की सत्ता और महत्ता से अधिक महत्व आम आदमी की प्रतिष्ठा और प्रगति रखती है।

​”अध्यक्ष महोदय, ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की परिकल्पना बहुत पुरानी है। भारत में सदा से हमारा इस धारणा में विश्वास रहा है कि सारा संसार एक परिवार है। अनेकानेक प्रयत्नों और कष्टों के बाद संयुक्त राष्ट्र के रूप में इस स्वप्न के अब साकार होने की संभावना है। यहां मैं राष्ट्रों की सत्ता और महत्ता के बारे में नहीं सोच रहा हूं। आम आदमी की प्रतिष्ठा और प्रगति मेरे लिए कहीं अधिक महत्व रखती है।”

​उन्होंने सफलता और असफलता का मापदंड बताते हुए कहा कि हमें इस बात से नापा जाना चाहिए कि हम “पूरे मानव समाज, वस्तुतः हर नर-नारी और बालक के लिए न्याय और गरिमा की आश्वस्ति देने में प्रयत्नशील हैं या नहीं।” यह कथन उनके मानवतावादी दृष्टिकोण को दर्शाता है।

​3. रंगभेद और साम्राज्यवाद का विरोध

​अटल बिहारी वाजपेयी ने रंगभेद (Apartheid) की नीति की कड़े शब्दों में निंदा की, विशेष रूप से अफ्रीका के संदर्भ में। उन्होंने ज़ोर दिया कि रंगभेद के सभी रूपों का जड़ से उन्मूलन होना चाहिए।

​”अफ्रीका में चुनौती स्पष्ट है, प्रश्न यह है कि किसी जनता को स्वतंत्रता और सम्मान के साथ रहने का अनपरणीय अधिकार है या रंगभेद में विश्वास रखने वाला अल्पमत किसी विशाल बहुमत पर हमेशा अन्याय और दमन करता रहेगा। निःसंदेह रंगभेद के सभी रूपों का जड़ से उन्मूलन होना चाहिए।”

​इसके अलावा, उन्होंने मध्य-पूर्व के मुद्दे को उठाते हुए इजरायल द्वारा वेस्ट बैंक और गाजा में नई बस्तियां बसाकर अधिकृत क्षेत्रों में जनसंख्या परिवर्तन करने के प्रयास की भी निंदा की और संयुक्त राष्ट्र से इसे अस्वीकार करने का आग्रह किया।

​4. निरस्त्रीकरण और शांति की नीति

​वाजपेयी ने स्पष्ट किया कि भारत शांति और निरस्त्रीकरण के प्रति दृढ़ संकल्पित है। शीत युद्ध के चरम के दौरान, उन्होंने गुटनिरपेक्षता की भारतीय नीति को दोहराया और परमाणु हथियारों के प्रसार पर चिंता व्यक्त की।

​”भारत न तो कोई शस्त्र शक्ति है और न बनना ही चाहता है। नई सरकार ने अपने असंदिग्ध शब्दों में इस बात की पुनर्घोषणा की है।”

​भारत की विदेश नीति के सिद्धांतों पर प्रकाश डालते हुए, उन्होंने कहा कि भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन के माध्यम से शांति और सभी राष्ट्रों के साथ दोस्ती के लिए खड़ा है।

​5. मानव का भविष्य

​भाषण का एक सर्वस्पर्शी विषय ‘मानव का भविष्य’ था। उन्होंने कहा कि यह वह विषय है जो आगामी वर्षों और दशकों में बना रहेगा। उन्होंने राष्ट्रों के बीच सहयोग, गरीबी उन्मूलन, विकास और एक नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने कहा कि विकासशील देशों को उनके संसाधनों का उचित मूल्य मिलना चाहिए।
​भाषण का समापन करते हुए उन्होंने पूरी दुनिया को एक विश्व (One World) के आदर्शों की प्राप्ति के लिए भारत के त्याग और बलिदान की भावना का आश्वासन दिया और “जय जगत” (विश्व की जय) के नारे के साथ धन्यवाद कहा।
​यह भाषण केवल हिंदी भाषा का गौरव नहीं था, बल्कि यह भारत के नैतिक, लोकतांत्रिक और मानवतावादी सिद्धांतों का अंतर्राष्ट्रीय मंच पर एक सशक्त प्रदर्शन था।
​यह वीडियो वाजपेयी जी के 1977 के संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिए गए ऐतिहासिक हिंदी भाषण के मुख्य अंशों को दर्शाता है।

लेडीज बैग और कोलंबिया

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व्यंग

लेडीज बैग और कोलंबिया

“बहुत सुंदर है। कहां से लाई?”

