0

सुप्रीम कोर्ट के करूर में की रैली के दौरान मची भगदड़ की सीबीआई जांच के आदेश

सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के करूर में अभिनेता-राजनेता विजय के रैली के दौरान मची भगदड़ की सीबीआई जांच के आदेश दिए हैं ! इस मामले में टीवीके ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की थी कि भगदड़ की जांच एक पूर्व सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश की निगरानी में हो । पार्टी का कहना था कि सिर्फ तमिलनाडु पुलिस की तरफ से बनाई गई विशेष जांच दल (एसआईटी) से जनता का भरोसा नहीं बनेगा। पार्टी ने यह भी आरोप लगाया कि भगदड़ पूर्व नियोजित साजिश का हिस्सा हो सकता है।

टीवीके की मांग पर सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व न्यायाधीश अजय रस्तोगी को करूर भगदड़ मामले में सीबीआई जांच की निगरानी करने वाली समिति का प्रमुख नियुक्त किया है। टीवीके के सचिव आधव अर्जुना ने इस याचिका को सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया था। इससे पहले मद्रास हाई कोर्ट ने एसआईटी का गठन किया था, जिसे टीवीके ने चुनौती दी थी।

तमिलनाडु के करूर में हुई भगदड़ के तुरंत बाद विवाद और आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गए थे। करूर पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर टीवीके के करूर (उत्तर) जिला सचिव माधियाझगन, जनरल सेक्रेटरी बसी आनंद, और ज्वाइंट जनरल सेक्रेटरी सीटीआर निर्मल कुमार के खिलाफ हत्या, हत्या का प्रयास, और अन्य की जान जोखिम में डालना जैसे गंभीर आरोप लगाए थे। पुलिस का कहना है कि भगदड़ में कोई खुफिया चूक नहीं हुई। रैली में विजय देर से पहुंचे, और लोग कई घंटे से इंतजार कर रहे थे।

पुलिस अधिकारियों ने आयोजकों से कहा था कि विजय की विशेष रैली बस को निर्धारित स्थान से कम से कम 50 मीटर पहले रोक दें। लेकिन आयोजकों ने तय जगह पर ही बस खड़ी की। पुलिस के अनुसार, ’10 मिनट तक नेता बस से बाहर नहीं आए, जिससे भीड़ असंतुष्ट हो गई। लोग उन्हें देखने के लिए बेताब थे।’करूर में अभिनेता-राजनेता विजय की रैली के दौरान भगदड़ में 40 से अधिक लोगों की मौत हो गई। इस मामले में विजय की पार्टी तमिलागा वेट्री कजगम ने सुप्रीम कोर्ट से स्वतंत्र जांच की मांग की थी। टीवीके का कहना है कि सिर्फ तमिलनाडु पुलिस की एसआईटी जनता का भरोसा जीतने में सक्षम नहीं होगी।

बिहार चुनाव : लालू के घोटाले ने बेटे तेजस्वी की राह में बिखेरे कांटे

0

बाल मुकुन्द ओझा

दिल्ली की एक अदालत द्वारा लालू यादव परिवार पर नौकरी के बदले जमीन सम्बन्धी एक बहुचर्चित मामले में धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार समेत अन्य धाराओं के तहत आरोप तय करने से  बिहार विधान सभा चुनाव से पहले ही महागठबंधन पर संकटों के बादल छा गए है। बिहार विधानसभा के चुनावों पर इसका कितना असर होगा, यह देखने वाली बात है। कभी देश के प्रधानमंत्री पद के लिए अहम् भूमिका निभाने वाले बिहार के कद्दावर नेता लालू यादव की अब एक ही इच्छा है कि उसके जीवनकाल में छोटा बेटा तेजस्वी बिहार की गद्दी पर आसीन हो। मगर उनकी लाख चेष्टा के बावजूद कहीं न कहीं उनके कार्यकाल के घोटाले और सियासी पैबंध उनकी राह में कांटे बिखेर ही देता है। चुनावी माहौल में लालू यादव के परिवार की मुश्किलें कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। बिहार में एकाएक ही सियासत गरमा गई है। बिहार विधान सभा का चुनाव लालू परिवार के लिए काफी मुश्किलों भरा हो गया है। आनन फानन में भाजपा सहित लालू विरोधी पार्टियों ने लालू पर तंज कसने शुरू कर दिए। बिहार के दो प्रमुख चुनावी मोर्चे महागठबंधन और एनडीए  ने सत्ता पर काबिज होने के लिए किलेबंदी शुरू कर दी है। लालू ने अपने बेटे तेजस्वी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने की सार्वजनिक घोषणा कर रखी है। बिहार में येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने के लिए लालू यादव की छटपटाहट बस देखते ही बनती है। राजद अध्यक्ष लालू यादव अब बूढ़े हो चुके है और चाहते है उनकी विरासत के साथ बिहार की राजगद्दी बेटे तेजस्वी को मिले। नए घटनाक्रम ने आरजेडी की चुनावी संभावनाओं को पलीता लगा दिया है।

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक आईआरसीटी घोटाले में दिल्ली की राउज एवेन्यू कोर्ट ने आरजेडी सुप्रीमों लालू यादव, पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी और बिहार के पूर्व डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव के खिलाफ आरोप तय करने का आदेश दिया है। दिल्ली की राउज एवेन्यू कोर्ट ने तीनों नेताओं के खिलाफ अपने आदेश में कड़े शब्दों का प्रयोग किया और भारतीय रेलवे खानपान एवं पर्यटन निगम में कथित अनियमितताओं से जुड़े भ्रष्टाचार के मामले में आरोप तय करने का आदेश सुनाया है। अदालत ने धारा 120B और 420 के तहत आरोप तय कर दिए हैं। न्यायालय ने साजिश, पद के दुरुपयोग और टेंडर प्रक्रिया में छेड़छाड़ की बात कही और यह भी जोड़ा कि सब कुछ लालू यादव की जानकारी में हुआ। सुनवाई के दौरान CBI ने सबूतों की एक पूरी श्रृंखला पेश की । अदालत ने कहा कि लालू यादव ने टेंडर प्रक्रिया में दखल दिया था । टेंडर प्रक्रिया में बड़ा बदलाव कराया था।

बिहार में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो गया है। आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव, उनकी पत्नी राबड़ी देवी और उनके बेटे तेजस्वी यादव की चुनावी मुश्किलें बढ़ गई हैं। CBI केस के मुताबिक लालू प्रसाद यादव के रेल मंत्री रहने के दौरान (2004-2009 के बीच) बिहार के लोगो को मुंबई, जबलपुर,  कलकत्ता, जयपुर, हाजीपुर में ग्रुप डी पोस्ट के लिए नौकरी दी गई। इसके एवज में नौकरी पाने वाले लोगों ने लालू प्रसाद के परिजनों/परिजनों के स्वामित्व वाली कंपनी के नाम अपनी जमीन ट्रांसफर की।

लालू परिवार ने पूर्व की तरह फिर खुद के पाक साफ़ होने का दावा किया है। मगर उनके विरोधियों का कहना है इसे कहते है चोरी और सीनाजोरी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 1974 में भ्रष्टाचार के खिलाफ बिहार में सिंहनाद किया था। लालू ने जेपी के एक सेनानी के रूप में इस आंदोलन में अपनी सक्रीय भागीदारी दी थी और आज भ्रष्टाचार रूपी इसी अज़गर ने लालू और उनके परिवार को निगल लिया है। जेपी के आंदोलन से निकले लालू यादव को बहुचर्चित चारा घोटाले के पांच मामले में हुई सजा ने भ्रष्टाचार के इतिहास में एक नई इबारत लिख दी। राजद सुप्रीमो लालू यादव को चारा घोटाले से जुड़े पांच मामलों कुल साढ़े 32 साल की सजा सुनाई जा चुकी है। वे फिलहाल जमानत पर है। लालू की चार्जशीट पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा के समय हुई थी तो पहली सजा मनमोहन सिंह की सरकार के समय हुई। फिर भी फंसा दिए जाने का राग अलापा जा रहा है।

गौरतलब बिहार  का सबसे बड़ा भ्रष्टाचार चारा घोटाला था जिसमें पशुओं को खिलाये जाने वाले चारे के नाम पर 950 करोड़ रुपये सरकारी खजाने से फर्जीवाड़ा करके निकाल लिये गये। केंद्र सरकार गरीब आदिवासियों को अपनी योजना के तहत गाय, भैंस, मुर्गी और बकरी पालन के लिए आर्थिक मदद मुहैया करा रही थी। इस दौरान मवेशी के चारे के लिए भी पैसे आते थे। लेकिन गरीबों के गुजर-बसर और पशुपालन में मदद के लिए केंद्र सरकार की तरफ से आए पैसे का गबन कर लिया गया था। 1996 में चारा घोटाले का मामला बाहर निकला । लालू के मुख्यमंत्री रहते ही चारा घोटाला सामने आया। आश्चर्य इस बात का है जन धन पर डाका डालने वालों को अपने किये पर कोई पछतावा नहीं है। अब एक बार फिर केंद्रीय जाँच दलों की राडार पर लालू परिवार का भ्रष्टाचार है जिसमें जेल जाने की तलवार लटकी हुई है।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

