वैभव, प्रगति और विवादों का संगमः पटियाला के महाराजा भूपेंद्र सिंह

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​महाराजा सर भूपेंद्र सिंह (Sir Bhupinder Singh) (जन्म: 12 अक्टूबर 1891 – मृत्यु: 23 मार्च 1938) पटियाला रियासत के सातवें और संभवतः सबसे प्रसिद्ध महाराजा थे। उनका 38 वर्ष का शासनकाल (1900-1938) भारत के रियासती इतिहास में असाधारण वैभव, प्रगतिशील प्रशासन और कई विवादों के लिए जाना जाता है। वे ब्रिटिश राज के एक शक्तिशाली सहयोगी थे, जिन्होंने एक ओर आधुनिक प्रशासन और खेलों को बढ़ावा दिया, तो दूसरी ओर अपने विलासी और असाधारण जीवनशैली के लिए यूरोप तक चर्चा बटोरी।

​प्रारंभिक जीवन और राज्यारोहण

​भूपेंद्र सिंह का जन्म 12 अक्टूबर 1891 को पटियाला के मोती बाग पैलेस में हुआ था। वे जाट सिख फूलकियाँ राजवंश से संबंधित थे। उन्होंने लाहौर के ऐचिसन कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की। जब उनके पिता, महाराजा राजिंदर सिंह, का निधन हुआ, तब वे केवल नौ वर्ष के थे। इसलिए नवंबर 1900 में उनका राज्यारोहण हुआ, लेकिन राज्य का प्रशासन एक रीजेंसी काउंसिल (Regency Council) द्वारा संभाला गया। 1909 में, भारत के वायसराय, अर्ल ऑफ मिंटो ने 18 वर्ष की आयु में उन्हें राज्य के पूर्ण प्रशासनिक अधिकार सौंप दिए।

​प्रशासनिक और राजनीतिक योगदान

​महाराजा भूपेंद्र सिंह ने अपने शासनकाल में पटियाला रियासत को एक आधुनिक और प्रगतिशील राज्य बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए।
: उनके शासनकाल में, पटियाला में नहरों, रेलवे (जैसे पटियाला स्टेट मोनोरल ट्रेनवेज़), और डाकघरों का एक मजबूत नेटवर्क स्थापित हुआ।

​शिक्षा और स्वास्थ्य: उन्होंने रियासत में 262 सार्वजनिक स्कूल, 40 राज्य अस्पताल और एक कॉलेज स्थापित किए। वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) के संस्थापकों को भी उदारतापूर्वक दान देने के लिए जाने जाते हैं।

​बैंकिंग: उन्होंने 1917 में स्टेट बैंक ऑफ पटियाला की स्थापना की।

​ब्रिटिश राज से संबंध
​भूपेंद्र सिंह ब्रिटिश राज के प्रति अत्यधिक वफादार थे और उन्हें एक प्रमुख सहयोगी माना जाता था।

​प्रथम विश्व युद्ध: उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) में ब्रिटिश सरकार को ₹1.5 करोड़ की बड़ी राशि दान की और अपनी सेना भी भेजी। इस सेवा के लिए उन्हें 43 पदक और कई मानद सैन्य रैंक (जैसे लेफ्टिनेंट-जनरल) से सम्मानित किया गया।

​अंतर्राष्ट्रीय मंच: उन्होंने 1918 में इम्पीरियल वॉर कैबिनेट और 1925 में लीग ऑफ नेशंस में भारत का प्रतिनिधित्व किया।

​नरेंद्र मंडल (Chamber of Princes): वे 1926 से 1938 तक चैंबर ऑफ प्रिंसेस के कुलाधिपति (Chancellor) रहे, जहाँ उन्होंने भारतीय रियासतों के हितों का प्रतिनिधित्व किया।

​खेलों के महान संरक्षक

​महाराजा भूपेंद्र सिंह एक उत्साही खिलाड़ी और खेलों के महान संरक्षक थे, खासकर क्रिकेट और पोलो के।
​क्रिकेट में योगदान

​भारतीय टीम के कप्तान: उन्होंने 1911 में इंग्लैंड का दौरा करने वाली पहली भारतीय क्रिकेट टीम की कप्तानी की।

​बीसीसीआई (BCCI) के सह-संस्थापक: वे भारत में क्रिकेट के राष्ट्रीय शासी निकाय, बोर्ड ऑफ कंट्रोल फॉर क्रिकेट इन इंडिया (BCCI) की स्थापना में सहायक थे।

​रणजी ट्रॉफी: उन्होंने अपने मित्र महाराजा रणजीतसिंहजी (जाम साहिब ऑफ नवानगर) के सम्मान में रणजी ट्रॉफी के लिए दान दिया।

​क्रिकेट ग्राउंड: उन्होंने हिमाचल प्रदेश के चायल में दुनिया के सबसे ऊंचे क्रिकेट ग्राउंड की स्थापना की, जिसे उन्होंने बाद में भारत सरकार को दान कर दिया।

​पोलो और अन्य खेल

​वे एक उत्कृष्ट पोलो खिलाड़ी थे और उनकी टीम ‘पटियाला टाइगर्स’ भारत की सर्वश्रेष्ठ टीमों में गिनी जाती थी।

​उन्होंने पटियाला पोलो क्लब की स्थापना की।

​वे 1928 से 1938 तक इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन (IOA) के अध्यक्ष रहे, जिससे भारत में ओलंपिक खेलों को बढ़ावा मिला।

​उन्होंने पटियाला अखाड़ा भी स्थापित किया, जिसने गामा, इमाम बख्श जैसे महान पहलवानों को जन्म दिया।

​असाधारण वैभव और विवादित जीवनशैली

​भूपेंद्र सिंह को भारत के सबसे खर्चीले और विलासी राजाओं में से एक माना जाता है, जिनके ठाट-बाट की चर्चा विदेशों में भी होती थी।

​पटियाला नेकलेस: उन्होंने 1928 में मशहूर ज्वेलरी कंपनी कार्टियर से दुनिया का सबसे प्रसिद्ध हार, पटियाला हार बनवाया था। इस हार में 2,900 से अधिक हीरे और कीमती रत्न जड़े थे, जिसमें विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा हीरा ‘डी बीयर्स’ (234 कैरेट) भी शामिल था।

​कारों का संग्रह: वे कारों के शौकीन थे और उनके पास 20 रॉल्स रॉयस कारों का एक काफिला था। वह निजी हवाई जहाज रखने वाले पहले भारतीय भी थे।

​विलासिता: कहा जाता है कि वे करोड़ों के डाइनिंग सेट में भोजन करते थे, उनके महल में 11 रसोइयां थीं, और उनके पास चाँदी का बाथ टब था।

​हरम और पत्नियाँ: उनकी निजी जिंदगी काफी विवादित रही। उन्होंने 10 से अधिक शादियाँ कीं और उनके हरम में कथित तौर पर 350 से अधिक महिलाएँ थीं। विभिन्न पत्नियों और उपपत्नियों से उनके 88 बच्चे थे, जिनमें से 52 वयस्क हुए।

​’लीला-भवन’: उनके दीवान जरमनी दास ने अपनी किताब ‘महाराजा’ में लिखा है कि भूपेंद्र सिंह ने पटियाला में ‘लीला-भवन’ (रंगरलियों का महल) बनवाया था, जहाँ बिना कपड़ों के लोगों को प्रवेश की अनुमति थी।

​पटियाला पैग (Patiala Peg)

​शराब के शौकीनों के बीच प्रसिद्ध ‘पटियाला पैग’ भी महाराजा भूपेंद्र सिंह की ही देन है। यह एक विशेष प्रकार का माप है, जिसमें सामान्य से दोगुनी मात्रा में शराब डाली जाती है। यह पेय उनकी असाधारण जीवनशैली का प्रतीक बन गया।

​निधन और विरासत

​महाराजा भूपेंद्र सिंह का निधन 23 मार्च 1938 को 46 वर्ष की आयु में हुआ।
​अपनी असाधारण विलासिता और विवादों के बावजूद, महाराजा भूपेंद्र सिंह को एक दूरदर्शी प्रशासक और खेलों के महान संरक्षक के रूप में याद किया जाता है। उनके बेटे महाराजा यादविंदर सिंह उनके उत्तराधिकारी बने, जिन्होंने 1947 में पटियाला रियासत का विलय स्वतंत्र भारत में करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
​महाराजा भूपेंद्र सिंह की विरासत आज भी पटियाला में महाराजा भूपेंद्र सिंह पंजाब स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी और उनके द्वारा स्थापित अन्य संस्थानों के रूप में जीवित है।

