बृहस्पतिवार को राष्ट्रीय राजधानी के सर्राफा बाजार में सोने की कीमत 100 रुपये बढ़कर 1,13,100 रुपये प्रति 10 ग्राम के अबतक के नए उच्चतम स्तर पर पहुंच गईं। अखिल भारतीय सर्राफा संघ ने यह जानकारी दी।वहीं चांदी की कीमत 500 रुपये टूटकर 1,28,000 रुपये प्रति किलोग्राम (सभी करों सहित) पर आ गई। पिछले कारोबारी सत्र में सफेद धातु 1,28,500 रुपये प्रति किलोग्राम पर रही थी। इस साल सोने की कीमतों में तेजी बनी हुई है!
सोना 31 दिसंबर, 2024 को 78,950 रुपये प्रति 10 ग्राम पर था। अबतक इसमें 34,150 रुपये यानी 43.25 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है। 99.5 प्रतिशत शुद्धता वाले सोने की कीमत भी 100 रुपये बढ़कर 1,12,600 रुपये प्रति 10 ग्राम (सभी करों सहित) के नए रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई।
पीएल कैपिटल के सीईओ (खुदरा ब्रोकिंग एवं वितरण) और निदेशक संदीप रायचुरा के अनुसार, सोने के लिए यह एक शानदार वर्ष रहा है…। यह उछाल केंद्रीय बैंकों की भारी खरीदारी, एक्सचेंज-ट्रेडेड फंडों में मजबूत निवेश, दरों में कई कटौती की उम्मीद और शुल्क से जुड़े लगातार वैश्विक तनावों के कारण हुआ है।’’ऑग्मोंट की शोध प्रमुख रेनिशा चैनानी ने कहा, ‘‘मुद्रास्फीति की चिंता, बढ़ता सार्वजनिक ऋण और अमेरिकी वृद्धि की गति कम होने जैसे बाजार जोखिम बढ़ने के कारण सोने की कीमतें सर्वकालिक उच्च स्तर पर पहुंच गई हैं। एक्सचेंज-ट्रेडेड फंड (ईटीएफ) का प्रवाह, विशेष रूप से एशिया में, सोने की कीमतों की तेजी के लिए एक महत्वपूर्ण कारक रहा है।’’
मथुरा के श्री बांके बिहारी मंदिर में अब वीआईपी दर्शन की व्यवस्था समाप्त कर दी गई है। अब मंदिर में वीआईपी पर्ची से दर्शन की व्यवस्था समाप्त हो चुकी है। अब से आम श्रद्धालुओं और वीआईपी एक लाइन में लगकर दर्शन करेंगे। इसके साथ ही दर्शन का समय बढ़ाने का निर्णय लिया गया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति ने गुरुवार को हुई बैठक में ये फैसला लिया ग है। इस फैसले से अब वीआईपी कल्चर पूरी तरह समाप्त हो जाएगा और सभी का समान अवसर प्राप्त होंगे।
अब गर्मी के मौसम में भक्तों को तीन घंटे से ज्यादा ठाकुरजी को दर्शन के लिए मिलेगा। सर्दियों के मौसम में ढाई घंटे से ज्यादा का समय ठाकुरजी के दर्शन के लिए मिलेंगे।
– बांके बिहारी मंदिर में अब प्रवेश और निकासी के अलग रास्ते हैं। पुलिस तीन दिन में इस नए आदेश का क्रियान्वयनसुनिश्चित करेगी । मंदिर में अभी तक सुरक्षा निजी गार्डों के जिम्मे थी, लेकिन अब पूर्व सैनिकों या किसी नामचीन सिक्योरिटी एजेंसी को इसकी जिम्मेदारी सौंपी जाएगी। वही, मंदिर भवन व मंदिर परिसर की मजबूती और संरचना की जांच के लिए आईआईटी रुड़की की टीम से स्ट्रक्चरल ऑडिट कराने का निर्णय लिया गया था।
बांके बिहारी मंदिर में बड़े बदलाव किए गए हैं। अब बांके बिहारी जी के दर्शन लाइव स्ट्रीमिंग के जरिए होंगे। हर श्रद्धालु को ठाकुर जी का आशीर्वाद पहुंचाया जाएगा।
पंजाब में सुरक्षा बलों ने शस्त्रोंं का बड़ा जखीरा बरामद किया है। बरामद शस्त्रों में 16 पिस्तौल, 38 मैगज़ीन, 1,847 कारतूस और एक मोटर साइकिल शामिल है। गिरफ़्तार किए जाने वालों की पहचान फाज़िल्का के निवासियों के रूप में हुई है।
सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) और अपराध जाँच एजेंसी (सीआईए) ने पंजाब के फाजिल्का जिले में देर रात एक अभियान में हथियारों और गोला-बारूद का एक बड़ा जखीरा जब्त किया। अधिकारियों ने कहा कि ये पाकिस्तान समर्थित आतंकियों की तस्करी का प्रयास है। छापेमारी में दो संदिग्ध तस्करों को गिरफ्तार किया गया। अधिकारियों के अनुसार, बीएसएफ द्वारा सीआईए फाजिल्का के साथ मिलकर मिली खुफिया जानकारी के आधार पर थेह कलंदर गाँव में यह संयुक्त अभियान चलाया गया। टीमों ने 16 पिस्तौल, 38 मैगज़ीन, 1,847 ज़िंदा कारतूस और एक मोटरसाइकिल बरामद की। गिरफ़्तार किए गए लोगों की पहचान फाज़िल्का के झोक दीपुलाना और महातम नगर गाँवों के निवासियों के रूप में हुई है।
बीएसएफ ने कहा कि खुफिया जानकारी से सीमा पार तस्करी की कोशिश का संकेत मिला था। इसके चलते यह छापेमारी योजनाबद्ध तरीके से की गई। अधिकारियों ने इस ज़ब्ती को एक बड़ी कामयाबी बताया। कहा कि इससे पाकिस्तान से जुड़ी एक बड़ी न-आतंकवादी साजिश को झटका लगा है और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक संभावित ख़तरा टल गया है।