भारत की आध्यात्मिक बेटी और राष्ट्रीय जागरण की अग्रदूत−भगिनी निवेदिता

0

भारत के स्वतंत्रता संग्राम और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के इतिहास में एक ऐसा नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है जिसने विदेशी होकर भी भारत को अपनी आत्मा बना लिया — भगिनी निवेदिता।
वह न केवल स्वामी विवेकानंद की शिष्या थीं, बल्कि उन्होंने भारत के पुनर्निर्माण, महिला शिक्षा और राष्ट्रीय चेतना के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया।
उनका जीवन त्याग, सेवा और समर्पण की अद्भुत गाथा है — एक ऐसी विदेशी महिला की कहानी, जिसने “भारत माता” के चरणों में अपनी समस्त शक्ति अर्पित कर दी।


प्रारंभिक जीवन

भगिनी निवेदिता का जन्म 28 अक्टूबर 1867 को आयरलैंड के डबलिन शहर में हुआ था।
उनका वास्तविक नाम मार्गरेट एलिज़ाबेथ नोबल (Margaret Elizabeth Noble) था।
उनके पिता सैमुअल नोबल एक ईसाई पादरी थे, और माँ का नाम मैरी इसाबेला नोबल था।
पिता की धर्मनिष्ठा और माँ की करुणा ने बचपन से ही मार्गरेट के भीतर सेवा और आदर्शवाद की भावना भर दी।

जब मार्गरेट मात्र पाँच वर्ष की थीं, तभी उनके पिता का देहांत हो गया। इस दुखद घटना ने उनके जीवन में गहरा प्रभाव डाला। उन्होंने निर्णय लिया कि जीवन दूसरों के कल्याण के लिए समर्पित करना ही सच्चा धर्म है।


शिक्षा और अध्यापन जीवन

मार्गरेट बचपन से ही प्रतिभाशाली थीं। उन्होंने लंदन में शिक्षक के रूप में कार्य शुरू किया और शिक्षा सुधार आंदोलन से जुड़ीं। उनका मानना था कि शिक्षा केवल जानकारी नहीं देती, बल्कि मनुष्य के चरित्र का निर्माण करती है। उन्होंने इंग्लैंड में एक “Play School” खोला, जहाँ बच्चों को सृजनात्मक और नैतिक शिक्षा दी जाती थी। उसी समय वे दर्शन, धर्म और अध्यात्म में गहरी रुचि लेने लगीं। इन्हीं दिनों वे भारत के महान संत स्वामी विवेकानंद के संपर्क में आईं — और यही उनके जीवन की दिशा बदल देने वाला क्षण था।


स्वामी विवेकानंद से मुलाकात – जीवन का मोड़

1895 में स्वामी विवेकानंद इंग्लैंड गए और वहाँ उन्होंने भारतीय वेदांत दर्शन पर व्याख्यान दिए। उनके विचारों ने यूरोप के शिक्षित समाज को झकझोर दिया। मार्गरेट नोबल भी उनके एक व्याख्यान में उपस्थित थीं। स्वामी विवेकानंद के शब्दों —

“भारत की आत्मा सोई नहीं है, केवल उसे जगाने की आवश्यकता है।”
ने उन्हें भीतर तक आंदोलित कर दिया।

मार्गरेट ने स्वामीजी से कई बार संवाद किया और भारत की आध्यात्मिक संस्कृति के बारे में जाना।
स्वामी विवेकानंद ने उनसे कहा —

“भारत को शिक्षित, जागरूक और स्वावलंबी बनाने के लिए तुम्हारे जैसे लोगों की आवश्यकता है।”

बस, यही वह क्षण था जब मार्गरेट नोबल ने जीवन का लक्ष्य तय कर लिया — भारत की सेवा।


भारत आगमन और नया जीवन

28 जनवरी 1898 को मार्गरेट नोबल भारत पहुँचीं।
स्वामी विवेकानंद ने उनका स्वागत किया और उन्हें ‘निवेदिता’ नाम दिया — जिसका अर्थ है “पूर्ण समर्पित”।
वह अब केवल मार्गरेट नहीं रहीं, वे भारत की “भगिनी निवेदिता” बन चुकी थीं।

उन्होंने अपना पश्चिमी परिधान त्याग दिया और भारतीय परंपरा के अनुसार सादा साड़ी धारण की।
उन्होंने बंगाल की भाषा सीखी, भारतीय रीति-रिवाज अपनाए और धीरे-धीरे पूरी तरह भारतीय संस्कृति में ढल गईं।
उन्होंने कहा था —

“अब मैं केवल भारत की नहीं, भारत की आत्मा की सेविका हूँ।”


महिला शिक्षा में योगदान

भगिनी निवेदिता ने भारत में महिलाओं की स्थिति देखकर गहरा दुःख प्रकट किया।
उन्होंने देखा कि शिक्षा के अभाव में महिलाएँ सामाजिक जीवन से वंचित हैं।
उन्होंने संकल्प लिया कि भारतीय महिलाओं को आत्मनिर्भर और शिक्षित बनाना ही उनकी सेवा का मार्ग होगा।

1898 में उन्होंने बेलगाछिया (कोलकाता) में महिला शिक्षा विद्यालय की स्थापना की।
यह स्कूल गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों की लड़कियों के लिए था।
वे स्वयं छात्रों को पढ़ातीं, घर-घर जाकर बालिकाओं को स्कूल आने के लिए प्रेरित करतीं।
उन्होंने कहा था —

“स्त्री को शिक्षित करना, राष्ट्र को शिक्षित करना है।”

उनका यह विद्यालय आगे चलकर “निवेदिता गर्ल्स’ स्कूल” के रूप में प्रसिद्ध हुआ और भारतीय महिला शिक्षा आंदोलन की आधारशिला बन गया।


भारतीय स्वतंत्रता और राष्ट्रीय चेतना में भूमिका

भगिनी निवेदिता केवल शिक्षिका नहीं थीं, वे एक क्रांतिकारी विचारक भी थीं।
उन्होंने भारत के युवाओं में देशभक्ति की भावना जगाने के लिए अनेक व्याख्यान दिए।
वे बाल गंगाधर तिलक, अरबिंदो घोष, सिस्टर निवेदिता के मित्र नागेंद्रनाथ बोस और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के संपर्क में रहीं।

उन्होंने ब्रिटिश शासन की नीतियों का विरोध किया और भारतीय स्वराज की मांग का समर्थन किया।
जब बंगाल विभाजन (1905) हुआ, तो वे स्वदेशी आंदोलन की अग्रणी बनीं।
उन्होंने कहा —

“भारत को जगाना है तो पहले उसकी आत्मा को जगाइए। स्वदेशी ही भारत की आत्मा का पुनर्जन्म है।”

उन्होंने कला, साहित्य और विज्ञान में भी भारतीयों को आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित किया।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु की उन्होंने हर प्रकार से सहायता की।
उनके अनुसंधानों के लिए आर्थिक और बौद्धिक सहयोग दिया।
वास्तव में, निवेदिता भारत के वैज्ञानिक पुनर्जागरण की भी प्रेरक थीं।


भारतीय कला और संस्कृति के प्रति समर्पण

भगिनी निवेदिता का विश्वास था कि भारत की आत्मा उसकी कला और संस्कृति में बसती है।
उन्होंने अवनीन्द्रनाथ टैगोर और नंदलाल बोस जैसे कलाकारों को भारतीय परंपरा में कला के पुनरुद्धार के लिए प्रेरित किया।
उन्होंने उन्हें पश्चिमी प्रभाव से मुक्त होकर भारत की जड़ों से जुड़ने का संदेश दिया।

उनका कथन था —

“भारतीय कला केवल सौंदर्य नहीं, यह आत्मा का प्रकाश है।”

उनके प्रयासों से भारतीय कला पुनर्जागरण आंदोलन (Indian Art Renaissance) को बल मिला।


साहित्यिक योगदान

भगिनी निवेदिता एक प्रतिभाशाली लेखिका भी थीं।
उन्होंने अंग्रेज़ी में अनेक पुस्तकें लिखीं, जिनसे भारत की संस्कृति और दर्शन को विश्व के सामने प्रस्तुत किया।
उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं —

The Web of Indian Life (1904)

The Master As I Saw Him (1910) — स्वामी विवेकानंद पर आधारित

Kali the Mother (1900)

Footfalls of the Indian History

इन पुस्तकों में उन्होंने भारत की आध्यात्मिकता, नारी शक्ति, संस्कृति और इतिहास की गहराई को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया।


सेवा और त्याग का जीवन

भगिनी निवेदिता ने केवल शिक्षा और राष्ट्र सेवा तक अपने कार्य को सीमित नहीं रखा।
जब 1899 में प्लेग महामारी ने कोलकाता को घेरा, तब वे निडर होकर सड़कों पर उतरीं।
वे बीमारों की सेवा करतीं, बच्चों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचातीं और हर गरीब की मदद करतीं।
उन्होंने कहा था —

“सेवा ही सबसे बड़ी उपासना है।”

वे दिन-रात समाज के बीच रहीं और अपनी सेहत की परवाह नहीं की।
लगातार परिश्रम और अस्वस्थता ने उनके शरीर को कमजोर कर दिया, परंतु उन्होंने काम बंद नहीं किया।


निधन और अमरता

भगिनी निवेदिता का निधन 13 अक्टूबर 1911 को दार्जिलिंग में हुआ।
उस समय वे मात्र 43 वर्ष की थीं।
उनका अंतिम संस्कार दार्जिलिंग के “खर्चो मठ” के निकट हुआ।
उनकी समाधि पर लिखा गया —

“Here reposes Sister Nivedita, who gave her all to India.”
(यहाँ भगिनी निवेदिता विश्राम कर रही हैं, जिन्होंने अपना सब कुछ भारत को अर्पित कर दिया।)


विरासत और प्रेरणा

भगिनी निवेदिता की विरासत आज भी जीवंत है।
उन्होंने भारत को न केवल शिक्षा और सेवा का मार्ग दिखाया, बल्कि यह भी सिखाया कि सच्चा देशप्रेम सीमाओं से परे होता है।
वह विदेशी होते हुए भी भारत की सच्ची बेटी बनीं।

उनकी शिक्षाएँ आज भी महिला सशक्तिकरण, स्वदेशी भावना और मानवीय सेवा के आदर्श हैं।
स्वामी विवेकानंद के सपनों के भारत को साकार करने में उनका योगदान अतुलनीय है।


निष्कर्ष

भगिनी निवेदिता का जीवन इस बात का प्रमाण है कि भारत केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक विचार है — और उस विचार से जिसने प्रेम किया, वही सच्चा भारतीय है।
उन्होंने कहा था —

“भारत ने मुझे जन्म नहीं दिया, पर उसने मुझे नया जीवन दिया।”

भगिनी निवेदिता ने अपने कर्मों से दिखा दिया कि सेवा, त्याग और प्रेम ही सच्चे धर्म हैं।
वह एक महिला थीं, पर उनके भीतर एक राष्ट्र का हृदय धड़कता था।
उनकी स्मृति आज भी हर उस व्यक्ति को प्रेरित करती है जो भारत की सेवा का संकल्प लेता है।

मातृत्व की मूर्त प्रतिमा−फिल्म अभिनेत्री निरूपा रॉय

0

भारतीय सिनेमा के विशाल इतिहास में कुछ कलाकार ऐसे हुए हैं जिन्होंने पर्दे पर निभाए गए अपने किरदारों से पीढ़ियों तक लोगों के दिलों में अमिट छाप छोड़ी। ऐसी ही एक महान अभिनेत्री थीं निरूपा रॉय, जिन्हें लोग आज भी “भारतीय माँ” के प्रतीक के रूप में याद करते हैं। उनका चेहरा, उनकी करुणा से भरी आँखें और संवादों की सहज गहराई, सिनेमा के हर युग में मातृत्व की परिभाषा बन गईं।


प्रारंभिक जीवन और संघर्ष

निरूपा रॉय का जन्म 4 जनवरी 1931 को Valsad (वलसाड), गुजरात में हुआ था। उनका असली नाम कोकिला किशोरचंद्र बुलसारा था। वे एक साधारण गुजराती परिवार से थीं। प्रारंभिक शिक्षा वलसाड में ही हुई।

1940 के दशक में विवाह के बाद वे अपने पति कमल रॉय के साथ मुंबई आ गईं।
मुंबई उस समय हिंदी सिनेमा की राजधानी बन चुकी थी। पति-पत्नी दोनों को फिल्मों का शौक था, और संयोग से उन्होंने एक फिल्म प्रतियोगिता में भाग लिया।
वहीं से बॉम्बे टॉकीज के निर्माताओं की नजर उन पर पड़ी और उन्हें फिल्मों में काम करने का पहला मौका मिला।
यही से शुरू हुई कोकिला बुलसारा की निरूपा रॉय बनने की यात्रा।


फिल्मी करियर की शुरुआत

निरूपा रॉय की पहली फिल्म “अमर राज” (1946) थी, जो एक धार्मिक फिल्म थी।
फिर आई “हर हर महादेव” (1950) जिसमें उन्होंने पार्वती माता की भूमिका निभाई।
उनकी इस भूमिका ने उन्हें दर्शकों के बीच देवी स्वरूपा बना दिया।
लोग उन्हें सच्चे अर्थों में “देवी माँ” मानने लगे।
सिनेमा हॉल के बाहर लोग उनकी तस्वीरों पर अगरबत्तियाँ जलाते और आशीर्वाद मांगते थे — यह लोकप्रियता अपने आप में अनोखी थी।


1950 का दशक – धार्मिक फिल्मों की रानी

1950 का दशक निरूपा रॉय के लिए धार्मिक फिल्मों का स्वर्णिम युग रहा।
उन्होंने “शिवलिंग”, “गंगा मईया”, “श्री गणेश महिमा”, “जय संतोषी माँ”, “तुलसी विवाह”, “श्री सती आनंदी”, और “हर हर महादेव” जैसी अनेक फिल्मों में देवी या भक्त की भूमिकाएँ निभाईं।
उनकी आँखों में जो आस्था और त्याग झलकता था, वह अभिनय नहीं, मानो भावनाओं का साक्षात रूप था।

इस दौर में वे त्रिलोक कपूर के साथ जोड़ी के रूप में सबसे अधिक प्रसिद्ध रहीं।
लोग इन्हें “देव–देवी की जोड़ी” कहने लगे थे।


‘माँ’ के किरदारों की ओर बदलाव

1960 के दशक के मध्य में, जब धार्मिक फिल्मों का दौर थोड़ा कम हुआ, तो निरूपा रॉय ने सामाजिक और पारिवारिक फिल्मों की ओर रुख किया।
यहाँ उन्होंने एक नए रूप में खुद को स्थापित किया — ‘माँ’ के रूप में।
उनका चेहरा मातृत्व, त्याग, संवेदना और संघर्ष की प्रतिमूर्ति बन गया।

फिल्म “छलिया” (1960) में राज कपूर के साथ, “देवदास” (1955) में पारो की माँ के रूप में, और फिर “दीवार” (1975) में अमिताभ बच्चन की माँ के रूप में उन्होंने मातृत्व को एक नई ऊँचाई दी।


‘दीवार’ – माँ के चरित्र का अमर रूप

1975 में आई फिल्म “दीवार” ने निरूपा रॉय को माँ के किरदारों की रानी बना दिया।
फिल्म में उनका संवाद —
“मेरे पास माँ है” —
भारतीय सिनेमा के इतिहास का सबसे प्रसिद्ध संवाद बन गया।

उन्होंने वीरू और विजय जैसे बेटों के बीच भावनात्मक पुल का काम किया।
उनकी करुणा और त्याग की शक्ति ने इस किरदार को अविस्मरणीय बना दिया।
उसके बाद तो मानो हर निर्माता के लिए निरूपा रॉय “आदर्श माँ” बन गईं।


अमिताभ बच्चन की ऑन-स्क्रीन माँ

1970 और 1980 के दशक में निरूपा रॉय और अमिताभ बच्चन की जोड़ी को सिनेमा का सबसे भावनात्मक रिश्ता माना गया।
उन्होंने “दीवार”, “अमर अकबर एंथनी”, “सुहाग”, “मर्द”, “नमक हलाल”, “कूली”, और “लावारिस” जैसी कई सुपरहिट फिल्मों में माँ-बेटे की जोड़ी निभाई।

इन फिल्मों में उनकी भूमिका केवल भावुक माँ की नहीं थी, बल्कि वह सामाजिक न्याय, नैतिकता और आत्मबल की प्रतीक थीं।
संवेदनशील अभिनय शैली

निरूपा रॉय के अभिनय की सबसे बड़ी विशेषता थी संवेदनशीलता और संयम।
वे कभी ओवरएक्ट नहीं करती थीं।
उनकी आँखों की नमी और चेहरे की शांति संवादों से अधिक असर डालती थी।
उनके अभिनय में सच्चे जीवन का दर्द झलकता था — मानो वे खुद उन घटनाओं को जी रही हों।

उनकी आवाज़ में करुणा, और चेहरे पर स्नेह की छवि, दर्शकों को भावनात्मक रूप से बाँध लेती थी।
यही कारण था कि दर्शक उन्हें अपनी माँ जैसा मानने लगे।


निरूपा रॉय – महिला सशक्तिकरण की प्रतीक

हालाँकि उन्हें “माँ” के किरदारों के लिए जाना गया, लेकिन वे हमेशा महिला सशक्तिकरण की पक्षधर थीं।
उनके संवाद अक्सर यह संदेश देते थे कि औरत केवल त्याग की मूर्ति नहीं, बल्कि साहस और आत्मबल की प्रतिमूर्ति है।

फिल्म “सुहाग” में जब वे बेटों से कहती हैं —

“इंसान की पहचान उसके कर्म से होती है, वंश से नहीं” —
तो यह संवाद समाज के उस दौर में भी समानता और नैतिकता का संदेश देता है।


सम्मान और पुरस्कार

निरूपा रॉय को उनके योगदान के लिए अनेक पुरस्कार मिले —

फिल्मफेयर अवॉर्ड – सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री

“गूंज उठी शहनाई” (1959)

“छाया” (1961)

“शराफत” (1970)

फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड (1998)

उन्हें भारतीय सिनेमा की सबसे प्रतिष्ठित माँ के रूप में भी सम्मानित किया गया।

उनके नाम पर गुजरात फिल्म संघ ने विशेष सम्मान “माँ रॉय स्मृति पुरस्कार” की शुरुआत की थी।


निजी जीवन और परिवार

निरूपा रॉय के पति कमल रॉय व्यवसायी थे और उन्होंने हमेशा अपनी पत्नी के करियर में सहयोग दिया।
उनके दो पुत्र हुए — योगेश और किरण रॉय।
निरूपा रॉय अपने परिवार से बेहद जुड़ी हुई थीं।
वे पर्दे पर जितनी भावनात्मक दिखती थीं, निजी जीवन में उतनी ही दृढ़ और व्यावहारिक थीं।