विशुद्ध भारतीय जमीन और संस्कृति से जुड़े शायर निदा फाजली

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निदा फाजली का जन्म 12 अक्टूबर 1938 को दिल्ली में हुआ था। उनके पिता, मुर्तुज़ा हसन, स्वयं एक शायर थे, जिससे उन्हें बचपन से ही साहित्य और शायरी का माहौल मिला। उन्होंने अपना बचपन और शुरुआती शिक्षा ग्वालियर, मध्य प्रदेश में पूरी की और 1958 में ग्वालियर कॉलेज से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की।
​भारत विभाजन के समय उनके परिवार के अधिकांश सदस्य पाकिस्तान चले गए थे, लेकिन भारतीयता के पोषक निदा फाजली ने भारत में ही रहने का निर्णय लिया। यह निर्णय उनकी रचनाओं में भी परिलक्षित होता है, जहाँ वे विशुद्ध भारतीय जमीन और संस्कृति से जुड़े रहे। रोज़ी-रोटी की तलाश में वे 1964 के आसपास बंबई (अब मुंबई) आ गए, जहाँ उन्हें ‘धर्मयुग’ और ‘ब्लिट्ज़’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं और अख़बारों में काम करने का अवसर मिला।
​उनका लेखन नाम ‘निदा फाजली’ दो भागों से मिलकर बना है: ‘निदा’ का अर्थ है स्वर या आवाज़ और ‘फाज़ली’ उनके पूर्वजों के कश्मीर के फ़ाज़िला नामक इलाके से आकर दिल्ली में बसने के कारण उनके उपनाम से जुड़ा।

​साहित्यिक सेवाएं और कृतित्व

​निदा फाजली की साहित्यिक यात्रा एक शायर, गद्यकार और फिल्म गीतकार के रूप में बहुआयामी रही है। उनकी शायरी में सूफीवाद का गहरा प्रभाव दिखता है और वे कबीर, रहीम, मीरा के साथ-साथ मीर और गालिब से भी प्रभावित थे। उन्होंने अपनी शायरी में आम आदमी की समस्याओं, दैनिक जीवन के अनुभव, मानवीय रिश्तों की जटिलता और साम्प्रदायिक सद्भाव जैसे विषयों को अत्यंत सादगी और गहराई से अभिव्यक्त किया। उनकी भाषा सरल, लोक-संस्कृति से जुड़ी हुई और हृदय को छूने वाली रही है, जिसने उन्हें हिंदी पाठकों के बीच भी अपार लोकप्रियता दिलाई।
​काव्य संग्रह (शायरी)
​फाजली साहब का पहला काव्य संकलन ‘लफ़्ज़ों के पुल’ (1971) प्रकाशित होते ही उन्हें व्यापक पहचान मिली। उनकी नई और आकर्षक आवाज़ ने लोगों को उनकी ओर आकर्षित किया। उनके अन्य महत्वपूर्ण काव्य संग्रहों में शामिल हैं:

​खोया हुआ सा कुछ: इस कृति के लिए उन्हें 1998 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जो उनके साहित्यिक कद को दर्शाता है।

​मोर नाच

​आँख और ख़्वाब के दरमियाँ

​सफ़र में धूप तो होगी

​आँखों भर आकाश

​गद्य रचनाएँ और आत्मकथा
​शायरी के अलावा, निदा फाजली ने गद्य में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी गद्य रचनाओं में भी शेरो-शायरी का पुट मिलता है। उनकी गद्य की किताब ‘मुलाकातें’ काफी चर्चित रही।
​उनकी आत्मकथा, जो दो खंडों में प्रकाशित हुई, अत्यंत लोकप्रिय हुई और उनके व्यक्तिगत एवं साहित्यिक जीवन पर प्रकाश डालती है:

​दीवारों के बीच (पहला खंड)

​दीवारों के बाहर (दूसरा खंड)

​फिल्म गीत लेखन
​निदा फाजली का योगदान फिल्म जगत में भी अविस्मरणीय रहा। उन्होंने कई फिल्मों के लिए यादगार गीत लिखे, जिनमें “कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता” (फिल्म: आहिस्ता आहिस्ता) और “होश वालों को खबर क्या” (फिल्म: सरफ़रोश) जैसे गीत आज भी लोकप्रिय हैं। उन्होंने छोटे पर्दे के लिए भी गीत लिखे, जैसे टीवी सीरियल ‘सैलाब’ का शीर्षक गीत।
​विरासत और सम्मान
​निदा फाजली ने अपनी शायरी और लेखन के माध्यम से साम्प्रदायिक सद्भाव और मनुष्यता का संदेश दिया। उनकी रचनाएँ आशा, यथार्थ और प्रेम की भावना से ओत-प्रोत हैं।
​उन्हें उनकी उत्कृष्ट साहित्यिक सेवाओं के लिए कई सम्मानों से नवाजा गया:

​साहित्य अकादमी पुरस्कार (1998, खोया हुआ सा कुछ के लिए)

​पद्म श्री (भारत सरकार द्वारा)

​नेशनल हारमनी अवार्ड (साम्प्रदायिक सद्भाव पर लेखन के लिए)

​निदा फाजली 8 फरवरी 2016 को इस दुनिया को अलविदा कह गए, लेकिन उनके शब्द आज भी उनकी रचनात्मक प्रतिभा और मानवीय संवेदनाओं की गवाही देते हुए लोगों के दिलों में गूंजते हैं। उनकी शायरी जीवन के दर्शन को सरल और सहज तरीके से प्रस्तुत करने के लिए हमेशा याद की जाएगी।
​यह वीडियो निदा फाजली की जीवनी और उनकी रचनाओं के बारे में जानकारी प्रदान करता है, जो उनके जीवन परिचय और साहित्यिक सेवाओं को समझने में सहायक है

डॉ. आत्माराम -आज जिनकाजन्म दिन है

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प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक डॉ. आत्माराम (1908-1983) का नाम भारत को विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने वाले अग्रणी वैज्ञानिकों में सम्मान के साथ लिया जाता है। उन्हें विशेष रूप से काँच (Glass) और सिरेमिक प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उनके अभूतपूर्व योगदान के लिए जाना जाता है। सादगी भरा जीवन जीने के कारण उन्हें अक्सर ‘गांधीवादी वैज्ञानिक’ भी कहा जाता था।

​डॉ. आत्माराम: जीवन परिचय

​डॉ. आत्माराम का जन्म 12 अक्टूबर 1908 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के पिलाना गाँव में एक साधारण पटवारी लाला भगवानदास के यहाँ हुआ था।

​शिक्षा

​उन्होंने अपनी शिक्षा में अत्यंत कुशाग्र बुद्धि का परिचय दिया:

​बी.एससी. (कानपुर)

​एम.एससी. (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

​पी.एचडी./डी.एससी. (इलाहाबाद विश्वविद्यालय), उन्होंने भौतिक रसायन के जनक डॉ. नीलरत्न धर के मार्गदर्शन में उच्च स्तरीय शोध किया।

​वे सादा जीवन, उच्च विचार के आदर्श पर चलने वाले व्यक्ति थे और विज्ञान की शिक्षा को भारतीय भाषाओं में दिए जाने पर ज़ोर देते थे, जिससे विज्ञान आम जनता तक पहुँच सके।

​प्रमुख वैज्ञानिक और प्रशासनिक सेवाएं

​डॉ. आत्माराम की सेवाएं केवल प्रयोगशाला तक ही सीमित नहीं थीं, बल्कि उन्होंने देश की सर्वोच्च वैज्ञानिक संस्थाओं का नेतृत्व कर वैज्ञानिक अनुसंधान को एक नई दिशा दी।

​1. काँच और सिरेमिक अनुसंधान (Optical Glass)

​डॉ. आत्माराम का सबसे महत्वपूर्ण योगदान ऑप्टिकल काँच (Optical Glass) के स्वदेशी निर्माण में रहा।

​आत्मनिर्भरता: ऑप्टिकल काँच, जो सूक्ष्मदर्शी, दूरबीन और विविध प्रकार के सैन्य उपकरण बनाने में उपयोग होता है, भारत में पहले जर्मनी से आयात किया जाता था। इस पर बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा खर्च होती थी।

​वैज्ञानिक उपलब्धि: डॉ. आत्माराम ने अथक शोध और लगन से भारत में ही इस उच्च शुद्धता वाले काँच को बनाने की विधि का सफलतापूर्वक आविष्कार किया।

​संस्थापक निदेशक: वे कलकत्ता (अब कोलकाता) स्थित केन्द्रीय काँच एवं सिरामिक अनुसंधान संस्थान (CGCRI) के निदेशक रहे और इस संस्थान को भारत में काँच प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक मजबूत आधार प्रदान किया।

​2. वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) में नेतृत्व

​उनकी प्रशासनिक और वैज्ञानिक नेतृत्व क्षमता को देखते हुए, उन्हें देश की सबसे बड़ी वैज्ञानिक अनुसंधान संस्था का सर्वोच्च पद सौंपा गया:

​महानिदेशक: उन्होंने 21 अगस्त 1966 को वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) के महानिदेशक का पद संभाला। इस पद पर रहते हुए, उन्होंने देश में वैज्ञानिक अनुसंधान और उद्योगों के बीच समन्वय स्थापित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया।

​3. हिन्दी में विज्ञान और ‘भारत की संपदा’

​डॉ. आत्माराम हिंदी भाषा के प्रबल समर्थक थे और मानते थे कि विज्ञान को मातृभाषा में ही पढ़ाया और समझाया जाना चाहिए।

​प्रकाशन: उनकी दूरदर्शिता के कारण ही CSIR के बहुखंडीय अंग्रेजी ग्रंथ ‘वेल्थ ऑफ इंडिया’ का हिंदी अनुवाद ‘भारत की संपदा’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। यह उनके जीवन की एक बड़ी साहित्यिक और वैज्ञानिक उपलब्धि मानी जाती है, जिसने भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक साहित्य को समृद्ध किया।