प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा वर्ष 2024–25 के लिए मंत्रिपरिषद के सदस्यों की संपत्ति का विवरण जारी किया गया है। पहली नज़र में यह सूची केवल आभूषण, ज़मीन, गाड़ियाँ और निवेशों का ब्योरा लगती है, लेकिन गहराई से देखने पर यह भारतीय राजनीति की मानसिकता, सामाजिक प्रतीकवाद और सत्ता की शैली का आईना बन जाती है। सबसे पहले ध्यान आकर्षित करता है जयंत चौधरी का क्रिप्टो निवेश। वह अकेले मंत्री हैं जिन्होंने डिजिटल संपत्ति घोषित की है। उन्होंने करीब 43 लाख रुपये के बिटकॉइन जैसे निवेश किये हैं। यह उस समय में खास महत्व रखता है जब भारत में क्रिप्टो अब भी कानूनी अनिश्चितता में है और RBI लगातार इससे जुड़े जोखिमों की चेतावनी देता रहा है। यह खुलासा दिखाता है कि नए दौर का नेतृत्व जोखिम लेने और नए वित्तीय प्रयोग करने से पीछे नहीं हट रहा।
इसके विपरीत, कई मंत्रियों ने पुराने वाहन अपनी संपत्ति में शामिल किए हैं। नितिन गडकरी की 31 साल पुरानी एम्बेसडर कार, विरेंद्र कुमार का 37 साल पुराना स्कूटर और रवनीत बिट्टू की 1997 मॉडल की मारुति, ये सब केवल धातु के ढाँचे नहीं, बल्कि एक राजनीतिक संदेश हैं। जनता को यह बताना कि नेता अब भी ‘साधारण’ हैं, विलासिता से दूर हैं और परंपरा को सँजोए हुए हैं। लेकिन इस सादगी के बीच एक और पैटर्न साफ़ झलकता है— हथियारों की मौजूदगी। रिवॉल्वर, पिस्तौल और राइफल घोषित करने वाले मंत्री कम नहीं हैं। यह उस सामाजिक और राजनीतिक संस्कृति को दर्शाता है जहाँ ताक़त का प्रदर्शन और व्यक्तिगत सुरक्षा सत्ता के साथ कदमताल करती है।
सबसे बड़ा हिस्सा, अपेक्षा के अनुसार सोने और आभूषणों का है। राव इंदरजीत सिंह के पास 1.2 करोड़ रुपये से अधिक का सोना और हीरे हैं। नितिन गडकरी व एल. मुरुगन के पास भी लाखों के आभूषण हैं। देखा जाये तो भारतीय समाज में आभूषण सदियों से आर्थिक सुरक्षा और सामाजिक प्रतिष्ठा दोनों का प्रतीक रहे हैं, मंत्रियों की संपत्ति भी इस परंपरा को दोहराती है।
मोदी सरकार में महिला मंत्रियों की बात करें तो वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पास 27 लाख से अधिक के आभूषण, म्यूचुअल फंड में 19 लाख से ज्यादा और एक दोपहिया वाहन है। वहीं केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री अन्नपूर्णा देवी के पास भी रिवॉल्वर, राइफल, ट्रैक्टर और लगभग ₹एक करोड़ का म्यूचुअल फंड में निवेश हैं। महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री सावित्री ठाकुर के पास डबल बैरल गन और रिवॉल्वर तथा 67 लाख से ज्यादा के सोने के आभूषण हैं।
देखा जाये तो इन संपत्तियों का सार्वजनिक खुलासा लोकतंत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही की कसौटी है। यह जनता को भरोसा दिलाने का प्रयास भी है कि नेता अपनी आर्थिक स्थिति छिपा नहीं रहे। लेकिन इन घोषणाओं का एक दूसरा पहलू भी है कि संपत्ति अब केवल निजी स्वामित्व नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रतीक बन गई है।
बहरहाल, मोदी सरकार के मंत्रियों की घोषित संपत्तियाँ केवल रकम और वस्तुओं का हिसाब नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति की बदलती शैली का दस्तावेज़ हैं। यह दस्तावेज़ बताता है कि सत्ता में बैठे लोग जनता को साधारण, शक्तिशाली, पारंपरिक और आधुनिक, सभी रूपों में संदेश देना चाहते हैं। सवाल यह है कि क्या ये संदेश वास्तविक जीवन की सच्चाई हैं या केवल राजनीतिक छवि गढ़ने का प्रयास?
पिछले 17 दिनों से स्थगित श्री माता वैष्णो देवी यात्रा अब फिर शुरू होने वाली है। श्राइन बोर्ड ने ऐलान किया है कि श्री माता वैष्णो देवी की यात्रा 14 सितंबर यानी रविवार से एक बार फिर शुरू की जाएगी। श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड ने बताया कि खराब मौसम की स्थिति और ट्रैक के आवश्यक रखरखाव के कारण अस्थायी निलंबन के बाद, श्री माता वैष्णो देवी की यात्रा 14 सितंबर (रविवार) से अनुकूल मौसम की स्थिति के अधीन फिर से शुरू होगी।
लंबे समय तक यात्रा स्थगित रहने से श्रद्धालुओं में निराश थे तो यात्रा पर निर्भर स्थानीय व्यवसायों को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। प्रशासन ने जनता और तीर्थयात्रियों से धैर्य बनाए रखने और अगली सूचना तक मंदिर की ओर अनावश्यक यात्रा से बचने की अपील की थी। 26 अगस्त को हुए भूस्खलन के बाद वैष्णो देवी यात्रा स्थगित कर दी गई थी। इसमें
भूस्खलन में 34 लोग मारे गए थे । कई घायल भी हुए थे। 26 अगस्त को आपदा दोपहर बाद लगभग तीन बजे आई। भारी बारिश के कारण कटरा से मंदिर तक 12 किलोमीटर की यात्रा के बीच में, अर्धकुंवारी में इंद्रप्रस्थ भोजनालय के पास भारी भूस्खलन हुआ।
नेपाल समेत तमाम देशों में जो आग दिखाई दे रही है, वो भारत में सिर्फ़ मणिपुर तक रह गई!
