संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस हर साल 10 अक्टूबर को मनाया जाता है ताकि लोगों के बीच जागरूकता फैलाई जा सके। इस साल की थीम मन का महत्व: भावनात्मक मजबूती का निर्माण रखी गया है। इस थीम का जन साधारण को यह समझाना है कि भावनात्मक संतुलन बनाए रखना, आत्मविश्वास और मानसिक शक्ति को मजबूत करना जीवन के हर क्षेत्र में सफलता और खुशहाली के लिए जरूरी है। आज के दौर में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरी हैं। एक बेहतर स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए स्वस्थ मानसिकता अत्यंत आवश्यक है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में आठ में से एक व्यक्ति मेंटल डिसऑर्डर यानि मानसिक रूप से अस्वस्थता का शिकार है। आज की भागदौड़ भरी लाइफ स्टाइल में काम का दबाव और समय का प्रबंधन हम पर इस कदर हावी हो चुके हैं कि हमारा मानसिक स्वास्थ्य गड़बड़ा रहा है। बच्चे से बुजुर्ग तक मानसिक बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं।
मानसिक स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए जरूरी है कि आप शारीरिक रूप से सक्रिय रहें। शारीरिक गतिविधि की कमी के कारण गुड हार्मोन सेरोटोनिन का रिलीज कम हो जाता है, जो सीधे तौर पर मूड को ठीक रखने के लिए आवश्यक है। इसका हमारे शरीर पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इससे शरीर में लचीलापन बढ़ता है, रक्त प्रवाह बढ़ता है और इससे मूड सुधरने लगता है। इस स्थिति में आपमें सकारात्मक भावनाओं की कमी हो सकती है। हर दिन केवल 30 मिनट पैदल चलने से आपके मूड को बेहतर बनाने और आपके स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है। काम से समय निकाल कर हर दिन एक्सरसाइज करें। मन को शांत रखने के लिए योग बेहतरीन अभ्यास है। संतुलित आहार और भरपूर पानी पूरे दिन आपकी एनर्जी और फोकस में सुधार कर सकता है। कोल्ड ड्रिंक या कॉफी जैसे कैफीनयुक्त ड्रिंक्स का सेवन सीमित करें। विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस का समग्र उद्देश्य दुनिया भर में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के बारे में जागरूकता बढ़ाना और मानसिक स्वास्थ्य के समर्थन में प्रयास जुटाना है। यह दिन मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों पर काम करने वाले सभी हितधारकों को अपने काम के बारे में बात करने का अवसर प्रदान करता है, और दुनिया भर के लोगों के लिए मानसिक स्वास्थ्य देखभाल को वास्तविकता बनाने के लिए और क्या करने की आवश्यकता है, इसके बारे में बात करने का अवसर प्रदान करता है। इस दिन पूरी दुनिया में मानसिक बीमारी से जुड़े हुए विषय पर कई प्रकार के स्वास्थ्य संबंधित प्रोग्राम आयोजित किए जाते हैं। जिसमें लोगों को किस प्रकार आप अपने आप को मानसिक रूप से स्वस्थ रखेंगे उसके बारे में डॉक्टर के द्वारा कई प्रकार के टिप्स और जानकारी उपलब्ध करवाए जाते हैं, ताकि आप उन टिप्स और जानकारी का अनुसरण कर अपने आप को मानसिक रूप से मजबूत बना सके। तनाव, चिंता और अवसाद या फिर किसी भी तरह की मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या मानसिक रोगों की श्रेणी में आता है। मानसिक रोगी की मनोदशा और स्वास्थ्य का असर उसके स्वभाव में देखने को मिलता है। ऐसा व्यक्ति अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाता है। एक सर्वे के मुताबिक देश के 59 फीसदी से अधिक लोगों को लगता है कि वह अवसाद की स्थिति से जूझ रहे हैं। लेकिन वह अपने परिवार व दोस्तों से इसका जिक्र नहीं करते हैं। क्योंकि कहीं ना कहीं आज भी मानसिक बीमारी हमारे देश एक वर्जित विषय के तौर पर देखा जाता है। मानसिक रोग के लक्षण लगातार उदास रहना मूड का बार-बार बदलना असामान्य बर्ताव करना अचानक से गुस्सा होना और अचानक से हंसना घबराहट या दर्द होना आदि।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनियाभर में 28 करोड़ से अधिक लोग डिप्रेशन के शिकार हैं। मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को लेकर सामाजिक टैबू के चलते इनमें से ज्यादातर लोगों का समय पर इलाज नहीं हो पाता है। भारत में 9,000 मनोचिकित्सक हैं या प्रति 100,000 लोगों पर एक। प्रति 100,000 लोगों पर मनोचिकित्सकों की आदर्श संख्या तीन है। परिणामस्वरूप, भारत में 18,000 मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों की कमी है। डब्ल्यूएचओ का यह भी अनुमान है कि लगभग 7.5 प्रतिशत भारतीयों को मानसिक बीमारी है और इस साल के अंत तक लगभग 20 प्रतिशत भारतीयों को मानसिक बीमारी होगी। आंकड़ों के मुताबिक, 56 मिलियन भारतीय अवसाद से पीड़ित हैं। अन्य 38 मिलियन लोग चिंता विकारों से पीड़ित हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, 2012 से 2030 के बीच मानसिक स्वास्थ्य विकारों के कारण भारत को 1.03 ट्रिलियन डॉलर का आर्थिक नुकसान होगा।
*दशहरा बीत चुका था, दीपावली समीप थी, तभी एक दिन कुछ युवक-युवतियों की NGO टाइप टोली एक कॉलेज में आई!*
*उन्होंने छात्रों से कुछ प्रश्न पूछे; किन्तु एक प्रश्न पर कॉलेज में सन्नाटा छा गया!*
*उन्होंने पूछा, “जब दीपावली भगवान राम के १४ वर्षो के वनवास से अयोध्या लौटने के उतसाह में मनाई जाती है, तो दीपावली पर “लक्ष्मी पूजन” क्यों होता है ? श्री राम की पूजा क्यों नही?”*
*प्रश्न पर सन्नाटा छा गया, क्यों कि उस समय कोई सोशियल मीडिया तो था नहीं, स्मार्ट फोन भी नहीं थे! किसी को कुछ नहीं पता! तब, सन्नाटा चीरते हुए, एक हाथ, प्रश्न का उत्तर देने हेतु ऊपर उठा!*
*उसने बताया कि “दीपावली उत्सव दो युग “सतयुग” और “त्रेता युग” से जुड़ा हुआ है!”*
*”सतयुग में समुद्र मंथन से माता लक्ष्मी उस दिन प्रगट हुई थी! इसलिए “लक्ष्मी पूजन” होता है!*
*भगवान श्री राम भी त्रेता युग मे इसी दिन अयोध्या लौटे थे! तो अयोध्या वासियों ने दीप जलाकर उनका स्वागत किया था! इसलिए इसका नाम दीपावली है!*
*इसलिए इस पर्व के दो नाम हैं, “लक्ष्मी पूजन” जो सतयुग से जुड़ा है, और दूजा “दीपावली” जो त्रेता युग, प्रभु श्री राम और दीपो से जुड़ा है!*