​राष्ट्रीय चेतना: उन्होंने विज्ञान को जन-समुदाय से जोड़ने और वैज्ञानिक जनमत की आवश्यकता पर बल दिया, जिससे आम लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास हो सके।

​सम्मान और विरासत

​डॉ. आत्माराम को उनकी उत्कृष्ट वैज्ञानिक सेवाओं के लिए कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया:

​शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार (1959)

​पद्म श्री (1959)

​उनकी स्मृति और हिन्दी के प्रति उनके प्रेम को श्रद्धांजलि देने के लिए, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान द्वारा प्रतिवर्ष उत्कृष्ट वैज्ञानिक लेखन के लिए ‘डॉ. आत्माराम पुरस्कार’ प्रदान किया जाता है।
​डॉ. आत्माराम का निधन 6 फरवरी 1983 को हुआ। उनका जीवन और कार्य भारतीय वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणास्रोत बना रहा, जिन्होंने सीमित संसाधनों के बावजूद भारत को प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने का स्वप्न देखा और उसे साकार किया। वे एक ऐसे वैज्ञानिक थे जिन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग केवल शोध तक ही सीमित न रखकर उसे देश की औद्योगिक प्रगति और आम आदमी की भाषा से भी जोड़ा।

संतान सुख और परिवार की समृद्धि का पर्व है अहोई अष्टमी

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 बाल मुकुन्द ओझा

अहोई अष्टमी हिन्दू धर्म का एक महत्वपूर्ण निर्जला व्रत है जिसे माताएँ अपनी संतान की दीर्घायु, स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए पूर्ण श्रद्धा से करती हैं। यह व्रत कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है और करवा चौथ के चार दिन बाद आता है। त्योंहारों की श्रृंखला  में अहोई अष्टमी का भी अपना खास महत्त्व है। हमारे देश में आये दिन कोई न कोई त्योंहार मनाया जाता है। हर त्योंहार सन्देश देता है। अहोई अष्टमी का पर्व देश के कई स्थानों पर मनाया जाता है। अहोई अष्टमी का व्रत करवा चौथ के 4 दिन बाद कार्तिक मास की कृष्‍ण अष्‍टमी को रखा जाता है। इस साल 13 अक्टूबर को अहोई अष्टमी का व्रत रखा जा रहा है। यह पर्व संतान प्राप्ति और लंबी आयु के लिए रखा जाता है। संतान की मंगलकामना, सुख, समृद्धि, वैभव और तरक्की के महिलाएं सालभर में कई उपवास-व्रत रखती हैं। अहोई अष्टमी भी एक ऐसा पर्व है जिसमें माताएं अपनी संतान की लंबी आयु और जीवन में सफलता प्राप्ति के लिए व्रत रखती हैं। पति की लंबी आयु की कामना के लिए करवा चौथ व्रत रखने के बाद सुहागिन महिलाएं चार दिन बाद अहोई अष्टमी का व्रत रखती हैं। मान्यता है कि नि-संतान महिलाओं के लिए यह व्रत फलदायी होता है।

पंचांग के अनुसार, इस वर्ष अहोई अष्टमी 13 अक्टूबर, सोमवार को दोपहर 12:24 बजे से शुरू होगी और 14 अक्टूबर, मंगलवार को सुबह 11:10 बजे समाप्त होगी। सूर्योदय तिथि के अनुसार, यह 13 अक्टूबर, सोमवार को मनाया जाएगा। साथ ही, पूजा का शुभ मुहूर्त शाम 6:17 बजे से शुरू होकर 7:31 बजे तक रहेगा, यानी इसकी अवधि 1 घंटा 14 मिनट रहेगी।

 इस दिन माता पार्वती के अहोई स्वरूप की पूजा की जाती है। यह व्रत करवा चौथ के चार दिन बाद रखा जाता है। अहोई अष्टमी का उपवास भी कठोर व्रत माना जाता है। इस व्रत में माताएं पूरे दिन जल तक ग्रहण नहीं करती हैं। आकाश में तारों को देखने के बाद उपवास पूर्ण किया जाता है। इस दिन संतान की लंबी आयु की कामना करते हुए तारों की पूजा की जाती है।

इस व्रत को संतान प्राप्ति का सर्वोत्तम उपाय माना गया है। इस दिन विधि विधान से मां पार्वती, भगवान शिव, श्रीगणेश एवं कार्तिकेय की उपासना करें। अहोई अष्टमी के दिन अहोई माता और भगवान शिव को दूध और भात का भोग लगाएं। इस दिन घर में बनाए गए भोजन का आधा हिस्सा गाय को खिलाएं। अहोई माता को सफेद फूलों की माला अर्पित करें। अगर बच्चे को क्रोध अधिक आता है तो अहोई अष्टमी के दिन अहोई माता को लाल रंग के पुष्प और चावलों को लाल रंग से रंगकर अर्पित करें। इसे लाल रंग के कपड़े में बांधकर बच्चे के कमरे में रख दें। बच्चे का गुस्सा कम होता जाएगा। अहोई अष्टमी के दिन अहोई माता को हलुआ और पूड़ी बनाकर अर्पित करें और इस प्रसाद को जरूरतमंदों में बांटे दें। ऐसा करने से संतान को जल्द तरक्की मिलती है। अहोई माता से संतान की लंबी उम्र और सुखदायी जीवन की कामना करें। व्रत से पूर्व रात्रि को सात्विक भोजन करें। अहोई अष्टमी का व्रत करने वाले को दोपहर के समय सोने से परहेज करना चाहिए। अहोई अष्टमी के दिन मिट्टी को हाथ न लगाएं। न ही इस दिन कोई पौधा उखाड़ें। इस व्रत में कथा सुनते समय सात प्रकार के अनाज अपने हाथ में रखें। पूजा के बाद यह अनाज गाय को खिला दें। अहोई अष्टमी के व्रत में पूजा करते समय बच्चों को साथ जरूर बैठाएं। अहोई माता को भोग लगाने के बाद प्रसाद बच्चों को खिलाएं।

  

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32 मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

मो.- 9414441218

गरीब की जान बचा रहे हैं वही, जिन्हें सिस्टम ‘झोलाछाप’ कहता है

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आज के टाइम में अगर कोई बात सच्चाई से कही जाए तो ये है कि जिन्हें हम “झोलाछाप डॉक्टर” बोलते हैं, वही आधे गरीबों को जिंदा रखे हुए हैं। वरना जो डिग्री वाले बड़े-बड़े डॉक्टर हैं, उनकी फीस तो सुनकर ही गरीब आदमी का ब्लड प्रेशर बढ़ जाए। पांच सौ से लेकर हजार, और कई जगह तो डेढ़ हजार तक सिर्फ एक पर्चे की फीस। अब बताओ, कोई गरीब मजदूर आदमी जो दिन भर ईंट ढोकर या ठेला चलाकर दो सौ-तीन सौ रुपये कमाता है वो इतना पैसा सिर्फ डॉक्टर की फीस में कैसे दें। दवा तो अभी बाकी है। गांव-देहात के कोने-कोने में जो झोलाछाप डॉक्टर बैठे हैं, वही असली भगवान बनकर गरीबों का इलाज कर रहे हैं। इनके पास भले डिग्री नहीं हो पर सालों का तजुर्बा है। इनको पता है कि बुखार कब खतरनाक होता है। कब दवा बदलनी है और कब मरीज को बड़े अस्पताल भेजना है। ये लोग मरीज से फीस भी उतनी ही लेते हैं जितनी गरीब दे सकता है। कई बार तो बिना पैसे के भी इलाज कर देते हैं। ऐसे डॉक्टरों की वजह से गांवों में आज भी इलाज चल रहा है, वरना सरकारी अस्पतालों की हालत तो सबको मालूम ही है। दवा नहीं, डॉक्टर नहीं और अगर डॉक्टर मिल भी गया तो “कल आना” कह देता है।अब सरकार की बात करें तो सरकारी स्वास्थ्य सुविधा बढ़ाने की सख्त जरूरत है। शहरों में तो फिर भी प्राइवेट क्लीनिक या हॉस्पिटल मिल जाते हैं, लेकिन छोटे कस्बों और गांवों में तो हाल बहुत खराब है। सबसे ज्यादा तकलीफ बच्चों, हड्डी और आंखों के डॉक्टर की कमी से है। अगर किसी बच्चे को बुखार या हड्डी में दर्द हो गया तो मां-बाप को 50–60 किलोमीटर दूर कस्बे या जिला अस्पताल भागना पड़ता है। वहां जाकर आधा दिन लाइन में और आधा दिन डॉक्टर के इंतजार में निकल जाता है।सरकार को चाहिए कि हर शहर और हर ब्लॉक में तीन जरूरी विभाग जरूर खोले। जिनमें बच्चों का डॉक्टर, हड्डी का डॉक्टर और आंखों का डॉक्टर। ये तीन चीजें हर गरीब की जिंदगी से सीधा जुड़ी हैं। बच्चों की बीमारी में मां-बाप का दिल टूट जाता है। हड्डी के दर्द में बुजुर्गों की नींद उड़ जाती है और आंखों की खराबी में बुजुर्गों की दुनिया अंधेरी हो जाती है। अब बात करते हैं डिग्री वाले डॉक्टरों की। सब एक जैसे नहीं होते। कुछ डॉक्टर आज भी ऐसे हैं जो बिना कोई पर्चे का शुल्क लिए मरीजों को देखते हैं। वो कहते हैं कि पहले मरीज ठीक हो जाए, फीस बाद में दे देना। ऐसे डॉक्टरों की वजह से ही लोगों का भरोसा बना हुआ है। जब मरीज ठीक होकर जाता है तो दिल से दुआ देता है। ऐसी दुआएं किसी पैसे से नहीं खरीदी जा सकतीं, लेकिन अफसोस ये है कि ऐसे डॉक्टर अब गिने-चुने रह गए हैं।बाकी अधिकतर डॉक्टर तो अब इलाज से ज्यादा बिजनेस करने लगे हैं। हर जांच, हर टेस्ट, हर दवा में कमीशन चलता है। मरीज के जेब से पैसा निकलता है और डॉक्टर-केमिस्ट-लैब सबका फायदा होता है। गरीब आदमी सोचता है कि क्यों न किसी झोलाछाप को दिखा लूं। कम से कम सस्ता तो पड़ेगा और सच बताऊं कई बार वही झोलाछाप सही इलाज कर देता है, जो बड़े डॉक्टर से भी छूट जाता है।इसलिए अब वक्त आ गया है कि सरकार इस सच्चाई को माने। हर झोलाछाप को अपराधी समझना भी गलत है। जो सच्चे दिल से गरीब का इलाज कर रहा है, उसे कुछ बेसिक ट्रेनिंग और लाइसेंस देकर वैध बनाया जा सकता है। इससे गरीबों को राहत मिलेगी और सरकार पर भी बोझ कम होगा। हमारे देश में स्वास्थ्य सेवा पर बातें तो बहुत होती हैं, लेकिन असली सुधार जमीन पर नहीं दिखता। जनता पार्टी सरकार में राजनारायण के स्वास्थय मंंत्री रहने के दौरान गांव के लिए एक माह और तीन माह की ट्रैनिक देकर स्वास्थय रक्षक तैनात किए गए थे। ये गांव के मरीजों का फर्स्ट एड देते और बड़े अस्पताल भेज देेते थे। बाद की सरकारों ने ये योजना बद कर दी। कोरोना काल में जब बड़े डाक्टर घरो में छिपे थे, तब ये झोलाछाप ही मरीजों की जान बचा रहे थे। अगर हर जिले में अच्छे सरकारी अस्पताल, ईमानदार डॉक्टर और सस्ती दवा मिल जाए, तो आधी बीमारी तो ऐसे ही खत्म हो जाएगी। गरीब का हौसला बढ़ेगा और समाज में इंसानियत जिंदा रहेगी। आखिर में एक ही बात गरीब की बीमारी, डॉक्टर की फीस में नहीं, इंसान की नीयत में ठीक होती है।