अपनी सरकार का बलिदान देकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मणिपुर मामले को जिस तरीके से हैंडल किया, वो इतिहास में दर्ज होगा। ऐसा साहस आजतक किसी ने नहीं किया। भाजपा जैसी पार्टी जो हमेशा चुनावी मोड में रहती है, उसने अपनी सरकार को हटाते तनिक भी न सोचा।
केंद्र सरकार ने एक यूनिफॉर्म कमांड की स्थापना कर सबसे पहले सेना और विभिन्न बलों में सामंजस्य स्थापित किया। हिंसा-अपराध के मामलों की जाँच के लिए सीबीआई को लगाया, सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में SIT ने जाँच की और जस्टिस गीता मित्तल पैनल के जरिए राहत-बचाव कार्यों की निगरानी की गई। सीमा पार की ताक़तें इसका फ़ायदा न उठा पाएँ, इसके लिए मणिपुर-म्यांमार सीमा की बाड़ेबंदी की गई। अपनी ही सरकार को हटाकर राष्ट्रपति शासन लगाया, ताकि सबकुछ दिल्ली से सलीके से संचालित हो। AFSPA को आगे बढ़ाकर बड़े स्तर पर हथियारों का समर्पण और आत्मसमर्पण कराया गया।
इतना ही नहीं, RSS भी लगातार शांति कायम करने के अभियान में लगा रहा। संघ ने न केवल राहत व बचाव कार्य में हाथ बँटाया, बल्कि युवाओं को उद्यमी बनाने के लिए प्रशिक्षित किया। मोमबत्ती बनाने से लेकर मशरूम की खेती तक के लिए प्रशिक्षण दिए गए। ख़ुद सरसंघचालक मोहन भागवत ने स्थानीय समूहों से बातचीत के लिए अपनी संघ परिवार की यूनिट्स को लगाया। कई शिविर स्थापित किए गए।
मई-जून 2023 में ख़ुद अमित शाह राज्य में पहुँचे थे। धीरे-धीरे करके इंटरनेट भी आंशिक रूप से बहाल कर दिया गया। अभी भी 300 के क़रीब शिविर चल रहे हैं और केंद्र सरकार सबकुछ देख रही है। अब ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मणिपुर जाने वाले हैं और कुकी-जो काउंसिल उनके दौरे का स्वागत कर रहा है। सब सब कुछ ठीक होने वाला है।
इधर विपक्ष हंगामा करता रहा, उधर सरकार और संघ पर्दे के पीछे से मैराथन कार्य करते रहे। इस तरह विदेशी तत्वों और चर्च द्वारा भड़काई गई इस हिंसा को नासूर बनने से पहले और देशभर में फैलने से पहले ही थाम लिया गया।
“शिक्षा सुधार का अधूरा सपना या केवल राजनीतिक नारा?”
−−−−−−−−−−−−−−−−−
सरकार ने घोषणा की थी कि इस वर्ष तबादले अप्रैल में होंगे, किंतु सितंबर तक भी प्रक्रिया शुरू नहीं हुई। यह देरी न केवल शिक्षकों के साथ वादाख़िलाफ़ी है, बल्कि छात्रों की पढ़ाई और विद्यालयों के संचालन पर भी सीधा आघात है। हरियाणा सरकार की “ड्रीम पॉलिसी” का उद्देश्य था शिक्षक तबादलों में पारदर्शिता और निष्पक्षता लाना। शुरुआत में इसे क्रांतिकारी कदम माना गया, लेकिन अब बार-बार शेड्यूल में देरी, तकनीकी पेचीदगियों और राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण यह विवादों में घिर गई है। शिक्षक संगठनों का कहना है कि सरकार ने केवल औपचारिकताएँ थोपकर वादाख़िलाफ़ी की है। इसका असर सीधे शिक्षा व्यवस्था और छात्रों की पढ़ाई पर पड़ रहा है। यदि शीघ्र ठोस कार्रवाई न हुई तो यह नीति उपलब्धि न बनकर सरकार की विफलता का प्रतीक बन जाएगी।
-डॉ. सत्यवान सौरभ
हरियाणा सरकार ने शिक्षा व्यवस्था को अधिक पारदर्शी और सुचारु बनाने के उद्देश्य से कुछ वर्ष पूर्व शिक्षक तबादलों के लिए ऑनलाइन प्रणाली लागू की थी, जिसे बड़े गर्व से “ड्रीम पॉलिसी” का नाम दिया गया। इस नीति को लागू करने का तात्पर्य यह था कि अब शिक्षकों के तबादले केवल वरिष्ठता, मेरिट और प्राथमिकताओं के आधार पर होंगे, न कि सिफ़ारिश या दबाव से। आरंभ में इसे एक क्रांतिकारी कदम माना गया। किंतु बीते वर्षों में इस नीति की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगने लगे हैं। सरकार ने घोषणा की थी कि इस वर्ष तबादले अप्रैल में होंगे, किंतु सितंबर तक भी प्रक्रिया शुरू नहीं हुई। यह देरी न केवल शिक्षकों के साथ वादाख़िलाफ़ी है, बल्कि छात्रों की पढ़ाई और विद्यालयों के संचालन पर भी सीधा आघात है।
−−−−−−−−
शिक्षा केवल विद्यालय भवन या पाठ्यपुस्तकों पर निर्भर नहीं करती; उसकी वास्तविक धुरी शिक्षक ही हैं। हरियाणा जैसे राज्य में, जहाँ ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में शिक्षा की गुणवत्ता में स्पष्ट असमानता है, वहाँ शिक्षकों की उचित तैनाती अत्यंत आवश्यक हो जाती है। ग्रामीण अंचलों के विद्यालय अक्सर योग्य और अनुभवी शिक्षकों से वंचित रहते हैं, जबकि शहरी विद्यालयों में अपेक्षाकृत अधिक संख्या में शिक्षक तैनात मिलते हैं। ऐसी परिस्थिति में तबादला नीति मात्र प्रशासनिक प्रक्रिया न होकर शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने का एक सशक्त साधन बन जाती है।