ये चेन्नई गए थे। वहीं से लाए थे।

“बहुत सुंदर है। हमारे तो कहीं जाते ही नहीं। “

ये तो जाते रहते हैं। लाते रहते हैं।

‘बैग..?”

अरे नहीं। बैग नहीं। कभी कुछ। कभी कुछ।

‘महंगा होगा?”

दूर से लाए हैं तो महंगा ही होगा।

पड़ोसन ने बैग का अपने सजल नेत्रों में स्क्रीन शॉट लिया। कुछ दिन बाद वही बैग उसके कंधों पर था । घर में जंग छिड़ गई। एक बैग दो के कंधों पर कैसे? निश्चित, तुम दो लाए होंगे।

( एक वस्तु, एक रंग महिला शास्त्र में निषेध है)

भारतीय नारी बहुत बोझ उठाती है। गहने। सड़क पर झाड़ू लगाता परिधान। दोनों हाथों की उंगलियों से उनको पकड़े रखना। फिर कंधे का भारी भरकम बैग। ऊंची हिल। कद ऊंचा। घर का बोझ। पति का बोझ। बच्चों का बोझ। समाज का बोझ। दुनिया का बोझ। माथे पर बिंदी। मांग में सिंदूर। बिछुए। पायल। अधरों पर लाली। कानों में बाली। नाक में नथ। आंखों में न जाने क्या क्या? उफ़! इतना बोझ।

आदमी तो मर जाए। वह तो पर्स भी पीछे की जेब में रखता है। आमदनी सदा छिपा कर रखनी चाहिए। बीबी ऐसा नहीं करती। वह सदा मोटा बैग अपने कंधों पर रखती है। पता नहीं, कब आलू खरीदने पड़ जाएं। बैग होगा तो पांच किलो आलू कभी भी ले लो।

मल्टी पर्पज यह बैग। एक बार पति ने जिद पकड़ ली-” दिखाओ, इसमें क्या क्या है?” पत्नी मना करती रही। पति ने पर्स यानि बैग झटक लिया। निकला क्या..? एक लिपस्टिक, एक कंघा, एक शीशा, दूध की बोतल ( ऐच्छिक), मोबाइल और एस्प्रिन या डोलो।

पति बोला..”इतने से सामान के लिए इतना बड़ा बैग?”

“तुम कुछ नहीं समझते। लाओ मेरा बैग। देख लिया। तसल्ली हो गई। आजकल यही चल रहा है। अबकि बाहर जाओ। तो थोड़ा बड़ा लाना। ये छोटा पड़ रहा है। काम नहीं चलता।”

कोलंबिया यूनिवर्सिटी में एक सवाल पूछा गया। कार बाइक से भारी क्यों होती है? इसका उत्तर भारत को ही देना था। सो, हमारे नेता जी ने दिया। “एक पैसेंजर को ले जाने के लिए कार में 3,000 किलो धातु चाहिए, जबकि 100 किलो की बाइक दो पैसेंजर ले जाती है। तो आखिर क्यों बाइक 150 किलो के धातु से दो लोगों को ले जा सकती है, लेकिन कार के लिए 3,000 किलो की जरूरत होती है । कार से इंजन चिपका होता है। अलग नहीं होता। बाइक में अलग हो जाता है।

यह है बेसिक डिफरेंस। पर्स और लेडीज पर्स का। लेडीज पर्स यानि डबल इंजन सरकार। यानी कार का इंजन। यानी खुद्दारी। दाल कैसी भी हो। तड़का मिर्च का होना चाहिए। यह ज्ञान हमको भारत के लोगों से परदेश में मिलता है।

अपनी पत्नी कितने सिसी यानी क्यूबिक कैपेसिटी (Cubic Capacity) की है। यह कौन पता करेगा? यकीन मानिए। ऐसा कोई मानक नहीं जो यह बता सके लेडीज बैग इतना भारी क्यों होता है। कोई महिला डॉक्टर के यहां वजन नहीं कराती। डॉक्टर भी जिद नहीं करता। इंजन-इंजन का फर्क है।

सूर्यकांत द्विवेदी

वरिष्ठ लेखक और चिंतक

ट्रंप ने इस्राइल से कहा− तुरंत बमबारी रोके

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गाजा में युद्ध खत्म कराने संबंधी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की योजना के कुछ बिंदुओं को हमास द्वारा स्वीकार कर लिए जाने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इजराइल को बमबारी तुरंत रोकने का आदेश दिया है। हमास ने कहा है कि वह बंधकों को रिहा करेगा और वह सत्ता अन्य फलस्तीनियों को सौंपेगा, हालांकि योजना के कुछ अन्य बिंदुओं पर फलस्तीनियों के बीच विस्तृत चर्चा होगी।