*हमारे उत्तर के बाद थोड़ी देर तक सन्नाटा छाया रहा, क्यों कि किसी को भी उत्तर नहीं पता था! यहां तक कि प्रश्न पूछ रही टोली को भी नहीं!*
*खैर कुछ देर बाद । सभी ने खूब तालियां बजाई!*
*उसके बाद, एक समाचारपत्र ने उस उत्तर देने वाले विद्यार्थी का साक्षात्कार (इंटरव्यू) भी किया!*
*उस समय समाचारपत्र का साक्षात्कार होना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी!*
*बाद में पता चला, कि वो टोली आज की शब्दावली अनुसार “लिबरर्ल्स” (वामपंथियों) की थी, जो हर कॉलेज में जाकर युवाओं के मस्तिष्क में यह बात डाल रही थी, कि “लक्ष्मी पूजन” का औचित्य क्या है, जब दीपावली श्री राम से जुड़ी है?” कुल मिलाकर वह छात्रों का ब्रेनवॉश कर रही थी!*
*लेकिन उस उत्तर के बाद, वह टोली गायब हो गई!*
*एक और प्रश्न भी था, कि लक्ष्मी और। श्री गणेश का आपस में क्या रिश्ता है?*
*और दीपावली पर इन दोनों की पूजा क्यों होती है?*
*सही उत्तर है
*लक्ष्मी जी जब सागर मन्थन में मिलीं, और भगवान विष्णु से विवाह किया, तो उन्हें सृष्टि की धन और ऐश्वर्य की देवी बनाया गया! तो उन्होंने धन को बाँटने के लिए मैनेजर कुबेर को बनाया!*
*कुबेर कुछ कंजूस वृति के थे! वे धन बाँटते नहीं थे, स्वयम धन के भंडारी बन कर बैठ गए!*
*माता लक्ष्मी परेशान हो गई! उनकी सन्तान को कृपा नहीं मिल रही थी!*
*उन्होंने अपनी व्यथा भगवान विष्णु को बताई! भगवान विष्णु ने उन्हें कहा, कि “तुम मैनेजर बदल लो!”*
*माँ लक्ष्मी बोली, “यक्षों के राजा कुबेर मेरे परम भक्त हैं! उन्हें बुरा लगेगा!”*
*तब भगवान विष्णु ने उन्हें श्री गणेश जी की दीर्घ और विशाल बुद्धि को प्रयोग करने की सलाह दी!*
*माँ लक्ष्मी ने श्री गणेश जी को “धन का डिस्ट्रीब्यूटर” बनने को कहा!*
*श्री गणेश जी ठहरे महा बुद्धिमान! वे बोले, “माँ, मैं जिसका भी नाम बताऊंगा, उस पर आप कृपा कर देना! कोई किंतु, परन्तु नहीं! माँ लक्ष्मी ने हाँ कर दी!*
*अब श्री गणेश जी लोगों के सौभाग्य के विघ्न/रुकावट को दूर कर उनके लिए धनागमन के द्वार खोलने लगे!*
*कुबेर भंडारी ही बनकर रह गए! श्री गणेश जी पैसा सैंक्शन करवाने वाले बन गए!*
*गणेश जी की दरियादिली देख, माँ लक्ष्मी ने अपने मानस पुत्र श्री गणेश को आशीर्वाद दिया, कि जहाँ वे अपने पति नारायण के सँग ना हों, वहाँ उनका पुत्रवत गणेश उनके साथ रहें!*
*दीपावली आती है कार्तिक अमावस्या को! भगवान विष्णु उस समय योगनिद्रा में होते हैं! वे जागते हैं ग्यारह दिन बाद, देव उठावनी एकादशी को!*
*माँ लक्ष्मी को पृथ्वी भ्रमण करने आना होता है शरद पूर्णिमा से दीवाली के बीच के पन्द्रह दिनों में, तो वे सँग ले आती हैं श्री गणेश जी को! इसलिए दीपावली को लक्ष्मी-गणेश की पूजा होती है!*
कुछ भी कहो। एक नियम अच्छा है। जो आया है, वह जाएगा। कुछ लोग अपनी जिद से बैठे रहते हैं। यह अच्छी बात नहीं है। शरीर में कुछ चीजें लापता होती हैं। लेकिन होती हैं। पूरी बॉडी का स्कैन करा लो। ये कहीं नहीं मिलेंगी। जैसे वीर्य। भावना। आंसू। खुजली। महसूस होगी। दिखाई नहीं देगी। डकार आएगी। चली जाएगी। हिचकी आएगी। चली जाएगी। यह लुप्त प्राणी की लुप्त अवस्था है। तभी मृत्य शाश्वत है। सोचो, अगर यह शाश्वत न होती तो? जूता काटता।
ब्रह्मा जी को सृष्टि निर्माण का टेंडर दिया गया। जैसे हाइवे आदि के मिलते हैं। ठेकेदार तो वही करेगा, जो संसाधन होंगे। ब्रह्मा जी ने भी यही किया। मंत्र मारा। अनगिनत सनत कुमार खड़े हो गए। सब खुश। काम हो गया। काल की गति चलती रही। काल नहीं आया। न दाढ़ी। न मूंछ। जैसे थे वैसे ही। अब क्या हो? टेंडर किसी दूसरी कंपनी को दिया गया। उसने पहले यह पता किया कि आदमी कैसे जन्म लेगा। और कैसे मरेगा? आदमी खुद कुछ नहीं करता। स्त्री को आगे कर देता है। ऊपर भी यही हुआ।
जन्म और मृत्यु की दोनों चीजें लुप्त और गुप्त हैं। दिखाई देती है। मगर दिखाई नहीं देती। भारतीय समाज में पांच चीजें कभी भी हो सकती हैं। यह फाइव एम है। मीटिंग, मेल, मैसेज, मोबाइल और मौत। यह कभी भी आ सकती है। यह रहस्यवाद है। ऐसा रहस्य जो किसी को पता नहीं। लेकिन का तुरुप का पत्ता है।
अच्छे भले बैठे थे। चले गए। रस्ते में जा रहे थे, मीटिंग आ गई। सो रहे हो। मैसेज आ गया..क्या कर रहे हो? अरे, रात के तीन बजे हैं। सो रहे होंगे। कुछ करो न करो। तंग करते रहो। यह भारतीय परंपरा है। सार्वजनिक सूचना है। निविदा है। कुछ करो न करो। चिकोटी काटते रहो। इससे ऊर्जा बनी रहती है। खबरों में बने रहते हैं।
आने जाने की महान परंपरा है। यह व्यवस्था है। अस्त्र शस्त्र से चलती है। शास्त्र लचीले हैं। हम अपने हिसाब से बदलते रहते हैं। स्त्री शास्त्र
अलग है। यह अपनी मर्जी से चलता है। यहां हर दिन शास्त्रार्थ होता है। इससे कुछ हो न हो। सब्जी का चाकू तेज होता रहता है।
एक उदाहरण देखिए। “तुम्हारी तो आत्मा ही मर गई है?’। यह फेमस डायलॉग है। आत्मा कैसे मर गई। यह तो अजर है। अमर है। मगर लोग कह रहे हैं। तो सच होगा। कलियुग के सभी प्राणी गोलोक में जाते हैं। कलियुग कब गोलोक में जायेगा, पता नहीं। ब्रह्मा जी से जब काम नहीं हुआ। तभी तो हमको अपने हाथ में लेना पड़ा। इस मिस्ट्री को कौन समझेगा। जूता क्यों काटता है? इसका नंबर अलग अलग क्यों होता है? यह 13,14,15 नंबर का क्यों नहीं होता? यह कोई समझा क्या
बंगाल में सांसद सहित तीन आदिवासियों को सरे आम गाड़ी से उतारकर जिस तरह लहूलुहान कर दिया गया उसने लोकतंत्र को शर्मसार कर दिया है । आश्चर्य की बात है देश के राजनीतिक दलों को सीजेआई का दलित बौद्ध होना तो दिखाई दे गया , बिहार के तीन आदिवासी जनप्रतिनिधियों का आदिवासी होना दिखाई नहीं दिया । बंगाली जनता द्वारा निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर हमला करने वाले ममता के चहेते गुंडों की जाति दिखाई नहीं दी ।
समय आ गया है कि बंगाल को आधा बांग्लादेश बना चुकी ममता को अब कड़ा सबक सिखाया जाए । आश्चर्य की बात है कि सांसद और विधायकों के लहूलुहान होने पर प्रधानमंत्री भी एक्स हैंडल पर एक छोटी सी पोस्ट डालकर चुप हो गए । जबकि तीनों बीजेपी के निर्वाचित प्रतिनिधि थे और साथ चल रहे सीआरपीएफ जवानों तक पर लट्ठ बरसाए गए । दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि समूचे घटनाक्रम को वहां मौजूद पुलिस हाथ बांधे देखती रही ?
ममता का यह जंगलराज उससे भी बदतर है जैसा जंगलराज लालू के जमाने में बिहार में चला करता था । ममता के पहले कार्यकाल से लेकर आज तक हालात में कोई भी सुधार नहीं हुआ । उल्टे दिनों दिन बंगाल के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं । बंगाल के आधा दर्जन जिले तो पूरी तरह बांग्लादेश बन चुके हैं । इन जिलों से हिन्दू आबादी लगातार पलायन कर रही है । दरअसल ममता सरकार तोलाबाजी के दम पर राजनीति करने वाली सरकार है ।
ममता ने टाटा जैसे उद्यमियों को बंगाल से भगा दिया था , लेकिन राज्य की डेमोग्राफी को पूरी तरह बदलने का अभियान छेड़ा हुआ है । हिंसक गुंडागर्दी , आगजनी , लूट , डकैती के दम पर राज करने वाली ममता बनर्जी साम दाम दण्ड भेद के आधार पर बंगाल को दूसरा बांग्लादेश बनाना चाहती हैं । उन्होंने पिछले दशक में बंगाल को कांग्रेस और वामपंथियों से शून्य कर दिया है । लेकिन भाजपा उनके सामने कड़ी चुनौती बनकर आई है । बीजेपी को ममता मिटा नहीं पा रही अतः वे अपने पेड़ पार्टी वर्कर्स से जानबूझकर हमले करा रही हैं ।
किसी भी चुनी हुई राज्य सरकार को बीच में हटाने का एकमात्र इलाज है राष्ट्रपति शासन । खासकर कोई मुख्यमंत्री जब इतना अराजक हो जाए कि बॉर्डर स्टेट को पुराना कश्मीर बनाने पर आमादा हो । लेकिन लोकतंत्र में राष्ट्रपति शासन लगाना कोई अच्छी बात नहीं माना जाता । किसी को भी पसंद नहीं । जनता द्वारा चुनी सरकार को जनता ही वक्त आने पर हटाए , यही लोकतंत्र की खूबसूरती है ।
लेकिन ममता राज में पानी सिर के ऊपर से गुजर चुका है । समय आ गया है कि बंगाल में लोकतंत्र बचाने के लिए हत्यारी हो चुकी ममता को कोई कड़ा सबक सिखाया जाए । ममता ने बंगाल में शिक्षा , संगीत , फिल्म , नृत्य और ज्ञान के भद्रलोक को तबाह कर दिया है । केंद्र का दायित्व है कि इस भद्रलोक को बचाने में अब देर न की जाए । बहुत देर से उठाया उचित कदम भी आत्मघाती होता है , जान लीजिए ?
सोच रहा हूँ, इस संसार में जूते से अधिक मारक वस्तु भी कोई है क्या? कभी कभी गोली दम्बूक भी उतना प्रभाव नहीं छोड़ते जीतना एक अदना सा जूता छोड़ जाता है।
सोचिये न! लाठी चलाये जाने पर किसी व्यक्ति का नुकसान तभी होता है जब लाठी उसे लगे। लेकिन जूते के केस में ऐसा नहीं है। जूता निशाने पर लगे या न लगे, वह अपना प्रभाव छोड़ देता है। कभी कभी तो जूता उछलता भी नहीं, धारक बस उसे पैर से निकाल कर हाथ में उठा लेता है और इतने भर से उसका काम सिद्ध हो जाता है। है न अद्भुत?
पुराने युद्ध वाले सीरियल याद कीजिये। बड़े से बड़ा अस्त्र भी केवल उसी व्यक्ति का नुकसान करता है जिस पर प्रहार किया जाता है। जूते के मामले में यहाँ भी अंतर है। जूता चलता एक व्यक्ति पर है, पर चोटिल अनेकों को करता है। कभी कभी तो एक जूता लाखों लोगों को चोट पहुँचा जाता है। है न कमाल?
संसार के सारे अस्त्र शस्त्र शरीर को चोटिल करते हैं। जितना तेज प्रहार, उतनी पीड़ा उतनी हानि। जूता ऐसा नहीं करता। उससे शरीर को कोई नुकसान नहीं होता। आपने कभी नहीं सुना होगा कि जूते के प्रहार से फलाँ का हाथ टूट गया, टांग टूट गयी। एक बौद्धिक व्यक्ति दस बज कर बाइस मिनट पर जूता खाने के बाद दस बज कर तेईस मिनट पर मुस्कुराते हुए अरिजीत सिंह का रोमांटिक सांग गा सकता है। कहने का अर्थ यह है कि जूता शरीर को अल्पतम नुकसान पहुँचाता है। लेकिन, किंतु, परंतु… उसकी असली चोट हृदय पर पड़ती है। चोटिल व्यक्ति के हृदय में जूते की याद सदैव बनी रहती है।
जूतों की दुनिया में अद्भुत साम्यवाद है। आप देखिये, जूता लेदर का हो या प्लास्टिक का, दस हजार का एडिडास हो या तीन सौ का नेपाली गोल्डस्टार, असर बराबर ही छोड़ता है। ऐसा नहीं कि बुर्जुआ का जूता ज्यादा मारक और सर्वहारा का कम। जूता बाभन का हो या यादव का, ठाकुर का हो या कुशवाहा का, उसकी चोट उसका असर बराबर ही होता है।
इस देश में प्रतिदिन अनेकों लोगों को गोली लगती है, अनेक लाठी डंडों से मार दिए जाते हैं। इन घटनाओं पर देश कभी नहीं उबलता। लेकिन एक जूता चल जाय तो देश हिल जाता है। सोचिये तो, क्या खा कर अंदुक बंदुक जूते की बराबरी करेंगे?
हर साल आपराधिक घटनाओं में मरे हजारों लोगों के परिजन बीस बीस साल तक कचहरियों में दौड़ते दौड़ते थक कर चुप हो जाते हैं, पर उनके साथ कोई नहीं आता। लेकिन जूते के मामले में देखिये, जूता फेंकने वाले के साथ भी हजारों खड़े होते हैं और खाने वालों के साथ भी लाखों… सोचो दोस्त! जूता बहुत बड़ी चीज है कि नहीं?
आप मान लीजिये कि लोकतंत्र में जूते से अधिक महत्वपूर्ण और कुछ भी नहीं। वह दिन दूर नहीं जब हर पैर में जूता हो न हो, हर हाथ में जूता अवश्य होगा।
मल्लिका-ए-ग़ज़ल: बेगम अख़्तर की मां मुश्तरी बाई एक तवायफ थीं, और समाज ने इस पहचान के साथ हमेशा भेदभाव किया। लोग अख्तरी बाई की गायकी से तो प्रभावित हुए, पर उन्हें सिर्फ एक “कोठे की गायिका” कहकर सीमित कर दिया। एक बार एक तवायफ संगठन ने मुश्तरी बाई से कहा कि वह अपनी बेटी को एक लाख रुपये में सौंप दें, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। उन्होंने अपनी बेटी को कोठे से निकालकर मंच तक पहुंचाया। और वही अख्तरी बाई, बाद में बेगम अख्तर बनीं—वो नाम जिसने ग़ज़लों को कोठों से निकालकर घर-घर में पहुंचाया।
बेगम अख्तर की ज़िंदगी का सबसे दर्दनाक अध्याय था उनका शोषण। 13 साल की उम्र में बिहार के एक राजा ने उन्हें गायन के बहाने बुलाया और उनके साथ बलात्कार किया। इससे वह गर्भवती हुईं और एक बेटी ‘शमीमा’ को जन्म दिया। समाज के डर से वह अपनी बेटी को “छोटी बहन” बताती रहीं। यह रहस्य कई सालों बाद खुला। इस त्रासदी ने उनके सुरों में जो दर्द भरा, वही उनकी ग़ज़लों की रूह बन गया। शायद यही कारण था कि उनकी आवाज़ में दर्द इतना सजीव लगता था।
ग़ज़लों की मल्लिका – जब सुरों ने पाई पहचान
1940 के दशक में बेगम अख्तर ने एचएमवी कंपनी के साथ करार किया और कई ग़ज़लें, ठुमरी और दादरे रिकॉर्ड किए। उन्होंने ग़ालिब, फैज़ अहमद फैज़, कैफ़ी आज़मी, शकील बदायूनी जैसे बड़े शायरों के कलाम गाकर उन्हें अमर कर दिया। उनके सुरों ने ग़ज़लों को कोठों की दीवारों से निकालकर सभ्य समाज तक पहुंचाया। तभी उन्हें “मल्लिका-ए-ग़ज़ल” कहा जाने लगा। मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी ने कहा था—“ग़ज़ल के दो मायने हैं—एक ग़ज़ल और दूसरा बेगम अख्तर।”
सिगरेट के लिए रुकी ट्रेन – बेगम का अंदाज़-ए-जिंदगी
बेगम अख्तर की आदतें भी उतनी ही अलग थीं जितनी उनकी गायकी। वह अकेलेपन से डरती थीं, इसलिए सिगरेट और शराब का सहारा लिया। एक बार ट्रेन में सफर के दौरान उन्हें सिगरेट नहीं मिली तो उन्होंने ट्रेन ही रुकवा दी। गार्ड की लालटेन और झंडा लेकर बोलीं—“जब तक सिगरेट नहीं आती, ट्रेन नहीं चलेगी।” ऐसी थी उनकी बेबाकी। उनकी लत इतनी गहरी थी कि फिल्म पाकीज़ा उन्होंने छह बार में पूरी देखी, क्योंकि हर बार सिगरेट पीने बाहर चली जाती थीं।
शादी, विराम और फिर सुरों की वापसी
1945 में उन्होंने लखनऊ के बैरिस्टर इश्तियाक अहमद अब्बासी से शादी की और यहीं से बनीं “बेगम अख्तर।” पति के कहने पर उन्होंने गाना छोड़ दिया, लेकिन संगीत के बिना वह बीमार रहने लगीं। 1949 में उन्होंने फिर मंच पर वापसी की और तीन ग़ज़लें व एक दादरा गाया। इसके बाद उन्होंने कभी माइक नहीं छोड़ा। उनके लिए संगीत सिर्फ कला नहीं, जीवन का प्राण था।
आखिरी सांस तक गाती रहीं बेगम अख्तर
7 अक्टूबर 1914 को फैजाबाद की एक साधारण सी बच्ची ‘अख्तरी बाई’ ने जन्म लिया। कोई नहीं जानता था कि यही बच्ची आगे चलकर “मल्लिका-ए-ग़ज़ल” कहलाएगी। उनकी आवाज़ में ऐसा जादू था जो दिलों को छू जाता था। लेकिन इस मधुर आवाज़ के पीछे कितनी कड़वी सच्चाइयाँ थीं, यह बहुत कम लोग जानते हैं। पिता असगर हुसैन, जो पेशे से वकील थे, ने माँ मुश्तरी बाई और दोनों बेटियों को छोड़ दिया। एक जुड़वा बहन बचपन में ज़हरीली मिठाई से चल बसी। बचपन से ही बिब्बी यानी अख्तरी बाई का जीवन दर्द से शुरू हुआ, जो उनके सुरों में घुलकर अमर हो गया। पहली ताल – जब सुर बने ज़िंदगी की पहचान अख्तरी बाई को बचपन से संगीत की ललक थी। उस्ताद मोहम्मद खान से उन्होंने रियाज़ शुरू किया। शुरुआत में जब सुर नहीं लगते थे, उस्ताद ने डांट दी, और नन्ही बिब्बी ने कहा—”अब मैं नहीं सीखूंगी।” लेकिन उस्ताद के प्यार ने उन्हें वापस सुरों की ओर खींच लिया। यही मोड़ था जहां से संगीत उनकी ज़िंदगी बन गया। 15 साल की उम्र में उन्होंने पहली बार स्टेज पर गाया। सरोजिनी नायडू जैसी हस्ती उनकी आवाज़ पर मंत्रमुग्ध हो गईं और उन्हें साड़ी भेंट की। तभी लोगों ने जाना—एक नई आवाज़ का जन्म हुआ है।
1974 में अहमदाबाद के एक मंच पर वह कैफ़ी आज़मी की ग़ज़ल गा रही थीं। तबीयत बेहद खराब थी, लेकिन उन्होंने गाना बंद नहीं किया। दर्शक तालियों से गूंज उठे, और वह मुस्कुराते हुए मंच से नीचे उतरीं। उसी दिन, 30 अक्टूबर 1974 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। वह आखिरी वक्त तक गाती रहीं। लखनऊ के पसंदा बाग में आज भी उनकी मजार पर लोग ग़ज़लों की महक महसूस करते हैं।
पाकिस्तान में भी बजता रहा सुरों का जादू
1959 में बेगम अख्तर लाहौर गईं और पाकिस्तान म्यूजिक कॉन्फ्रेंस में गाईं। 1970 में उन्होंने कराची रेडियो के लिए कई ग़ज़लें और ठुमरियां रिकॉर्ड कीं। वहां भी उनकी आवाज़ को उतना ही सम्मान मिला जितना हिंदुस्तान में। ग़ज़ल को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने में उनका योगदान अद्वितीय है।
अमर हो गया दर्द, सुर और आत्मा
बेगम अख्तर सिर्फ गायिका नहीं थीं, वो भावनाओं की आवाज़ थीं। उनके हर सुर में एक कहानी थी, हर अलाप में एक दर्द। उन्होंने दिखाया कि दुख भी कला बन सकता है, और कला भी इबादत। ग़ज़लों के संसार में आज भी जब कोई दर्द भरी धुन छेड़ता है, तो हवा में उनका नाम तैरता है—बेगम अख्तर, मल्लिका-ए-ग़ज़ल।
भारतीय शास्त्रीय संगीत और विशेष रूप से ग़ज़ल गायकी की दुनिया में, बेगम अख़्तर (जिन्हें ‘मल्लिका-ए-ग़ज़ल’ के नाम से जाना जाता है) का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा गया है। उनकी आवाज़ में एक ऐसी कशिश थी जो सीधे रूह को छू जाती थी, और उनकी गायकी में दर्द, मोहब्बत, और ज़िंदगी के हर रंग का समावेश था। अपनी कला के लिए उन्हें अपार सम्मान मिला, लेकिन उनकी व्यक्तिगत ज़िंदगी के कई पहलू ऐसे भी रहे जो पर्दे के पीछे रहे या जिन पर कम ही चर्चा हुई। 800 शब्दों के इस लेख में, हम बेगम अख़्तर, जिनका मूल नाम अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी था, के जीवन के कुछ ऐसे ही अनछुए और कम ज्ञात पहलुओं पर प्रकाश डालेंगे।
आरंभिक जीवन और पहचान की तलाश
उनका संगीत प्रशिक्षण दिग्गज उस्तादों की देखरेख में हुआ, जिनमें उस्ताद अता मोहम्मद खान और बाद में उस्ताद अब्दुल वाहिद खान और उस्ताद झंडे खान शामिल थे। इन उस्तादों ने उन्हें ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल की गहरी समझ दी। यह कम ही ज्ञात है कि बेगम अख़्तर ने अपने करियर की शुरुआत में एक शास्त्रीय गायिका के रूप में खुद को स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन तत्कालीन समाज में एक महिला कलाकार के लिए यह राह अत्यंत कठिन थी।
सिनेमा और सामाजिक द्वंद्व
बेगम अख़्तर के जीवन का एक महत्वपूर्ण लेकिन कम चर्चित पहलू उनका सिनेमा करियर है। 1930 और 1940 के दशक के दौरान, उन्होंने कई फ़िल्मों में काम किया और गाया भी। उनकी फ़िल्मों में ‘रोटी’ (1942), ‘नसीब का चक्कर’, और ‘दाना पानी’ शामिल हैं। फ़िल्मों में काम करने का निर्णय उनकी आर्थिक मजबूरी और अपनी कला को व्यापक दर्शकों तक पहुंचाने की इच्छा का परिणाम था। हालांकि, एक प्रतिष्ठित ‘तवायफ़’ पृष्ठभूमि से आने के कारण, फ़िल्म उद्योग में भी उन्हें कई सामाजिक बाधाओं का सामना करना पड़ा। इस दौर में उनकी आवाज़ की रिकॉर्डिंग ने उन्हें घर-घर तक पहुंचाया, लेकिन उनके दिल में हमेशा शुद्ध शास्त्रीय और ग़ज़ल गायन की चाहत बनी रही।
वैवाहिक जीवन और संगीत से अलगाव
1945 में, अख़्तरी बाई ने लखनऊ के एक प्रसिद्ध बैरिस्टर इश्तियाक अहमद अब्बासी से शादी की। यह उनकी ज़िंदगी का एक बड़ा मोड़ था। शादी के बाद, उन्होंने सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान के लिए संगीत को अलविदा कह दिया। यह उनके जीवन का सबसे दर्दनाक और कम चर्चा वाला पहलू है। कला से इस तरह का अलगाव उनकी आत्मा के लिए असहनीय साबित हुआ। इश्तियाक अहमद अब्बासी एक प्रतिष्ठित परिवार से थे और उनकी इच्छा थी कि बेगम अख़्तर एक सामान्य गृहस्थ जीवन अपनाएँ, जिससे उन्हें समाज में सम्मानजनक स्थान मिले।