निधन और विरासत

13 अक्टूबर 2004 को मुंबई में दिल का दौरा पड़ने से निरूपा रॉय का निधन हो गया।
उनके निधन के साथ भारतीय सिनेमा की माँ चिरनिद्रा में सो गई, पर उनका प्रभाव अमर रहा।

आज भी जब कोई फिल्म में माँ के किरदार की बात करता है, तो सबसे पहले निरूपा रॉय का चेहरा सामने आता है।
उनकी अदाकारी ने “माँ” को सिर्फ एक पात्र नहीं, बल्कि एक भावना बना दिया।


निष्कर्ष

निरूपा रॉय का जीवन भारतीय सिनेमा में स्त्री की उस छवि का प्रतीक है जिसने अपनी शक्ति, संवेदना और त्याग से लाखों दिलों को छुआ।
उन्होंने सिनेमा को आस्था, मातृत्व और भावनाओं का ऐसा रंग दिया जो आज तक फीका नहीं पड़ा।

वे केवल पर्दे की माँ नहीं थीं — वे भारतीय समाज की सामूहिक चेतना में बस चुकीं हैं।
उनका नाम लेते ही आँखों के सामने वह करुणा, ममता और आशीर्वाद भरा चेहरा उभर आता है जो हर माँ में बसता है।
निरूपा रॉय सचमुच भारतीय सिनेमा की माँ थीं — और रहेंगी।

भारतीय सिनेमा के युगपुरुष −अभिनेता अशोक कुमार (मुनी दा) –

0

भारतीय फिल्म उद्योग के स्वर्णिम इतिहास में जिन नामों को सदैव आदरपूर्वक याद किया जाएगा, उनमें अशोक कुमार का नाम सबसे ऊपर आता है। वह केवल एक अभिनेता नहीं, बल्कि भारतीय सिनेमा के परिवर्तन के प्रतीक थे — वह युग जब अभिनय नाटकीयता से निकलकर यथार्थ की धरती पर उतर आया। प्रेम, वेदना, विनम्रता और परिपक्वता का अद्भुत संगम उनके व्यक्तित्व में झलकता था। उन्हें प्यार से ‘दादा मनी’ कहा जाता था, और उन्होंने हिंदी फिल्मों में अभिनय की शैली को एक नई दिशा दी।


प्रारंभिक जीवन

अशोक कुमार का जन्म 13 अक्टूबर 1911 को भागलपुर (अब बिहार) में हुआ था। उनका वास्तविक नाम कुमुदलाल गांगुली था। उनके पिता काला प्रसाद गांगुली वकील थे और परिवार बंगाली ब्राह्मण परंपरा से जुड़ा था। अशोक कुमार का बचपन भागलपुर में बीता, जहाँ उन्होंने बुनियादी शिक्षा प्राप्त की। बाद में वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई करने पहुंचे, लेकिन उनका झुकाव शुरू से ही कला और अभिनय की ओर था।

उन्होंने प्रारंभ में किसी अभिनेता के रूप में नहीं, बल्कि बॉम्बे टॉकीज स्टूडियो में लैब असिस्टेंट के रूप में काम शुरू किया। फिल्मों में उनकी एंट्री एक संयोग की तरह हुई। उस समय के प्रसिद्ध अभिनेता नवीन यशवंत अचानक शूटिंग के दौरान अनुपस्थित हो गए, और स्टूडियो ने अशोक कुमार को मुख्य भूमिका निभाने का मौका दे दिया। यही संयोग भारतीय सिनेमा को उसका पहला “सुपरस्टार” देने वाला क्षण बन गया।


फिल्मी करियर की शुरुआत

अशोक कुमार की पहली बड़ी फिल्म “जीवन नैया” (1936) थी, लेकिन उन्हें सच्ची पहचान मिली “अछूत कन्या” (1936) से। इस फिल्म में उन्होंने देविका रानी के साथ अभिनय किया। यह फिल्म सामाजिक मुद्दों पर आधारित थी और जातिवाद के खिलाफ एक सशक्त संदेश देती थी। इसके बाद वे बॉम्बे टॉकीज के स्थायी स्तंभ बन गए।

1930 और 1940 के दशक में अशोक कुमार ने एक के बाद एक सफल फिल्में दीं — “बंधन” (1940), “किस्मत” (1943), “झूला” (1941), “चलचल रे नौजवान” (1944) और “महल” (1949) जैसी फिल्मों ने उन्हें घर-घर में प्रसिद्ध बना दिया।
उनकी फिल्म “किस्मत” को भारतीय सिनेमा की पहली सुपरहिट ब्लॉकबस्टर कहा जाता है। इस फिल्म ने उस दौर में रिकॉर्डतोड़ कमाई की थी और इसमें उनका गाना “धन ते नन…” आज भी चर्चित है।


अभिनय शैली और योगदान

अशोक कुमार की सबसे बड़ी विशेषता थी – स्वाभाविक अभिनय। उस दौर में जब अभिनेता नाटकीय संवाद शैली में बोलते थे, अशोक कुमार ने चेहरे के भाव और सरल संवाद अदायगी से चरित्रों को जीवंत बना दिया।
उनकी आवाज़ में एक शालीनता और विश्वास झलकता था। चाहे वे प्रेमी की भूमिका निभा रहे हों या एक पिता की, उनके अभिनय में एक सहज अपनापन दिखाई देता था।

वे पहले ऐसे अभिनेता थे जिन्होंने फिल्मों में “एंटी-हीरो” की अवधारणा को प्रस्तुत किया। “किस्मत” में उन्होंने एक अपराधी का रोल निभाया जो दर्शकों को खलनायक नहीं बल्कि एक त्रासद नायक के रूप में प्रिय लगा। बाद में यह ट्रेंड भारतीय सिनेमा का स्थायी हिस्सा बन गया।


‘महल’ और रहस्य फिल्मों का दौर

1949 में रिलीज़ हुई फिल्म “महल” को अशोक कुमार के करियर का टर्निंग पॉइंट कहा जा सकता है। इसमें उनके साथ मधुबाला थीं। यह भारत की पहली सस्पेंस थ्रिलर फिल्म थी, जिसका गीत “आएगा आने वाला…” अमर हो गया।
इस फिल्म के रहस्यमय किरदार ने भारतीय सिनेमा में रहस्य और मनोवैज्ञानिक फिल्मों की नींव रखी।


निर्माता और मार्गदर्शक के रूप में योगदान

अशोक कुमार सिर्फ अभिनेता नहीं रहे, बल्कि निर्माता, निर्देशक और मार्गदर्शक की भूमिका में भी आगे आए। उन्होंने कई नई प्रतिभाओं को मौका दिया।
उन्होंने अपने छोटे भाई किशोर कुमार को फिल्म जगत में लाने में बड़ी भूमिका निभाई।
किशोर कुमार बाद में भारत के सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक और अभिनेता बने।
इसी तरह, उन्होंने अनूप कुमार और कई अन्य कलाकारों को भी प्रोत्साहित किया।

1950 और 1960 के दशक में जब नए नायक उभरने लगे, अशोक कुमार ने चरित्र भूमिकाओं में अपनी नई पहचान बनाई। फिल्मों जैसे “भाई-भाई” (1956), “चितलें चौकडी”, “आशिरवाद” (1968), “मिली” (1975) और “खूबसूरत” (1980) में उनके अभिनय ने उन्हें नए युग का “सीनियर हीरो” बना दिया।


‘आशीर्वाद’ – अभिनय का शिखर

1968 में आई फिल्म “आशीर्वाद” अशोक कुमार के जीवन की सबसे यादगार फिल्म रही।
इस फिल्म में उन्होंने एक ऐसे पिता की भूमिका निभाई जो अपने बच्चे के लिए समाज से लड़ता है।
उनका संवाद “रेल की पटरी पर खड़ा एक आदमी…” और प्रसिद्ध बालगीत “रेल गाड़ी रेल गाड़ी…” आज भी लोगों की स्मृतियों में है।
इस फिल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया।


टेलीविजन युग में भी सक्रियता

1980 के दशक में जब दूरदर्शन का दौर शुरू हुआ, तो अशोक कुमार ने टीवी पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
उनका धारावाहिक “हमलोग” भारतीय टीवी इतिहास का पहला बड़ा पारिवारिक ड्रामा था।
इसमें उनकी भूमिका एक वाचक (Narrator) की थी, जो हर एपिसोड में जीवन के मूल्यों और संघर्षों पर विचार प्रस्तुत करते थे।
उनकी वाणी में वह गहराई थी जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती थी।

मैडम और मार्केट

0

व्यंग्य

बाजार तो बाजार है। बेजार नहीं। वह दिल से ज्यादा नब्ज पर हाथ रखता है। ग्राहक के कदम रखते ही वह सब भांप जाता है। कभी अकेले शॉप में जाएं। मुरझाए चेहरे। कुछ भी ले लो। कोई उत्साह नहीं। मरे मन से सेल्स बॉय चीज दिखाएगा। आदमी अलट पलट करके देखेगा। समझ में कुछ आयेगा नहीं। फिर सेल्स बॉय से कहेगा..भाई जो अच्छा हो। आप ही दे दो। मुश्किल बीबी के आइटम में आती है। पास में बैठी “बहन जी” की मदद लेनी पड़ती है। “जी, मिसेज के लिए साड़ी लेनी है। क्या आप मदद करेंगी?”
वह भी चतुर हैं। वह बारीकी नज़रों से पहले ही भांप चुकी थी..हमको कुछ समझ नहीं आ रही है। खैर, हमारे प्रश्न पर उनका जवाब मिला.. “श्योर “।” मैं लेती तो ये लेती”( जैसे हम उनको दिलवा रहे हों)। अब उनकी पसंद का तो पता नहीं। वैसे ये ले जाइए। शायद पसंद आ जाए। वरना आप चेंज कर लीजिए। हर लेडीज की पसंद अलग होती है। “
सेल्स बॉय ने मौका ताड़ा। भाईसाहब दो ले जाइए। कोई न कोई पसंद आ ही जाएगी। एक बहन जी की पसंद की ले लें। एक मेरी पसंद की ( वो जान गया था, हम तो उल्लू हैं)। “भैया। तुम्हारी पसंद की क्यों? अपनी क्यों नहीं। “