भूपेन्द्र शर्मा सोनू
(स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक)

दीपावली पर मिलावटियों के हौसले बुलंद

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तूं डाल डाल और मैं पात पात

                                  बाल मुकुन्द ओझा

दशहरा पर्व के बाद अब देशभर में दीपावली के त्योहार की जोरदार तैयारियां चल रही है। दीपों का पर्व आने में चंद दिन बचे हैं। दीपावली देश का सबसे बड़ा त्योहार है। इस अवसर पर गरीब और अमीर सभी वर्ग के लोग अपने सामर्थ्य के अनुरूप घर की साफ सफाई, नए कपड़े, सोने चांदी के सामान के साथ मिठाइयां बनाने और खरीदने में व्यस्त हो जाते है। इस दौरान घर घर में मीठे पकवान बनते है। होटलों पर मिठाइयां सज्ज जाती है। त्योहारी सीजन शुरू होते ही मिलावटिये भी सक्रीय होकर आमजन के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करते है। मिलावट और त्योहार का लगता है चोली दामन का साथ हो गया है। सरकार ने मिलावटियों की धरपकड़ के लिए कमर कस ली है। विशेषकर उत्तर भारत के राज्यों ने शुद्ध के लिए युद्ध अभियान का आगाज कर दिया है। प्रतिदिन मिलावटी मावा, पनीर, दूषित मिठाइयां, खाद्य सामग्री और खराब सूखे मेवे बहुत बड़ी संख्यां में पकडे जा रहे है। मगर तूं डाल डाल और मैं पात पात के मुहावरे को चरितार्थ करते हुए मिलावटियों के हौसले भी बुलंद हो रहे है। मिलावट खोरों को पकड़ने के लिए सरकारी संसाधन पर्याप्त नहीं है। मिलावटिये गली गली और नगर नगर में सक्रीय होकर आम आदमी की सेहत को खराब करने में जुटे है मगर इनको पकड़ने वाली टीमें काफी कम संख्या में होने के कारण शुद्ध के लिए युद्ध अभियान अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर पा रहा है।

त्योहारी सीजन शुरू होने के साथ ही सोने से रसोई तक मिलावटखोर भी सक्रिय हो जाते हैं। हर चीज में मिलावट जैसे आम बात हो गई है। मिठाई के बिना त्योहार अधूरा है। त्योहार आये और मिठाई न खाये यह हो ही नहीं सकता। त्योहारी सीजन शुरू होते ही बाजार में ग्राहकी बढ़ने लगती है। मिठाई त्योहारों की खुशी को दुगना कर देती है। मिलावटखोर भी इसी इंतजार में रहते है। उनकी दुकाने रंग बिरंगी मिठाइयों से सज जाती है और हम बिना जांचे परखे इन मिठाइयों को खरीद कर ले आते है। मिलावटखोर अधिक मुनाफे के चक्कर में धड़ल्ले से अपना मिलावटी सामान बेचते देर नहीं लगाते। मिलावटखोरों को नियम-कानून का भी भय नहीं रह गया। खासकर त्योहार के सीजन में तो इनकी पौ-बारह रहती है।

 खाद्य पदार्थों में अशुद्ध, सस्ती अथवा अनावश्यक वस्तुओं के मिश्रण को मिलावट कहते हैं। आज समाज में हर तरफ मिलावट ही मिलावट देखने को मिल रही है। पानी से सोने तक मिलावट के बाजार ने हमारी बुनियाद को हिला कर रख दिया है। पहले केवल दूध में पानी और शुद्ध देशी घी में वनस्पति घी की मिलावट की बात सुनी जाती थी, मगर आज घर-घर में प्रत्येक वस्तु में मिलावट देखने और सुनने को मिल रही है। मिलावट का अर्थ प्राकृतिक तत्त्वों और पदार्थों में बाहरी, बनावटी या दूसरे प्रकार के मिश्रण से है।

मुनाफाखोरी करने वाले लोग रातोंरात धनवान बनने का सपना देखते हैं। अपना यह सपना साकार करने के लिए वे बिना सोचे-समझे मिलावट का सहारा लेते हैं। सस्ती चीजों का मिश्रण कर सामान को मिलावटी कर महंगे दामों में बेचकर लोगों को न केवल धोखा दिया जाता है, बल्कि हमारे स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ भी किया जाता है।

सत्य तो यह है कि हम जो भी पदार्थ सेवन कर रहे हैं चाहें वे खाद्य पदार्थ हो या दूसरे, सब में मिलावट ही मिलावट हो रही है। दूध, मावा, घी, हल्दी, मिर्च, धनिया, अमचूर, सब्जियां, फल आदि सभी मिलावट की चपेट में है। आज खाने पीने सहित सभी चीजों में धड़ले से  मिलावट हो रही है। ऐसा कोई भोज्य पदार्थ नहीं है, जो जहरीले कीटनाशकों और मिलावटों से मुक्त हो। बाजार में  पपीता, आम और केला, सेव अनार जैसे फलों को कैल्शियम कार्बाईड की मदद से पकाया जाता है। चिकित्सकों के अनुसार यह स्वास्थ्य के लिए काफी हानिकारक है।

हमारे देश में मिलावट करने को एक गंभीर अपराध माना गया है। मिलावट साबित होने पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 272 के तहत अपराधी को आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान है। मगर बहुत कम मामलों में सजा और जुर्माना हो पाता है। मिलावटी खाद्य पदार्थों के सेवन से आदमी अनेक प्रकार की बीमारियों का शिकार हो जाता है। पेट की असाध्य बीमारियों से लेकर कैंसर तक का रोग लग जाता है। अंधापन और अपंगता को भी झेलना पड़ता है। मिलावट साबित होने कई बार छोटे-मोटे मिलावटखोरों की पकड-धकड़ के समाचार अवश्य पढ़ने और सुनने को मिल जाते हैं मगर मिलावट का थोक व्यापार करने वाले लोग अब तक कानून की पहुंच से दूर हैं।

– बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

.डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

 राग स्वदेशी : हक़ीक़त और फ़साना

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                                                          तनवीर जाफ़री 

  हमारे देश में स्वदेशी उत्पादों का इस्तेमाल करने के लिये प्रायः आवाज़ बुलंद की जाती है। भारत में स्वदेशी सामानों के इस्तेमाल पर ज़ोर इसलिए दिया जाता है क्योंकि इससे देश की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से कई महत्वपूर्ण लाभ होते हैं। देश में स्वदेशी सामान की खपत से स्वदेशी वस्तुओं का उत्पादन बढ़ता है, जिससे स्थानीय उद्योगों को बल मिलता है। इससे रोज़गार के नए अवसर पैदा होते हैं और बेरोज़गारी की समस्या कम होती है। इसके अतिरिक्त विदेशी उत्पाद पर निर्भरता भी कम होती है। इसीलिये कभी सरकार की तरफ़ से देश को आत्मनिर्भर बनाने के मक़सद से स्वदेशी अपनाने के बारे में देश को जागृत करने के प्रयास किये जाते हैं तो कभी स्वदेशी उत्पादों के नाम पर अपना व्यवसाय चलाने वाले भी ‘स्वदेशी अपनाओ ‘ की बातें करते नज़र आते हैं। परन्तु क्या वजह है कि हम तो स्वदेशी का राग ही अलापते रह जाते हैं उधर पड़ोसी देश चीन का बड़े भारतीय बाज़ार पर क़ब्ज़ा हो जाता है ? चीन निर्मित शायद ही कोई ऐसा जीवनोपयोगी उत्पाद हो जिसकी भरपूर खपत भारत में न होती हो। परन्तु हमारे देश में स्वदेशी अपनाओ का शोर तो ज़्यादा सुनाई देता है परन्तु उसकी गुणवत्ता सुधारने या उचित क़ीमत में आकर्षक,टिकाऊ व योग्य वस्तु का उत्पादन करने पर ज़ोर कम दिया जाता है। 

                 स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई प्रमुख अवसरों पर आत्मनिर्भर भारत बनाने हेतु स्वदेशी अपनाने के संबंध में जनता से अपील कर चुके हैं। वे दुकानों को स्वदेशी वस्तुओं से सजाने और भारतीय उत्पादों को गर्व से उपयोग करने के लिए नागरिकों को प्रेरित करते रहते हैं। प्रधानमंत्री का मानना है कि विकसित भारत का सपना तभी साकार होगा जब भारतीय सामान वैश्विक बाज़ार में अपनी पहचान बनाएं और प्रत्येक नागरिक स्वदेशी उत्पादों के इस्तेमाल पर गर्व महसूस करे। इसीलिये प्रधानमंत्री अक्सर ‘वोकल फ़ॉर लोकल’ की बात करते सुने जाते हैं जिसमें स्थानीय बाज़ार और उत्पादों को बढ़ावा देने पर बल दिया जाता है। निःसंदेह भारत की आत्मनिर्भरता का मार्ग तभी मज़बूत होगा जब देशवासी अपने उत्पादन, तकनीक और नवाचार में स्वदेशी को प्राथमिकता दें। विदेशी वस्तुओं की जगह देसी उत्पाद को पहचान और सम्मान देना आज के दौर में राष्ट्रीय हित, सुरक्षा और आर्थिक मज़जबूती के लिए अत्यंत आवश्यक है।

             परन्तु सवाल यह है कि भारतवासियों के लिये स्वदेशी उत्पाद बनाने वाली कंपनियां या उद्योग अपने आप में कितने विश्वसनीय हैं ? क्या वजह है कि देश के लोगों को भारतीय उत्पाद  की तुलना में अनेक विदेशी उत्पाद ज़्यादा पसंद आते हैं। कई विपक्षी नेता तो यहां तक कहते हैं कि स्वदेशी अपनाने का पाठ पढ़ने वाले प्रधानमंत्री स्वयं विमान से लेकर मोबाईल फ़ोन,पेन,चश्मा व घड़ी आदि सब कुछ विदेशी प्रयोग करते हैं ? स्वदेशी उत्पाद बनाने व बेचने वाले रामदेव भी पूरे देश को स्वदेशी अपनाने की शिक्षा देते रहते हैं। परन्तु अनेक बार उनके उत्पाद मिलावटी या निर्धारित मानकों के प्रतिकूल पाए गये हैं। सेना सहित कई प्रमुख जगहों से पतंजली के उत्पाद हटाये जा चुके हैं। कई बार उनके उत्पाद गुणवत्ता के मानक पर खरे नहीं उतरे। ऐसे में स्वदेशी उत्पाद की विश्वसनीयता पर सवाल तो उठेगा ही ?

              इसी तरह पिछले दिनों तमिलनाडु में बने ‘कोल्ड्रिफ़’ नामक कोल्ड सीरप ने देशभर में हंगामा खड़ा कर दिया। इस सिरप के पीने से अब तक मध्य प्रदेश, राजस्थान, केरल, और अन्य राज्यों के 26 से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है। यह मामला भारत में स्वास्थ्य और दवा सुरक्षा व्यवस्था पर बड़े सवाल खड़े कर रहा है। तमिलनाडु की श्रीसन फ़ार्मास्युटिकल कंपनी द्वारा निर्मित इस विषाक्त सीरप के सेवन से अनेक बच्चों की किडनी फ़ेल हो गयी और कई बच्चों की मौत हो गई। 14 वर्षों से निर्माणाधीन यही सीरप आख़िरकार रिक्तियों, नियमों के उल्लंघनों और मिलावट के कारण अपनी गुणवत्ता पर खरा नहीं उतरा और ज़हरीला साबित हुआ। क्या इस तरह की घटना भारत की दवा सुरक्षा प्रणाली की गंभीर चूक का संकेत नहीं है? निश्चित रूप से इस ज़हरीली दवा के निर्माण में मानकों का उल्लंघन हुआ, और इसे कई वर्षों तक बिना उचित निगरानी के बाज़ार में फैलने दिया गया। बेशक सरकार ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए कड़ी कार्रवाई का आश्वासन दिया है और दवाओं की गुणवत्ता सुनिश्चित करने की दिशा में क़दम उठाने की बात भी की है परन्तु जिनके घरों के ‘चिराग़’ बुझ गये न तो उन्हें वापस लाया जा सकता है न ही उनपरिवारों को स्वदेशी उत्पाद पर भरोसा करने का पाठ पढ़ाया जा सकता है।  

                      आज पूरे देश में सरे आम ज़हरीली सब्ज़ियां,विषाक्त फल, मिलावटी व ज़हरीले दूध,पनीर घी मक्खन खोया कुट्टू का ज़हरीला आटा आदि तमाम चीज़ें बेचीं जा रही हैं। दूध की तो रोज़ के उत्पादन से कई गुना अधिक की खपत है, सरकार व प्रशासन को भी यह सब पता है परन्तु मिलावट ख़ोर मौत के सौदागर सरे आम ऐसी ज़हरीली सामग्री बाज़ार में खपा रहे हैं। तमाम नक़ली दवाइयां बाज़ार में बेचीं जा रही हैं। इसी तरह मिलावटी व ज़हरीली मिठाइयां व बेकरी के सामान बाज़ार में बेख़ौफ़ बिकते हैं। बाज़ार में इन सब चीज़ों की खपत का मुख्य कारण भ्रष्टाचार है। इन मौत के सौदागरों को भली भांति मालूम है कि उनके काले करतूतों का पर्दा फ़ाश होने के बावजूद उनका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं। केवल गुणवत्ता का ही प्रश्न नहीं बल्कि मिठाई वाला यदि आपको एक या दो हज़ार रूपये किलो मूल्य की मिठाई देता है तो वह गत्ते के डिब्बे को भी उसी रेट में तोल देता है। यानी आपको मंहगी क़ीमत अदा करने के बावजूद पूरा सामन नहीं मिल पाता। किसी सामग्री पर छपे अधिकतम खुदरा मूल्य को लेकर भी बड़ा गोलमाल देखा जा सकता है। कई बार तो प्रिंटेड रेट से आधे मूल्य पर भी दुकानदार सामन बेच देता है। जबकि आधे मूल्य पर बेचने पर भी दुकानदार मुनाफ़ा कमाता है।   

                  हमारे देश में अभी भी किसी वस्तु के प्रयोग की तिथि समाप्त होने यानी एक्सपायरी डेट निकल जाने के बावजूद सीधे सादे व अनपढ़ लोगों को ऐसा सामान बेच दिया जाता है। कई कम गुणवत्ता वाले सामानों पर किसी ब्रांडेड कम्पनी की मुहर लगा कर बाज़ार में बेच दिया जाता है। इस तरह की मानसिकता का केवल एक ही कारण है कि इस तरह के व्यापार करने वाला व्यक्ति कम समय में अधिक धन कमाना चाहता है। और अपने इस ‘ अनैतिक व नापाक मिशन’ में वह यह भी भूल जाता है कि ऐसा कर वह आम लोगों की जान से खिलवाड़ कर रहा है क्योंकि उसे इस बात का पूरा यक़ीन रहता है कि किन्हीं विशेष परिस्थितियों में उसके पकड़े जाने के बावजूद उसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं । लिहाज़ा देशवासियों को स्वदेशी उत्पाद अपनाने की सलाह देने वालों को चाहिये कि पहले उत्पादन कर्ताओं को यह सख़्त निर्देश व सन्देश दिया जाये कि गुणवत्ता से कोई समझौता न हो। मिलावट ख़ोरी,नक़ली व ज़हरीले खाद्य पदार्थ बाज़ार से पूरी तरह ग़ायब हों। देशवासियों को ज़हरीली सामग्री बेचने वालों को सामूहिक हत्या के अभिप्रायपूर्वक किये गये प्रयास का दोषी मानकर दण्डित किया जाये। भारतीय उत्पाद की क़ीमतें व नाप तौल ठीक हों। जब तक देशवासियों में स्वदेशी उत्पाद के प्रति पूरा विश्वास पैदा नहीं होता तब तक ‘राग स्वदेशी’ अलापना इसलिये मुनासिब नहीं क्योंकि इसकी हक़ीक़त कुछ और है जबकि असली फ़साना कुछ और।                                                                त