बेगम अख़्तर ने लगभग पाँच वर्षों तक संगीत से दूरी बनाए रखी। यह दौर उनके लिए अत्यंत कठिन रहा और माना जाता है कि इस अलगाव के कारण उन्हें स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याएँ (जैसे अवसाद और अनिद्रा) होने लगीं। डॉक्टरों और उनके शुभचिंतकों ने उन्हें सलाह दी कि अगर उन्हें स्वस्थ रहना है, तो उन्हें अपनी कला, यानी संगीत की ओर लौटना होगा। इस सलाह को मानते हुए, और अपने पति की सहमति से, उन्होंने मंच पर वापसी की, और इस वापसी ने ही उन्हें ‘बेगम अख़्तर’ के रूप में एक अमर पहचान दी।
एक फ़कीर कलाकार की आत्मा
बेगम अख़्तर की निजी ज़िंदगी में अकेलापन और उदासी हमेशा मौजूद रही, जो उनकी गायकी में भी झलकता था। उनकी ग़ज़लें अक्सर आशिक़ी, जुदाई, और ज़िंदगी के फ़ानीपन की बात करती थीं। यह सिर्फ़ गायन नहीं था; यह उनके अपने अनुभवों का निचोड़ था।
उनके बारे में एक और कम ज्ञात बात यह है कि वह अपने जीवन के अंतिम वर्षों में एक फ़कीर कलाकार की तरह जीती थीं। पैसा और शोहरत होने के बावजूद, वह सादगी से रहती थीं और उनका जीवन पूरी तरह से उनकी कला को समर्पित था। वह अपने घर आने वाले शिष्यों और मेहमानों का खुले दिल से स्वागत करती थीं, और अक्सर अपने प्रिय ग़ज़लों को गाकर उन्हें सुनाया करती थीं। वह एक ऐसे युग की अंतिम कड़ी थीं जहाँ कलाकार अपनी कला को साधना मानते थे, न कि महज़ एक पेशा।
विरासत और अंतिम यात्रा
बेगम अख़्तर ने 30 अक्टूबर 1974 को अहमदाबाद में एक कंसर्ट के दौरान अंतिम साँस ली। यह उनके जीवन की एक दुखद विडंबना थी कि उनकी मौत मंच पर, अपने श्रोताओं के सामने, संगीत की सेवा करते हुए हुई। उनकी अंतिम रिकॉर्डिंग, जिसमें उनकी आवाज़ हमेशा की तरह दर्द और गहराई से भरी थी, उनकी अमर कला का एक प्रमाण है।
बेगम अख़्तर का जीवन संघर्ष, त्याग और कला के प्रति अटूट समर्पण की एक कहानी है। ‘मल्लिका-ए-ग़ज़ल’ बनने के लिए उन्होंने सामाजिक बहिष्कार झेला, अपनी कला को त्यागने की कोशिश की, और फिर उसे फिर से अपनाया। उनके जीवन के ये अनछुए पहलू हमें बताते हैं कि जिस दर्द को वह अपनी ग़ज़लों में बयां करती थीं, वह महज़ एक प्रस्तुति नहीं, बल्कि उनकी अपनी ज़िंदगी का सच्चा अनुभव था।
मल्लिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख़्तर की आवाज़ में एक ऐसा दर्द और जादू था, जो उनकी गायी हर ग़ज़ल को अमर कर देता था। उनकी निजी ज़िंदगी के गहरे अनुभव और संगीत के प्रति उनका अटूट समर्पण उनकी प्रसिद्ध रचनाओं के पीछे की असली कहानियाँ हैं।
यहाँ उनकी कुछ सबसे प्रसिद्ध ग़ज़लों के पीछे की कहानियों और उनसे जुड़े रोचक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है:
यह ग़ज़ल बेगम अख़्तर के सबसे प्रतिष्ठित और हृदयस्पर्शी कलामों में से एक है, जो उनकी गायकी की पहचान बन गया।
कहानी: एक रेलवे स्टेशन पर जन्म
इस ग़ज़ल की रचना और बेगम अख़्तर द्वारा इसे अपनाए जाने की कहानी बड़ी दिलचस्प है:
शायर से मुलाक़ात: एक बार बेगम अख़्तर बम्बई (अब मुंबई) में एक संगीत जलसे में शरीक होने के बाद ट्रेन से लखनऊ लौट रही थीं। विक्टोरिया टर्मिनस (VT) स्टेशन पर, शायर शकील बदायूँनी उनसे मिले। शकील बदायूँनी तब संघर्ष कर रहे थे, लेकिन उनकी शायरी में कमाल की गहराई थी। शकील ने जल्दबाज़ी में एक कागज़ का टुकड़ा बेगम अख़्तर को यह अनुरोध करते हुए थमाया कि वह इसे गाएँ। कागज के टुकड़े पर उन्होंने यह नई ग़ज़ल लिखी थी,। बेगम अख़्तर ने उस कागज़ को बिना देखे ही अपने बटुए में रख लिया। ट्रेन के सफ़र के दौरान, बेगम अख़्तर को अचानक वह कागज़ याद आया। उन्होंने ग़ज़ल पढ़ी और उसके बोलों की गहराई से इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने राग भैरवी में तुरंत उसकी धुन (कंपोज़िशन) तैयार कर ली। लखनऊ पहुँचकर, उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो (AIR) पर अपने कार्यक्रम में सबसे पहले इसी ग़ज़ल को पेश किया। जैसे ही उन्होंने ये पंक्तियाँ गाईं: “ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया, जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया…” यह ग़ज़ल रातों-रात अविस्मरणीय बन गई और शकील बदायूँनी को भी नई पहचान मिली।
2. “वो जो हम में तुम में क़रार था” (मोमिन ख़ाँ मोमिन)
यह एक क्लासिक ग़ज़ल है जो उर्दू शायरी के महान शायर मोमिन ख़ाँ मोमिन की है। बेगम अख़्तर की आवाज़ ने इसे अमरता प्रदान की। यह ग़ज़ल बेगम अख़्तर के जीवन के उस दौर से जुड़ी हुई महसूस होती है, जब उन्होंने अपने पति इश्तियाक अहमद अब्बासी से शादी करने के बाद सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए पाँच साल तक गाना छोड़ दिया था। कला से यह अलगाव उनके लिए अत्यंत कष्टदायक था, और वह बीमार रहने लगी थीं। एक कलाकार के लिए उसकी कला से दूर रहना, जैसे मछली का पानी के बिना रहना है।
इस ग़ज़ल के बोल, “वो जो हम में तुम में क़रार था, तुम्हें याद हो कि न याद हो…”, विरह, पुरानी यादों, और टूटे वादों का एक सुंदर चित्रण हैं। बेगम अख़्तर की आवाज़ में वह उदासी और तड़प उनके अपने जीवन के खोए हुए वर्षों और संगीत के प्रति उनके प्रेम की वापसी की कहानी कहती है। जब उन्होंने 1949 में रिकॉर्डिंग स्टूडियो में वापसी की, तो उनकी गायकी में एक नई, गहरी कशिश आ गई थी, जिसकी अभिव्यक्ति इस ग़ज़ल में साफ झलकती है।
3. “ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता” (मिर्ज़ा ग़ालिब)
मिर्ज़ा ग़ालिब की इस कालजयी ग़ज़ल को बेगम अख़्तर ने अपनी जादुई आवाज़ से एक नया आयाम दिया।
कहानी: शास्त्रीय विरासत का सम्मान
बेगम अख़्तर हमेशा ग़ज़ल को शास्त्रीय संगीत के समान ऊँचा दर्जा दिलाना चाहती थीं।
शास्त्रीय आधार: हालाँकि उन्हें ‘तवायफ़’ संस्कृति से आने के कारण अक्सर सामाजिक संघर्ष का सामना करना पड़ा, लेकिन उनके पास ठुमरी, दादरा और खयाल की मजबूत शास्त्रीय पृष्ठभूमि थी। ग़ालिब की यह ग़ज़ल, अपने गहरे दार्शनिक और दर्द भरे बोलों के कारण, बेगम अख़्तर को अपनी शास्त्रीय गायकी का बेहतरीन मिश्रण पेश करने का मौका देती थी। ग़ज़ल के बोल—”ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता… विफलता, भाग्य और निराशा की भावना व्यक्त करते हैं, जो बेगम अख़्तर की निजी ज़िंदगी (बचपन का संघर्ष, एक बेटी को खोना, और समाज द्वारा कला को नीचा दिखाना) के दर्द से मेल खाती थी। जब वह इस ग़ज़ल को गाती थीं, तो ऐसा लगता था जैसे वह ग़ालिब के दर्द को अपनी आत्मा में उतारकर प्रस्तुत कर रही हैं, जिससे यह महज़ गायन न रहकर एक मार्मिक आत्म-निवेदन बन जाता था।
बेगम अख़्तर की हर ग़ज़ल महज़ एक गाना नहीं थी, बल्कि उनकी ज़िंदगी के संघर्षों, प्रेम, विरह, और कला के प्रति उनके गहरे समर्पण का एक भावनात्मक दस्तावेज थी।