बहरहाल, घर पर आए। बीबी ने डिब्बा खोला। “अरे, वाह। तुम तो मेरे लिए साड़ी लाए हो।” पहला डिब्बा सेल्स बॉय की पसंद वाला था। वो देखा। फिर किनारे रख दिया। दूसरा डिब्बे का दिल धुक धुक हो रहा था..खुल जा सिम सिम। डिब्बा खुला..”ये तुम लाए हो? ये तुम्हारी पसंद तो लगती नहीं? किस से पसंद करवाई?”
पोल खुल गई। सच बताना पड़ा। “वही तो”। मैं तो देखते ही समझ गई थी। जान पहचान की थी?” अरे नहीं। बगल में बैठी थी। उसी से पूछ लिया। “साड़ी तो ठीक है। सुंदर है। लेकिन अब मैं साड़ी कहां पहनती हूं? इस कलर की तो कई हैं। वैसे भी मैं तो अब सूट पहनती हूं।”
दुकानदार कह रहा था..”पसंद न आए तो बदल लेना..मैने कहा।”
ठीक है। अभी चलते हैं ( महिलाएं बाजार जाने को कभी मना नहीं करतीं। बाजार उनसे है। वो बाजार से)। हम दोनों दुकान पर पहुंचे। वो महिला अभी तक वहीं जमी हुई थी। या तो साड़ी पसंद नहीं आई। या हमारा इंतजार कर रही थी।
हमने परिचय कराया..” आपके लिए इन्होंने ही पसंद की थी ..”। दोनों ने बुझे मन से एक दूसरे को नजरों से हेलो कहा। दोनों अपने काम में लग गई। वाइफ ने पचास साड़ी में से 8 चॉयस में निकाली। फिर सबको रिजेक्ट किया। जो हम लेकर गए थे। वही घर में आ गई। साथ में दो सूट और।
कनखियों से उस महिला ने हमको देखा। नजरों से थंब किया। देखी, हमारी पसंद !

महिला प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर ही बाजारों में एक्सचेंज ऑफर निकलता है। जीएसटी अपने आप उछलता रहता है। स्लैब की यहां जरूरत नहीं। महिलाओं के लिए कोई दुकान नई नहीं। प्रायः हर दुकान पर लक्ष्मी जी के चरण कमल पड़ चुके होते हैं। 800 या 1000 करोड़ का बिजनेस यूं ही नहीं हो जाता। वो भी अकेले करवा चौथ पर।

पूरे बाजार पर महिलाओं या बच्चों का कब्जा है। उदाहरण देखिए…गारमेंट्स, ज्वेलरी,कॉस्मेटिक,ब्यूटी पार्लर और राशन की दुकानें। इनकी अनगिनत रेंज है। एक ही लेन में पांच ज्वेलर्स। 20 साड़ी या गारमेंट्स के शो रूम। चार पार्लर। पांच परचून की दुकान। तीन जगह पानी के बताशे। बाकी में लेडीज शूज।

शेष 10 प्रतिशत में बच्चे। 2 % में पुरुषों की थकी हुई जींस। टी शर्ट। सूट। या हाथ की घड़ी। कोई रेंज नहीं। नो एक्सचेंज ऑफर। उसमें भी लेडीज चॉइस..” ये ले लो। यही ठीक लगेगी।” जैसे जैसे महिलाएं आगे बढ़ रही हैं। बाजार भी बढ़ रहा है। विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था से हमको कौन रोकेगा? जीडीपी में इससे बड़ा योगदान क्या होगा ? वह गृह लक्ष्मी हैं। राज लक्ष्मी हैं। धन लक्ष्मी हैं।

सूर्यकांत

“गुरुहीन स्कूल, अधूरा भविष्य-  शिक्षा व्यवस्था पर संकट की दस्तक”

0

हरियाणा के सरकारी स्कूलों में 12,000 से अधिक शिक्षक पद रिक्त हैं, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता बुरी तरह प्रभावित हो रही है। नूंह जैसे जिलों में एक शिक्षक पर 100 से अधिक बच्चों का बोझ है। सरकार की धीमी भर्ती प्रक्रिया और असमान पदस्थापन इस संकट को गहरा कर रहे हैं। शिक्षा नीति 2020 के अनुसार हर बच्चे को समान व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अधिकार है। इसके लिए सरकार को त्वरित, पारदर्शी और स्थायी भर्ती नीति लागू करनी चाहिए ताकि हर कक्षा में शिक्षक और हर बच्चे के जीवन में ज्ञान का उजाला हो।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

हरियाणा की शिक्षा व्यवस्था इस समय एक गहरे संकट से गुजर रही है। सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी ने न केवल पढ़ाई की गुणवत्ता को प्रभावित किया है, बल्कि बच्चों के भविष्य पर भी गंभीर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है। हाल ही में आई रिपोर्टों के अनुसार प्रदेश में 12,000 से अधिक शिक्षक पद रिक्त हैं। यह संख्या केवल एक प्रशासनिक आँकड़ा नहीं, बल्कि उन हजारों बच्चों की उम्मीदों का प्रतीक है जो अपने जीवन की दिशा तय करने के लिए इन स्कूलों पर निर्भर हैं। स्थिति इतनी भयावह है कि कुछ जिलों में एक-एक शिक्षक पर 100 से अधिक बच्चों की जिम्मेदारी आ चुकी है।

हरियाणा जैसे शिक्षित और विकसित राज्य में यह स्थिति बेहद चिंताजनक है। एक ओर सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के लक्ष्य पूरे करने की बात करती है, वहीं दूसरी ओर स्कूलों में ब्लैकबोर्ड तक खाली हैं। शिक्षक समाज की नींव होते हैं, वे केवल पढ़ाई नहीं कराते बल्कि बच्चों के व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। जब इन स्कूलों में गुरुजी ही न हों, तो बच्चों का मनोबल, सीखने की क्षमता और भविष्य सभी खतरे में पड़ जाते हैं।

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि राज्य के विभिन्न विभागों में शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया वर्षों से अधर में लटकी हुई है। बार-बार घोषणाएँ होती हैं, पदों का विज्ञापन निकलता है, लेकिन या तो चयन प्रक्रिया धीमी रहती है या फिर नियुक्तियाँ समय पर नहीं हो पातीं। नतीजा यह है कि हजारों स्कूल ऐसे हैं जहाँ या तो एक ही शिक्षक पूरी जिम्मेदारी उठा रहा है, या फिर अस्थायी आधार पर ‘गेस्ट टीचर’ व्यवस्था से काम चलाया जा रहा है। यह स्थिति बच्चों के हित में नहीं है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि एक शिक्षक पर अधिकतम 30-35 विद्यार्थियों से अधिक का बोझ नहीं होना चाहिए। ऐसा इसलिए ताकि शिक्षक व्यक्तिगत ध्यान दे सकें और सीखने की प्रक्रिया को सार्थक बनाया जा सके। मगर नूंह, पलवल, महेंद्रगढ़ जैसे जिलों में यह अनुपात 1:100 तक पहुँच गया है। यह केवल एक शैक्षणिक समस्या नहीं बल्कि सामाजिक असमानता की कहानी भी कहता है। क्योंकि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे वही हैं जिनके माता-पिता निजी शिक्षा का खर्च नहीं उठा सकते। इस वर्ग के लिए सरकारी स्कूल ही एकमात्र आशा हैं, और जब इन स्कूलों की दशा ऐसी हो जाए, तो समाज का भविष्य ही संकट में पड़ जाता है।

सरकार ने वर्ष 2024 में 14,295 नए पदों पर भर्ती की घोषणा की थी। लेकिन जिस गति से प्रक्रिया आगे बढ़ रही है, उसे देखकर लगता है कि यह लक्ष्य 2025 के अंत तक भी पूरा नहीं हो पाएगा। शिक्षकों की भर्ती के लिए लंबी प्रक्रिया, कोर्ट के केस, दस्तावेज़ी जाँच, रिजर्वेशन विवाद, और विभागीय सुस्ती — सब मिलकर स्थिति को और जटिल बना रहे हैं। वहीं दूसरी ओर, जो शिक्षक सेवानिवृत्त हो रहे हैं, उनकी जगह तुरंत नई नियुक्ति नहीं की जा रही। इसका अर्थ यह हुआ कि रिक्तियों की संख्या समय के साथ बढ़ती ही जा रही है।

हरियाणा के कुछ जिलों में हालात इतने खराब हैं कि स्कूलों में एक ही शिक्षक हिंदी, गणित, विज्ञान, सामाजिक अध्ययन सब कुछ पढ़ा रहा है। नतीजतन, बच्चों की समझ कमजोर होती जा रही है। शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षा में पास करवाना नहीं बल्कि सोचने, समझने और समाज में योगदान देने की क्षमता विकसित करना होता है। लेकिन ऐसी परिस्थितियों में बच्चों को केवल औपचारिक शिक्षा मिल रही है, वास्तविक ज्ञान नहीं।

शिक्षक केवल एक नौकरी नहीं, बल्कि समाज के विकास की रीढ़ हैं। उनके बिना कोई भी नीति, कोई भी योजना सफल नहीं हो सकती। शिक्षक का होना ही विद्यालय की आत्मा का होना है। जब शिक्षकों की कमी होती है, तो स्कूल भवन तो रह जाते हैं, लेकिन शिक्षा का सार कहीं खो जाता है।

सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या लगातार घट रही है क्योंकि अभिभावक अब निजी स्कूलों की ओर झुक रहे हैं। लेकिन निजी स्कूल हर वर्ग के लिए सुलभ नहीं। ग्रामीण इलाकों में तो कई बार सरकारी स्कूल ही शिक्षा का एकमात्र माध्यम हैं। जब यहाँ संसाधन नहीं, शिक्षक नहीं और सुविधाएँ नहीं, तो शिक्षा केवल एक दिखावा बनकर रह जाती है।

राज्य सरकार ने कई बार दावा किया है कि शिक्षकों की भर्ती जल्द पूरी की जाएगी, लेकिन जमीनी स्तर पर बदलाव न के बराबर है। शिक्षा विभाग की फाइलें कार्यालयों में घूमती रहती हैं जबकि स्कूलों में बच्चे बिना पढ़ाई के दिन बिताते हैं। शिक्षा के इस संकट को दूर करने के लिए केवल घोषणाएँ काफी नहीं होंगी, बल्कि ठोस कार्ययोजना बनानी होगी।

सबसे पहले तो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि हर विद्यालय में विषयवार पर्याप्त संख्या में शिक्षक हों। साथ ही, जो पद लंबे समय से रिक्त हैं, उन्हें अस्थायी नहीं बल्कि स्थायी भर्ती के माध्यम से भरा जाए। गेस्ट टीचर व्यवस्था एक अस्थायी उपाय थी, लेकिन अब यह स्थायी समाधान बन गई है, जो कि शिक्षा की गुणवत्ता के लिए नुकसानदायक है।

दूसरा, शिक्षकों के स्थानांतरण और पदस्थापन में पारदर्शिता लाई जाए। कई बार होता यह है कि कुछ स्कूलों में शिक्षक अधिक होते हैं जबकि कुछ स्कूलों में एक भी नहीं। यह असमान वितरण भी एक बड़ी समस्या है। डिजिटल तकनीक की मदद से इस स्थिति को संतुलित किया जा सकता है।

तीसरा, शिक्षकों के प्रशिक्षण पर विशेष ध्यान देना चाहिए। जो शिक्षक सेवा में हैं, उन्हें समय-समय पर नई शिक्षण तकनीकों और पद्धतियों का प्रशिक्षण मिले ताकि वे बच्चों को आधुनिक शिक्षा प्रणाली से जोड़ सकें।

सरकार को यह समझना होगा कि शिक्षा खर्च नहीं बल्कि निवेश है। जब राज्य शिक्षा पर ध्यान देता है, तभी उसका सामाजिक और आर्थिक विकास संभव होता है। यदि बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिलेगी, तो आने वाले वर्षों में यह कमी देश की उत्पादकता, नवाचार और सामाजिक सद्भाव पर सीधा असर डालेगी।

हरियाणा ने कई क्षेत्रों में प्रगति की है — उद्योग, खेल, कृषि और प्रशासन में राज्य की पहचान बनी है। लेकिन शिक्षा में यह कमी उस छवि को धूमिल कर रही है। हर बच्चा तभी सक्षम नागरिक बनेगा जब उसे बचपन से उचित मार्गदर्शन और शिक्षा मिलेगी। स्कूलों में शिक्षकों की कमी केवल एक प्रशासनिक गलती नहीं बल्कि एक नैतिक जिम्मेदारी का उल्लंघन भी है।

शिक्षक ही वह कड़ी हैं जो समाज और ज्ञान को जोड़ती है। जिस दिन हम इस कड़ी को कमजोर कर देंगे, उसी दिन समाज में अंधकार फैलने लगेगा। बच्चे जब बिना शिक्षक के स्कूल जाते हैं, तो यह केवल एक शैक्षणिक विफलता नहीं बल्कि राष्ट्र की असफलता भी है।

अब समय आ गया है कि सरकार शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दे। केवल भवन बनाना, स्मार्ट क्लास लगाना या किताबें बांटना पर्याप्त नहीं है। इन सबका अर्थ तभी है जब हर कक्षा में शिक्षक खड़ा हो, बच्चों की आँखों में सवाल हों और उन सवालों के जवाब देने वाला कोई गुरु मौजूद हो।

शिक्षा के प्रति लापरवाही का सबसे बड़ा नुकसान आने वाली पीढ़ी भुगतेगी। एक शिक्षक की अनुपस्थिति का अर्थ है सैकड़ों बच्चों की क्षमता का अधूरा रह जाना। इसीलिए यह केवल एक विभागीय मसला नहीं, बल्कि समाज का प्रश्न है।

यदि हरियाणा को वास्तव में ‘शिक्षा राज्य’ बनाना है तो सबसे पहले शिक्षकों की कमी को दूर करना होगा। सरकार को चाहिए कि वह भर्ती प्रक्रिया को पारदर्शी, त्वरित और निष्पक्ष बनाए। साथ ही, शिक्षकों को उनके योगदान के अनुरूप सम्मान और प्रोत्साहन मिले।

हरियाणा के शिक्षा मंत्री से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों तक सभी को इस मुद्दे की गंभीरता को समझना चाहिए। यदि शिक्षा पर निवेश नहीं किया गया, तो भविष्य में यह सबसे बड़ी सामाजिक चुनौती बन जाएगी। स्कूलों में ब्लैकबोर्ड खाली हैं, लेकिन इससे भी ज्यादा खाली हैं बच्चों के सपने, जो शिक्षक के बिना अधूरे हैं। 

शिक्षक केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि समाज के विचारों, संस्कारों और भविष्य का निर्माणकर्ता है। हरियाणा में शिक्षकों की कमी ने यह साबित कर दिया है कि शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ कमजोर हो चुकी है। अब जरूरत है कि सरकार और समाज दोनों मिलकर इस दिशा में ठोस कदम उठाएं। हर बच्चे का अधिकार है कि उसे शिक्षित किया जाए, और यह अधिकार तभी पूरा होगा जब हर स्कूल में शिक्षक मौजूद हो।

– डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

अहोई अष्टमी व्रत : मातृत्व की ममता और संतान की दीर्घायु का पर्व

0

तिथि: 13 अक्टूबर 2025, सोमवार

अष्टमी तिथि प्रारंभ: 13 अक्टूबर सुबह 9:15 बजे

अष्टमी तिथि समाप्त: 14 अक्टूबर सुबह 7:10 बजे

तारा दर्शन मुहूर्त (व्रत खोलने का समय): शाम 6:45 बजे से 7:15 बजे तक (स्थानीय समय अनुसार)

योग: रवि योग, शिव योग, परिधि योग

नक्षत्र: पुनर्वसु नक्षत्र

व्रत उद्देश्य: संतान की दीर्घायु, सुख-समृद्धि और उत्तम स्वास्थ्य की कामना हेतु। 

 अहोई माता का व्रत मातृत्व और संतान के पवित्र बंधन का प्रतीक है। यह व्रत माताओं की श्रद्धा, विश्वास और निस्वार्थ प्रेम का प्रतीक बनकर पीढ़ियों से परिवार की सुख-शांति और समृद्धि का आधार माना जाता है।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

भारतीय संस्कृति में व्रत और त्योहार केवल पूजा-पाठ के माध्यम नहीं हैं, बल्कि यह जीवन के आदर्शों, भावनाओं और संबंधों की गहराई को दर्शाते हैं। इन्हीं में से एक है अहोई अष्टमी व्रत, जो मातृत्व की भावना से जुड़ा एक अत्यंत पवित्र पर्व है। यह व्रत माताएँ अपने बच्चों की लंबी उम्र, अच्छे स्वास्थ्य और सुख-समृद्धि की कामना के लिए रखती हैं। यह पर्व माँ के त्याग, स्नेह और श्रद्धा का अद्भुत प्रतीक है।

कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को अहोई अष्टमी का व्रत किया जाता है। यह पर्व करवा चौथ के ठीक चार दिन बाद और दीपावली से सात दिन पहले आता है। वर्ष 2025 में अहोई अष्टमी 13 अक्टूबर, सोमवार को मनाई जाएगी। इस दिन आद्रा और पुनर्वसु नक्षत्र, बव करण, परिधि योग तथा शिव योग जैसे शुभ संयोग बन रहे हैं। इस शुभ मुहूर्त में अहोई माता की पूजा और व्रत विशेष फलदायी मानी जाती है।

अहोई अष्टमी व्रत का उद्देश्य संतान की दीर्घायु, सुख और सुरक्षा के लिए माँ द्वारा किया गया एक निस्वार्थ संकल्प है। इस दिन माताएँ निर्जला उपवास रखती हैं और रात्रि में तारा दर्शन के बाद ही व्रत खोलती हैं। यह व्रत नारी के समर्पण और आस्था की मिसाल है। प्राचीन समय में इसे केवल पुत्र की लंबी आयु के लिए रखा जाता था, परंतु अब यह सभी बच्चों—पुत्र-पुत्री दोनों—के कल्याण हेतु किया जाता है।

किंवदंती के अनुसार, बहुत समय पहले एक साहूकार दंपति रहता था। उनकी सात संतानें थीं। दीपावली के दिनों में घर की सजावट हेतु साहूकार की पत्नी जंगल में मिट्टी लेने गई। जब वह मिट्टी खोद रही थी, तब उसके फावड़े से अनजाने में एक साही (साही के बच्चे) को चोट लग गई और उसकी मृत्यु हो गई। यह देखकर वह बहुत दुखी हुई। कुछ समय बाद उसके सातों पुत्रों की मृत्यु हो गई। वह शोक में डूबी रहने लगी और सोचने लगी कि यह सब उसके पाप का परिणाम है। एक दिन उसने अपनी व्यथा एक साधु को सुनाई। साधु ने कहा कि तुमने अनजाने में पाप किया है, इसलिए अहोई माता की पूजा और व्रत करो, वे तुम्हें क्षमा करेंगी और तुम्हारे पुत्रों की रक्षा करेंगी। उसने सच्चे मन से अहोई माता का व्रत किया। उसकी श्रद्धा और पश्चाताप से प्रसन्न होकर अहोई माता ने उसके सभी पुत्रों को जीवनदान दिया। तभी से यह व्रत मातृत्व, क्षमा और करुणा का प्रतीक बन गया।

अहोई अष्टमी के दिन प्रातःकाल स्नान के बाद माताएँ संकल्प लेती हैं कि वे दिनभर व्रत रखकर अपने बच्चों की मंगलकामना करेंगी। इस दिन निर्जला उपवास रखना श्रेष्ठ माना गया है, परंतु कुछ महिलाएँ फलाहार कर सकती हैं। शाम के समय पूजा की तैयारी की जाती है। दीवार पर या कागज पर अहोई माता का चित्र बनाया जाता है। चित्र में अहोई माता, साही माता और सात पुत्रों के प्रतीकात्मक चित्र होते हैं। साथ में सात तारे या बिंदु बनाए जाते हैं, जो सात संतान या सात पीढ़ियों का प्रतीक माने जाते हैं। पूजा की थाली में कलश, जल का लोटा, दूध, रोली, चावल, हलवा, पूड़ी, मिठाई और चांदी की अहोई रखी जाती है।

संध्या के समय जब तारा उदय होने लगता है, तब दीप जलाकर माता अहोई की पूजा की जाती है। कथा सुनी जाती है और अहोई माता से प्रार्थना की जाती है कि जैसे आपने साहूकारनी के पुत्रों को जीवनदान दिया था, वैसे ही मेरे बच्चों की रक्षा करें। पूजा के बाद माताएँ आकाश में तारे को देखती हैं, उसे जल अर्पित करती हैं और उसी क्षण व्रत खोलती हैं। कई जगह माताएँ यह व्रत चाँद निकलने पर भी खोलती हैं, किंतु पारंपरिक रूप से तारा दर्शन का महत्व सबसे अधिक माना गया है।

“अहोई” शब्द का अर्थ ही है—“अहो” यानी गलती और “ई” यानी क्षमा। अहोई माता वह देवी हैं जो अनजाने में हुए पापों को क्षमा करती हैं और अपने भक्तों के जीवन से संकट दूर करती हैं। उन्हें माता पार्वती का ही एक स्वरूप माना गया है। इस दिन पार्वती जी के साथ भगवान शिव की पूजा भी विशेष रूप से शुभ मानी जाती है। शिववास योग होने पर पूजा का प्रभाव और भी बढ़ जाता है।

अहोई अष्टमी का व्रत केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि यह समाज में स्त्री की भूमिका, उसकी संवेदनशीलता और त्याग को उजागर करता है। यह पर्व मातृत्व के उस रूप को सामने लाता है, जो न केवल सृजन करती है बल्कि संरक्षण भी करती है। इस व्रत में माँ यह संकल्प लेती है कि वह अपने बच्चों की रक्षा और उन्नति के लिए हर तप, हर त्याग करने को तैयार है। यही भावना भारतीय संस्कृति में नारी को पूजनीय बनाती है।

आज के आधुनिक युग में भी अहोई अष्टमी का महत्व कम नहीं हुआ है। शहरों और व्यस्त जीवनशैली के बावजूद महिलाएँ इस दिन उपवास रखती हैं, ऑनलाइन कथा सुनती हैं और डिजिटल रूप में भी पूजा करती हैं। भले ही माध्यम बदल गए हों, परंतु भावना वही है—माँ की निस्वार्थ ममता और अपने बच्चों के सुख की कामना। यह परंपरा यह भी सिखाती है कि संस्कृति समय के साथ बदलती है, पर उसकी जड़ें आस्था और संबंधों में ही रहती हैं।

अहोई अष्टमी का एक पर्यावरणीय संदेश भी है। कथा में वर्णित साही एक वन्य जीव है, जो भूमि और जंगल की उर्वरता में सहायक होता है। इस कथा के माध्यम से यह संदेश मिलता है कि प्रकृति और जीवों के प्रति दया और करुणा रखना मानव का धर्म है। अनजाने में भी किसी जीव को कष्ट देना पाप माना गया है। इस दृष्टि से अहोई अष्टमी केवल संतान की पूजा नहीं, बल्कि जीवों के प्रति करुणा और प्रकृति के प्रति सम्मान का भी पर्व है।

यह व्रत परिवार के भीतर एकता, स्नेह और सामाजिक जुड़ाव का भी माध्यम है। माताएँ एक साथ बैठकर कथा सुनती हैं, पूजा करती हैं, और अपनी अनुभूतियाँ साझा करती हैं। इससे न केवल पारिवारिक बंधन मजबूत होते हैं बल्कि पीढ़ियों तक संस्कारों का प्रवाह बना रहता है। छोटे बच्चे भी इस दिन अपनी माँ को पूजा करते देखते हैं और उनके मन में आस्था के बीज पड़ते हैं।

अहोई अष्टमी जीवन के उस भाव को भी अभिव्यक्त करती है जिसमें गलती करने के बाद पश्चाताप और सुधार का मार्ग खुला रहता है। यह पर्व हमें सिखाता है कि यदि किसी ने अनजाने में कोई भूल कर दी हो, तो सच्चे मन से पश्चाताप और ईश्वर की प्रार्थना करने से क्षमा प्राप्त की जा सकती है। यह क्षमा की भावना समाज को मानवीय और संवेदनशील बनाती है।

भारतीय परंपराओं में हर त्योहार के पीछे एक गहरा सामाजिक और आध्यात्मिक संदेश छिपा होता है। अहोई अष्टमी भी यही सिखाती है कि सच्चा धर्म केवल पूजा-पाठ में नहीं, बल्कि प्रेम, क्षमा और करुणा में निहित है। जब माँ अपनी संतानों के लिए तारा देखकर व्रत खोलती है, तब वह केवल अपने बच्चों की नहीं, बल्कि पूरे परिवार की मंगलकामना करती है। यह व्रत जीवन में संयम, श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक है।

अंततः अहोई अष्टमी भारतीय नारी की उस शक्ति को नमन है जो सृजन करती है, पोषण करती है और रक्षा भी करती है। यह पर्व मातृत्व की पवित्रता का उत्सव है। जिस समाज में माँ का आदर किया जाता है, वहाँ सदैव शुभता और समृद्धि बनी रहती है। अहोई अष्टमी की यह परंपरा हमें याद दिलाती है कि माँ केवल जननी नहीं, बल्कि एक देवी स्वरूप है जिसकी ममता से ही संसार चलता है।

अहोई माता का आशीर्वाद सभी संतानों पर बना रहे। सभी माताओं को अहोई अष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ। 🙏🌸

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

अफगानिस्तान के विदेश मंत्री का भारत दौरा: विश्व की राजनीति पर प्रभाव

0


​अफगानिस्तान की तालिबान-शासित सरकार के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी का हालिया भारत दौरा क्षेत्रीय कूटनीति और वैश्विक भू-राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण घटना है। अगस्त 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद किसी वरिष्ठ तालिबान नेता की यह पहली उच्च-स्तरीय यात्रा थी। भले ही भारत ने अभी तक तालिबान सरकार को औपचारिक मान्यता नहीं दी है, लेकिन यह दौरा दोनों देशों के बीच व्यावहारिक जुड़ाव और दशकों पुरानी दुश्मनी को समाप्त करने की दिशा में एक अहम कूटनीतिक क्षण माना जा रहा है।
​इस दौरे के निहितार्थ केवल भारत-अफगानिस्तान संबंधों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इसका असर विश्व की राजनीति, विशेषकर क्षेत्रीय शक्ति संतुलन और आतंकवाद-विरोधी प्रयासों पर भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

मुत्ताकी का भारत दौरा क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को प्रभावित करने वाला एक बड़ा कदम है। ​भारत ने तालिबान के सत्ता में आने के बावजूद अफगानिस्तान में मानवीय सहायता जारी रखी है और काबुल में अपने ‘तकनीकी मिशन’ को अब ‘पूर्ण दूतावास’ के स्तर पर अपग्रेड करने की घोषणा की है, साथ ही तालिबान को नई दिल्ली स्थित अफगान दूतावास में अपने राजनयिक नियुक्त करने की भी अनुमति दी है। यह कदम भारत की अफगानिस्तान नीति में बड़े बदलाव का संकेत है। भारत अफगानिस्तान में अपने सुरक्षा हितों (खासतौर पर भारत विरोधी आतंकवादी समूहों की सक्रियता) और विकास परियोजनाओं (लगभग $3 बिलियन से अधिक का निवेश) को सुरक्षित करने के लिए पर्दे के पीछे से तालिबान के साथ संपर्क बनाए हुए है। यह दौरा संबंधों को और मजबूत करने का संकेत है।

यह दौरा क्षेत्रीय शक्ति संतुलन, खासकर पाकिस्तान के लिए, कई सवाल खड़े करता है। पाकिस्तान की हमेशा से यह इच्छा रही है कि अफगानिस्तान की विदेश नीति पर उसका प्रभाव रहे, विशेषकर भारत के मामलों में। तालिबान और भारत के बीच बढ़ती नजदीकी से पाकिस्तान में चिंताएं बढ़ी हैं। तालिबान के विदेश मंत्री ने भारत को आतंकवाद के खिलाफ अफगानिस्तान की ज़मीन का उपयोग न होने देने की प्रतिबद्धता दोहराई है, जिसका सीधा निहितार्थ पाकिस्तान स्थित आतंकवादी समूहों के लिए चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है। इसके अलावा, भारत चाबहार बंदरगाह के माध्यम से अफगानिस्तान के साथ व्यापार बढ़ाना चाहता है, जो पाकिस्तान को दरकिनार करता है। इससे पाकिस्तान पर भू-राजनीतिक दबाव बढ़ सकता है।

दौरे के दौरान व्यापार, अर्थव्यवस्था, हवाई संपर्क बढ़ाने और निवेश के अवसरों पर चर्चा हुई। अफगानिस्तान ने भारतीय कंपनियों को अपने खनन क्षेत्र में अवसरों की खोज करने के लिए आमंत्रित किया। भारत की ओर से चाबहार बंदरगाह के माध्यम से व्यापारिक संपर्क बढ़ाने की पहल क्षेत्रीय कनेक्टिविटी और व्यापार के लिए महत्वपूर्ण है। यह अफगानिस्तान की आर्थिक स्थिरता में भारत की सकारात्मक भूमिका को भी रेखांकित करता है।

इस दौरे का असर सिर्फ क्षेत्रीय ताकतों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह बड़ी शक्तियों के बीच कूटनीतिक समीकरणों को भी प्रभावित करता है।भारत का यह उच्च-स्तरीय जुड़ाव तालिबान सरकार के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैधता हासिल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। दुनिया के कई देश अभी भी तालिबान को औपचारिक रूप से मान्यता देने से हिचक रहे हैं, लेकिन भारत जैसे महत्वपूर्ण देश का व्यावहारिक जुड़ाव अन्य देशों को भी तालिबान के साथ संबंध सामान्य बनाने के लिए प्रेरित कर सकता है। यह तालिबान के लिए एक बड़ी कूटनीतिक जीत है।

भारत और अफगानिस्तान दोनों ने सभी प्रकार के आतंकवाद से निपटने के लिए समन्वित प्रयास करने पर सहमति व्यक्त की है। अफगानिस्तान ने दोहराया है कि उसकी ज़मीन का उपयोग किसी भी देश के खिलाफ कोई आतंकवादी गतिविधि चलाने के लिए नहीं किया जाएगा। यह आश्वासन वैश्विक समुदाय के लिए महत्वपूर्ण है, जो अफगानिस्तान को फिर से आतंकवाद का केंद्र बनने से रोकने के लिए चिंतित है। यह कदम भविष्य में वैश्विक आतंकवाद-विरोधी प्रयासों की दिशा को भी प्रभावित कर सकता है।

यह दौरा ऐसे समय में हुआ है जब ईरान कमजोर हुआ है, रूस यूक्रेन युद्ध में व्यस्त है, और अमेरिका का रुख अस्थिर बना हुआ है। चीन पहले से ही तालिबान के साथ राजनयिक संबंध मजबूत कर रहा है। भारत का यह कदम क्षेत्रीय शक्ति चीन के बढ़ते प्रभाव को प्रतिसंतुलित करने की दिशा में भी देखा जा सकता है, जिससे एशियाई भू-राजनीति में एक नई रणनीतिक प्रतिस्पर्धा की शुरुआत हो सकती है। भारत की यह सक्रियता क्षेत्र में किसी भी एक बड़ी शक्ति के पूर्ण दबदबे को रोकने में महत्वपूर्ण हो सकती है।

​अफगानिस्तान के विदेश मंत्री का भारत दौरा दोनों देशों के बीच संबंधों के सामान्यीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। यह न केवल भारत के सुरक्षा और आर्थिक हितों को साधने के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि क्षेत्रीय शक्ति संतुलन और वैश्विक आतंकवाद-विरोधी प्रयासों की दिशा को भी प्रभावित करता है। यह दौरा क्षेत्रीय कूटनीति में भारत की व्यावहारिक नीति और बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य को दर्शाता है, जिसमें भारत अब अफगानिस्तान के साथ मिलकर एक स्थिर और सुरक्षित भविष्य की दिशा में आगे बढ़ना चाहता है, भले ही औपचारिक मान्यता का प्रश्न अभी भी लंबित हो।

हुजूर! दीपक जल गया..?

0

व्यंग्य

“हुजूर दीपक जल गया..! ‘

कैसे जल गया? कितना जला?

“हुजूर। पूरा जल गया। मर गया।”

थानेदार: तूने क्यों आग लगाई?

“सर, पूरी दुनिया लगा रही थी। मैने भी लगा दी।”

थानेदार: उसकी फोटो दे?

“किसकी हुजूर?”

थानेदार: दीपक की। फोन नंबर बता।

“सर। वो तो मर गया। उसके तो बहुत साथी मरे हैं। “

थानेदार: होश फाख्ता। थाना क्षेत्र में इतना बड़ा कांड हो गया। पता भी नहीं लगा।

तभी मोबाइल की घंटी बजी।

“तुम्हारे इलाके में कोई दीपक मरा है?”

जी बॉस। अभी रपट लिख रहा हूं। सर, वो बता रहा है, उसके और भी साथी मरे हैं।

फोन कट।

देखते ही देखते, थाने में सायरन बजने लगे। एक दो तीन चार। अफसरों की फौज आ गई। कैसे हो गया? क्यों हो गया? दीपक ने क्यों आग लगाई? खुद आग लगाई तो औरों ने क्यों लगाई? कोई प्रेम प्रसंग का तो मामला नहीं? कहीं अवैध संबंध तो नहीं? आग लगा ली। मगर दिवाली पर क्यों लगाई। त्यौहार खराब कर दिया।

तफ्तीश शुरू हुई। जांच टीमें आ गई। सूंघ कर बताने वाले भी आ गए। सबको जले हुए की बू आ रही थी। यानी कन्फर्म था। कोई जला है। पीड़ित हिरासत में था। उकड़ू बैठा था। घुटनों पर सिर लगाए। उसको पता था..थोड़ी देर में उसके नाम की पट्टी आगे लगनी है।

“तभी एक आवाज आई। उसको लाओ।”

“तुमने क्या देखा..?”

जी। वो जल रहा था।

“तुमने बचाया क्यों नहीं?”

बचाता कैसे? वो बुझ गया।

“उसके ऊपर कम्बल डाल देते?”

वो कहां से लाता। गर्मी है अभी।

“उसके साथ कितने जले होंगे? कोई आइडिया?”

कह नहीं सकता हुजूर। बहुत जले होंगे।

“वाई द वे। यह आग लगी या लगाई गई?”

“सर। लगाई गई। लोग सज धज कर आए। और जला गए। दीपक मर गया। ( ऑ उं उं)”

यह तय हो गया। बड़ी घटना हुई है। मामला खुदकुशी का ही ठीक है। जलाने से हत्या की धारा लग लाएगी। बदनामी होगी। लोग नपेंगे। तभी एक्स चीखने लगा। ब्रेकिंग। दीपक जल कर मर गया। पुलिस सोती रही। दिवाली पर दिल दहला देने वाली घटना। टीवी चैनल पर कल्चर से एग्रीकल्चर पर बोलने वाले एक्सपर्ट आ गए…” निःसंदेह। इसमें कोई बड़ी साजिश है। सरकार को बदनाम करने की कोशिश हो सकती है। “

द्वितीय एक्सपर्ट -” हमको पहले ही लगता था। इस चैनल के माध्यम से मैने कहा भी था। यही नीतियां रहीं तो कभी भी कुछ भी हो सकता है। यह असंतोष है। “

थोड़ी देर में खबर फ्लैश हुई। मास्टरमाइंड पकड़ा गया। उकड़ू बैठे “दीपक” के आगे तख्ती लगी थी। खबरें चीख रही थीं..घटना के 24 घंटे के अंदर कातिल गिरफ्तार। लापरवाही पर इंस्पेक्टर सहित चार सस्पेंड।

सीन दो

पोस्टमार्टम होना था। चार्जशीट लगनी थी। कातिल पकड़ा गया। मगर आला कत्ल? वो अभी नहीं था। हम रख भी देते। लेकिन बॉडी रिकवर तो होनी चाहिए? पुलिस मौके पर पहुंची। कुछ नहीं था वहां। दीपक जल चुका था। उसका जला शव ठिकाने लग चुका था। लोग दिवाली मना रहे थे। किसी ने नहीं कहा- रोशनी देकर चला गया। सवाल कायम था। दीपक जला। मगर कौन सा? शायद यह जांच आयोग पता लगाए! मिट्टी तो दोनों दीपक को होना है। क्या फर्क पड़ता है, कौन सा जला?

सूर्यकांत