तनवीर जाफ़री

वरिष्ठ पत्रकार

मासिक धर्म अवकाश नीति को पूरे देश में लागू किया जाए

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“हर राज्य में लागू हो मासिक धर्म अवकाश — महिला सम्मान का नया अध्याय”

कर्नाटक सरकार द्वारा मासिक धर्म अवकाश नीति लागू करना एक सराहनीय और संवेदनशील पहल है। यह निर्णय महिलाओं के स्वास्थ्य, सम्मान और कार्यस्थल की समानता को नई दिशा देता है। मासिक धर्म के दौरान एक दिन का सवेतन अवकाश उन्हें शारीरिक राहत के साथ आत्मसम्मान की अनुभूति भी कराता है। अब आवश्यकता है कि यह नीति केवल कर्नाटक तक सीमित न रहे, बल्कि पूरे भारत में लागू की जाए ताकि हर कार्यरत महिला को समान अधिकार और सम्मान मिल सके। यह कदम महिला सशक्तिकरण और मानवीय संवेदनशीलता का सशक्त प्रतीक है।

– डॉ प्रियंका सौरभ

आज जब महिलाएँ हर क्षेत्र में बराबरी से काम कर रही हैं, तब यह जरूरी है कि नीतियाँ भी उनके अनुभवों और जरूरतों के अनुसार बनें। कर्नाटक सरकार ने मासिक धर्म अवकाश की जो पहल की है, वह न केवल महिला स्वास्थ्य की दृष्टि से ऐतिहासिक है, बल्कि यह सामाजिक सोच में बदलाव का प्रतीक भी है।

राज्य सरकार ने यह व्यवस्था लागू की है कि सभी सरकारी दफ्तरों, आईटी कंपनियों और फैक्ट्रियों में कामकाजी महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान हर माह एक दिन का सवेतन अवकाश (Paid Leave) मिलेगा। यह कदम उस संवेदनशीलता का परिचायक है जिसकी महिलाओं को लंबे समय से प्रतीक्षा थी।

महिलाएँ समाज और अर्थव्यवस्था का अभिन्न हिस्सा हैं। मासिक धर्म उनके शरीर की प्राकृतिक प्रक्रिया है, परंतु सदियों से इसे सामाजिक असहजता और मौन के घेरे में रखा गया। इस अवधि में शारीरिक दर्द, असुविधा और मानसिक थकान का अनुभव आम है, लेकिन कार्यस्थलों पर उनसे सामान्य दिनों जैसी कार्यक्षमता की अपेक्षा की जाती रही है। अब जब सरकारें इस जैविक प्रक्रिया को नीति निर्माण में शामिल कर रही हैं, तो यह समाज के परिपक्व होने की निशानी है।

स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मत है कि मासिक धर्म के शुरुआती दिनों में विश्राम और मानसिक स्थिरता अत्यंत आवश्यक होती है। इस अवधि में अत्यधिक काम करने या तनाव लेने से महिलाओं में कई स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। इसलिए यह नीति सिर्फ सुविधा नहीं बल्कि महिला स्वास्थ्य के संरक्षण का साधन भी है।

यह नीति नारी-सशक्तिकरण की परिभाषा को और गहराई देती है। सशक्तिकरण का अर्थ केवल अधिकारों की बात करना नहीं, बल्कि परिस्थितियों के अनुरूप सम्मान देना है। जब राज्य स्वयं यह स्वीकार करता है कि महिला शरीर की आवश्यकताएँ विशेष हैं, तो यह समानता की दिशा में उठाया गया वास्तविक कदम है।

कर्नाटक का यह निर्णय समाज में एक बड़ा संदेश देता है — कि महिलाओं की जैविक प्रक्रिया को अब छिपाने या शर्म की दृष्टि से देखने की बजाय सामान्य जीवन का हिस्सा समझा जाना चाहिए। यह नीति मासिक धर्म के विषय को सार्वजनिक विमर्श में लाकर इसे सामान्य और सम्मानजनक बनाती है।

इस निर्णय से यह उम्मीद भी बढ़ी है कि अन्य राज्य सरकारें और निजी कंपनियाँ भी इस दिशा में कदम उठाएँगी। कुछ वर्ष पहले केरल और ओडिशा जैसे राज्यों में इस विषय पर चर्चा तो हुई, पर नीति नहीं बनी। अब कर्नाटक ने जो उदाहरण पेश किया है, वह अन्य राज्यों के लिए प्रेरणा बनेगा।

वास्तव में, यह समय की माँग है कि भारत सरकार भी राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी नीति बनाए, जिससे हर क्षेत्र की कामकाजी महिलाओं — सरकारी कर्मचारी, शिक्षिका, नर्स, बैंक अधिकारी, फैक्ट्री वर्कर या निजी क्षेत्र की कर्मचारी — सभी को समान रूप से यह अधिकार प्राप्त हो।

यह नीति केवल छुट्टी देने का मामला नहीं है, बल्कि यह महिलाओं की गरिमा, स्वास्थ्य और आत्मसम्मान से जुड़ा प्रश्न है। इससे वे बिना अपराधबोध या झिझक के अपने शरीर की जरूरतों को प्राथमिकता दे सकेंगी।

कुछ आलोचक इस नीति को अतिरिक्त विशेषाधिकार बताकर इसे कमजोर करने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि समानता का अर्थ एक जैसी परिस्थितियाँ नहीं बल्कि न्यायपूर्ण व्यवहार है। पुरुषों को मासिक धर्म की शारीरिक पीड़ा नहीं झेलनी पड़ती, इसलिए महिलाओं को इस समय विश्राम का अधिकार देना किसी प्रकार का पक्षपात नहीं बल्कि संवेदनशील न्याय है।

भारत में महिला जनसंख्या लगभग आधी है। यदि यह नीति पूरे देश में लागू की जाती है, तो न केवल महिलाओं का स्वास्थ्य सुधरेगा बल्कि कार्यस्थलों की उत्पादकता, वातावरण और लैंगिक समानता भी मजबूत होगी।

यह भी आवश्यक है कि कार्यस्थलों पर इस नीति के अनुपालन के साथ-साथ संवेदनशील माहौल बनाया जाए ताकि महिलाएँ इस अवकाश का उपयोग बिना झिझक कर सकें। यह शिक्षा, कॉरपोरेट जगत और मीडिया सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है कि मासिक धर्म के विषय को अब सामान्य संवाद का हिस्सा बनाया जाए।

कर्नाटक की यह पहल दर्शाती है कि सरकारें जब संवेदनशील दृष्टि से सोचती हैं, तो नीतियाँ सिर्फ प्रशासनिक दस्तावेज नहीं रहतीं — वे समाज के चरित्र को बदलने का माध्यम बन जाती हैं।

इसलिए अब आवश्यकता है कि भारत के सभी राज्यों और केंद्र सरकार को इस नीति को अपनाकर पूरे देश में लागू करना चाहिए। इससे भारत दुनिया के उन देशों की श्रेणी में शामिल होगा, जिन्होंने महिलाओं के प्रति वास्तविक समानता का उदाहरण प्रस्तुत किया है।

यह नीति भारत को केवल आर्थिक रूप से नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक रूप से भी आगे ले जाएगी। यही वह सोच है जो एक संवेदनशील, समानतापूर्ण और आधुनिक भारत के निर्माण की दिशा दिखाती है।

कर्नाटक ने रास्ता दिखा दिया है — अब बारी पूरे भारत की है। कर्नाटक की मासिक धर्म अवकाश नीति न केवल एक प्रशासनिक सुधार है, बल्कि यह भारतीय समाज के विचार और संवेदनशीलता में गहरे बदलाव का प्रतीक है। यह कदम बताता है कि जब सरकारें नीतियाँ बनाते समय महिलाओं के अनुभवों, स्वास्थ्य और गरिमा को प्राथमिकता देती हैं, तो समाज अधिक संतुलित और न्यायपूर्ण बनता है। यह नीति महिलाओं को अपने शरीर के प्रति अपराधबोध से मुक्त कर आत्म-सम्मान की दिशा में आगे बढ़ने का अवसर देती है।

आज आवश्यकता है कि इस पहल को केवल कर्नाटक तक सीमित न रखा जाए। भारत के हर राज्य और केंद्र सरकार को इसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू कर, सभी कार्यरत महिलाओं के लिए समान अधिकार सुनिश्चित करने चाहिए। इससे कार्यस्थलों पर समानता, स्वास्थ्य और उत्पादकता तीनों का संतुलन स्थापित होगा।

महिला सशक्तिकरण की असली कसौटी वही है, जहाँ नीतियाँ संवेदना के साथ न्याय भी करें। कर्नाटक का यह कदम उसी दिशा में एक सुनहरी शुरुआत है। यदि यह नीति पूरे भारत में लागू होती है, तो यह न केवल महिलाओं के लिए राहत का प्रतीक होगी, बल्कि एक संवेदनशील, आधुनिक और सम्मानजनक भारत की नींव भी रखेगी।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