जैसा कि हम सब देख रहें हैं कि रूस–यूक्रेन युद्ध अब केवल एक सैन्य संघर्ष नहीं, बल्कि एक वैश्विक शक्ति-परीक्षा बन गया है।अब कहा जा रहा है कि “वह युद्ध ऐसा है जिसे पश्चिम जीत नहीं सकता, खत्म नहीं कर सकता और झेल नहीं सकता।”अमेरिका चाहता है कि रूस धीरे-धीरे कमजोर हो और रूस के सहयोगी भारत और चीन भी कमजोर हों , युरोप हथियारों का बिल भरें और अमेरिका शस्त्र निर्माण करे और बेचे ।
युद्ध का विश्लेषण
बाहर से यह दिख रहा है कि एक सैन्य ठहराव आ गया है । कुछ लोगों को यह पश्चिमी दुर्बलता दिख रही होगी ।यह मान लिया गया कि यदि युद्ध में द्रुत प्रगति नहीं हो रही, तो रूस ही लाभ में है। पश्चिमी देश , आर्थिक रूप से रूस को थका कर हराना चाह रहे हैं।रूस और पश्चिमी शक्तियां दोनों तकनीकी श्रेष्ठता के लिये लगातार प्रयास कर रही हैं ।पर वास्तव में हो क्या रहा है ? जो दिख नहीं रहा है । औद्योगिक असमानता पर पश्चिम चर्चा कर रहा है पर लग यही रहा है कि रूस ने अपने रक्षा उत्पादन को युद्धकालीन मोड में तेजी से ढाला है।रूस को आर्थिक रूप से थकाया तो जा रहा है पर वित्तीय रूप से पश्चिम भी थक रहा है । और इसीलिये अब रूस की सीमा पर ही नहीं बल्कि रूस के अन्दर लंबी दूरी कै मिसाइल्स से आक्रमण की बात हो रही है ।
भारत के लिए सीख: संतुलन और आत्मनिर्भरता का महत्व
रूस–यूक्रेन युद्ध से सबसे बड़ा संदेश यही है कि आर्थिक आत्मनिर्भरता ही रणनीतिक स्थिरता की नींव है।जो देश अपनी ऊर्जा, खाद्य, और रक्षा आपूर्ति में आत्मनिर्भर होता है, वही लंबे भू-राजनीतिक संकटों में टिक सकता है।भारत की दिशा, 2014 के पूर्व दयनीय थी । आज जिस प्रकार से रूस को घेर लिया गया है और भारत जिस प्रकार से रक्षा क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय आयात पर निर्भर था , यदि भारत ने मेक इंडिया कार्यक्रम न चलाया होता तो हम कहीं के भी न रहते । लोग टिप्पणी करेंगे कि नेहरू जी ने आई आई टी बनवाया .. तो मित्रों बोफोर्स क्यों स्वीडेन से खरीद रहे थे ? सत्तर वर्षों में भारत का रक्षातंत्र क्यों नहीं शक्तिशाली किया गया ?
भारत का रक्षामंत्री मुलायम सिंह यादव, रक्षामंत्री रहते हुये , वायुसेना के विमानों का उपयोग करके मैनपुरी में मुजरा देखने जाते रहे !पर, इस बात पर आज सभी सहमत होंगे कि भारत ने पिछले दशक में इस दिशा में ठोस कदम बढ़ाए हैं
मेक इन इंडिया और ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियानों ने रक्षा, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऊर्जा और विनिर्माण में नई धार दी है।
डिफेंस इंडस्ट्रियल कॉरिडोर, सेमीकंडक्टर नीति, और हरित ऊर्जा निवेश जैसे कदम भारत को दीर्घकालिक आर्थिक सुरक्षा प्रदान करते हैं।
भारत की संतुलित विदेश नीति , रूस और पश्चिम दोनों से संबंध बनाए रखना भी रणनीतिक परिपक्वता का संकेत है।
मेक इन इंडिया का व्यापक अर्थ
‘मेक इन इंडिया’ केवल उत्पादन का नारा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आत्मविश्वास और रणनीतिक स्वतंत्रता का प्रतीक है।इसका उद्देश्य यह है कि भारत निर्माण, नवाचार और तकनीकी स्वावलंबन के माध्यम से वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में केंद्रस्थ भूमिका निभाए।डिजिटल इंडिया, अंतरिक्ष तकनीक, और रक्षा विनिर्माण की प्रगति बताती है कि भारत अब “खरीदने वाला नहीं, बनाने वाला देश” बन रहा है। आज भारत स्वयम् के बल पर एक लम्बा युद्ध भी झेल सकता है ।आज 50% का टैरिफ़ भी भारत पर असर तो डालेगा पर भारत की कमर नहीं टूटेगी
निष्कर्ष
रूस–यूक्रेन युद्ध ने यह स्पष्ट कर दिया है कि आर्थिक धैर्य और औद्योगिक शक्ति ही किसी देश की वास्तविक शक्ति है।
जहाँ पश्चिम इस समय रणनीतिक उलझन में फंसा हुआ दिखाई देता है, भारत को अपने संतुलित दृष्टिकोण, आत्मनिर्भरता और दीर्घदृष्टि को बनाए रखना चाहिए।
भविष्य का युद्ध केवल हथियारों से नहीं, बल्कि उद्योग, तकनीक और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था से जीता जाएगा । और भारत उसी दिशा में दृढ़ता से आगे बढ़ रहा है।
कैलिफोर्निया ने दीपावली पर आधिकारिक राजकीय अवकाश घोषित कर दिया है। इस तरह कैलिफोर्निया अमेरिका का तीसरा राज्य बन गया है जिसने भारत के इस प्रकाश पर्व को आधिकारिक तौर पर अवकाश के रूप में मान्यता दी है।कैलिफोर्निया के गवर्नर गेविन न्यूसम ने मंगलवार को घोषणा की कि उन्होंने विधानसभा सदस्य ऐश कालरा द्वारा दीपावली को राजकीय अवकाश घोषित करने वाले विधेयक पर हस्ताक्षर कर दिए हैं।
सितंबर में दीपावली को आधिकारिक राजकीय अवकाश घोषित करने वाला ‘एबी 268’ नामक विधेयक कैलिफोर्निया विधानमंडल के दोनों सदनों से सफलतापूर्वक पारित हो गया था। इसपर न्यूसम के अंतिम निर्णय की प्रतीक्षा थी।
कालरा ने पिछले महीने कहा था, ‘‘कैलिफोर्निया भारतीय अमेरिकियों की सबसे बड़ी आबादी वाला स्थान है और दीपावली को आधिकारिक राजकीय अवकाश घोषित करने से लाखों कैलिफोर्निया वासियों तक इसका संदेश पहुंचेगा जो इसे मनाते हैं और विविधता से भरे हमारे राज्य में कई लोगों को इसे अपनाने में मदद मिलेगी।’’
उन्होंने कहा, ‘‘दिवाली सद्भावना, शांति और नवीनीकरण की साझा भावना के संदेश के साथ समुदायों को एक साथ लाती है। कैलिफोर्निया को दिवाली और इसकी विविधता को अपनाना चाहिए, न कि इसे अंधेरे में छिपाकर रखना चाहिए।’’
अक्टूबर 2024 में पेंसिल्वेनिया दिवाली को आधिकारिक तौर पर राजकीय अवकाश के रूप में मान्यता देने वाला पहला राज्य बन गया, जिसके बाद इस वर्ष कनेक्टिकट ने इसे राजकीय अवकाश घोषित किया।न्यूयॉर्क सिटी में दीपावली पर सरकारी स्कूलों में अवकाश घोषित किया गया है। सामुदायिक नेताओं और प्रमुख प्रवासी संगठनों ने कैलिफोर्निया द्वारा दीपावली पर राजकीय अवकाश घोषित करने की घोषणा का स्वागत किया।
गैर-लाभकारी संगठन ‘इंडियास्पोरा’ ने कहा कि यह मान्यता न केवल दिवाली की जीवंतता को दर्शाती है, बल्कि अमेरिका भर में भारतीय अमेरिकी समुदाय के स्थायी प्रभाव को भी दर्शाती है।
‘इंडियास्पोरा’ के संस्थापक और अध्यक्ष एमआर रंगास्वामी ने एक बयान में कहा कि यह ऐतिहासिक निर्णय भारतीय अमेरिकियों की उन पीढ़ियों का सम्मान करता है जिन्होंने कैलिफोर्निया के विकास और सफलता में योगदान दिया है।
विश्व के अधिकांश देशों में पेट्रोल डीज़ल की क़ीमतें भिन्न भिन्न हैं। प्रत्येक देशों में ईंधन रुपी इन तेलों की क़ीमतों का निर्धारण वहां के टैक्स दर, कच्चे तेल के आयात पर निर्भरता, कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय,क़ीमत, करेंसी एक्सचेंज रेट, रिफ़ाइनिंग लागत, स्थानीय मांग और सरकारी नीतियों के आधार पर होता है। इसके अतिरिक्त अधिक आयात शुल्क, वैट, और स्थानीय कर भी ईंधन की क़ीमत के निर्धारण के मुख्य कारक होते हैं। दुनिया के कई देश ऐसे भी हैं जहाँ देश की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने जैसे सड़क निर्माण, इनके रखरखाव व अन्य विकास सम्बन्धी योजनाओं के लिए ईंधन पर भारी टैक्स लगाया जाता है। तेल की क़ीमतों के निर्धारण में तेल उत्पादक देशों से कच्चा तेल आयत करने का ख़र्च भी एक ख़ास वजह होती है। कच्चा तेल आयात करने वाले देशों को चूंकि डॉलर में भुगतान करना पड़ता है। ऐसे में यदि किसी देश की अपनी मुद्रा, डॉलर के मुक़ाबले कमज़ोर है अथवा कच्चे तेल के दाम अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में बढ़ जाते हैं, तो ईंधन स्वभाविक रूप से महंगा हो जाता है। इसके अलावा अलग-अलग ग्रेड के स्वच्छ ईंधन बनाने में लगने वाली रिफ़ाइनिंग और वितरण की लागत भी तेल की क़ीमत में जुड़ जाती है। मांग और आपूर्ति भी तेल क़ीमतों के निर्धारण का बड़ा कारक होती है। यदि किसी देश में ईंधन की मांग अधिक है, परन्तु इसकी आपूर्ति खपत के मुक़ाबले कम है, तो ईंधन की क़ीमतें बढ़ जाती हैं। जबकि कुछ देशों में पर्यावरण की रक्षा के लिए ख़ास क्लीन फ़्यूल नीतियाँ लागू की जाती हैं, जिससे उत्पादन, वितरण व रिफ़ाइनिंग में लागत बढ़ती है। प्रायः इन सभी कारणों की वजह से ही दुनिया के विभिन्न देशों में ईंधन की क़ीमतें अलग अलग होती हैं।
परन्तु आश्चर्य तब होता है जब कोई देश स्वयं कच्चा तेल आयात कर स्वयं ही उसकी रिफ़ाइनिंग कर अपने देश में अपनी जनता को तो ज़रुरत से अधिक महंगा तेल बेचे जबकि वही तेल दूसरे देश में निर्यात होने पर लगभग आधे मूल्य पर बिकता हो? जी हाँ यह हक़ीक़त है भारत के पड़ोसी सीमावर्ती देश भूटान की जहाँ पेट्रोल और डीज़ल का आयात मुख्य रूप से भारत से ही होता है गोया भूटान ईंधन के क्षेत्र में शत प्रतिशत भारत पर ही निर्भर है। चूँकि भूटान में पेट्रोलियम उत्पादों के लिए स्थानीय कच्चे तेल के संसाधन या रिफ़ाइनरी नहीं हैं, इस वजह से 100 प्रतिशत रिफ़ाइंड पेट्रोल और डीज़ल भारत से ही आयातित किया जाता है। परन्तु भूटान में तेल की क़ीमतें भारत की वर्तमान औसत क़ीमत 103-105 प्रति लीटर से काफ़ी कम हैं। जबकि दोनों ही देशों के पंपों पर ज़्यादातर इंडियन ऑयल का ही ईंधन मिलता है। भूटान में इन दिनों तेल का मूल्य भारतीय मुद्रा रुपये के अनुसार पेट्रोल लगभग ₹64.38 प्रति लीटर है जबकि डीज़ल का मूल्य लगभग 64.27 प्रति लीटर है। भूटान में ईंधन की क़ीमतों में कमी का सबसे मुख्य कारण यही है कि भूटान सरकार इन पर बहुत ही कम टैक्स लगाती है। दूसरी बात यह भी है कि भारत में पेट्रोल में 20% इथेनॉल (गन्ने के रस से प्राप्त होने वाला रसायन ) मिलाना अब अनिवार्य हो गया है गोया भारत में E20 ईंधन मिलता है। परन्तु भूटान में बिना इथेनॉल के पेट्रोल उपलब्ध है। यानी भूटान में भारत की तुलना में पेट्रोल शुद्ध भी है और क़ीमतें भी अलग हैं। यही वजह है कि सीमावर्ती भारतीय अपने वाहनों में तेल डलवाने भूटान चले जाते हैं।
अब रहा सवाल पेट्रोल में इथेनॉल मिश्रण का तो दुनिया के कई देशों में पेट्रोल में इथेनॉल मिलाया जाता है। ऐसा करने का मक़सद पर्यावरण पर पड़ने वाले दुषप्रभाव के साथ ही तेल की खपत कम करना बताया जा रहा है। ब्राज़ील, अमेरिका, भारत, और अनेक यूरोपीय देश ऐसे हैं जहाँ पेट्रोल में इथेनॉल मिलाया जाता है। भारत सरकार ने तो पेट्रोल में 20% इथेनॉल मिलाने का लक्ष्य समय से पहले ही पूरा कर लिया है और आज यही E20 ईंधन देश के सभी पेट्रोल पंप्स पर उपलब्ध है। अधिकतर पेट्रोल पंप्स पर इस बात की सार्वजनिक सूचना नहीं होती कि उपभोक्ताओं को दिया जा रहा पेट्रोल E10 है या E20, इस जानकारी के अभाव में उपभोक्ता अपने वाहन में E20 भरवा लेते हैं और यही लोग बाद में इंजन पर संभावित दुष्प्रभाव को भी झेलते हैं। पर्यावरण दुष्प्रभाव व तेल की खपत कम करने की ग़रज़ से भले ही भारत सहित दुनिया के अनेक देश पेट्रोल में इथेनॉल क्यों न मिला रहे हों परन्तु इथेनॉल मिश्रित पेट्रोल के प्रयोग से इंजन व वाहन के अन्य पुर्ज़ों पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव से भी इंकार नहीं किया जा सकता। उदाहरण के तौर पर E20 ईंधन प्रयोग से फ़्यूल पंप्स, इंजेक्टर्स, गास्केट व रबर पार्ट्स पर असर तो पड़ता ही है साथ ही माइलेज में कमी व इंजन के निष्पादन (परफ़ार्मेंस) में गिरावट भी आ सकती है। वाहन निर्माता कंपनियां भी E20 के प्रयोग से वाहन को हुए नुक़्सान को वारंटी के अंतर्गत स्वीकार नहीं करतीं न ही इस तरह की कोई जानकारी या सूचना सार्वजनिक रूप से पेट्रोल पंप पर दी जाती है।
इन हालात में भारतीय ईंधन उपभोक्ताओं का यह सवाल पूरी तरह जायज़ है कि आख़िर सरकार की यह कैसी नीति है जिसके तहत भारत से निर्यातित पेट्रोल डीज़ल पड़ोसी देश भूटान में तो अत्याधिक सस्ता यानी लगभग 64 रूपये प्रति लीटर के दर पर उपलब्ध है जबकि वही तेल निर्यातक देश भारत के लोगों को 103 रूपये से लेकर 105 रूपये प्रति लीटर तक बेचा जा रहा है? साथ ही भूटान में तो भारत 100 % शुद्ध तेल भेजता है जबकि भारत में 20% इथेनॉल मिश्रित कर तेल बेचा जा रहा है। सवाल यह भी है कि क्या प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर देश भूटान की सरकार को अपने देश के पर्यावरण की फ़िक्र नहीं ? और एक सवाल यह भी कि अनेक प्रकार के करों से राहत देकर जिस तरह भूटान की सरकार भूटान वासियों को तेल की क़ीमत में राहत दे रही है भारत सरकार भी ऐसा क्यों नहीं करती ? भारत के इस निराले ‘पेट्रोल पुराण’ को लेकर यह सवाल भी ज़रूरी है कि क्या देश के वाहनों में ईंधन में 20% इथेनॉल मिश्रण के चलते आने वाली दिक़्क़तों व इंजन संबंधी ख़राबियों की फ़िक्र सरकार को नहीं ? या फिर महंगा तेल और मिलावटी तेल का मक़सद तेल कंपनियों,तेल व्यवसायियों को लाभ पहुँचाने के साथ साथ वाहन निर्माता कंपनियों को भी फ़ायदा पहुँचाना और भारतीय वाहन धारकों की जेबें ढीली करना है ? इसीलिये आज पूरा देश इस ‘पेट्रोल पुराण’ पर यह सवाल पूछ रहा है कि या इलाही ये माजरा क्या है ?
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का बिगुल बज चुका है, और राज्य की राजनीति एक बार फिर रोमांचक मोड़ पर खड़ी है। यह चुनाव केवल सत्ता का हस्तांतरण नहीं, बल्कि जातिगत, सामाजिक और विकासात्मक समीकरणों की एक जटिल प्रयोगशाला है, जहाँ हर दल अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए नए दांव चल रहा है। निर्वाचन आयोग ने 243 सीटों पर दो चरणों में मतदान का फैसला किया है— पहला चरण 6 नवंबर और दूसरा 11 नवंबर को होगा, जबकि वोटों की गिनती 14 नवंबर को की जाएगी। वर्तमान विधानसभा का कार्यकाल 22 नवंबर 2025 को समाप्त हो रहा है।
प्रमुख राजनीतिक ध्रुव और चुनावी रण
बिहार का चुनावी रण मुख्य रूप से दो बड़े गठबंधनों के बीच सिमटा हुआ है: राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) और विपक्षी ‘INDIA’ गठबंधन (महागठबंधन)। दोनों ही खेमे में नेतृत्व और सीट बंटवारे को लेकर गहमागहमी है, जिसने चुनावी समीकरणों को और भी दिलचस्प बना दिया है। 1. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) भाजपा के नेतृत्व वाला NDA, जिसमें जनता दल (यूनाइटेड), हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) जैसी पार्टियाँ शामिल हैं, डबल इंजन सरकार और ‘विकसित बिहार’ के नारे पर केंद्रित है।
नीतीश कुमार की अग्निपरीक्षा: मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जो पिछले दो दशकों से राज्य की राजनीति के केंद्र में रहे हैं, के लिए यह चुनाव उनके राजनीतिक करियर का एक महत्वपूर्ण पड़ाव हो सकता है। उन्हें अपनी छवि, महिलाओं (जिनका एक बड़ा वोट बैंक माना जाता है) और अतिपिछड़ा वर्ग (EBC) के वोटरों के भरोसे को बनाए रखना होगा।
भाजपा का बढ़ता कद: 2020 के चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के बाद भाजपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। भाजपा केंद्रीय नेतृत्व की लोकप्रियता और ‘विकसित भारत’ के एजेंडे के सहारे अपनी सीटों को बढ़ाना चाहती है।
NDA का लक्ष्य: गठबंधन विकास के वादों और मोदी सरकार के जनकल्याणकारी योजनाओं के सहारे जातीय समीकरणों से इतर एक नया चुनावी नैरेटिव सेट करने की कोशिश में है।
2. ‘INDIA’ गठबंधन (महागठबंधन) राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के नेतृत्व वाला महागठबंधन, जिसमें कांग्रेस, वाम दल (CPI-ML, CPI, CPI-M) और विकासशील इंसान पार्टी (VIP) जैसी पार्टियाँ शामिल हैं, मुख्य रूप से जातिगत गोलबंदी और युवा-रोजगार के मुद्दों पर जोर दे रहा है।
तेजस्वी यादव का नेतृत्व: युवा नेता तेजस्वी यादव (RJD) ने खुद को रोजगार और सामाजिक न्याय के चेहरे के रूप में पेश किया है। वे लालू यादव के पारंपरिक MY (मुस्लिम-यादव) समीकरण को ‘MM’ (महिला-युवा) या अन्य सामाजिक वर्गों तक विस्तारित करने की कोशिश में हैं। 2020 में RJD 75 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी, और इस बार तेजस्वी यादव पर इसे आगे ले जाने का दबाव होगा।
जातीय गणना का प्रभाव: बिहार सरकार द्वारा कराई गई जातीय गणना के आँकड़े जारी होने के बाद, माना जा रहा है कि महागठबंधन पिछड़े और अतिपिछड़े समुदायों को गोलबंद करने का प्रयास करेगा, जिससे जातीय राजनीति एक बार फिर केंद्र में आ गई है।
निर्णायक समीकरण: जातीय गणित और नए वोट बैंक
बिहार की राजनीति सदियों से जातिगत समीकरणों पर टिकी रही है, लेकिन हाल के वर्षों में कुछ नए सामाजिक और चुनावी समीकरण भी निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं: 1. जाति की चिरंतन शक्ति
यादव और मुस्लिम (MY): यह राजद का पारंपरिक और सबसे मजबूत आधार रहा है।
अति पिछड़ा वर्ग (EBC) और महादलित: यह वर्ग लंबे समय तक नीतीश कुमार का समर्थक रहा है, लेकिन अब सभी दल इसमें सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं। जातीय गणना के बाद इस वर्ग का महत्व और भी बढ़ गया है।
सवर्ण वोट बैंक (‘भूराबाल’): मंडल आयोग के बाद बिहार की राजनीति में सवर्णों का वर्चस्व भले ही कम हुआ हो, पर वे अब भी एक महत्वपूर्ण वोट बैंक हैं। ‘भूराबाल’ (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, कायस्थ) की गोलबंदी भी ग्रामीण इलाकों में गहरी जड़ें जमाए हुए है।
2. महिला मतदाता: ‘किंगमेकर’ की भूमिका में बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में सबसे बड़ा और निर्णायक परिवर्तन महिला मतदाताओं के रूप में आया है। पिछले चुनावों में महिलाओं ने पुरुषों के मुकाबले अधिक मतदान किया है।
नीतीश कुमार का जनाधार: नीतीश कुमार को महिलाओं के बीच अच्छा समर्थन मिला है, जिसका श्रेय शराबबंदी और पंचायती राज संस्थाओं में आरक्षण जैसी योजनाओं को जाता है।
नए दल की रणनीति: अब सभी दल, चाहे NDA हो या महागठबंधन, महिलाओं को ध्यान में रखकर नीतियां और घोषणाएँ बना रहे हैं। महिला वोट बैंक अब सरकार बनाने में ‘किंगमेकर’ की भूमिका निभा सकता है।
3. छोटे और स्वतंत्र खिलाड़ी कुछ छोटे दल और नेता बड़े गठबंधनों के समीकरण को बिगाड़ने की क्षमता रखते हैं।
मुकेश सहनी (VIP): ‘सन ऑफ मल्लाह’ के नाम से मशहूर सहनी का निषाद समुदाय (मल्लाह समूह) में प्रभाव है, जिनकी आबादी राज्य की कई सीटों पर निर्णायक है। 2020 में NDA में रहे सहनी अब महागठबंधन के साथ हैं।
पशुपति पारस: रामविलास पासवान के भाई पशुपति पारस पासवान समुदाय के प्रभाव वाले क्षेत्रों में अपने लिए राजनीतिक जमीन तलाश रहे हैं।
प्रशांत किशोर (जनसुराज): चुनाव रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर की जनसुराज यात्रा और उनके अभियान को ‘एंटी-इनकम्बेंसी’ वोटों को काटने वाला एक संभावित कारक माना जा रहा है, खासकर मुस्लिम और कुर्मी वोटों में।
चुनाव के मुख्य मुद्दे
इस चुनाव में जहां एक ओर जातिगत ध्रुवीकरण और आरक्षण जैसे मुद्दे हावी रहेंगे, वहीं दूसरी ओर विकास, रोजगार और प्रशासन पर भी जोर रहेगा।
रोजगार: तेजस्वी यादव ने इसे एक प्रमुख हथियार बनाया है, जबकि NDA भी सरकारी नौकरियों और विकास परियोजनाओं के माध्यम से युवाओं को साधने की कोशिश करेगा।
विकास बनाम पहचान की राजनीति: यह चुनाव ‘विकसित भारत’ के नारे के तहत केंद्र की विकास योजनाओं और बिहार की सदियों पुरानी ‘पहचान की राजनीति’ (जाति और धर्म) के बीच एक दिलचस्प जंग होगा।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह न सिर्फ राज्य का भविष्य तय करेगा, बल्कि देश की राजनीति में क्षेत्रीय दलों की शक्ति और जातीय ध्रुवीकरण के नए आयामों को भी परिभाषित करेगा। परिणाम वही तय करेगा जो जातिगत गणित, सामाजिक न्याय के वादों और विकास की उम्मीदों के बीच सबसे सटीक संतुलन साध पाएगा