सरकार ने दावा किया था कि ड्रीम पॉलिसी से भ्रष्टाचार और पक्षपात का अंत होगा। परंतु, वास्तविकता यह है कि नीति का क्रियान्वयन अनेक समस्याओं से ग्रस्त रहा है। शिक्षकों को बार-बार एमआईएस अपडेट कराने के निर्देश दिए गए, जिनमें व्यक्तिगत विवरणों से लेकर मोबाइल नंबर तक शामिल रहे। दोहराई जाने वाली इन औपचारिकताओं ने असंतोष को जन्म दिया और तकनीकी त्रुटियों व डेटा की ग़लतियों ने पारदर्शिता के दावे पर प्रश्न खड़े किए। इसके साथ ही सबसे गंभीर शिकायत यह रही कि समय पर ट्रांसफर शेड्यूल जारी नहीं किया गया। इस देरी के कारण न केवल शिक्षकों के निजी जीवन पर प्रभाव पड़ा, बल्कि विद्यालयों की शैक्षणिक गतिविधियाँ भी बाधित हुईं। भले ही प्रक्रिया को पूर्णतः ऑनलाइन बताया गया, परंतु शिक्षकों का आरोप है कि आज भी रसूख और सिफ़ारिशों का असर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
हाल ही में कैथल में हुई बैठक में शिक्षक संगठनों ने स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दी कि यदि शीघ्र ही ट्रांसफर शेड्यूल जारी नहीं किया गया तो सरकार की ड्रीम पॉलिसी स्वयं सरकार के लिए ही बदनामी का कारण बन जाएगी। उनका कहना है कि सरकार ने उन्हें अनावश्यक औपचारिकताओं में उलझा रखा है। मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री कई बार आश्वासन दे चुके हैं, किंतु अब तक वादे पूरे नहीं हुए। शिक्षा विभाग इस प्रक्रिया को जानबूझकर लंबित रखता है। यह असंतोष केवल तबादलों तक सीमित न रहकर सरकार की नीयत और वादाख़िलाफ़ी पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है।
यदि कोई यह मान ले कि यह विवाद केवल शिक्षकों के हितों तक सीमित है, तो यह गंभीर भूल होगी। अनेक विद्यालय रिक्तियों से जूझते हैं और छात्रों की पढ़ाई प्रतिकूल रूप से प्रभावित होती है। बार-बार के विलंब और वादाख़िलाफ़ी से शिक्षकों का मनोबल टूटता है। असंतुष्ट शिक्षक शिक्षा की गुणवत्ता में अपेक्षित योगदान नहीं दे पाते। जब स्वयं शिक्षक ही नीति पर भरोसा न करें तो समाज और विद्यार्थियों का विश्वास स्वतः डगमगा जाता है।
हरियाणा की राजनीति में शिक्षा सदा ही प्रमुख विषय रही है। सरकारें शिक्षा सुधार के दावे करती रही हैं, किंतु शिक्षक भर्ती, तबादला और पदस्थापन सबसे विवादित मुद्दे बने रहे हैं। ड्रीम पॉलिसी का विवाद अब राजनीतिक रंग लेने लगा है। विपक्ष इसे सरकार की नाकामी बताते हुए जनता के बीच उभारने की तैयारी में है। यदि यह असंतोष बढ़ा तो आगामी चुनावों में यह मुद्दा सरकार के लिए भारी पड़ सकता है।
सरकार के पास अभी अवसर है कि वह इस नीति को वास्तव में “ड्रीम पॉलिसी” बनाए। इसके लिए ट्रांसफर प्रक्रिया का स्पष्ट कैलेंडर बनाना और उसका पालन करना आवश्यक है। एमआईएस और अन्य ऑनलाइन तंत्र को अधिक सरल व विश्वसनीय बनाना होगा। प्रक्रिया को पूर्णतः स्वचालित और मेरिट-आधारित बनाया जाए तथा शिक्षकों के संगठनों से नियमित संवाद स्थापित किया जाए। निर्णय प्रक्रिया जितनी पारदर्शी होगी, उतना ही विश्वास बहाल होगा।
हरियाणा की ड्रीम पॉलिसी का उद्देश्य प्रशंसनीय था, किंतु इसके क्रियान्वयन में गंभीर कमियाँ सामने आई हैं। यदि सरकार ने इन्हें शीघ्र दूर नहीं किया तो यह नीति सरकार की उपलब्धि न बनकर उसकी विफलता का प्रतीक सिद्ध होगी। शिक्षा किसी भी समाज की आधारशिला है और शिक्षक उसकी नींव। यदि शिक्षक ही असंतुष्ट और उपेक्षित रहेंगे, तो शिक्षा सुधार का सपना अधूरा रह जाएगा। अतः आवश्यक है कि सरकार वादों से आगे बढ़कर वास्तविक कार्रवाई करे, ताकि हरियाणा की ड्रीम पॉलिसी सचमुच “सपनों की नीति” सिद्ध हो सके, न कि केवल एक राजनीतिक नारा।
बाल मुकुन्द ओझा यूनिसेफ की एक ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक बच्चों और युवाओं को अब कुपोषण के स्थान पर मोटापा ने जकड़ लिया है, जिसके दुष्परिणामों से पूरी दुनिया चिंतित है। यूनिसेफ ने अपनी 2020 से 2022 तक की एक रिपोर्ट जारी करते हुए बताया कि मोटापा ने कुपोषण को पीछे छोड़ दिया है। कम वज़न का स्थान मोटापा ने ले लिया है। मोटापा के कारण डायबिटीज, ह्रदय रोग और कैंसर जैसी असाध्य बीमारियों का खतरा लगातार बढ़ता ही जा रहा है। रिपोर्ट में 2035 तक मोटापे को बड़ी चुनौती बताई गई है। आज दुनियाभर में दस में से एक बच्चा या किशोर मोटापे का शिकार है। विश्व मोटापा एटलस 2024 के अनुमानों के मुताबिक 2035 तक लगभग 330 करोड़ व्यस्क मोटापे से ग्रस्त होंगे। साथ ही 5 से 19 साल की आयु सीमा के 77 करोड़ से अधिक किशोर और युवाओं को मोटापा घेर लेगा। भारत की बात करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 2022 तक सवा सात प्रतिशत से अधिक व्यस्क मोटापे की चपेट में थे। नेशनल फैमिली हेल्थ और मेडिकल पत्रिका लेसेन्ट आदि के अनेक प्रमाणिक सर्वेक्षणों में भी कहा गया है कि हमारे देश में पेट के मोटापे की समस्या सर्वाधिक है। यह समस्या महिलाओं में 40 और पुरुषों में 12 प्रतिशत पाई गई है। स्वास्थ्य के प्रति इस गंभीर खतरें को हमने समय रहते सख्ती से नहीं रोका तो यह देश में नशे से भी अधिक भयावह स्थिति उत्पन्न कर देगा और इसके जिम्मेदार केवल केवल हम ही होंगे। आयातित और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के अत्यधिक सेवन ने देश के नौनिहालों से लेकर किशोर, युवा और बुजुर्ग तक को अपने आगोश में ले लिया है। इसके फलस्वरूप देश और दुनियाभर में मोटापे की समस्या गंभीर रूप से उत्पन्न हो गई है। विशेषकर वयस्क आबादी इसकी चपेट में आ गई है। प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों को हानिकारक इसलिए माना जाता है क्योंकि इनमें स्वाद और स्वाद को बेहतर बनाने के लिए बहुत सारे कृत्रिम योजक या रसायन होते हैं। आप प्रत्येक पैकेज के पीछे लगे लेबल को पढ़कर किसी विशेष खाद्य उत्पाद को बनाने में प्रयुक्त सामग्री की पहचान कर सकते हैं। भारत की बात करे तो हमारे यहां मोटापा बड़ी समस्या बन गया है। शरीर में जब एक्स्ट्रा फैट जमा हो जाता है, तब यह मोटापे का रूप ले लेता है। यही मोटापा लोगों को कम उम्र में ही बीमारियों का मरीज बना देता है। मोटापे की बीमारी फिजिकल हेल्थ के साथ-साथ मेंटल हेल्थ पर भी असर डालती है। हमारे देश में मोटापे की समस्या हर उम्र के लोगों में फैल रही है और मोटापे के कारण ही अन्य लाइफस्टाइल से जुड़ी बीमारियों का खतरा भी बढ़ रहा है। स्वास्थ्य संगठनों और चिकित्सकों का मानना है पिछले कुछ वर्षों से आयातित और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के अत्यधिक सेवन ने देश के नौनिहालों से लेकर किशोर, युवा और बुजुर्ग तक को अपने आगोश में ले लिया है। इसके फलस्वरूप देश और दुनियाभर में मोटापे की समस्या गंभीर रूप से उत्पन्न हो गई है। विशेषकर वयस्क आबादी इसकी चपेट में आ गई है। प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों को हानिकारक इसलिए माना जाता है क्योंकि इनमें स्वाद और स्वाद को बेहतर बनाने के लिए बहुत सारे कृत्रिम योजक या रसायन होते हैं। आप प्रत्येक पैकेज के पीछे लगे लेबल को पढ़कर किसी विशेष खाद्य उत्पाद को बनाने में प्रयुक्त सामग्री की पहचान कर सकते हैं। एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, भारत एक स्वास्थ्य संकट का सामना कर रहा है। इसमें कुल रोगों का 56.4 प्रतिशत हिस्सा असंतुलित आहार के कारण है। अनहेल्दी खाने की आदतें, जिनमें नमक, चीनी और वसा से भरपूर प्रोसेस्ड फूड का सेवन शामिल है। फास्ट-फूड चेन और पैकेज्ड स्नैक्स की आसान उपलब्धता के कारण यह आदतें तेजी से बढ़ रही हैं। देश में मोटापा की बढ़ती समस्या पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चिंता जायज है। उन्होंने कहा कि आज की तारीख में बहुत से लोग मोटापा से त्रस्त हैं। मोदी ने कहा कि आंकड़े कहते हैं कि हमारे देश में मोटापे की समस्या तेजी से बढ़ रही है। मोटापे की वजह से डायबिटीज और ह्रदय रोग जैसी बीमारियों का रिस्क बढ़ रहा है। हालांकि उन्होंने ये भी कहा कि इस समस्या के बीच मुझे इस बात का भी संतोष है कि आज देश फिट इंडिया मुवमेंट के माध्यम से फिटनेस और हेल्दी लाइफस्टाइल के लिए जागरूक हो रहा है। प्रधानमंत्री ने कहा कि मोटापा दूर करने के लिए अपने खाने में अनहेल्दी फैट और तेल को थोड़ा कम करें। मोदी की टिप्स के अनुसार रोजाना थोड़ा समय निकालकर एक्सरसाइज जरूर करें।यह शरीर में जमा फैट को कम करने में मदद करेगा। रोजाना वॉक पर जाएं और वर्कआउट करें। फिजिकली एक्टिव रहने से मोटापा बढ़ने का रिस्क कम होता है। बाल मुकुन्द ओझा
क्या नई पीढ़ी बालेन शाह जैसे चेहरों के साथ जातीय ढांचे को बदल पाएगी?