सभी क्षेत्र में तरक्की कर रही हैं बालिकाएं

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​हर साल 11 अक्टूबर को विश्वभर में अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस (International Day of the Girl Child) मनाया जाता है। यह दिवस बालिकाओं के अधिकारों को पहचानने, उनके सामने आने वाली अनूठी चुनौतियों के बारे में जागरूकता बढ़ाने और उनके सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लिए समर्पित है। यह न केवल एक उत्सव का दिन है, बल्कि दुनिया भर की लड़कियों की आवाज को सशक्त करने और उन्हें आगे बढ़ने के लिए एक सुरक्षित, समान और समृद्ध वातावरण प्रदान करने के लिए सामूहिक कार्रवाई का आह्वान भी है। इस विशेष अवसर पर, भारत में बालिकाओं की वर्तमान स्थिति का गहन विश्लेषण करना प्रासंगिक है।

​अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस का महत्व और उद्देश्य

​अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस की शुरुआत संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 19 दिसंबर 2011 को एक प्रस्ताव पारित करने के बाद हुई, जिसके बाद पहला अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस 11 अक्टूबर 2012 को मनाया गया। इस दिन को मनाने का मुख्य उद्देश्य बालिकाओं के मानवाधिकारों की पूर्ति को बढ़ावा देना, लैंगिक समानता पर ज़ोर देना और यह सुनिश्चित करना है कि प्रत्येक बालिका अपनी पूरी क्षमता का एहसास कर सके। यह दिवस लड़कियों के शिक्षा, पोषण, चिकित्सा अधिकार, कानूनी अधिकार, और बाल विवाह जैसी चुनौतियों के बारे में जागरूकता बढ़ाता है।
​भारत में बालिकाओं के कल्याण और अधिकारों को समर्पित राष्ट्रीय बालिका दिवस भी है, जो हर साल 24 जनवरी को मनाया जाता है। ये दोनों दिवस मिलकर देश और विश्व स्तर पर बालिकाओं के महत्व को रेखांकित करते हैं।

​भारत में बालिकाओं की स्थिति: एक जटिल तस्वीर

​भारत एक ऐसा देश है जिसका इतिहास प्राचीन काल में महिलाओं को उच्च दर्जा देने का रहा है, जहां गार्गी, मैत्रेयी जैसी विदुषी महिलाओं का उल्लेख मिलता है। हालांकि, मध्ययुगीन काल और विदेशी शासन के दौरान समाज में अनेक कुरीतियां और विकृतियां पैदा हुईं, जिससे महिलाओं और बालिकाओं की स्थिति में गिरावट आई। स्वतंत्रता के बाद, भारतीय संविधान ने लैंगिक समानता और सभी नागरिकों के लिए समान अवसरों की गारंटी दी, जिसके परिणामस्वरूप बालिकाओं की स्थिति में सुधार की एक धीमी, लेकिन निश्चित यात्रा शुरू हुई।
​वर्तमान में, भारत में बालिकाओं की स्थिति दो विपरीत सत्यों को दर्शाती है: एक तरफ, अभूतपूर्व प्रगति और दूसरी तरफ, गहरी जड़ें जमाए हुए सामाजिक और आर्थिक चुनौतियाँ।
​1. शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति और चुनौतियाँ
​शिक्षा किसी भी बालिका के सशक्तिकरण की पहली सीढ़ी है। पिछले कुछ दशकों में भारत ने बालिका शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है।
​सकारात्मक पहलू:

​साक्षरता दर में वृद्धि: 1951 से 2011 तक स्त्री साक्षरता दर में लगभग 57.7% की वृद्धि हुई है। 2011 की जनगणना के अनुसार, महिला साक्षरता दर 65.46% थी, जो 2001 में 53.67% थी।

​नामांकन में सुधार: यू-डाइस रिपोर्ट (2019-20) के अनुसार, प्राथमिक से उच्चतर माध्यमिक स्तर तक बालिकाओं के नामांकन में वृद्धि हुई है, जो दर्शाता है कि सरकार के प्रयासों और सामाजिक जागरूकता के सकारात्मक परिणाम मिल रहे हैं।

​उच्च शिक्षा और पेशेवर क्षेत्रों में सफलता: अब बालिकाएं केवल पारंपरिक क्षेत्रों तक सीमित नहीं हैं। वे इंजीनियरिंग, पायलट, वैज्ञानिक, तकनीशियन, सेना, पत्रकारिता और सॉफ्टवेयर उद्योग जैसे पुरुष-प्रधान क्षेत्रों में भी अपनी योग्यता प्रदर्शित कर रही हैं। कई बड़े शिक्षण संस्थानों में शीर्ष स्थानों पर बालिकाओं का चयन बालकों की तुलना में अधिक हो रहा है।

​चुनौतियाँ:

​लैंगिक साक्षरता अंतर: हालांकि साक्षरता दर बढ़ी है, फिर भी पुरुष और महिला साक्षरता दर में अंतर मौजूद है (2011 में लगभग 16.68%)।

​स्कूल छोड़ने की दर: प्राथमिक शिक्षा के बाद माध्यमिक विद्यालय दूर होने या अभिभावकों की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में कई बालिकाएं पढ़ाई बीच में ही छोड़ देती हैं।

​सामाजिक कुप्रथाएं: बाल विवाह, पर्दा प्रथा और दहेज जैसी सामाजिक कुप्रथाएं आज भी ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में बालिका शिक्षा में बड़ी बाधा हैं।

​2. स्वास्थ्य और पोषण
​स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी बालिकाओं को गंभीर लैंगिक असमानता का सामना करना पड़ता है।
​चुनौतियाँ:

​असुरक्षित जन्म दर और कन्या भ्रूण हत्या: भारत दुनिया का इकलौता बड़ा देश है, जहां लड़कों से ज्यादा बच्चियों की मौत होती है। हालांकि, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे अभियानों और कानूनी प्रतिबंधों के कारण जन्म के समय लिंगानुपात में सुधार के संकेत मिले हैं, लेकिन कई क्षेत्रों में असमानता अभी भी बनी हुई है।

​शिशु मृत्यु दर: भारत में पाँच साल से कम उम्र की लड़कियों की मृत्यु दर लड़कों की तुलना में 8.3% अधिक है, जो लड़कियों के प्रति भेदभावपूर्ण पोषण और स्वास्थ्य देखभाल को दर्शाता है।

​एनीमिया (रक्ताल्पता): पोषण की कमी के कारण किशोरियों और महिलाओं में एनीमिया एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या बनी हुई है।

​3. सामाजिक और कानूनी अधिकार
​सामाजिक ताने-बाने में बालिकाओं के प्रति गहरी जड़ें जमाए हुए रूढ़िवादिता और पूर्वाग्रह हैं।
​चुनौतियाँ:

​भेदभाव और रूढ़िबद्धता: उन्हें अक्सर मृदुभाषी, शांत और चुप रहने की अपेक्षा की जाती है, जबकि लड़कों को अधिक स्वतंत्रता मिलती है। लैंगिक भूमिकाओं से जुड़ी रूढ़िबद्धता महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह और भेदभाव को जन्म देती है।

​सुरक्षा और हिंसा: कन्या भ्रूण हत्या से लेकर यौन शोषण, हिंसा और कम उम्र में शादी तक, लड़कियों को अपने लिंग के कारण कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

​बाल विवाह: 21वीं सदी में भी बाल विवाह समाज में एक बड़ी समस्या बनी हुई है, जो लड़कियों को शिक्षा और विकास के अवसरों से वंचित कर देती है।

​’मिसिंग विमेन’ की संख्या: 2020 में ‘मिसिंग विमेन’ (लिंग-चयनात्मक गर्भपात और स्वास्थ्य भेदभाव के कारण जन्म के समय या बाद में जीवित नहीं रहने वाली लड़कियों/महिलाओं) की अनुमानित संख्या 142.6 मिलियन थी, जो लैंगिक असमानता की भयावहता को दर्शाती है।

​4. सरकारी पहल और सशक्तिकरण के प्रयास
​भारत सरकार ने बालिकाओं की स्थिति सुधारने के लिए कई महत्वपूर्ण योजनाएं और नीतियां शुरू की हैं।

​बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ (BBBP): यह योजना कन्या भ्रूण हत्या को रोकने, बालिकाओं की सुरक्षा और शिक्षा सुनिश्चित करने पर केंद्रित है।

​सुकन्या समृद्धि योजना: यह योजना बालिकाओं की शिक्षा और विवाह के लिए वित्तीय सुरक्षा प्रदान करती है।

​राष्ट्रीय बालिका दिवस: महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा 2008 में इसकी शुरुआत की गई थी, जिसका उद्देश्य लड़कियों के सामने आने वाली कठिनाइयों को दूर करना है।

​स्वयं सहायता समूह (SHG): ग्रामीण महिलाओं और किशोरियों के सशक्तिकरण और आत्मनिर्भरता के लिए स्वयं सहायता समूहों का अभियान तेजी से बढ़ रहा है।

​शिक्षा के लिए प्रोत्साहन: बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए छात्रवृत्ति, साइकिल वितरण और सुरक्षित परिवहन जैसी सुविधाएं प्रदान की जा रही हैं।

​भविष्य की राह: पूर्ण सशक्तिकरण की ओर

​अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस हमें याद दिलाता है कि बालिकाओं के सशक्तिकरण के बिना देश और समाज का समग्र विकास असंभव है। लैंगिक समानता और महिलाओं का सशक्तिकरण समृद्धि और सतत विकास प्राप्त करने के लिए अनिवार्य है, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) में भी शामिल है।
​पूर्ण सशक्तिकरण के लिए आवश्यक कदम:

​कानून का कठोर कार्यान्वयन: कन्या भ्रूण हत्या, बाल विवाह और यौन उत्पीड़न से संबंधित कानूनों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करना।

​शिक्षा तक पहुंच और गुणवत्ता: प्राथमिक से उच्च शिक्षा तक बालिकाओं की पहुंच सुनिश्चित करना, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में, और उन्हें व्यावसायिक शिक्षा के अवसर प्रदान करना।

​स्वास्थ्य और पोषण में समानता: यह सुनिश्चित करना कि लड़कियों को लड़कों के समान पोषण और स्वास्थ्य देखभाल मिले, और किशोरियों के लिए विशेष स्वास्थ्य कार्यक्रम शुरू करना।

​सामाजिक सोच में बदलाव: समाज में गहरे जड़ें जमाए हुए लैंगिक पूर्वाग्रहों और रूढ़िवादिता को चुनौती देने के लिए व्यापक जागरूकता अभियान चलाना। इसमें पुरुषों और लड़कों को भी समानता के समर्थक के रूप में शामिल करना महत्वपूर्ण है।

​सुरक्षित वातावरण: स्कूलों, सार्वजनिक स्थानों और कार्यस्थलों पर लड़कियों और महिलाओं के लिए एक सुरक्षित वातावरण बनाना।

​निष्कर्ष

​भारत में बालिकाओं की स्थिति एक ऐसी कहानी है जिसमें चुनौतियों के बावजूद आशा और प्रगति की किरणें हैं। अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस हमें उस महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़े होने का अवसर देता है जहां हमें केवल प्रगति का जश्न नहीं मनाना है, बल्कि बची हुई असमानताओं को दूर करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता को दोहराना है। जब एक बालिका सशक्त होती है, तो उसका परिवार, उसका समुदाय और अंततः उसका राष्ट्र सशक्त होता है। जैसा कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “आप किसी राष्ट्र की स्थिति को उसकी महिलाओं की स्थिति को देखकर बता सकते हैं।” भारत को एक विश्व शक्ति बनने के लिए, हर बालिका को उसकी क्षमता का एहसास करने का अवसर मिलना चाहिए। हमें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि हर लड़की को सिर्फ ‘बेटी’ के रूप में नहीं, बल्कि ‘देश के भविष्य’ के रूप में देखा और माना जाए।

छठी मैय्या की पूजा, लेकिन यमुना की सजा आखिर कब जागेगा समाज?

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छठ पर्व भारतीय संस्कृति का वह अनुपम उत्सव है जिसमें प्रकृति, आस्था और अनुशासन का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। यह पर्व केवल सूर्य उपासना का प्रतीक नहीं, बल्कि जल और पर्यावरण के प्रति हमारी श्रद्धा का भी सबसे सुंदर उदाहरण है। जब-जब छठी मैय्या का गीत गूंजता है, तब-तब नदी के तटों पर आस्था की लहरें उमड़ पड़ती हैं। परंतु आज जब हम छठ मनाने की तैयारी कर रहे हैं, तब एक गहरी चिंता मन में उठती है। क्या हमारी नदियाँ, विशेषकर यमुना, इस आस्था को स्वीकार करने लायक बची हैं। हालांकि यमुना केवल एक नदी नहीं, भारत की संस्कृति की धारा है। जिस जल में कभी कृष्ण की बंसी गूंजी, जिसमें मथुरा-वृंदावन की मिट्टी ने भक्ति का रंग भरा, आज वही यमुना शहरों की गंदगी और कारखानों के जहरीले रसायनों से कराह रही है। दिल्ली से लेकर आगरा तक यमुना के जल का स्वरूप देखकर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति विचलित हुए बिना नहीं रह सकता। छठी मैय्या के उपासक जिस पवित्रता से जल अर्पित करते हैं, वह पवित्रता अब स्वयं यमुना में दिखाई नहीं देती। छठ पर्व हमें सिखाता है कि प्रकृति की पूजा केवल फूल-मालाओं से नहीं, बल्कि उसके संरक्षण से होती है। यमुना की सफाई के लिए केवल सरकारी योजनाएँ काफी नहीं होंगी। यह कार्य तभी सफल होगा जब जनता, समाज और प्रशासन मिलकर इसे एक सामूहिक जिम्मेदारी के रूप में स्वीकार करेंगे। आज आवश्यकता है साफ यमुना सबका अभियान की। इसमें पहला कदम होना चाहिए कि गंदगी के स्रोतों की पहचान हो। यमुना में सबसे अधिक प्रदूषण नालों, सीवर और फैक्ट्री के केमिकल डिस्चार्ज से आता है। दिल्ली, फरीदाबाद, मथुरा और आगरा के बीच सैकड़ों छोटे-बड़े नाले सीधे नदी में गिर रहे हैं। अगर इन्हें चिन्हित कर, उन पर रोक लगा दी जाए तो आधी समस्या वहीं समाप्त हो जाएगी। हर जिले में नागरिक समितियाँ बनाई जा सकती हैं जो ऐसे बिंदुओं की निगरानी करें और प्रशासन को रिपोर्ट दें। दूसरा कदम फैक्ट्रियों की जिम्मेदारी तय की जाए। जो उद्योग अपना अपशिष्ट बिना ट्रीटमेंट के यमुना में बहा रहे हैं, उन पर भारी जुर्माना और सीलिंग की कार्रवाई हो। पर्यावरण विभाग को जनता की निगरानी के साथ जोड़ना होगा ताकि कोई भी उल्लंघन छिप न सके। तीसरा कदम धार्मिक आयोजनों में स्वच्छता का अनुशासन हो‌। छठ पूजा के अवसर पर लाखों श्रद्धालु यमुना तट पर एकत्रित होते हैं। उनकी भावना पवित्र है, लेकिन यदि आयोजन के बाद पूजा सामग्री, मूर्तियाँ, कपड़े या प्लास्टिक नदी में डाले जाएँ तो वही आस्था प्रदूषण का कारण बन जाती है। इसके लिए नगर निकायों को घाटों पर विशेष सफाई दल और कूड़ा संग्रह केंद्र लगाने चाहिए। साथ ही, भक्तों से यह अपील भी जरूरी है कि मैय्या की पूजा धरती को गंदा कर के नहीं, साफ रख कर करें। चौथा कदम जनजागरण और शिक्षा का हो‌। स्कूलों, कॉलेजों और सामाजिक संस्थाओं में यमुना संकल्प सप्ताह मनाया जाए। ताकि नई पीढ़ी समझ सके कि धर्म और पर्यावरण एक-दूसरे के पूरक हैं। मीडिया की भूमिका भी अहम है। वह हर सप्ताह यमुना की स्थिति और सुधार कार्यों की रिपोर्ट जनता के सामने रखे। पाँचवाँ कदम तकनीकी उपाय का हो। यमुना किनारे पानी की गुणवत्ता मापने वाले सेंसर और सीसीटीवी कैमरे लगाए जाए। ताकि कोई भी संस्था या व्यक्ति चोरी-छिपे गंदगी न गिरा सके। साथ ही, छोटे स्तर पर जैविक ट्रीटमेंट प्लांट और नाले रोकने वाले फिल्टर सिस्टम लगाए जाए। छठ पर्व की आत्मा यही कहती है कि सूर्य और जल ये दोनों जीवन के आधार हैं। जब हम डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य देते हैं, तो यह केवल पूजा नहीं बल्कि कृतज्ञता का भाव होता है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि अगर हम अपनी नदियों को मरने देंगे, तो यह पूजा केवल औपचारिकता बनकर रह जाएगी। यमुना की सफाई का अभियान दरअसल आस्था और अस्तित्व दोनों की रक्षा का संकल्प है। छठी मैय्या का यह पावन पर्व हमें यह याद दिलाता है कि पवित्रता केवल मंत्रों में नहीं, बल्कि हमारे कर्मों में बसती है। जब समाज का हर व्यक्ति यह ठान ले कि वह गंदगी नहीं फैलाएगा, नाले को नदी नहीं बनाएगा, फैक्ट्री को जिम्मेदार बनाएगा, तभी यमुना फिर से जीवन से भर उठेगी। आइए, इस बार छठ की संध्या पर हम सब मिलकर एक संकल्प लें कि मैय्या के अर्घ्य के साथ यमुना की रक्षा भी हमारी पूजा का हिस्सा है। अगर यह भावना जन-जन में बस गई तो यकीन मानिए कि फिर से यमुना बहेगी निर्मल, फिर से गूंजेगा भक्ति का स्वर और फिर छठी मैय्या का आशीर्वाद पूरे समाज को स्वच्छता और समृद्धि का संदेश देगा।

भूपेन्द्र शर्मा सोनू
(स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक)