शक्तिदायक औषधियों का बाप है पुनर्नवा

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नर्नवा :- ऑटो इम्यून डिज़ीज़ क्रोनिक किडनी डिज़ीज़ लीवर फेलियर , कैंसर , त्वचा रोग, जोड़ों के दर्द और हृदय रोगों की शक्तिशाली उम्मीद

जो आपके शरीर को नवयौवन दे सकता है जो नया कर देता है जीवन अंगों को जो स्त्रोत है अनेकों मेडिसिनल प्रोपर्टीज माइक्रो मिनरल्स फाइटोकेमिकल्स एंटीऑक्सिडेंट और प्रोटेक्टिव गुणों का

किसी भी धातु भस्म कीड़ा जड़ी और अन्य तथाकथित शक्तिदायक औषधियों का बाप है पुनर्नवा

एक अति लाभकारी औषधीय पौधा है , जिसका वैज्ञानिक नाम बोएरहविया डिफ्यूसा है । यह आपके औषधीय गुणों के कारण , कई स्वास्थ्य समस्याओं के इलाज में उपयोग होता है ।

पुनर्नवा एक प्राकृतिक औषधीय पौधा है जो भारत , श्रीलंका और दक्षिण अमेरिका में पाया जाता है । इसका नाम संस्कृत के दो शब्दों से बना है – ” पुनः और ” नवा ” । इस शब्द का अर्थ होता है ” फिर से नया या युवा होने वाला ” । इसकी पत्तियां आगे से थोड़ी नोकदार गोल होती हैं तना लाल रंग का फूल लालिमा युक्त गुलाबी होता है तथा पुष्टि जड़े होती हैं

पुनर्नवा के अन्य नाम शोथघ्नी, विशाख, श्वेतमूला, दीर्घपत्रिका, कठिल्लक, शशिवाटिका, क्षुद्रवर्षाभू, दीर्घपत्र, चिराटिका, वर्षाङ्गी, वर्षाही, धनपत्र; हिन्दी-लाल पुनर्नवा, सांठ, गदहपुर्ना; उर्दू-बाषखीरा कन्नड़-सनाडिका गुजराती-राती साटोडी वसेडो तमिल-मुकत्तै

पुनर्नवा में इम्यूनो मॉड्यूलेशन एंटी – इन्फ्लेमेट्री , डिटॉक्सिफाइंग , डाययूरेटिक और एंटी – डायबिटिक हेपेटो प्रोटेक्टिव एंटी कार्सिनोजेनिक गुण होते हैं

इसमें मैग्नीशियम, सोडियम, कैल्शियम, पोटैशियम सहित मैक्रो खनिजों का एक मूल्यवान स्रोत होता है.

सम्पूर्ण पौधे में ही कमाल के फाइटोकेमिकल घटक होते हैं; ये हैं पुनर्नवाइन (एल्कलॉइड), बीटा सिटोस्टेरोल (फाइटोस्टेरोल), लिरियोडेंड्रिन (लिग्नांस), पुनर्नवासाइड (रोटेनोइड्स), बोअरहाविन (ज़ैंथोन्स) और पोटेशियम नाइट्रेट (लवण)। जड़ों में रोटेनोइड्सबोएरविनोन एआई, बीआई, सी2, डी, ई और एफ के अलावा नए डायहाइड्रोइसोफ्यूरेनोक्सैंथिन, एलानिन, एराकिडिक एसिड, एस्पार्टिक एसिड, बेहेनिक एसिड, बोअरहाविक एसिड, बोअरहावोन, कैम्पेस्टरोल, डौकोस्टेरोल, बीटा-एक्डीसोन, फ्लेवोन, 5-7-डायहाइड्रोक्सी-3′-4′-डाइमेथो, एक्सवाई-6-8-डाइमिथाइल, गैलेक्टोज, ग्लूटामिक एसिड, ग्लूटामाइन, ग्लिसरॉल, ग्लाइसिन, हेंट्रियाकॉन्टेन एन, हेप्टाडेसाइक्लिक एसिड, हिस्टिडीन, हाइपोक्सैंथिन-9-एल-अरबिनोफ्यूरानोसाइड, ल्यूसीन, लिरियोडेंड्रिन, मेथियोनीन, ओलिक एसिड, ऑक्सालिक एसिड, पामिटिक एसिड, प्रोलाइन, हाइड्रॉक्सिल सेरीन, सिटोस्टेरोल ओलिएट, सिटोस्टेरोल पामिटेट होते हैं।

गुर्दे हमारे शरीर से विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालने का कार्य करते हैं। लेकिन जब उनकी कार्यक्षमता प्रभावित होती है, तब कई स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न होती हैं। पुनर्नवा में मूत्रवर्धक (डाययूरेटिक) और नेफ्रो प्रोटेक्टिव गुण होते हैं, जिससे यह मूत्र विसर्जन को बढ़ावा देता है और गुर्दे की सफाई में सहायता करता है तथा नेफ्रोन्स का बचाव कर उन्हें रिपेयर करता है । इसके नियमित सेवन से किडनी फेल्योर और क्रॉनिक किडनी डिजीज (CKD) जैसी समस्याओं का समाधान हो जाता है

कम हो जाती है।

पुनर्नवा मूत्र संक्रमण के इलाज में उपयोगी है। इसमें प्राकृतिक जीवाणुरोधी और सूजनरोधी गुण होते हैं जो मूत्र में हानिकारक बैक्टीरिया को मारने में मदद करते हैं। यह पेशाब करते समय जलन को कम करता है और संक्रमण को तेजी से दूर करने में मदद करता है। नियमित रूप से देखरेख में इसका सेवन करने से बार-बार होने वाले मूत्र संक्रमण को रोकने में भी मदद मिलती है, खासकर महिलाओं और बुजुर्गों में।

पुनर्नवा का प्रयोग तनाव को दूर करने के लिए लाभप्रद माना जाता है। इसमें मौजूद पोषक तत्व मस्तिष्क स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए जाने जाते हैं। इसके अलावा पुनर्नवा में एंटी स्ट्रेस एवं एंटी डिप्रेसेंट गुण पाए जाती हैं, जो तनाव, अवसाद जैसी मानसिक समस्याओं से निपटने में सहायता करती है। इसके लिए इस पौधे की पत्तियों का काढ़ा या इसके जड़ की चूर्ण का सेवन करें। ऐसा करने से यह तनाव से छुटकारा दिलाने और अच्‍छी नीद लेने में मदद करती है।

पुनर्नवा हृदय को मजबूत बनाता है और इसकी पंपिंग क्षमता में सुधार करता है। यह द्रव अधिभार को कम करने में मदद करता है, जिससे हृदय पर दबाव कम हो सकता है। परिसंचरण में सुधार और रक्तचाप को कम करके, यह हृदय को सुचारू रूप से काम करने में सहायता करता है। शुरुआती हृदय की कमजोरी या हल्के हृदय संबंधी समस्याओं वाले लोगों को इसके उपयोग से लाभ हो सकता है।

पुनर्नवा के औषधीय पाचक गुण पाचन अग्नि को प्रज्वलित करते हैं और सुस्त पाचन तंत्र को उत्तेजित करने में मदद करते हैं यह पाचन तंत्र को खोलता और साफ करता है, अतिरिक्त पित्त और कफ को हटाने में सहायता करता है आंतों के सूक्ष्म छिद्रों को खोलता है और पोषण को ऊतकों तक पहुँचाने में बेहतरीन भूमिका निभाता है।

पुनर्नवा शरीर की वसा को तोड़ने और पचाने में मदद करता है, साथ ही पाचन तंत्र में उपस्थित अतिरिक्त तरल पदार्थों को अवशोषित करता है। यह इसे वजन घटाने में एक प्रभावी सहयोगी बनाता है, खासकर उन लोगों के लिए जो स्वाभाविक रूप से वजन बढ़ने से दुखी हैं

पुनर्नवा में मौजूद एंटीऑक्सीडेंट और एंटी-इंफ्लेमेटरी यौगिक त्वचा के लिए फायदेमंद होते हैं। यह मुंहासे, एक्जिमा और सूजन जैसी कई त्वचा संबंधी समस्याओं के इलाज में मदद करता है। पुनर्नवा के पेस्ट का नियमित इस्तेमाल या इसके जूस का सेवन करने से त्वचा साफ और स्वस्थ रहती है।

पुनर्नवा की जड़ों से प्राप्त एथिल एसीटेट अर्क में मजबूत एंटीफंगल गुण होते हैं। इसने माइक्रोस्पोरम जिप्सम, एम. फुलवम और एम. कैनिस जैसी फंगल प्रजातियों के विकास को रोकने की क्षमता दिखाई है । अर्क इन फंगस के विकास और प्रजनन में बाधा डालता है, जिससे यह एक प्रभावी एंटीफंगल के रूप में हो सकता है

पुनर्नवा की पत्तियों से प्राप्त अर्क में एंटीप्रोलिफेरेटिव और एंटीएस्ट्रोजेनिक गुण होते है जो स्तन कैंसर कोशिकाओं पर कार्य करके उन्हें नियंत्रित करते हैं तथा स्तन कैंसर को फैलने से रोकने तथा नष्ट करने में भूमिका निभाते हैं

पुनर्नवा की पत्ती और तने का अर्क एडिमा में मदद कर सकता है क्योंकि वे सूजन और जलन को शांत करने में मदद करते हैं