हमास के वरिष्ठ अधिकारियों ने कहा कि कुछ प्रमुख असहमतियां हैं, जिनपर विस्तृत चर्चा की जरूरत है। ट्रंप ने हमास के फैसले का स्वागत करते हुए लिखा, ‘‘मुझे लगता है कि वे दीर्घकालिक शांति के लिए तैयार हैं।’’ उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा, ‘‘इजराइल को गाजा में बमबारी तुरंत रोकनी होगी ताकि बंधकों को सुरक्षित तथा शीघ्र रिहा कराया जा सके। फिलहाल हमले जारी रखना बहुत खतरनाक होगा।’’ इस बीच,इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा कि इजराइल गाजा में युद्ध खत्म कराने की अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की योजना के ‘पहले चरण’ को लागू करने की तैयारी कर रहा है।

प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने शनिवार को जारी एक बयान में कहा कि इजराइल अपने सिद्धांतों के अनुसार युद्ध खत्म करने के लिए ट्रंप को पूरा सहयोग देगा। हमास की ओर से जारी एक बयान में कहा गया है कि गाजा के भविष्य और फलस्तीनी अधिकारों से संबंधित प्रस्ताव के पहलुओं पर निर्णय अन्य गुटों की सर्वसम्मति और अंतरराष्ट्रीय कानून के आधार पर लिया जाएगा। बयान में हमास के हथियार डालने के बारे में कोई उल्लेख नहीं किया गया है, जो ट्रंप के प्रस्ताव में शामिल इजरायल की एक प्रमुख मांग थी। मुख्य मध्यस्थों मिस्र और कतर ने ताजा घटनाक्रमों का स्वागत किया है।

कतर के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता माजिद अल अंसारी ने कहा कि वे योजना पर चर्चा जारी रखेंगे। संयुक्त राष्ट्र महासिचव एंतोनियो गुतारेस के प्रवक्ता ने सभी पक्षों से गाजा में जारी युद्ध को खत्म कराने के इस अवसर का इस्तेमाल करने का आह्वान किया। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने सोशल मीडिया पर लिखा कि सभी बंधकों की रिहाई और गाजा में संघर्ष विराम करीब है। इजराइली बंधकों के परिवारों का प्रतिनिधित्व करने वाले मुख्य संगठन ने कहा कि लड़ाई रोकने की ट्रंप की मांग बंधकों को गंभीर व अपरिवर्तनीय क्षति से बचाने के लिए आवश्यक है। संगठन ने नेतन्याहू से “सभी बंधकों को वापस लाने के लिए तुरंत सार्थक वार्ता शुरू करने” का आह्वान किया। इससे पहले ट्रंप ने चेतावनी दी थी कि हमास को रविवार शाम तक योजना को मंजूरी देनी होगी, वरना और बड़ी सैन्य कार्रवाई की जाएगी।

ट्रंप ने शुक्रवार को सोशल मीडिया पर लिखा था, “अगर समझौते के इस आखिरी मौके में सफलता नहीं मिलती है तो हमास पर ऐसा कहर टूटेगा जैसा पहले कभी नहीं देखा गया। पश्चिम एशिया में किसी भी तरह शांति कायम की जाएगी।” ट्रंप ने इस हफ्ते की शुरुआत में इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के साथ हुई बातचीत के बाद गाजा पट्टी में युद्ध समाप्त कराने के लिए एक योजना पेश की थी। इस योजना के तहत हमास तीन दिन के अंदर शेष 48 बंधकों को इजराइल को सौंपेगा, जिनमें से करीब 20 की मौत होने की आशंका है। इसके अलावा हमास को सत्ता छोड़नी होगी और हथियार डालने होंगे। इसके बदले इजराइल हमले रोकेगा और गाजा के अधिकतर क्षेत्र से पीछे हट जाएगा। साथ ही इजराइल को सैंकड़ों फलस्तीनी कैदियों को छोड़ना होगा और गाजा के पुननिर्माण के लिए मानवीय मदद की आपूर्ति को मंजूरी देनी होगी। गाजा की अधिकांश आबादी को अन्य देशों में स्थानांतरित करने की योजना स्थगित कर दी जाएगी। समझौते के तहत, गाजा का प्रशासन एक अस्थायी, तकनीकी और गैर-राजनीतिक फलस्तीनी निकाय को सौंपा जाएगा, जिसकी निगरानी “बोर्ड ऑफ पीस” करेगा। इस निकाय के अध्यक्ष राष्ट्रपति डोनाल्ड जे ट्रंप होंगे और इसमें पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर सहित अन्य वैश्विक नेता सदस्य बनाए जाएंगे। समझौते के तहत, क्षेत्रीय साझेदार गारंटी देंगे कि हमास और अन्य गुट इस समझौते का उल्लंघन नहीं करेंगे और गाजा किसी के लिए खतरा नहीं बनेगा।

इसके तहत, अमेरिका, अरब देशों और अंतरराष्ट्रीय साझेदारों के साथ मिलकर गाजा में एक अंतरराष्ट्रीय स्थिरीकरण बल (आईएसएफ) तैनात करेगा, जो स्थानीय फलस्तीनी पुलिस बलों को प्रशिक्षित करेगा और सुरक्षा बनाए रखेगा। योजना में कहा गया है कि इजराइल गाजा पर कब्जा नहीं करेगा और न ही उसे अपना हिस्सा बनाएगा। आईएसएफ द्वारा स्थिरता सुनिश्चित किए जाने के बाद, इजराइली रक्षा बल (आईडीएफ) चरणबद्ध रूप से क्षेत्र से हटेंगे, सिवाय उन सीमावर्ती इलाकों के जो अंतिम सुरक्षा सुनिश्चित होने तक नियंत्रण में रहेंगे।

आज का इतिहास

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4 अक्टूबर की महत्त्वपूर्ण घटनाएँ :——
बैजेंटाइन साम्राज्य तथा वेनिस गणराज्य के बीच एक शांति समझौता 1302 में हुआ।
मेक्सिको 1824 में एक गज णराज्य बना।
नीदरलैंड से अलग होकर 1830 में बेल्जियम साम्राज्य बना।
यूएस ने 1943 में जापानियों से सॉलोमन पर कब्जा कर लिया।
क्यूबा और हैती में 1963 को चक्रवाती तूफान ‘फ्लोरा’ से छह हजार लोग मरे।
भारत ने 1974 में दक्षिण अफ्रिका की सरकार की रंभेदी नीति का प्रतिरोध करने के लिए वहाँ जाकर डेविस कप में भाग लेने से इनकार कर दिया।
भारत के विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 1977 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक को हिंदी में संबोधित किया। हिंदी में दिया गया यह पहला संबोधन था।
जूलियन असांजे ने विकीलीक्स की स्थापना 2006 को की।
नोबेल पुरस्कार समिति ने 2011 को भौतिकी के क्षेत्र में अमूल्य योगदान के लिए अमेरिका के सॉल पर्लमटर और एडम रीस तथा अमेरिकी मूल के आस्ट्रेलियाई नागरिक ब्रायन श्मिट को वर्ष 2011 का नोबेल पुरस्कार प्रदान करने की घोषणा की।
मैक्सिको के राष्ट्रीय मानव विज्ञान एवं इतिहास संस्थान ने 2011 को उत्तर में स्थित दुरांगो प्रांत से प्राप्त मानवीय अस्थियों के आधार पर दावा किया है कि प्राचीन समय में यहां के आदिवासी नरभक्षी थे।
दुनिया के नंबर एक डबल ट्रैप निशानेबाज भारत के रोंजन सोढ़ी ने 2011 को संयुक्त अरब अमीरात के अल आईन में विश्वकप मुकाबले में ओलिम्पिक पदक विजेता चीन के बिनयुआन को पराजित कर अपने खिताब की रक्षा करने वाले दुनिया के पहले खिलाड़ी बने।
फॉर्मूला वन के बादशाह माइकल शूमाकर ने 2012 को संन्यास लिया।
4 अक्टूबर को जन्मे व्यक्ति :—–
‘भारतीय प्रशासनिक सेवा’ में भारत की दूसरी महिला अधिकारी तथा मध्य प्रदेश की भूतपूर्व राज्यपाल सरला ग्रेवाल का जन्म 1927 में हुआ।
बीसवीं शताब्दी के हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार रामचन्द्र शुक्ल का जन्म 1884 में हुआ।
प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी एवं लेखक श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म 1857 में हुआ।
हिंदी और बांग्ला पार्श्व गायिका संध्या मुखोपाध्याय का जन्म 1931 में हुआ।
हैती के 41वें राष्ट्रपति और नेता जीन क्लाउड दुवेलियर का जन्म 2014 में हुआ।
4 अक्टूबर को हुए निधन:—-
खलीफा अल आदिल का 1227 मे निधन
भारतीय फिल्म निर्देशक एवं निर्माता इदिदा नागेश्वर राव का निधन 2015 में हुआ।
भारतीय सेना का एक सैनिक बाबा हरभजन सिंह का निधन 1968 में हुआ।
4 अक्टूबर के महत्त्वपूर्ण अवसर एवं उत्सव:—–
विश्व पशु कल्याण दिवस