1990 में लोकतंत्र की बहाली के बाद नेपाल ने अब तक 13 प्रधानमंत्री देखे। इनमें 10 पहाड़ी ब्राह्मण और 3 क्षत्रिय रहे। मधेशी, जनजातीय, दलित और महिला समुदाय से कोई भी प्रधानमंत्री नहीं बन पाया। संसद और नौकरशाही में भी इन समुदायों की भागीदारी बेहद सीमित है। नेपाल की लगभग 35 प्रतिशत आबादी मधेशियों की है, लेकिन सत्ता में उनका प्रभाव लगभग नगण्य है। इस पृष्ठभूमि में काठमांडू के मेयर बालेन शाह का उदय केवल एक राजनीतिक घटना नहीं, बल्कि जातीय असमानता के खिलाफ एक प्रतीकात्मक चुनौती है, जिसे युवा पीढ़ी खुले दिल से अपना रही है।
– डॉ. सत्यवान सौरभ
नेपाल हिमालय की गोद में बसा छोटा-सा देश है। आकार में भले छोटा हो, लेकिन राजनीति और जातीय समीकरण के लिहाज से इसकी जटिलता किसी बड़े देश से कम नहीं। नेपाल पिछले तीन दशकों से लोकतंत्र का प्रयोग कर रहा है, लेकिन सच्चाई यह है कि यह लोकतंत्र अब भी अधूरा है। सत्ता और संसाधनों पर एक ही वर्ग का कब्ज़ा है—पहाड़ी ब्राह्मण और क्षत्रिय जातियाँ। संसद से लेकर प्रशासन और सेना तक, हर जगह यही जातियाँ हावी हैं। मधेशी, जनजातीय, दलित और महिलाएँ अब भी सत्ता की सीढ़ियों के निचले पायदान पर खड़ी हैं।
1990 में नेपाल में बहुदलीय लोकतंत्र की वापसी हुई थी। जनता को उम्मीद थी कि अब सत्ता में विविधता आएगी और हर समुदाय को बराबरी का अवसर मिलेगा। लेकिन हुआ इसके ठीक उल्टा। 1990 से अब तक नेपाल ने 13 प्रधानमंत्री देखे। इनमें से 10 पहाड़ी ब्राह्मण और 3 क्षत्रिय रहे। यानी 35% मधेशियों की आबादी होने के बावजूद एक भी मधेशी प्रधानमंत्री नहीं बन पाया। जनजातीय और आदिवासी समूह संसद में मौजूद हैं, लेकिन उनके नेता केवल प्रतीकात्मक पदों तक सीमित रहे। दलित और महिलाएँ तो आज भी सत्ता के सबसे हाशिये पर खड़ी हैं। यह तस्वीर बताती है कि नेपाल का लोकतंत्र कितनी गहरी जातीय असमानता से ग्रस्त है। लोकतंत्र के नाम पर चेहरे तो बदले, लेकिन सत्ता का चरित्र वही रहा—ब्राह्मण और क्षत्रिय केंद्रित।
नेपाल की आधी से ज़्यादा आबादी 35 साल से कम उम्र की है। यही वह नई पीढ़ी है जिसे जनरेशन-Z कहा जाता है। यह सोशल मीडिया, पॉप कल्चर और वैश्विक राजनीति से जुड़ी हुई है। इनके लिए जाति और वंश की राजनीति पुरानी और अप्रासंगिक है। यह पीढ़ी पारदर्शिता चाहती है, समान अवसर चाहती है और सबसे बड़ी बात यह है कि यह बदलाव को केवल सोचती नहीं बल्कि मांग भी करती है। यही कारण है कि काठमांडू के मेयर बालेन शाह आज नेपाल के युवाओं के बीच परिवर्तन का प्रतीक बन चुके हैं।
2022 में जब बालेन शाह ने काठमांडू के मेयर का चुनाव जीता तो यह केवल एक चुनाव नहीं था, बल्कि सत्ता की पुरानी धारणाओं पर सीधी चोट थी। काठमांडू दशकों से मुख्यधारा की पार्टियों—नेपाली कांग्रेस, UML और माओवादी केंद्र—का गढ़ माना जाता था। लेकिन शाह ने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में सबको चौंका दिया। वे न तो परंपरागत राजनीति से आए थे और न ही किसी जातीय वंश से जुड़े थे। उनकी पृष्ठभूमि हिप-हॉप कलाकार और इंजीनियर की थी। वे मधेशी भी हैं और बौद्ध भी। यानी हर लिहाज से नेपाल की मुख्यधारा की राजनीति से बिल्कुल अलग। उनकी जीत ने यह संदेश दिया कि जनता अब विकल्प चाहती है। खासकर युवा पीढ़ी, जो बार-बार जातीय गणित से चलने वाली राजनीति से ऊब चुकी है।
बालेन शाह का असर केवल राजनीति तक सीमित नहीं है। वे सोशल मीडिया पर बेहद सक्रिय हैं और सीधा संवाद करने का तरीका जानते हैं। नेपाल की मौजूदा राजनीति जहाँ अभी भी भाषण और रैलियों पर निर्भर है, वहीं शाह डिजिटल युग की राजनीति कर रहे हैं। उनका संगीत, उनकी स्पष्ट बातें और उनकी स्वतंत्र छवि युवाओं को तुरंत आकर्षित करती है। यह फर्क बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि नेपाल की राजनीति में पहली बार कोई ऐसा चेहरा सामने आया है जो राजनीति को कूल बना रहा है।
लेकिन सवाल यही है कि क्या नेपाल की पुरानी सत्ता संरचना इतनी आसानी से टूट जाएगी? नेपाली कांग्रेस, UML और माओवादी जैसे दल दशकों से सत्ता पर काबिज हैं। इनके नेता ब्राह्मण और क्षत्रिय समुदाय से आते हैं और इनकी पकड़ प्रशासन, सेना और नौकरशाही तक फैली हुई है। यह पूरा ढांचा बालेन शाह जैसे किसी नेता के लिए दीवार की तरह खड़ा हो सकता है। संभावना है कि शाह को “अनुभवहीन” या “पॉपुलिस्ट” कहकर खारिज करने की कोशिश की जाएगी। उनकी स्वतंत्र पहचान पर सवाल उठाए जाएंगे। और सबसे बड़ी बात यह है कि सत्ता में बैठे लोग कभी आसानी से अपनी कुर्सी नहीं छोड़ते।
अगर नेपाल बालेन शाह जैसे नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका देता है, तो यह केवल एक व्यक्ति की जीत नहीं होगी, बल्कि ऐतिहासिक होगा। नेपाल पहली बार किसी गैर-ब्राह्मण/क्षत्रिय प्रधानमंत्री को देखेगा। यह संदेश जाएगा कि लोकतंत्र केवल नाम का नहीं बल्कि वास्तविक रूप से समावेशी है। मधेशी, जनजातीय और दलित समुदाय को यह विश्वास मिलेगा कि सत्ता में उनकी भी हिस्सेदारी है। युवाओं को लगेगा कि उनकी आवाज़ मायने रखती है।
लेकिन अगर बदलाव की इस मांग को दबाया गया, तो इसके नतीजे गंभीर होंगे। युवा पीढ़ी पहले ही अधीर है। वे सोशल मीडिया पर अपनी नाराज़गी और सपनों को साझा कर रहे हैं। अगर उनकी आवाज़ दबाई गई, तो असंतोष सड़क पर आंदोलन में बदल सकता है। नेपाल ने पहले भी जनआंदोलन देखे हैं और इतिहास गवाह है कि जब जनता चाहती है, तो कोई भी सत्ता ढांचा स्थायी नहीं रह पाता।
नेपाल आज दो राहों पर खड़ा है। एक तरफ पुरानी राजनीति है, जहाँ सत्ता कुछ जातियों के बीच बंटी हुई है। दूसरी तरफ नई राजनीति है, जो समावेशी, पारदर्शी और युवाओं से जुड़ी है। बालेन शाह इस बदलाव का प्रतीक हैं। लेकिन असली सवाल यह नहीं है कि शाह प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं। असली सवाल यह है कि क्या नेपाल जातीय ढांचे वाली राजनीति से आगे बढ़ पाएगा या नहीं।
अगर नेपाल यह कदम उठाता है, तो वह दक्षिण एशिया में एक मिसाल बन सकता है। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों में भी राजनीति अक्सर वंशवाद और जातीय समीकरण में उलझी रहती है। नेपाल अगर इस ढांचे से बाहर निकलता है, तो यह पूरे क्षेत्र के लिए प्रेरणा होगी। लेकिन अगर पुरानी सत्ता संरचना कायम रहती है, तो लोकतंत्र अधूरा ही रहेगा। युवाओं का भरोसा टूटेगा और यह भरोसा टूटना किसी भी लोकतंत्र के लिए सबसे खतरनाक स्थिति होती है।
नेपाल की राजनीति दशकों से पहाड़ी ब्राह्मण और क्षत्रिय जातियों के कब्ज़े में रही है। लोकतंत्र आया, चेहरे बदले, लेकिन चरित्र वही रहा। आज की पीढ़ी इसे चुनौती दे रही है। बालेन शाह इसका चेहरा हैं। यह पीढ़ी जाति, वंश और सत्ता के पुराने ढांचे को स्वीकार नहीं करना चाहती। नेपाल का लोकतंत्र अब एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है। या तो यह समावेशी होकर सबको बराबरी देगा, या फिर पुरानी असमानता को जारी रखेगा।
भविष्य का फैसला अब नेपाल की नई पीढ़ी के हाथ में है और उनकी मांग साफ है—अबकी बार राजनीति सबकी, सिर्फ ब्राह्मण-छत्री की नहीं।
सच्चे पुरस्कार का मूल्य उस कार्य में निहित है, जो किसी व्यक्ति ने समाज और समुदाय के लिए किया है। पुरस्कार का असली उद्देश्य किसी की व्यक्तिगत पहचान या नौकरी बढ़ाने के लिए नहीं होना चाहिए। इसके बजाय, यह उन लोगों को सम्मानित करना चाहिए, जो समाज में सार्थक बदलाव लाने में सफल रहे हैं, चाहे वह शिक्षा के क्षेत्र में हो या किसी अन्य क्षेत्र में। ऐसे पुरस्कार समाज के वास्तविक विकास और भले के लिए होना चाहिए, न कि केवल एक व्यक्तिगत सम्मान का प्रतीक।
– डॉ. प्रियंका सौरभ
शिक्षक सम्मान, जो हमेशा से समाज में एक उच्च स्थान प्राप्त है, आजकल कुछ बदलावों का सामना कर रहा है। शिक्षा के प्रति कुछ शिक्षकों का जूनून और उनका समर्पण वाकई शिक्षा की नींव को मजबूत करता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में एक नया ट्रेंड देखने को मिला है—”गैर सरकारी संगठन” द्वारा शिक्षकों को सम्मानित करने की प्रक्रिया। जहां एक ओर यह कदम सराहनीय है, वहीं दूसरी ओर इसमें पक्षपात और व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का भी असर देखा जा रहा है। विद्यालयों या महाविद्यालयों के प्रिंसिपल द्वारा नाम लेने के दौरान अक्सर यह देखा गया है कि कुछ मेहनती शिक्षकों को नजरअंदाज कर दिया जाता है, जिससे उनका मनोबल गिरता है।
आजकल “गैर सरकारी संगठन” और अन्य संस्थाएं शिक्षक सम्मान समारोहों का आयोजन करती हैं, लेकिन इन आयोजनों में पारदर्शिता की कमी साफ़ तौर पर महसूस होती है। शिक्षक का चयन कई बार पक्षपात या व्यक्तिगत निर्णयों के आधार पर किया जाता है। यह उन शिक्षकों के लिए निराशाजनक होता है, जो वर्षों से अपनी मेहनत और समर्पण से शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्टता को बढ़ावा दे रहे होते हैं, लेकिन उन्हें उचित सम्मान नहीं मिलता। ऐसे में उनका मनोबल प्रभावित हो सकता है, और यह उनके कार्यों की गुणवत्ता पर भी असर डाल सकता है।
शिक्षक-सम्मान देने वाली संस्थाओं और सरकार को इस प्रक्रिया को और अधिक पारदर्शी बनाना चाहिए। जब पुरस्कार दिए जाते हैं, तो यह जरूरी है कि प्रत्येक स्तर पर पात्रता की जांच की जाए, और यह जांच सिर्फ स्कूल या महाविद्यालय के प्रिंसिपल तक सीमित न हो। इसमें विद्यार्थियों, अभिभावकों और आसपास के निवासियों का भी योगदान होना चाहिए, क्योंकि वे ही उस शिक्षक के वास्तविक प्रभाव को समझते हैं। यह परख पूरे वर्ष भर चलनी चाहिए, ताकि चयन प्रक्रिया में कोई भी भेदभाव न हो और सभी को समान अवसर मिले।
आज के समाज में पुरस्कार और सम्मान एक प्रतिष्ठा के प्रतीक माने जाते हैं। राज्य शिक्षक पुरस्कार हो या महामहिम राष्ट्रपति द्वारा प्रदत्त राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार, इन पुरस्कारों का चयन एक निश्चित प्रक्रिया से होता है। शिक्षक को पुरस्कार प्राप्ति के लिए स्वयं आवेदन करना पड़ता है, जिसमें ऑनलाइन आवेदन, तस्वीरें, विडियो, विभागीय आख्या, पुलिस वेरिफिकेशन और इंटरव्यू जैसी प्रक्रियाएं शामिल होती हैं। इसके बावजूद, बहुत से पुरस्कार इस रूप में प्रचारित होते हैं जैसे यह केवल कार्य के कारण मिले हैं, जबकि असल में इसे प्राप्त करने के लिए कुछ शिक्षक अपनी व्यक्तिगत पहुंच और प्रभाव का सहारा लेते हैं।
वास्तव में, यह चयन प्रक्रिया इस उद्देश्य से बनाई गई थी कि पुरस्कार के लिए योग्य शिक्षक स्वयं आगे आएं, क्योंकि पहले जब अधिकारियों द्वारा चयन किया जाता था, तो निष्पक्षता या भाई-भतीजावाद का खतरा बना रहता था। लेकिन यहीं पर एक गंभीर समस्या उत्पन्न होती है। हर नियम और प्रक्रिया को बिगाड़ने वाले लोग हर क्षेत्र में होते हैं। इनकी वजह से कभी-कभी वे लोग पुरस्कार प्राप्त कर लेते हैं जो शायद उतने योग्य नहीं होते, बल्कि उनकी पहुंच और गलत तरीके से पुरस्कार प्राप्त करने की कला उन्हें सफल बना देती है। यही कारण है कि अच्छे शिक्षक भी कभी-कभी आलोचना का शिकार हो जाते हैं।
यहां पर एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि क्या सच में हमें पुरस्कार के लिए आवेदन करना चाहिए? मेरी विचारधारा से यह मेल नहीं खाता कि मैं स्वयं पुरस्कार मांगूं। पुरस्कार प्राप्त करना एक सम्मान की बात है, लेकिन क्या उसे प्राप्त करने के लिए स्वयं आगे आना सही है? एक शिक्षक का असली उद्देश्य अपनी शिक्षा और छात्रों के विकास में योगदान करना होता है, न कि अपनी नौकरी या वेतन बढ़ाने के लिए पुरस्कार प्राप्त करना।
जब हम पुरस्कारों को केवल व्यक्तिगत फायदे के रूप में देखते हैं, तो यह सवाल उठता है कि इस पुरस्कार से स्कूल, बच्चों, समाज और समुदाय को क्या फायदा होता है? क्या इसका कोई वास्तविक प्रभाव समाज में दिखता है, या यह सिर्फ एक सम्मान और पहचान का प्रतीक बनकर रह जाता है? अक्सर हम यह नहीं देख पाते कि पुरस्कार मिलने से स्कूल के बुनियादी ढांचे, विद्यार्थियों की शिक्षा, या समग्र समाज के भले के लिए कुछ ठोस बदलाव आया हो।
जहां तक पुरस्कार की बात है, मैं पुरस्कार प्राप्त शिक्षकों का पूरी तरह सम्मान करती हूं, लेकिन मेरा मानना है कि पुरस्कार का असली उद्देश्य कभी भी व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं होना चाहिए। यदि पुरस्कार के माध्यम से किसी स्कूल को बेहतर संसाधन, रास्ता, मैदान, कमरे या कोई अन्य जरूरी सुविधाएं मिल सकती हैं, तो मैं हाथ जोड़कर पुरस्कार हेतु आवेदन करूंगी, ताकि स्कूल और बच्चों का भला हो सके। लेकिन मैं किसी पुरस्कार के लिए खुद को कभी आगे नहीं बढ़ाऊंगी, यदि वह पुरस्कार केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए हो।
सच्चे पुरस्कार का मूल्य उस कार्य में निहित है, जो किसी व्यक्ति ने समाज और समुदाय के लिए किया है। पुरस्कार का असली उद्देश्य किसी की व्यक्तिगत पहचान या नौकरी बढ़ाने के लिए नहीं होना चाहिए। इसके बजाय, यह उन लोगों को सम्मानित करना चाहिए, जो समाज में सार्थक बदलाव लाने में सफल रहे हैं, चाहे वह शिक्षा के क्षेत्र में हो या किसी अन्य क्षेत्र में। ऐसे पुरस्कार समाज के वास्तविक विकास और भले के लिए होना चाहिए, न कि केवल एक व्यक्तिगत सम्मान का प्रतीक।