पुनर्नवा में प्राकृतिक आयरन होता है और यह शरीर को पोषक तत्वों को बेहतर तरीके से अवशोषित करने में मदद करता है। यह लाल रक्त कोशिका निर्माण में सहायता करता है और हल्के आयरन की कमी वाले एनीमिया वाले लोगों के लिए मददगार हो सकता है। यह थकान को कम करता है और ऊर्जा के स्तर को बढ़ाता है। जब आयरन युक्त भोजन या सप्लीमेंट के साथ इसका उपयोग किया जाता है, तो यह शरीर को स्वस्थ रक्त बनाने में मदद करता है।

यह शरीर की सूजन को कम करने में सहायक होता है, जिससे जोड़ों के दर्द और गठिया जैसी समस्याओं में आराम मिलता है।

अपने एंटीऑक्सिडेंट एंटी इंफलामेटरी गुणों के कारण यह दर्द और सूजन को कम करता है। इसलिए, यह गठिया और रुमेटीइड गठिया जैसी जोड़ों की स्थितियों के लिए सबसे उपयुक्त औषधि है। यह जोड़ों से अतिरिक्त तरल पदार्थ को निकालता है और उनकी गतिशीलता को बढ़ाता है। घुटनों जोड़ों में अकड़न सूजन या जोड़ों के दर्द से पीड़ित रोगियों दैनिक गतिविधियों में बेहतर लचीलेपन और आराम लाने के लिए इसका उपयोग निरंतर करना चाहिए

यह अतिरिक्त तरल पदार्थ को खत्म करके यूरिक एसिड के स्तर को कम करता है। यह मुख्य रूप से गठिया, जोड़ों के दर्द या यूरिक एसिड से संबंधित गुर्दे की पथरी से पीड़ित लोगों के लिए मददगार है। यह प्राकृतिक राहत प्रदान करता है और यूरिक एसिड के निर्माण को रोकता है।

पुनर्नवा अग्न्याशय को सहारा देकर और इंसुलिन संवेदनशीलता में सुधार करके स्वस्थ रक्त शर्करा के स्तर को बनाए रखने में मदद करता है। यह भोजन के बाद शर्करा के स्तर को कम करता है और मधुमेह वाले लोगों के लिए एक उपयोगी सहायता होती है। नियमित उपयोग से थकान और बार-बार पेशाब आने से भी बचा जा सकता है, जो मधुमेह के रोगियों में आम है।

पुनर्नवा अनियमित मासिक धर्म को नियंत्रित करने और मासिक धर्म के दर्द को कम करने में मदद करता है। गर्भाशय और रक्त प्रवाह पर इसकी प्राकृतिक क्रिया हार्मोन को संतुलित करने और स्वस्थ चक्र का समर्थन करने में मदद करती है। यह उन महिलाओं के लिए विशेष रूप से सहायक है जिन्हें मासिक धर्म के दौरान भारी रक्तस्राव या सूजन का सामना करना पड़ता है। हार्मोनल समस्याओं के लिए हमेशा विशेषज्ञ की सलाह के अनुसार इसका उपयोग करें।

डॉ० जयवीर सिंह

कर्नल गद्दाफी , एक तानाशाह का पतन

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जब ब्रिटेन की महारानी 50 साल तक शासन कर सकती हैं और थाइलैंड के राजा 68 सालों तक राज सकते हैं तो मैं क्यों नहीं कर सकता’… ये लीबिया के तानाशाह गद्दाफी के शब्द थे जिसने 27 साल की उम्र में तख्तापलट किया और 42 सालों तक राज किया। लीबिया में विद्रोह हुआ तो उसने अपने भाषण में यह बात कही।

उसका पूरा नाम था मुअम्मर अल गद्दाफी, लेकिन कर्नल गद्दाफी के नाम से जाना गया. 7 जून 1942 को लीबिया के सिर्ते शहर में जन्मा गद्दाफी हमेशा से अरब राष्ट्रवाद प्रभावित रहा और मिस्र के नेता गमाल अब्देल नासिर का प्रशंसक रहा।

1961 में बेनगाजी के सैन्य कॉलेज में प्रवेश लिया. सैन्य प्रशिक्षण पूरा होने के बाद लीबिया की फौज में कई बड़े पदों पर काम किया. सेना में रहते हुए कई उपलब्धियां हासिल कीं. हालांकि इस दौरान उसका तत्कालीन प्रशासक इदरीस के साथ मतभेद रहा. इसके बाद गद्दाफी ने सेना छोड़ कर उस गुट के लिए काम करना शुरू किया जो सरकार के विरुद्ध काम करता था।

गद्दाफी ने विरोधी गुट के साथ देश में तख्तापलट करने की योजना बनाई. इसके लिए वो समय चुना जब प्रशासक इदरीस तुर्की में इलाज करवा रहे थे. 1 सितंबर 1969 को विद्रोहियों के साथ मिलकर राजा इदरीस की सत्ता पर कब्जा कर किया और सेना प्रमुख की शपथ ली. पूरे देश की सेना को नियंत्रित करने का अधिकार पा लिया. इतना ही नहीं, लीबिया से मदद पा रहे अमेरिकी और ब्रिटिश सैन्य ठिकानों को बंद करने का हुक्म दिया।

उसने आदेश जारी किया कि लीबिया में काम करने वाली विदेशी कंपनियों को राजस्व का बड़ा हिस्सा देना होगा. इतना ही उसने ग्रेगोरियन कैलेंडर को बदलकर इस्लामी कैलेंडर लागू किया. शराब की ब्रिकी पर पाबंदी लगा दी।

चौंकाने वाली बात यह भी थी कि लीबिया के लोगों को यही नहीं मालूम था कि कौन पूरे तख्तापलट का मुखिया है. घटना के सातवें दिन उन्हें उस बात की जानकारी तब मिली जब गद्दाफी ने राष्ट्र के नाम अपना पहला सम्बोधन दिया. अपने भाषण में कहा, मैंने सत्ता बदल कर बदलाव और शुद्धिकरण करके आपकी मांग का जवाब दिया है. हालांकि उस दौर में ज्यादातर लोगों ने तख्तापलट का स्वागत किया।

दिसंबर 1969, यह वो साल था जब राजनीतिक विरोधियों ने गद्दाफी की सत्ता को हथियाने की कोशिश की तो उसने एक-एक करके उन सभी की हत्या करवा दी. लीबिया से पहले इटली के नागरिकों को निकाला फिर यहूदी समुदाय के लोगों को. फिर उनका विरोध करने वालों को सरेआम फांसी देना शुरू कर दिया. यहीं से विरोध की नींव पड़ी।

गद्दाफी को ताकतवर महिलाओं से विशेष लगाव था. एक बार अपना इंटरव्यू देते हुए उसने पत्रकार से कहा था कि क्या आप मेरा एक संदेश अमरीकी विदेश मंत्री मेडलीन अलब्राइट को दे सकती हैं. उसने अपने संदेश में लिखा कि मैं आपसे बहुत प्यार करता हूं, अगर आप भी मेरे लिए ऐसा ही सोचती हैं तो जब भी टीवी पर आएं हरे रंग की पोशाक पहनें. इतना ही नहीं पूर्व राष्ट्रपति बुश के दौर में विदेश मंत्री रहीं कोंडेलीसा राइस से भी उसे खास लगाव था।

गद्दाफी की नीतियां विरोधियों का दमन करने वाली थीं. यही वजह थी कि उसे कई लोग सनकी भी कहते थे. धीरे-धीरे उसने कई देशों की सरकार को प्रतिबंधित कर दिया. नतीजा लीबिया की अर्थव्यवस्था बिगड़ने लगी. कई आतंकी हमलों में लीबिया का नाम सामने आया. 1986 में वेस्ट बर्लिन डांस क्लब की बमबारी में लीबिया का नाम आने पर अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने कार्रवाई की और त्रिपोली स्थित गद्दाफी के निवास पर हमला किया.

इस तरह अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने गद्दाफी के विद्रोहियों का समर्थन किया। नाटो गठबंधन ने हवाई हमले करने शुरू किए. हमले में गद्दाफी का बेटा मारा गया. विद्रोहियों ने राजधानी त्रिपोली पर कब्जा कर लिया. जून 2011 में मामला अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय पहुंचा. यहां अत्याचार करने के लिए गद्दाफी, उसके बेटे सैफ अल इस्लाम और उसके बहनोई के खिलाफ वारंट जारी किया गया. जुलाई में दुनिया के 30 देशों ने लीबिया में विद्रोहियों की सरकार को मान्यता दे दी।

20 अक्टूबर 2011 को गद्दाफी को उसके गृहनगर सिर्ते में मार गिराया गया। हालांकि मौत कैसे हुई इस पर संशय रहा. कुछ का कहना था कि मौत नाटो के हवाई हमले में हुई है। कुछ का कहना था कि विद्रोही लड़ाकों ने मार गिराया हालांकि आज भी इस सवाल का जवाब नहीं मिल पाया है।
रजनीकांत शुक्ला

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तालिबान से सम्बन्ध अर्थात घोर अतिवादी विचारधारा से समझौता        

                                                     

     −तनवीर जाफ़री

 अफ़ग़ानिस्तान की तालिबानी सरकार के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तक़ी ने पिछले दिनों भारत का एक सप्ताह का दौरा किया। अगस्त 2021 में तालिबान के जबरन सत्ता में आने के बाद किसी शीर्ष तालिबानी नेता की पहली आधिकारिक यात्रा थी। मुत्तक़ी संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबंधित सूची में शामिल थे, इसलिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की तालिबान प्रतिबंध समिति ने उन्हें केवल भारत यात्रा के लिए विशेष छूट दी थी। ग़ौरतलब है कि 2021 में भारत ने तालिबान शासन के बाद काबुल में अपना दूतावास बंद कर दिया था। परंतु पिछले गत जनवरी 2025 में भारतीय विदेश सचिव विक्रम मिस्री की दुबई में मुत्तकी से हुई मुलाक़ात और फिर मई 2025 में विदेश मंत्री एस. जयशंकर की मुत्तकी से फोन पर हुई बातचीत के बाद ही उनके भारत दौरे का रास्ता साफ़ हो गया था। 2021 में अफ़ग़ानिस्तान की लोकतान्त्रिक सरकार से जबरन सत्ता हथियाने वाले तालिबानों को अब तक केवल रूस ने ही मान्यता दी है। वर्तमान तालिबानी शासन को भारत ने भी अभी तक मान्यता नहीं दी है। इसके बावजूद तालिबान से व्यापार, विकास,सहायता, और सुरक्षा जैसे विषयों को लेकर दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंध मज़बूत करने की बात करना और कल तक मानवता विरोधी कुकृत्य करने वाले कुख्यात आतंकी संगठन के रहनुमाओं से हाथ मिलाना ‘दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त ‘ की नीति के अंतर्गत भले ही ठीक नज़र आता हो परन्तु तालिबानों के ज़ुल्म व अत्याचार की सूची इतनी लंबी है कि इन वैचारिक आतंकियों को न तो कभी मुआफ़ किया जा सकता है न ही इनपर विश्वास किया जा सकता है। यही वजह है कि भले ही भारत सरकार ने तालिबानी नेता व उसके साथ आये प्रतिनिधिमंडल का स्वागत क्यों न किया हो परन्तु देश का एक बड़ा वर्ग भारत तालिबान रिश्तों को लेकर ख़ुश नहीं बल्कि नाख़ुश नज़र आया।  

                  दरअसल पूर्व में ओसामा बिन लादेन व मुल्ला उमर के संरक्षण में इन्हीं तालिबानों ने आतंक तथा अपनी घोर कट्टरपंथी विचारधारा का वह घिनौना इतिहास लिखा है जिसे दुनिया कभी भुला नहीं सकती। याद कीजिये फ़रवरी 2001 में तालिबान के सर्वोच्च नेता मुल्ला मोहम्मद उमर द्वारा जारी किया गया वह फ़रमान जिसमें उसने अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद सभी मूर्तियों को नष्ट  किये जाने जैसा वैमन्सयपूर्ण आदेश जारी किया था। इसी आदेश के बाद तालिबानी लड़ाकों द्वारा अफ़ग़ानिस्तान की बामियान घाटी में छठी शताब्दी ईस्वी में चट्टानों में तराशी गई दो विशालकाय बुद्ध मूर्तियों को तोपों और एंटी-एयरक्राफ़्ट गनों से ध्वस्त कर दिया गया था ? यह दुनिया की सबसे ऊँची खड़ी बुद्ध प्रतिमाओं में से एक थीं जिनकी ऊँचाई क्रमशः 180 व 125 फ़ीट थी। तालिबान के इस दुस्साहस ने पूरी दुनिया को हैरान कर दिया था। क्योंकि ये मूर्तियाँ 1,500 वर्ष पुरानी थीं और मानव इतिहास का एक अहम हिस्सा थीं। तालिबान ने इस दौरान अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी अन्य बौद्ध कलाकृतियों को भी नष्ट किया था । तालिबान के इस क़दम से पूरे विश्व में आक्रोश पैदा हो गया था। संयुक्त राष्ट्र, यूनेस्को, भारत, जापान, श्रीलंका और अन्य कई देशों द्वारा इस तालिबानी कुकृत्य की घोर निंदा की गयी थी । यूनेस्को ने इसे तालिबान द्वारा किया गया “सांस्कृतिक अपराध” बताया था। क्या इस घटना को भुलाया जा सकता है जोकि इन्हीं तालिबानों की नफ़रती सोच व विचारधारा के तहत अंजाम दी गयी थी ?           

                       क्या देश 24 दिसंबर 1999 को अंजाम दिये गये उस कंधार विमान अपहरण कांड को भूल सकता है जिसमें काठमांडू से नई दिल्ली आने वाली  इंडियन एयरलाइंस की फ़्लाइट IC-814 का अपहरण पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन हरकत-उल-मुजाहिदीन द्वारा किया गया था। इस विमान में 176 यात्री और 15 चालक दल के सदस्य सहित  कुल 191 लोग सवार थे। अपहरणकर्ताओं द्वारा यह विमान अमृतसर,लाहौर व दुबई के बाद अंत में अफ़ग़ानिस्तान के कंधार ले जाया गया था जो उस समय तालिबान के नियंत्रण में था। कंधार विमान अपहरण कांड एक ऐसी घटना थी जिसने भारत की सुरक्षा नीतियों, आतंकवाद से निपटने की रणनीति और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति पर गहरा प्रभाव डाला था । यह घटना आज भी आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में एक महत्वपूर्ण अध्याय के रूप में देखी जाती है। इसी विमान अपहरण के बाद भारत सरकार को भारतीय जेलों में बंद मसूद अज़हर,अहमद उमर सईद शेख़ व मुश्ताक़ अहमद ज़रगर जैसे दुर्दांत आतंकियों की रिहाई करनी पड़ी थी। इस पूरे प्रकरण को अंजाम तक पहुँचाने में तालिबानों ने ही अपहरणकर्ताओं के पक्ष में अहम किरदार निभाया था। इसीलिए अपहरणकर्ता विमान को अंत में कंधार ले गए थे। क्या देश इस हादसे को कभी भुला सकता है ?

                            महिलाओं को लेकर तालिबानों की विकृत व अमानवीय सोच से भी दुनिया भलीभांति वाक़िफ़ है। यह तालिबान ही तो थे जिन्होंने 9 अक्टूबर 2012 को, पश्तून परिवार से संबंध रखने वाली 15 वर्षीय मलाला यूसुफ़ज़ई को उस समय उसका नाम पूछकर गोली मारी थी जबकि वह स्वात ज़िले में परीक्षा देकर स्कूल बस से अपने घर लौट रही थीं। याद कीजिये उस समय एक नक़ाबपोश तालिबानी बंदूक़धारी उस बस में चढ़ा और चिल्लाया, “तुम में से कौन मलाला है? बोलो, वरना मैं सबको गोली मार दूँगा।” मलाला की पहचान होने पर उसने मलाला को बाएँ आँख के पास से गोली मारी, जो उनके गर्दन से होकर कंधे में जा लगी। इसी हमले में कायनात रियाज़ व शाज़िया रमज़ान नाम की दो अन्य स्कूली लड़कियां भी घायल हुईं थीं। यह हमला तालिबान द्वारा मलाला की शिक्षा संबंधी सक्रियता के विरुद्ध था। उस समय तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के प्रवक्ता ने इस घटना की ज़िम्मेदारी लेते हुये यह कहा था कि मलाला “काफ़िरों की प्रतीक” हैं और इस्लाम विरोधी विचार फैला रही है। यह तालिबान ही हैं जिन्होंने लड़कियों के सैकड़ों स्कूल्स या तो उड़ा दिया या उनमें आग लगा दी। 

                         शिक्षा को लेकर तालिबानी सोच जगज़ाहिर है। इनके शासन में छठी कक्षा के बाद लड़कियां माध्यमिक या उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकतीं। विश्वविद्यालयों में भी महिलाओं का प्रवेश बंद है, और अब महिलाओं द्वारा लिखी किताबों पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है।आज अफ़ग़ानिस्तान में लगभग 11 लाख लड़कियां स्कूल से बाहर हैं। आज अफ़ग़ानिस्तान दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां लड़कियों की शिक्षा पर पूर्ण प्रतिबंध है। इससे न केवल बाल विवाह बढ़े हैं बल्कि महिलाओं का साक्षरता स्तर घटकर 30% से नीचे आ गया है। इतना ही नहीं बल्कि महिलाओं को अधिकांश नौकरियों से निकाल दिया गया है। सिविल सेवा, ग़ैर सरकारी संगठनों, मीडिया और सैलून आदि क्षेत्रों में महिलाओं का काम पूरी तरह बंद है। महिलाओं को चिकित्सा शिक्षा से भी वंचित रखा गया है, जिससे स्वास्थ्य सेवाएं प्रभावित हुई हैं। अफ़ग़ानिस्तान में पहले से ही मातृ मृत्यु दर दुनिया में सबसे अधिक थी और अब यह और बढ़ गई है।

                       तालिबान का महिला विरोधी चरित्र दिल्ली में भी पिछले दिनों उस समय देखने को मिला जबकि तालिबान के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तक़ी की पहली प्रेस कॉंफ्रेंस में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति नहीं दी गयी। परन्तु विश्वव्यापी आलोचना के बाद दूसरे दिन महिला पत्रकारों को प्रवेश की अनुमति देनी पड़ी। आतंकवादी व अतिवादी विचार के लोग चाहे वे अफ़ग़ानिस्तान में हों पाकिस्तान में या दुनिया के किसी भी देश में हों यह सभी मानवता के दुश्मन हैं। आश्चर्य इस बात का भी है कि वर्तमान भारत सरकार जिसके नेता स्वयं कभी तालिबानों को पानी पी कर कोसा करते थे वही आज इनका स्वागत करते व इनसे रिश्ते सुधारते नज़र आ रहे हैं ? और गोदी मीडिया इन नापाक रिश्तों के फ़ायदे गिनाता फिर रहा है ? जबकि वास्तव में तालिबान से सम्बन्ध बनाने का दूसरा अर्थ है घोर अतिवादी विचारधारा से समझौता। 

   −तनवीर जाफ़री  

वरिष्ठ पत्रकार

संस्कार और चरित्र निर्माण का पर्व है दीपावली

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बाल मुकुन्द ओझा

बुराई पर अच्छाई, अंधकार पर प्रकाश तथा अज्ञान पर ज्ञान की विजय का त्योहार हैं दीपावली। दीपावली संस्कार और चरित्र निर्माण का पर्व है। तन-मन को प्रफुल्लित करने वाला यह पर्व हमारे जीवन में हजारों खुशियाँ प्रदान करता है। त्योहार जीवन को प्रेम, बन्धुत्व और शुद्धता से जीने की सीख देता है। मन और चित को शांति प्रदान करता है और हमारे अन्दर की बुराइयों को अन्तर्मन से बाहर निकाल कर अच्छाइयों को ग्रहण करने की ताकत प्रदान करता है। चौदह साल का बनवास काटकर भगवान राम जब अयोध्या लौटे तब वहाँ के निवासियों ने दीप प्रज्ज्वलित कर उनका स्वागत किया। इस वर्ष दीपावली का पर्व 20 अक्तूबर को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाएगा। दीपावली का त्योहार कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। इस पंच दिवसीय पर्व को सभी वर्गों के लोग अत्यंत हर्ष व उत्साह के साथ मनाते हैं। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वितीया तक चलने वाला दीपावली का त्योहार सुख समृद्धि की वृद्धि, व्यापार वृद्धि तथा समस्त सुखों की प्राप्ति कराने वाला होता है। दीपावली को पंच पर्वो का त्योहार कहा जाता है जो धनतेरस से शुरू होकर भाई दूज पर समाप्त होते हैं।

त्योहार देश की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय एकता के जीवन्त प्रतीक होते हैं। इसमें देश के इतिहास का समावेश होता है। त्योहार बिना जाति, धर्म ओर भेदभाव के सभी लोग मिलजुल कर मनाते हैं और एक दूसरे के सुख दुख में भागीदारी देते हैं। एक दूसरे से मिलन का यह सुनहरा अवसर प्रदान करते हैं। त्योहार आपसी कटुता, शत्रुता और बैर भाव को दूर भगाते हैं। दीपावली भी एक ऐसा ही त्योहर है जो हमें समता, समानता और भाईचारे का सन्देश देता है। त्योहार जीवन को प्रेम, बन्धुत्व और शुद्धता से जीने की सीख देता है। मन और चित को शांति प्रदान करता है और हमारे अन्दर की बुराइयों को अन्तर्मन से बाहर निकाल कर अच्छाइयों को ग्रहण करने की ताकत प्रदान करता है। चौदह साल का बनवास काटकर भगवान राम जब अयोध्या लौटे तब वहाँ के निवासियों ने दीप प्रज्ज्वलित कर उनका स्वागत किया।

भारत में सभी धर्मों और वर्गों के लोग यह त्योहार मिलजुल कर मानते है। दीपावली का शाब्दिक अर्थ है ’’दीपों की पंक्ति’’ या ‘‘दीपों की माला’’। यह पर्व सामाजिक सांस्कृतिक धार्मिक व्यापारिक और ऐतिहासिक महत्व का है। दीपावली का त्योहार कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। इसी दिन समुद्र मंथन से मां लक्ष्मी ने अवतार लिया था। मां लक्ष्मी को धन और वैभव की देवी माना जाता है। इसी वजह से दिवाली वाले दिन हम लोग लक्ष्मी जी की पूजा करते हैं और वरदान में खूब सारा धन और वैभव मांगते हैं। लक्ष्मी के समुद्र मंथन में निकलने से दो दिन पहले सोने का कलश लेकर भगवान धनवंतरी भी अवतरित हुए थे, इसी वजह से दिवाली के पहले धनतेरस का त्योहार मनाया जाता है।

दीपावली के साथ कई ऐतिहासिक और धार्मिक घटनाएँ जुड़ी हुई हैं। यह दिन केवल भगवान राम के अयोध्या वापसी का पावन दिन नहीं है अपितु इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने राक्षस राज नरकासुर का वध किया था। इसी दिन भगवान विष्णु ने नरसिंह का अवतार लेकर हिरणकश्यप को मारा था। इसी दिन समुद्र मंथन के बाद लक्ष्मी व धन्वन्तरि प्रकट हुए थे। जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस भी इसी दिन है। सिक्खों के लिए भी दीपावली के त्यौहार का बहुत महत्त्व है। इसी दिन अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ। इसके अलावा 1619 में दीपावली के दिन सिक्खों के छठे गुरू हर गोविन्द सिंह को जेल से रिहा किया गया। नेपालियों के लिए भी दीपावली का दिन बहुत महत्व का है। इस दिन नेपाल में नया वर्ष शुरू होता है। पंजाब में स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन हुआ। आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद ने दीपावली के दिन अजमेर के निकट अवसान लिया था। इस दिन लक्ष्मी पूजन का विशेष प्रावधान है। दीपावली सच्चे अर्थों में चौतरफा हर्षाेल्लास का दिन है।

बुराई पर अच्छाई का प्रतीक यह पर्व अब रश्मि बनता जा रहा है। अच्छी बातें अब केवल वेद वाक्यों, ग्रन्थों, महापुरूषों के आदर्शों और नेताओं के भाषण तक सीमित होकर रह गई है। भारत ऋषि मुनियों, संतों और महापुरूषों की जन्मस्थली है जिन्होंने सदा सर्वदा सद्मार्ग पर चलने की सीख और प्रेरणा देशवासियों को दी। हम धीरे-धीरे इन आदर्शों को आत्मसात करने की बजाय बैर-भाव और शत्रुता को बढ़ावा देने में लगे हुए हैं। देश में इस समय जो वातावरण बना हुआ है, उससे बन्धुत्व, प्रेम और समता के स्थान पर अविश्वास, घृणा और बुराई को अधिक बल मिल रहा है। इसके लिए किसी एक को दोषी ठहराना ठीक नहीं होगा। हम सबको अपनी अन्तर आत्मा में झांक कर विवेचना करनी होगी। जब तक हम अपने अंदर की बुराइयों का त्याग नहीं करेंगे तब तक दीपावली की सीख, प्रेरणा और आदर्शों को आत्मसात करने की बातें थोथी और कागजी होगी।

– बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी-32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

फिलिस्तीन और इजरायल पीस डील अभी कुछ लोचे बाकी हैं

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फिलिस्तीन और इजरायल के बीच एक पीस डील सी कुछ हो गई है. ट्रम्प ने बीच बचाव करके सीजफायर करवा दी है. इजरायल के कोई बीस बचे खुचे जिंदा बंधक छुड़वाए जा रहे हैं. बदले में इजरायल लगभग 2000 कैदियों को छोड़ेगा और अपनी फौजें वापस लेगा.

और कुछ लोचे सुलझने बाकी हैं…गाजा में हमास हथियार डाल देगा और जॉर्डन, सऊदी अरब और अन्य अरब देशों की सेनाएं इंटरनेशनल स्टेबिलाइजेशन फोर्स बनकर तैनात होंगी.

इस पीस डील का क्या होना है?

क्या यह पहली पीस डील है? इसके पहले 1990s में ओस्लो एकॉर्ड के अनुसार भी समझौते हुए थे, उनमें क्या हुआ? पीएलओ ने लड़ाई बंद कर दी, बदले में उन्हें गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक पर नियंत्रण मिल गया. फिर वे नाम बदल कर हमास बन कर लड़ने लगे.

जब काफ़िर ताकतवर होता है तो वह मोमिन से समझौता कर लेता है. मोमिन जो किसी भी शर्त पर समझौता करने को तैयार नहीं था, वह अन्त में अपनी ही शर्तों पर समझौता कर लेता है. यह उसे लिए साँस लेने का स्पेस दे देता है. जब उसकी सांस वापस आ जाती है तो वह फिर तरोताजा होकर लड़ने लगता है. उसकी एक एक सांस लड़ाई के लिए है.

काफ़िर को शांति की गरज होती है… मोमिन को लड़ाई की खुजली होती है. काफ़िर शान्ति को अपना उद्देश्य समझता है और लड़ाई उसका माध्यम. मोमिन के लिए लड़ाई ही उद्देश्य है और शान्ति उसके लिए सिर्फ दो लड़ाइयों के बीच तैयारी का समय होता है. मोमिन कभी नहीं थकता और काफ़िर कभी सीखता नहीं…

राजीव मिश्रा

बदलते समय में भाई दूज: प्रेम और अपनापन कैसे बना रहे

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> “त्योहार अब सिर्फ़ रस्म नहीं, रिश्तों की परीक्षा बनते जा रहे हैं — सवाल यह है कि क्या हमारे दिलों में अब भी वही स्नेह बचा है?”

भाई दूज सिर्फ़ तिलक और मिठाई का त्योहार नहीं, बल्कि रिश्तों की वह डोर है जो समय की रफ़्तार में भी स्नेह का रंग बनाए रखती है। पर बदलते दौर में जहाँ मुलाकातें वीडियो कॉल पर सिमट गई हैं और तिलक डिजिटल इमोजी बन गया है, वहाँ यह सवाल उठता है — क्या रिश्तों की गर्माहट अब भी वैसी ही है? भाई दूज हमें याद दिलाता है कि प्रेम केवल परंपरा नहीं, आत्मीयता का अभ्यास है। यह त्योहार हमें अपने व्यस्त जीवन में अपनापन लौटाने का अवसर देता है।

— डॉ. प्रियंका सौरभ

दीवाली के बाद का शांत उजाला जब धीरे-धीरे घरों में उतरता है, तब आती है भाई दूज की सुबह — मिठास और ममता से भरी। बहनें अपने भाइयों के माथे पर तिलक लगाती हैं, आरती करती हैं और मन ही मन यह कामना करती हैं कि उनका भाई सदा सुखी रहे। बदले में भाई बहन को उपहार देता है और यह वादा कि जीवनभर उसका साथ निभाएगा। यह दृश्य जितना सरल लगता है, उतना ही गहरा भी है। क्योंकि यह सिर्फ एक तिलक नहीं, रिश्तों में भरोसे, सुरक्षा और प्रेम की लकीर खींचने का संस्कार है।

लेकिन आज जब समय बदल रहा है, रिश्तों की परिभाषाएँ बदल रही हैं, तब यह सवाल उठता है कि क्या भाई दूज का वही अपनापन और स्नेह अब भी पहले जैसा है? क्या भाई-बहन का रिश्ता अब भी उतना ही सहज, निर्भीक और भावनाओं से भरा है, जैसा कभी गाँव की मिट्टी और आँगन की धूप में होता था?

कभी भाई दूज सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि जीवन का उत्सव हुआ करता था। बहनें सवेरे से तैयार होकर भाई की प्रतीक्षा करती थीं, घरों में पकवानों की खुशबू फैल जाती थी। भाई दूर-दूर से बहन के घर पहुँचते थे, क्योंकि यह दिन मिलन का होता था। न कोई दिखावा, न औपचारिकता—बस भावनाओं का सच्चा प्रवाह। उस समय रिश्तों में दूरी नहीं, दिलों की गर्माहट थी।

आज भी भाई दूज मनाया जाता है, पर उसकी आत्मा कहीं धुंधली पड़ने लगी है। अब भाई दूज का तिलक कई बार व्हाट्सएप पर भेजे गए इमोजी से लग जाता है, राखी और तिलक दोनों ऑनलाइन ग्रीटिंग्स में सिमट गए हैं। “भाई दूज मुबारक” का संदेश सोशल मीडिया पर चमकता है, पर उसके पीछे की नज़रों में अब वो अपनापन नहीं दिखता जो किसी बहन की आँखों में तब झलकता था जब वह अपने भाई का चेहरा देखती थी।

यह बदलाव केवल तकनीक का नहीं, संवेदना का भी है। समय ने हमें जोड़ा जरूर है, पर जोड़े हुए रिश्ते अब दिलों से ज़्यादा डिवाइसों में रहने लगे हैं। भाई दूज जैसे पर्व जो निकटता, स्नेह और संवाद के प्रतीक थे, अब “स्टेटस अपडेट” बनते जा रहे हैं। इस बदलाव की जड़ें आधुनिक जीवन की भागदौड़, व्यावसायिकता और आत्मकेंद्रित सोच में हैं, जिसने हमें अपनों से दूर कर दिया है।

भाई दूज का पर्व केवल बहन की पूजा नहीं, बल्कि उस भावनात्मक संतुलन का प्रतीक भी है, जिसमें भाई सुरक्षा देता है और बहन संवेदना। दोनों एक-दूसरे की जरूरत बनकर रिश्तों के समाज का ढांचा खड़ा करते हैं। लेकिन आज की पीढ़ी में यह रिश्ता धीरे-धीरे औपचारिक होता जा रहा है। शहरों में बढ़ती व्यस्तता, प्रवास, और आत्मनिर्भर जीवनशैली ने भाई-बहन के रिश्तों को एक ‘मौके की मुलाकात’ बना दिया है।

जहाँ पहले भाई अपनी बहन के घर जाकर दिन भर का समय उसके परिवार के साथ बिताता था, अब वह मुलाकात कुछ मिनटों या वीडियो कॉल तक सीमित रह जाती है। बहनें भी अब आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं, भावनात्मक रूप से मज़बूत हैं, और जीवन के हर फैसले खुद लेती हैं। यह बदलाव सकारात्मक भी है, क्योंकि अब बहनें “सुरक्षा की मोहताज” नहीं, बल्कि बराबरी के आत्मसम्मान की प्रतीक हैं। मगर इस बराबरी के दौर में भी रिश्तों की गर्माहट बनी रहना जरूरी है।

त्योहारों का उद्देश्य ही यही होता है—रिश्तों को दोबारा गढ़ना, दूरी मिटाना। भाई दूज हमें हर साल यह याद दिलाती है कि रिश्तों का पोषण केवल खून से नहीं, व्यवहार से होता है। लेकिन आधुनिकता की रफ्तार ने हमें इतना व्यस्त कर दिया है कि हम भावनाओं को भी समय-सारिणी में बाँधने लगे हैं। कभी-कभी लगता है कि रिश्ते अब कैलेंडर पर टिके कुछ त्योहारी दिनों के मेहमान बन गए हैं।

आज की बहनें केवल उपहार नहीं, भावनात्मक साझेदारी चाहती हैं। उन्हें यह नहीं चाहिए कि भाई बस त्यौहार पर पैसे या गिफ्ट दे दे; वे चाहती हैं कि भाई उन्हें समझे, उनका सम्मान करे, उनके निर्णयों में साथ खड़ा रहे। और भाई भी चाहते हैं कि बहन सिर्फ स्नेह की मूर्ति नहीं, बल्कि सहयोग और संवेदना की साझेदार बने। यही रिश्ते का नया रूप है—बराबरी और आत्मीयता का संतुलन।

भाई दूज अब केवल बहन की सुरक्षा का प्रतीक नहीं, बल्कि आपसी सम्मान और संवाद का भी प्रतीक बनना चाहिए। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि भाई-बहन का रिश्ता सिर्फ बचपन का नहीं होता, वह उम्रभर का साथ है। भले जीवन के रास्ते अलग हों, पर दिलों के रास्ते जुड़े रहने चाहिए।

आज का समाज रिश्तों को “प्रोडक्टिविटी” और “प्रोफेशनलिज़्म” की कसौटी पर तौलने लगा है। हम दोस्ती में भी फायदे ढूँढ़ते हैं, तो पारिवारिक रिश्ते भी कभी-कभी बोझ लगने लगते हैं। भाई दूज ऐसे ही समय में हमें झकझोरती है—कि प्रेम का कोई विकल्प नहीं होता। तकनीक रिश्ते बना सकती है, पर आत्मीयता केवल स्पर्श, मुस्कान और अपनापन से आती है।

यह सही है कि समय बदल रहा है और रिश्तों की शैली भी बदलनी चाहिए। लेकिन हर बदलाव में भावनाओं का बीज बचा रहना जरूरी है। भाई दूज के पर्व को नया अर्थ देना होगा—जहाँ भाई और बहन दोनों एक-दूसरे की भावनाओं, संघर्षों और स्वतंत्रता का सम्मान करें। त्योहार तभी जीवित रहते हैं जब वे समय के साथ अपनी आत्मा को बचाए रखते हैं।

आज की बहनें अपने भाइयों से केवल सुरक्षा नहीं, बल्कि समानता चाहती हैं; और भाई भी यह समझने लगे हैं कि बहन की स्वतंत्रता उसकी शक्ति है, विद्रोह नहीं। यह समझदारी इस रिश्ते को और गहरा बना सकती है। भाई दूज अब उस सामाजिक ढांचे का प्रतीक बन सकता है जहाँ पुरुष और स्त्री के बीच सहयोग और संवेदना का रिश्ता हो, न कि संरक्षण और निर्भरता का।

कभी-कभी लगता है कि त्योहारों की भी अपनी भाषा होती है, जो हमें वह सब याद दिलाती है जिसे हम रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भूल जाते हैं। भाई दूज की भाषा है—स्मृति और स्नेह की। यह पर्व हमें उस समय में ले जाता है जब हम बिना कारण किसी की परवाह करते थे, जब रिश्ते लेन-देन नहीं, जीवन का आधार थे। इस पर्व के बहाने हमें अपने भीतर झाँकना चाहिए—क्या हम अब भी उतने ही आत्मीय हैं जितने बचपन में थे?

अगर इस सवाल का उत्तर ‘हाँ’ है तो यह त्योहार जीवित है। और अगर उत्तर ‘न’ है, तो हमें इसे फिर से जीवित करना होगा—किसी सोशल मीडिया पोस्ट से नहीं, बल्कि सच्चे व्यवहार से। किसी बहन के घर जाकर उसका हाल पूछने से, किसी भाई को गले लगाने से, किसी बचपन की याद को फिर से जीने से।

भाई दूज का असली अर्थ यही है कि रिश्तों की दीवारों पर समय की धूल जम जाने के बावजूद उनका रंग न फीका पड़े। यह पर्व हमें सिखाता है कि प्रेम का रिश्ता कभी पुराना नहीं होता, बस हमें उसे झाड़-पोंछकर चमकाना आना चाहिए।

आज जब दुनिया ‘डिजिटल रिश्तों’ की ओर बढ़ रही है, तो ऐसे पर्व हमें धरती से जोड़ते हैं। हमें बताते हैं कि मानवीय भावनाएँ अब भी सबसे बड़ी पूँजी हैं। इसलिए भाई दूज का तिलक केवल माथे पर नहीं, मन पर लगाना चाहिए—जहाँ अपनापन, स्मृति और कृतज्ञता की लकीरें स्थायी रहें।

भाई दूज का संदेश बहुत सीधा है—रिश्तों को निभाने के लिए कोई बड़ी रस्म नहीं चाहिए, बस छोटी-छोटी संवेदनाएँ चाहिएं। कभी एक फोन कॉल, कभी एक पत्र, कभी बिना कारण किया गया धन्यवाद—यही वो छोटे तिलक हैं जो भाई-बहन के रिश्ते को जीवित रखते हैं।

समय बदलेगा, त्यौहार भी रूप बदलेंगे, पर प्रेम और अपनापन अगर मन में बसा रहा, तो रिश्ते कभी टूटेंगे नहीं। भाई दूज हमें यह याद दिलाने आया है कि जीवन चाहे जितना तेज़ हो जाए, एक दिन रुककर किसी प्रिय को तिलक लगाना, उसकी आँखों में अपनेपन की रोशनी देखना—यही सच्चा त्योहार है।

इसलिए इस बार जब तिलक लगाएँ, तो साथ यह वचन भी लें—कि रिश्तों की डोर कभी ढीली नहीं पड़ने देंगे। भाई दूज की यह रौशनी सिर्फ दीयों में नहीं, दिलों में भी जले। प्रेम और अपनापन केवल तस्वीरों में नहीं, व्यवहार में बहे। तभी इस पर्व का सार बचा रहेगा, और हम कह सकेंगे—

बदलते समय में भी, भाई दूज से प्रेम और अपनापन बना हुआ है।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

नरकासुर पर विजय का पर्व है नरक चतुर्दशी

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आज नरक चतुर्दशी है जिसे लोक में छोटी दीवाली भी कहा जाता हैं। मेरी समझ से यह पांच-दिवसीय दीप पर्व का सबसे महत्वपूर्ण दिन है क्योंकि यह दिन एक स्त्री के अदम्य साहस और शौर्य को समर्पित है। इस उत्सव की पृष्ठभूमि में एक बहुत खूबसूरत पौराणिक कथा है। कथा के अनुसार प्राग्ज्योतिषपुर के एक शक्तिशाली असुर सम्राट नरकासुर ने देवराज इन्द्र को पराजित करने के बाद देवताओं तथा ऋषियों की सोलह हजार से ज्यादा कन्याओं का अपहरण कर लिया था। देवताओं की भीड़ उसके आगे असहाय थी क्योंकि नरकासुर को अजेय होने का वरदान प्राप्त था। कोई भी देवता या मनुष्य उसकी हत्या नहीं कर सकता था। कोई स्त्री ही उसे मार सकती थी। उससे त्रस्त और भयभीत देवताओं ने अंततः कृष्ण से सहायता की याचना की। कोई रास्ता न देखकर कृष्ण स्वयं चिंता में डूबे हुए थे। नरकासुर की कैद में हजारों स्त्रियों की पीड़ा सुन और पति की चिंता देखकर कृष्ण की एक पत्नी सत्यभामा सामने आई। कृष्ण के रनिवास की वह एकमात्र योद्धा थीं जिनके पास कई कई युद्धों का अनुभव था। उन्होंने नरकासुर से युद्ध की चुनौती स्वीकार की। कृष्ण उनके सारथि बनें। कृष्ण की प्रेरणा और अपने युद्ध कौशल के बल पर उन्होंने नरकासुर को पराजित कर मार डाला।उसका अंत हो जाने के बाद सभी सोलह हजार बंदी कन्याओं को मुक्त करा लिया गया। वीरांगना सत्यभामा जब कृष्ण के साथ द्वारका लौटीं तो पूरे नगर में दीये जलाकर उनके शौर्य और स्त्रियों की मुक्ति का उत्सव मनाया गया। इस उत्सव की परंपरा आज तक ज़ारी है मगर इसका अर्थ और संदेश हम भूल चुके हैं।विजय का उल्लास मनाने के साथ साथ आज का दिन हमारे लिए खुद से यह सवाल पूछने का अवसर है कि क्या उस घटना के हजारों साल बाद भी हम पुरुष अपने भीतर मौजूद वासना और पुरूष – अहंकार जैसे नरकासुरों की कैद से स्त्रियों को मुक्ति दिला पाए हैं ?

धुरूदत्त

प्रिया तेंदुलकर , आज जिनका जन्मदिन है

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प्रिया तेंदुलकर का जन्म 19 अक्टुबर, 1954 को हुआ। वे भारत की पहली टीवी स्टार हैं। प्रिया तेंडुलकर ने अनेक फिल्मों व टीवी धारावाहिकों में भूमिका निभाई पर संभवतः वे संपूर्ण जीवन अपने सबसे पहले टीवी अवतार “रजनी” के नाम से ही बेहतर पहचानी जाती रहीं। 1985 में निर्मित व बासू चटर्जी द्वारा निर्देशित इस धारावाहिक में उन्होंने भ्रष्टाचार और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ बेखौफ आवाज़ उठाने वाली एक साधारण गृहणी का किरदार निभाया था।

वह लेखिका भी थी। प्रसिद्ध नाटककार विजय तेंडुलकर उनके पिता थे। उनकी दो बहनें और एक भाई था। प्रिया का विवाह अभिनेता व लेखक करण राजदान से 1988 में हुआ। पर यह विवाह सात साल ही चल सका और इसके बाद उनका संबंध विच्छेद हो गया। करण व प्रिया ने “रजनी” और “किस्से मियाँ बीवी के” धारावाहिकों में पति− पत्नी के वास्तविक जीवन के किरदार भी निभाये। 1974 में श्याम बेनेगल की फिल्म अंकुर में निभाई भूमिका के कारण प्रिया के अभिनेता अनंत नाग से भी संबंध जोड़े जाते रहे।

प्रिया का प्रारंभ से ही अभिनय की और झुकाव था। 1939 में जब वे स्कूल में थीं, उन्होंने सत्यदेव दुबे के निर्देशन तले गिरीश कर्नाड के लिखे पौराणिक नाटक “हयवदन” में गुड़िया की भूमिका निभाई। इस नाटक में निर्देशिका कल्पना लाज़मी उनकी सह कलाकार थीं। इसके बाद पिग्मेलियन, अंजी, कमला, कन्यादान, सखाराम बाइंडर, ती फूलराणी, एक हठी मुलगी जैसे अनेक मराठी नाटकों में उन्होंने भूमिकायें कीं।

प्रिया ने टीवी पर जहाँ गुलज़ार निर्देशित स्वयंसिद्ध जैसे नारीवादी धारावाहिक में काम किया वहीं “हम पाँच” जैसे हास्य धारावाहिक में फोटो फ्रेम से बोलती मृत बीवी की भूमिका भी अदा की और “द प्रिया तेंडुलकर शो” और “ज़िम्मेदार कौन” जैसे सफल टॉक शो भी किये जिसमें वे काफी आक्रामक तेवर के लिये जानी जाती थीं। अंकुर, मोहरा और त्रिमूर्ती जैसी कुछ हिन्दी फिल्मों में भी उन्होंने काम किया पर कोई उल्लेखनीय भूमिकायें नहीं निभाईं।

शायद “रजनी” के किरदार और अपने पिता का ही प्रभाव था कि प्रिया सामाजिक मुद्दों के प्रति सदा जागरूक रहीं। उनका व्यक्तित्व खुला और साहसी था। “द प्रिया तेंडुलकर शो” की बुलंदी पर शिवसेना समेत कई राजनीतिक दलों ने उन्हें अपने दल में शामिल करने का प्रयास किया पर वे मन नहीं बना पाईं।

वे स्वयं लघु कथायें लिखती रहती थीं। ज्याचा त्याचा प्रश्न, जन्मलेला प्रत्येकला, असंही व पंचतारांकित उनकी कुछ कृतियाँ हैं, जिनमें से कुछ पुरस्कृत भी हुईं।

19 सितंबर, 2002 में 47 वर्ष की अल्पायु में उनका हृदयाघात से देहांत हो गया। वे कुछ समय कैंसर से भी लड़ती रहीं। उनकी असमय मृत्यु पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा, “रजनी के रूप में उनकी जिहादी भूमिका ने अनेक सामाजिक मुद्दों को मुखरित किया।

रजनीकांत शुक्ला

बिहार में अब कांग्रेस का नारा – टिकट चोर गद्दी छोड़

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जिस बिहार में कांग्रेस अब तक वोट चोर गद्दी छोड़ का नारा लगा रही थी , तस्वीर अब पलट गई है । कांग्रेसी अब नारा लगा रहे हैं – टिकट चोर गद्दी छोड़ । तो किसने चुरा लिए बिहार कांग्रेस प्रत्याशियों के टिकट ? बिहार में तो कांग्रेस का कोई नेता है नहीं । है भी तो बड़े कमजोर हैं । इतने कमजोर की प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राजेश राम जिस सीट से लड़ना चाह रहे थे आरजेडी ने उस सीट पर अपने प्रत्याशी सुरेश पासवान को लड़ा दिया है । तो क्या खड़गे ने या राहुल ने चुरा लिए कांग्रेसियों के टिकेट ? पर राहुल तो करीब 25 दिनों से बिहार गए नहीं । कांग्रेसी पूछ रहे हैं कि हमारे टिकटों का चोर कौन है ?

तो क्या तेजस्वी उड़ा ले गए कांग्रेस प्रत्याशियों के टिकट ? तभी तो कांग्रेसियों के सुर बदले । अब मांग कर रहे हैं कि कांग्रेसियों का टिकट चोर गद्दी छोड़ ? समझ आ रहा है कि बिहार में कोई भी इंडी गठबंधन का नाम क्यों नहीं ले रहा है ? लालू तेजस्वी ने जब लिया महागठबंधन का नाम लिया , एक बार भी इंडिया ब्लॉक नहीं कहा । तेजस्वी जानते थे कि राहुल कभी उन्हें इंडिया ब्लॉक का नेता मतलब मुख्यमंत्री फेस नहीं मानेंगे । अतः उन्होंने इंडिया के बजाय महागठबंधन कहना शुरू किया । फिर तमाम मीडिया भी महागठबंधन कहने लगा । मतलब बिहार चुनाव में इंडी की मौत हो गई ? राजद और कांग्रेस के बीच सीट बंटवारा नहीं हुआ ।

मुकेश सहनी की जेएमएम ने महागठबंधन से अलग होकर चुनाव प्रत्याशी मैदान में उतार दिए हैं । पशुपति पारस और हेमंत सोरेन ने अपने को महागठबंधन से अलग कर लिया । ऐसा लगता है कि राहुल गांधी का वोट चोर नारा उनकी पार्टी को ले डूबा है । बिहारियों ने बता दिया है कि बिहार की धरती चोर मचाए शोर को कतई पसंद नहीं करती ।

दरअसल बिहार के चुनाव आजकल ऐसा हॉट सब्जेक्ट हैं कि देश में दिवाली फेस्टिवल के अलावा एक ही फेस्टिवल है बिहार चुनाव । एनडीए जितने संगठित तरीके से चुनाव मैदान में उतरा है , महागठबंधन उतना ही खंड खंड हो गया है । बीजेपी ने अपने तमाम मुख्यमंत्रियों को बिहार में उतार दिया । अमित शाह ने स्थाई रूप से बिहार में डेरा जमा लिया है ।

21 अक्टूबर से नीतीश के प्रदेशव्यापी दौरे होंगे । तमाम केंद्रीय मंत्री एक एक कर बिहार पहुंच रहे हैं । मोदी स्वयं चार दिन बिहार में रहेंगे , 12 रेलियां करेंगे । अब खुद ही अनुमान लगाइए गठबंधन चूर −चूर हुआ या नहीं । एनडीए पहले ही फास्ट मोड़ में था , तेजस्वी और राहुल की मूर्खताओं से और फास्ट हो गया है । दीपावली और छठ पूजा की तैयारियां कर रही जनता के सामने भविष्य का नक्शा अब पूरी तरह साफ है ।
….. कौशल सिखौला

गोवर्धन पूजा से श्रद्धा बढ़े, दिखावा नहीं

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 “कृष्ण का पर्व हमें सिखाता है कि असली भक्ति धरती, गाय और करुणा में है, कैमरे की चमक में नहीं।”

गोवर्धन पूजा केवल भगवान कृष्ण का पर्व नहीं, बल्कि प्रकृति, गाय और धरती के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक है। यह हमें सिखाता है कि सच्ची भक्ति दिखावे में नहीं, संवेदना में है। आज जब पूजा इंस्टाग्राम की तस्वीर बन चुकी है और गोबर की जगह प्लास्टिक ने ले ली है, तब ज़रूरत है श्रद्धा के वास्तविक अर्थ को समझने की। गोवर्धन पर्व हमें याद दिलाता है कि मिट्टी, जल और जीव-जंतु की सेवा ही असली आराधना है। पूजा तब पूर्ण होती है जब धरती मुस्कुराती है, न कि सिर्फ़ कैमरा।

— डॉ. सत्यवान सौरभ

दीपों की कतारें अभी बुझी भी नहीं होतीं कि अगली सुबह गोवर्धन पर्व आ जाता है। यह त्योहार केवल भगवान कृष्ण की पूजा नहीं, बल्कि प्रकृति, गोवंश और सामूहिक श्रम के प्रति कृतज्ञता का उत्सव है। यह पर्व उस सादगी, मिट्टी की सुगंध और मन की पवित्रता का प्रतीक है, जो भारतीय संस्कृति की जड़ों में रची-बसी है। लेकिन जब श्रद्धा का अर्थ केवल दिखावे, फोटो और स्टेटस तक सीमित रह गया हो, तब “गोवर्धन पूजा से श्रद्धा बढ़े” कहना एक कामना भी है और एक चेतावनी भी।

कृष्ण की कथा में गोवर्धन पूजा का मूल भाव बहुत गहरा है। जब इंद्र के अहंकार से तंग आकर गोकुलवासी भीषण वर्षा में डूबने लगे, तब बालक कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठा उंगली पर उठा लिया। इस घटना को केवल एक चमत्कार के रूप में देखना उसके अर्थ को छोटा करना है। असल में यह एक सामाजिक प्रतीक है। यह हमें बताती है कि जब सत्ता अहंकार में अंधी हो जाती है, तब जनसाधारण को अपने सामूहिक साहस से संकट से निकलना पड़ता है। कृष्ण ने गोवर्धन पूजा की परंपरा इसलिए शुरू की ताकि लोग प्रकृति, गोमाता और अपनी श्रमशक्ति को देवत्व के रूप में स्वीकारें—क्योंकि वही असली सहायक हैं, न कि केवल आकाश के देवता।

गोवर्धन पूजा दरअसल प्रकृति पूजा है। गाय, गोबर, गोचर भूमि—ये सब उस पारिस्थितिकी का हिस्सा हैं जिसने भारतीय जीवन को आत्मनिर्भर बनाया। जब हम गोबर, मिट्टी और फूलों से गोवर्धन बनाते हैं, तो वह धरती और पर्यावरण के प्रति हमारी श्रद्धा का प्रतीक होता है। वह एक स्मरण है कि यह मिट्टी ही हमारी असली माता है, जो हर बीज को अंकुरित कर हमें अन्न देती है। लेकिन आज के दौर में यह सब प्रतीक धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं। गोबर की जगह प्लास्टिक की सजावट ने ले ली है, मिट्टी की गंध पर परफ्यूम का कब्जा हो गया है। गोवर्धन पूजा अब इंस्टाग्राम पोस्ट बन गई है—जिसमें “हैप्पी गोवर्धन पूजा” के स्टिकर तो हैं, पर गाय के लिए चारा नहीं। श्रद्धा अब धरती पर नहीं, स्क्रीन पर चमकती है।

कृष्ण ने कहा था—“कर्मण्येवाधिकारस्ते।” लेकिन हमने कर्म छोड़कर कर्मकांड को पकड़ लिया। पूजा अब उस भावना से दूर जा रही है जिसमें सामूहिकता, सहयोग और संवेदना थी। पहले गाँवों में सब मिलकर गोवर्धन बनाते थे, बच्चे गोबर लाते, महिलाएँ फूल सजातीं, पुरुष दीप रखते। वह सामूहिक श्रम और सादगी का पर्व था, जिसमें न कोई प्रतियोगिता थी, न तुलना। आज हर घर में अलग-अलग पूजा होती है—मानो यह अहंकार का गोवर्धन हो गया हो। श्रद्धा भी अब प्रदर्शन बन गई है, जिसमें पूजा का असल अर्थ खो गया है।

भारत का सबसे बड़ा विरोधाभास यही है कि हम गाय को “माता” कहकर आँसू बहाते हैं, लेकिन सड़कों पर वही गाय भूख और दर्द से मरती है। गोवर्धन पूजा का केंद्र ही गाय है, और हम उसी केंद्र को भुला चुके हैं। यह कैसी श्रद्धा है जो दीप जलाती है पर एक मुठ्ठी चारा देने में कंजूसी करती है? पूजा का अर्थ केवल आरती नहीं, जिम्मेदारी भी है। जब तक हम गोवंश, जल, मिट्टी और वृक्षों के प्रति करुणा नहीं दिखाएँगे, तब तक हमारी पूजा अधूरी रहेगी।

त्योहार अब भक्ति नहीं, भोग का उत्सव बनते जा रहे हैं। गोवर्धन पूजा भी अब “सेल्फी सीज़न” का हिस्सा बन गई है। प्रसाद, थाल और पूजा की तस्वीरें सोशल मीडिया पर अपलोड करने की होड़ लग जाती है। लेकिन असली भोग—जो सेवा, संतोष और सादगी में था—वह कहीं खो गया है। हमारी दादी-नानी के समय यह पर्व मिट्टी और मेहनत की खुशबू से भरा होता था। अब यह कृत्रिम रोशनी और दिखावे का तमाशा बन गया है। श्रद्धा अब कैमरे की फ्लैश पर निर्भर है, आत्मा की रोशनी पर नहीं।

अगर कृष्ण आज होते, तो शायद पूछते—क्या तुम सच में गोवर्धन बना रहे हो, या गोवर्धन के मूल अर्थ को मिटा रहे हो? क्या तुम्हारी पूजा में धरती की गंध है या केवल मॉल की सुगंध? क्या तुम्हारी आरती में गाय की घंटी की आवाज़ है या मोबाइल के नोटिफिकेशन की? ये सवाल हमारे भीतर की श्रद्धा की जाँच करते हैं। क्योंकि भक्ति तभी सार्थक होती है जब वह दूसरों के सुख-दुख में सहभागी बनती है।

ग्रामीण भारत में आज भी यह पर्व आत्मीयता से मनाया जाता है। गाँव की गलियों में बच्चे नंगे पैर गोबर इकट्ठा करते हैं, महिलाएँ पारंपरिक गीत गाती हैं—“गोवर्धन धर्यो गिरधारी।” वहाँ पूजा में सादगी है, पर दिल है। वहीं शहरी भारत में गोवर्धन पूजा “रील” बन चुकी है—पाँच मिनट की पूजा, फिर पिज़्ज़ा पार्टी। यह फर्क बताता है कि विकास ने हमें सुविधा तो दी, पर संवेदना छीन ली। हमारी आधुनिकता ने हमें अपने ही मूल से काट दिया है।

जब जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय संकट मानवता के सामने सबसे बड़ा खतरा बन चुके हैं, तब गोवर्धन पूजा का महत्व और भी बढ़ जाता है। यह पर्व हमें सिखाता है कि ईश्वर से प्रार्थना करने से पहले हमें धरती के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। यह वह समय है जब हमें गोवर्धन पूजा की व्याख्या को नये अर्थों में देखना चाहिए—केवल धर्म नहीं, बल्कि जीवनशैली के रूप में। अगर हम इस दिन पेड़ लगाएँ, गोशाला में सेवा करें, तालाब साफ़ करें, पशुओं को भोजन दें—तो वही सच्ची श्रद्धा होगी।

श्रद्धा का अर्थ केवल झुकना नहीं, जुड़ना है—धरती से, जल से, पशु से, मनुष्य से। जब श्रद्धा जिम्मेदारी के साथ जुड़ती है, तभी वह भक्ति बनती है। वरना वह सिर्फ रस्म रह जाती है। कृष्ण का गोवर्धन पर्व हमें यही सिखाता है—कि असली धर्म दूसरों के लिए खड़ा होना है।

कृष्ण ने इंद्र का अहंकार तोड़ा था, लेकिन आज हमारे भीतर भी ऐसे सैकड़ों इंद्र पल रहे हैं—लालच, ईर्ष्या, उपभोग, दिखावा और अधिकार की अंधी चाह। हमें इन इंद्रों को शांत करने के लिए अपने भीतर एक गोवर्धन उठाना होगा। वह गोवर्धन कोई पत्थर का पहाड़ नहीं, बल्कि विवेक, संयम और करुणा का पहाड़ है, जिसे हम सबको मिलकर थामना है।

गोवर्धन पूजा का एक और गहरा पक्ष है—यह पर्व सामूहिकता का उत्सव है। जब गोवर्धन के नीचे सारा गोकुल एकत्र हुआ था, तब किसी ने किसी की जात, पद या संपत्ति नहीं पूछी थी। सब एक ही छत के नीचे थे—बराबर, सुरक्षित, जुड़ाव में। यह दृश्य बताता है कि संकट के समय समाज को एकता में रहना चाहिए। पर आज हम अपने-अपने घरों के भीतर बंद हैं, पूजा भी निजी हो गई है, और समाज से संबंध केवल औपचारिक रह गए हैं। हमें फिर वही सामूहिकता लौटानी होगी, जिसमें साथ रहना भी पूजा है।

यह पर्व हमें यह भी सिखाता है कि शक्ति का अर्थ केवल भौतिक बल नहीं होता। जब बालक कृष्ण ने पर्वत उठाया था, तब वह शारीरिक नहीं, नैतिक शक्ति थी। आज के युग में वह नैतिक शक्ति सबसे बड़ी कमी बन गई है। हमें हर घर में, हर हृदय में एक छोटा-सा गोवर्धन बनाना होगा—जहाँ श्रद्धा, सादगी और करुणा एक साथ बसें।

अगर गोवर्धन पूजा का सच्चा पालन करना है, तो तीन संकल्प लेने होंगे। पहला, प्रकृति के प्रति कृतज्ञता—हर पूजा के बाद एक पेड़ लगाना या किसी पशु को भोजन देना। दूसरा, सादगी का पुनर्जागरण—दिखावे की जगह सच्चे भाव अपनाना। और तीसरा, सामूहिकता का पुनर्स्थापन—पूजा को फिर से मिल-जुलकर मनाने की परंपरा लौटाना, ताकि समाज में संवाद और संवेदना जिंदा रहे।

आज का समय ऐसा है जब श्रद्धा की परिभाषा बदल रही है। श्रद्धा अब विज्ञापनों और प्रचार में दिखने लगी है, पर जीवन से गायब हो रही है। हम मंदिरों में झुकते हैं, पर किसी घायल गाय या भूखे इंसान के आगे नहीं रुकते। हम दीये जलाते हैं, पर अपने मन के अंधकार से डरते हैं। यही वह विच्छेदन है जो हमें भीतर से खोखला बना रहा है। गोवर्धन पूजा उस खोखलेपन को भरने का अवसर है—अगर हम चाहें तो।

यह पर्व केवल धार्मिक कृत्य नहीं, बल्कि नैतिक अनुबंध है—मनुष्य और प्रकृति के बीच। यह याद दिलाता है कि देवता की पूजा से पहले धरती की सेवा जरूरी है। गोवर्धन पर्वत अब कोई भौतिक शिला नहीं, बल्कि हमारे भीतर का आत्मबल है, जो संकट के समय खड़ा रहता है। इंद्र अब कोई स्वर्गीय देव नहीं, बल्कि हमारी इच्छाओं का प्रतीक है, जो हर सुख पर वर्षा की तरह गिरना चाहता है। और कृष्ण वह विवेक है जो उसे संयम सिखाता है।

जब हम कहते हैं “गोवर्धन पूजा से श्रद्धा बढ़े”, तो इसका अर्थ केवल पूजा-पाठ की बढ़ोतरी नहीं, बल्कि आस्था की गहराई से है। श्रद्धा वह शक्ति है जो हमें कर्तव्य के प्रति सचेत करती है। अगर श्रद्धा बढ़ी, तो समाज में संवेदना बढ़ेगी; अगर श्रद्धा गहरी हुई, तो राजनीति में नैतिकता लौटेगी; अगर श्रद्धा सच्ची हुई, तो पर्यावरण बचेगा।

हमारे समाज को आज एक ऐसे गोवर्धन की ज़रूरत है जो दिखावे के नहीं, दायित्व के पत्थरों से बना हो। एक ऐसे पर्व की, जो हमें सजावट नहीं, सच्चाई सिखाए। एक ऐसी श्रद्धा की, जो सोशल मीडिया पर नहीं, समाज के भीतर बसे। गोवर्धन पूजा का सार यही है—जहाँ प्रकृति, पशु और मनुष्य एक सूत्र में बंधे हों।

कृष्ण का संदेश बहुत सीधा है—“जब संकट आये, तो पर्वत उठाओ, पर मिलकर।” यही वह पंक्ति है जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी तब थी। अगर हम गोवर्धन पूजा के दिन अपने भीतर यह संकल्प लें कि हम दिखावे से अधिक जिम्मेदारी निभाएँगे, तो यही पूजा सबसे पवित्र होगी।

गोवर्धन पूजा हमें याद दिलाती है कि मिट्टी में ही जीवन की सबसे सच्ची सुगंध है, और उसी मिट्टी से हमारी श्रद्धा भी अंकुरित होती है। वह मिट्टी जो गाय के खुरों से पवित्र होती है, किसान के श्रम से सींची जाती है, और आकाश की धूप से सुनहरी बनती है। जब तक हम इस मिट्टी का आदर नहीं करेंगे, तब तक कोई भी पूजा पूर्ण नहीं होगी।

इसलिए इस बार जब दीप जलाएँ, तो साथ एक वचन भी लें—कि गोवर्धन पूजा से केवल घर नहीं, मन भी उजले होंगे। श्रद्धा केवल आरती की लौ में नहीं, व्यवहार की रोशनी में भी दिखेगी। तभी हम सच्चे अर्थों में कह सकेंगे—

“गोवर्धन पूजा से श्रद्धा बढ़े, दिखावा नहीं।”

क्योंकि श्रद्धा बढ़ी तो ईश्वर अपने आप हमारे भीतर उतर आएगा, और शायद तब हमें किसी गोवर्धन की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी—क्योंकि हर मन स्वयं पर्वत बन जाएगा।

– डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट