“अंबेडकर या बी.एन. राव? संविधान की सच्ची कथा”

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(इतिहास के साए में छिपा एक सत्य) 

भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा और सर्वाधिक विस्तृत लोकतांत्रिक दस्तावेज है। इसे केवल किसी एक व्यक्ति की देन मान लेना इतिहास के साथ अन्याय होगा। संविधान निर्माण की यात्रा 1919 से प्रारंभ होकर 1949 तक फैली रही, जिसमें अनेक मस्तिष्क, दृष्टिकोण और वैचारिक मतभेद शामिल थे। बी.एन. राव, जिन्होंने संवैधानिक सलाहकार के रूप में प्रारूप तैयार किया, और डॉ. भीमराव अंबेडकर, जिन्होंने ड्राफ्टिंग कमिटी के अध्यक्ष के रूप में उसे संविधान सभा के सामने रखा—दोनों की भूमिकाएँ भारतीय लोकतंत्र के दो स्तंभ हैं। इस लेख में उन्हीं के योगदान का वस्तुपरक मूल्यांकन प्रस्तुत है।

— डॉ. सत्यवान सौरभ

भारत के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक 26 नवम्बर 1949 का दिन है, जब संविधान सभा ने भारत के संविधान को अंगीकृत किया। यह दस्तावेज़ केवल एक कानूनी ढांचा नहीं, बल्कि एक जीवंत दर्शन है—स्वतंत्रता, समानता और न्याय का प्रतीक। परंतु समय के साथ यह प्रश्न उठता रहा है कि आखिर इस संविधान का वास्तविक निर्माता कौन था? क्या यह केवल डॉ. भीमराव अंबेडकर की रचना थी, या इसके पीछे बी.एन. राव जैसे मौन परंतु निर्णायक व्यक्तित्व की भूमिका अधिक थी?

संविधान निर्माण की कहानी केवल 1947 से नहीं शुरू होती। इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं—1919 के मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों से लेकर 1935 के भारत सरकार अधिनियम तक। इन्हीं सुधारों ने पहली बार भारत में संघीय शासन की अवधारणा को जन्म दिया। उसी काल में एक नाम उभरता है—सर बिनोद बिहारी नारायण राव, जिन्हें बाद में बी.एन. राव के नाम से जाना गया। ब्रिटिश प्रशासन में उच्च न्यायिक और संवैधानिक पदों पर कार्य करते हुए उन्होंने भारतीय प्रशासनिक ढांचे की बारीक समझ विकसित की।

1930 के दशक में जब द्वितीय गोलमेज सम्मेलन आयोजित हुए, तब भारत में स्वशासन की दिशा स्पष्ट हो चुकी थी। 1932 के बाद, बी.एन. राव को औपचारिक रूप से संविधान निर्माण की प्रारंभिक तैयारियों में शामिल किया गया। दिल्ली में उनके नेतृत्व में ‘संविधान निर्माण कार्यालय’ स्थापित किया गया। 1944 में उन्हें “संविधान सलाहकार” (Constitutional Adviser) और 1946 में “मुख्य संवैधानिक सलाहकार” (Principal Constitutional Adviser) नियुक्त किया गया। उनका कार्य था—अब तक बने सभी संवैधानिक मसौदों, ब्रिटिश कानूनों, प्रांतीय विधानमंडलों की रिपोर्टों और भारतीय नेताओं के सुझावों को संकलित कर एक आधारभूत प्रारूप तैयार करना।

14 जुलाई 1946 को जब संविधान सभा के गठन की औपचारिक घोषणा हुई, तब तक राव ने अपने कार्यालय में संविधान के कई मसौदे और कानूनी सुझाव एकत्र कर लिए थे। इसी का परिणाम था कि उन्होंने 30 अक्टूबर 1947 को संविधान का “प्रारंभिक मसौदा” (First Draft) तैयार कर संविधान सभा को सौंपा। यह मसौदा आगे चलकर भारतीय संविधान का आधार बना।

इसी बीच, राजनीतिक घटनाक्रम तेजी से बदल रहे थे। 1946 में संविधान सभा के चुनाव हुए। डॉ. भीमराव अंबेडकर, जो उस समय तक एक प्रसिद्ध विधिवेत्ता और दलित अधिकारों के समर्थक के रूप में जाने जाते थे, महाराष्ट्र से चुनाव हार गए। किंतु लार्ड वावेल और बाद में माउंटबेटन के आग्रह पर, नेहरू और कांग्रेस नेतृत्व ने यह माना कि अंबेडकर जैसे विद्वान व्यक्ति का संविधान सभा में होना आवश्यक है। फलस्वरूप, बंगाल की मुस्लिम लीग ने अपने कोटा से उन्हें एक सीट दी, जिससे वे जुलाई 1947 में संविधान सभा में प्रवेश कर सके।

संविधान सभा ने 29 अगस्त 1947 को एक “ड्राफ्टिंग कमिटी” का गठन किया, जिसमें अंबेडकर को अध्यक्ष नियुक्त किया गया। इस समिति का कार्य बी.एन. राव द्वारा तैयार किए गए प्रारूप का पुनरीक्षण कर उसे अंतिम रूप देना था। राव उस समय समिति के आधिकारिक सलाहकार के रूप में जुड़े रहे। यही वह बिंदु है जहाँ से अंबेडकर की भूमिका निर्णायक रूप में सामने आती है।

डॉ. अंबेडकर का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने राव के मसौदे को केवल कानूनी दस्तावेज़ नहीं रहने दिया—उसे सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों की भावना से भर दिया। संविधान के अनुच्छेद 12 से 35 तक के मौलिक अधिकारों का स्वरूप उसी दृष्टि का परिणाम है। समानता, स्वतंत्रता, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता और संवैधानिक उपचार जैसे प्रावधान अंबेडकर के समाजदर्शी दृष्टिकोण से जुड़े हुए हैं।

यद्यपि कई मौलिक विचार और संस्थागत ढांचे जैसे सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट, संघीय ढांचा, नीति निर्देशक तत्व आदि पहले से ही संविधान सभा में चर्चा के लिए रखे जा चुके थे, किंतु अंबेडकर ने उन्हें व्यवहारिक और भारतीय सामाजिक संरचना के अनुरूप ढाला। यही कारण है कि संविधान को एक “जीवित दस्तावेज़” कहा जाता है।

बी.एन. राव और अंबेडकर की भूमिकाएँ परस्पर पूरक थीं। राव का दृष्टिकोण विधिक और संरचनात्मक था, जबकि अंबेडकर का दृष्टिकोण सामाजिक और सुधारवादी। राव ने संविधान की नींव रखी, अंबेडकर ने उसे आत्मा दी। यही संतुलन भारतीय संविधान को अद्वितीय बनाता है।

यह भी सच है कि संविधान का उद्देश्य प्रस्ताव (जो बाद में प्रस्तावना या ‘प्रीऐम्बल’ कहलाया) जनवरी 1947 में ही संविधान सभा द्वारा पारित किया जा चुका था। उसमें भारत को “संपूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य” घोषित करने की भावना पहले से ही दर्ज थी। इसी प्रकार, मौलिक अधिकारों पर भी चर्चा जून 1947 से शुरू हो चुकी थी। परंतु इन सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप देने का श्रेय ड्राफ्टिंग कमिटी को जाता है, जिसका नेतृत्व अंबेडकर कर रहे थे।

आजादी के बाद जब संविधान लागू हुआ, तो दुनिया ने देखा कि कैसे एक विविध, बहुभाषी, बहुधर्मी देश एक संवैधानिक ढांचे के भीतर एकजुट रह सकता है। यह उपलब्धि केवल किसी एक व्यक्ति की नहीं थी—यह उन सभी 299 सदस्यों की थी जिन्होंने संविधान सभा में बैठकर 2 वर्ष 11 माह 18 दिन तक विचार-विमर्श किया। परंतु यह भी तथ्य है कि बी.एन. राव के बिना वह बुनियादी ढांचा अस्तित्व में नहीं आ पाता, और अंबेडकर के बिना वह ढांचा आत्माहीन रह जाता।

इतिहास में अक्सर ऐसा होता है कि राजनीतिक प्रतीक किसी बौद्धिक योगदान को ढँक लेते हैं। अंबेडकर एक जननायक थे, इसलिए स्वाभाविक रूप से उनका नाम अधिक प्रसिद्ध हुआ। राव का योगदान मौन था, परंतु गहराई से निर्णायक था। यह स्थिति वैसी ही है जैसे किसी वास्तुकार ने भवन की योजना बनाई हो और किसी अन्य ने उसे जीवन देकर सजाया हो। दोनों में से किसी एक को भी हटाया जाए, तो वह रचना अधूरी रह जाती है।

अब समय आ गया है कि भारतीय समाज अपने संविधान के निर्माण की कहानी को केवल व्यक्ति-पूजा की दृष्टि से नहीं, बल्कि एक संस्थागत और बौद्धिक प्रक्रिया के रूप में देखे। संविधान किसी एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि भारत की सामूहिक चेतना का परिणाम है—उस चेतना का, जिसने गुलामी के बाद लोकतंत्र का स्वप्न देखा और उसे वास्तविकता में बदला।

यदि आज हम स्वतंत्र भारत के नागरिक हैं, समानता और स्वतंत्रता के अधिकारों का उपयोग करते हैं, तो हमें उन सभी को नमन करना चाहिए जिन्होंने इस यात्रा को संभव बनाया। बी.एन. राव का गहन विधिक ज्ञान, डॉ. अंबेडकर की सामाजिक दृष्टि, जवाहरलाल नेहरू की राजनीतिक दूरदर्शिता, सरदार पटेल की संगठन क्षमता—ये सभी उस विराट वृक्ष की जड़ें हैं जिसे हम भारतीय संविधान कहते हैं।

इसलिए यह विवाद कि “वास्तविक निर्माता कौन है”—संकीर्ण दृष्टिकोण है। सही प्रश्न यह होना चाहिए कि “हमारी संविधान प्रक्रिया में किसने कौन-सा अवदान दिया।” इतिहास न्याय तब करता है जब वह संपूर्ण सत्य को देखता है, न कि केवल प्रसिद्ध चेहरों को। बी.एन. राव और डॉ. अंबेडकर दोनों ही उस इतिहास के अपरिहार्य अध्याय हैं—एक ने संविधान की रचना की, दूसरे ने उसे आत्मा दी।

— डॉ. सत्यवान सौरभ

 नफ़रत के सौदागरों,सद्भावना पंजाब से सीखो

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                                  − निर्मल रानी

 आज जबकि देश के किसी न किसी भाग से नफ़रत,हिंसा,दंगा,फ़साद,मॉब लिंचिंग,मस्जिद,नमाज़,अज़ान के विरोध व समुदाय अथवा सम्प्रदाय विशेष को लक्षित कर सरे आम नफ़रती भाषणबाज़ी करने जैसी ख़बरें सुनाई देती हों ऐसे समय में जब देश के किसी भी कोने से साम्प्रदायिक सद्भाव व सामाजिक एकता की कोई ख़बर सुनाई दे तो निश्चित रूप से ऐसा प्रतीत होने लगता है कि सदियों से सांझी तहज़ीब व विरासत के साथ रहना वाले हमारे देश भारत में साम्प्रदायिक ताक़तों की तमाम सक्रियता व कोशिशों के बावजूद यहाँ तक कि सत्ता संरक्षित ऐसे दुष्प्रयासों के बाद भी अभी भी हमारे देश में साम्प्रदायिक एकता व सद्भाव की ठंडी व सुकून बख़्शने वाली हवा चल रही है। और निश्चित रूप से यही सुकून बख़्श सद्भावना पूर्ण ठंडी हवा हमारे देश की ‘अनेकता में एकता ‘ जैसी विश्वव्यापी अवधारणा को प्रमाणित करती है। हालाँकि देश के अनेक राज्य अनेकता में एकता के तमाम ऐतिहासिक,आध्यात्मिक व धार्मिक उदाहरण पेश करते हैं परन्तु पंजाब जैसी संतों व पीरों फ़क़ीरों की पावन धरती ने इस विषय में हमेशा से ही अपना अग्रणी किरदार निभाया है। 

                         उदाहरण के तौर पर  जब पांचवें सिख गुरु, गुरु अर्जन देव जी ने 1588 में स्वर्ण मंदिर की संग ए बुनियाद रखी तो इस पुनीत कार्य के लिये उन्होंने उस समय के सुप्रसिद्ध क़ादिरी सूफ़ी फ़क़ीर मियां मीर बख़्श उर्फ़ ‘मियां मीर’ को चुना। गुरु अर्जन देव और मियां मीर के बीच गहरी आध्यात्मिक मित्रता थी। उस दौर में मियां मीर को उनकी पवित्रता, भक्ति और मानवता के लिए विश्वव्यापी सम्मान प्राप्त था। गुरु अर्जन देव जी ने सिख धर्म की सर्वधर्म समभाव की मूल भावना को दुनिया को दिखाने के लिये ऐसा किया था। ऐसा कर गुरु अर्जन देव ने यह साबित कर दिया कि सिख धर्म की बुनियाद प्रेम, एकता और भाईचारे पर आधारित है। सिखों के विश्व के सबसे बड़े धार्मिक स्थल की बुनियाद मियां मीर जैसे मुस्लिम सूफ़ी संत से रखवाए जाने पर निःसंदेह पूरे विश्व में यह संदेश गया कि सिख धर्म सभी धर्मों का सम्मान करता है और मानवता को एकजुट करने में विश्वास रखता है। इसी तरह पहले सिख गुरु,गुरु नानक देव् जी का भी अनेक मुस्लिमों फ़क़ीरों से गहरा प्यार था। इनमें मुस्लिम समुदाय से ही सम्बन्ध रखने वाले मर्दाना का नाम ख़ासतौर पर सिख इतिहास में सुनहरे अक्षरों से लिखा जाता है। गुरु नानक व मर्दाना के बीच गहरा आध्यात्मिक और मैत्रीपूर्ण संबंध था। मर्दाना की सादगी, भक्ति और गुरु नानक के प्रति निष्ठा ने उन्हें सिख इतिहास में विशेष स्थान दिलाया। मर्दाना गुरु नानक के साथ लगभग 27 वर्षों तक रहे। 

                    इसी तरह 1705 में घटी सरहिंद की वह घटना इतिहास में एक मील के पत्थर के समान है जिसमें मलेरकोटला के नवाब शेर मुहम्मद ख़ान ने औरंगज़ेब के शासनकाल के तत्कालीन न्यायाधीश वज़ीर ख़ान के उस आदेश का अदालत में खड़े होकर सार्वजनिक तौर पर विरोध किया था जिसमें  गुरुगोविंद सिंह के दो बच्चों 9 वर्षीय साहिबज़ादा ज़ोरावर सिंह और 7 वर्षीय साहिबज़ादा फ़तेह सिंह को दीवार में ज़िंदा चुनवाने का हुक्म दिया गया था।  इस क्रूर सज़ा का तत्कालीन नवाब मलेरकोटला शेर मोहम्मद ख़ान ने यह कहते हुये विरोध किया था कि मासूम बच्चों को मारना इस्लाम की शिक्षाओं के विरुद्ध है। उन्होंने तर्क दिया था कि युद्ध के नियमों में महिलाओं और बच्चों को नुक़्सान नहीं पहुंचाया जाता, और यह कृत्य धार्मिक रूप से अनुचित है। यही वजह है कि मलेरकोटला आज भी पंजाब का ऐसा मुस्लिम बहुल क्षेत्र है जहां हिंदू, सिख और मुस्लिम हमेशा शांति से रहते आ रहे हैं। यहाँ तक कि 1947 के भारत-पाक विभाजन के दौरान जब पंजाब के बड़े इलाक़े में भयानक दंगे हुए उस समय भी मलेरकोटला में कोई हिंसा नहीं हुई। यहाँ के सिखों ने मलेरकोटला के मुस्लिमों की न केवल रक्षा की बल्कि उन्हें पाकिस्तान की ओर कुछ भी नहीं करने दिया। क्योंकि वे गुरु गोविंद सिंह के दोनों साहबज़ादों को दीवार में ज़िंदा चुने जाने के नवाब के विरोध को हमेशा याद रखते आ रहे हैं। यहां तक कि 1947 में पड़ोसी क्षेत्रों से भागे मुस्लिमों को भी मलेरकोटला में शरण तक मिली थी।

                  साम्प्रदायिक सद्भावना की मिसाल पेश करने वाली पंजाब की इसी पवित्र धरती से पिछले दिनों एक और ख़ुशगवार ख़बर सुनाई दी। यहाँ के मशहूर शहर पटियाला के निकट एक गांव में 18वीं-19वीं शताब्दी की बताई जा रही एक मस्जिद जोकि देश के विभाजन के बाद से सुनसान पड़ी थी उस वीरान मस्जिद भवन को स्थानीय सिख परिवारों संभाल रखा था। क्योंकि आसपास मुस्लिम आबादी की कमी थी जिससे यहाँ नमाज़ की अदायगी नहीं हो पा रही थी। विगत 21 अक्टूबर को सरपंच हरप्रीत सिंह के नेतृत्व में सिख समुदाय ने औपचारिक रूप से इस मस्जिद को स्थानीय मुस्लिम परिवारों और वक़्फ़ बोर्ड को सौंप दिया। सिखों ने न केवल मस्जिद व उसकी ज़मीन वापस की बल्कि इस जीर्ण अवस्था की मस्जिद के जीर्णोद्धार हेतु 5 लाख रुपये का योगदान भी दिया। इस घटना पर केवल मुस्लिम या सिख ही नहीं बल्कि स्थानीय हिंदू समुदाय द्वारा भी ख़ुशी मनाई गयी और सब ने मिलकर मिठाइयां बांटकर इस अवसर पर सामूहिक रूप से जश्न मनाया। अब यहां मुस्लिम समाज द्वारा रोज़ाना नमाज़ अदा की जा रही है। 

                     ऐसी ही ख़बर अमृतसर ज़िले की अजनाला तहसील के रायज़ादा गांव से आई। रावी नदी के तट पर बसे इस गांव में एक मस्जिद 1947 से बंद पड़ी थी। लगभग खंडहर का रूप ले चुकी इस मस्जिद  को भी स्थानीय सिख किसानों ने संभाल रखा था परन्तु नमाज़ के लिए इसका भी उपयोग नहीं हो रहा था। गत 21 अक्टूबर  को ही यहां के सरपंच सरदार ओमकार सिंह के नेतृत्व में सिख, हिंदू, मुस्लिम, ईसाई और दलित समुदाय के लोगों ने मिलकर इस मस्जिद को मुस्लिम समुदाय को सौंप दिया। और विगत शुक्रवार को विशेष जुमे की नमाज़ के दौरान पहली बार यहां अज़ान की आवाज़ सुनाई दी। इस में सैकड़ों लोग शामिल हुए। इस मस्जिद के जीर्णोद्धार में आठ लाख रुपये ख़र्च हुए, जिसमें आधे से अधिक रक़म का योगदान सिख भाइयों द्वारा किया गया। अब यहाँ प्रतिदिन पास ही स्थित गुरुद्वारे से गुरबानी की और मस्जिद से अज़ान की आवाज़ें एक साथ गूंजती है, जो सद्भाव की अनोखी तस्वीर पेश करती है। यहाँ भी सभी समुदाय के ग्रामवासियों ने इस अवसर पर जश्न मनाया और मिठाइयां बांटकर उत्सव मनाया। पंजाब व हरियाणा में भी पूर्व में इसी तरह की कई ख़बरें आती रही हैं। 

                        ऐसी ख़बरें उन स्वयंभू राष्ट्रवादियों के लिये सबक़ सीखने वाली हैं जिन्हें संस्कारों में नफ़रत हिंसा और विद्वेष में ही हासिल हुआ है। आज टी वी डिबेट में ज़हरीली ख़बरों में, धर्मगुरुओं के बयानों में नेताओं के भाषणों में हर जगह प्रायः नफ़रत ही परोसी जा रही है। नफ़रत के ऐसे सौदागरों को और राष्ट्र विभाजक तत्वों को दरअसल पंजाब से सद्भावना सीखने की ज़रुरत है।                                                                    

 

 निर्मल रानी 

  कविता से तलवार का काम लेने वाला कवि अदम गोंडवी

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आज जिनका जन्मदिन है

अदम गोंडवी भारतीय कवि थे। घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में सफेद गमछा। मंच पर मुशायरों के दौरान जब अदम गोंडवी ठेठ गंवई अंदाज़में हुंकारते थे तो सुनने वालों का कलेजा चीर कर रख देते थे। अदम गोंडवी की पहचान जीवन भर आम आदमी के शायर के रूप में ही रही। उन्होंने हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में हिंदुस्तान के कोने-कोने में अपनी पहचान बनाई थी। अदम गोंडवी कवि थे और उन्हें कविता में गंवई जिंदगी की बजबजाहट, लिजलिजाहट और शोषण के नग्न रूपों को उधेड़ने में महारत हासिल थी। वह अपने गांव के यथार्थ के बारे में कहा करते थे- “फटे कपड़ों में तन ढ़ाके गुजरता है जहां कोई/समझ लेना वो पगडंडी ‘अदम’ के गांव जाती है।”

भारतीय जनकवि अदम गोंडवी हिंदी साहित्य के उन विरल कवियों में से हैं जिन्होंने कविता को सत्ता या अकादमिक गलियारों से निकालकर सीधे जनता के बीच पहुंचाया। उन्होंने शब्दों को शस्त्र बनाया और अपने समय की सामाजिक असमानता, राजनीतिक भ्रष्टाचार और जातीय भेदभाव पर गहरी चोट की। एदम गोंडवी का नाम आते ही वह लोकभाषा में लिखी गई कविताएं याद आती हैं जो आम आदमी की पीड़ा और संघर्ष को स्वर देती हैं।

जीवन परिचय

अदम गोंडवी का असली नाम रामनाथ सिंह था। उनका जन्म 22 दिसंबर 1947 को उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले के परसपुर ब्लॉक के आटा ग्राम में हुआ था। वे एक साधारण किसान परिवार से थे और बचपन से ही ग्रामीण जीवन की विषमताओं, गरीबी और जातिगत असमानताओं से परिचित थे। यही अनुभव बाद में उनकी कविताओं की आत्मा बने।

दम गोंडवी की औपचारिक शिक्षा बहुत आगे तक नहीं जा सकी, लेकिन उन्होंने जीवन के कठोर अनुभवों से सीखा। साहित्य और राजनीति दोनों में उनकी रुचि थी। वे समाजवादी विचारधारा से प्रभावित रहे और डॉ. राममनोहर लोहिया तथा बाबा नागार्जुन जैसे कवियों से प्रेरणा ली। उनका जीवन भले सादगी से भरा रहा, परंतु उनकी कविता ने सत्ता के गलियारों तक आवाज़ पहुँचाई।

1998 में मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें दुष्यन्त कुमार पुरस्कार से सम्मानित किया। 2007 में उन्हें अवधी/हिंदी में उनके योगदान के लिए शहीद शोध संस्थान द्वारा माटी रतन सम्मान से सम्मानित किया गया था। 18 दिसंबर 2011 को उनका निधन हो गया, लेकिन उनकी रचनाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उनके समय में थीं।

कविता का स्वरूप और विषयवस्तु

अदम गोंडवी की कविताएँ जनजीवन की वास्तविकता का दस्तावेज़ हैं। उन्होंने शहरी चमक-दमक से दूर गांवों के भूले-बिसरे लोगों, दलितों, किसानों, मजदूरों और वंचित वर्ग की पीड़ा को अभिव्यक्ति दी।

उनकी भाषा खड़ीबोली और अवधी का मिश्रण है — सहज, बोलचाल की और जनता से जुड़ी हुई। यही कारण है कि उनकी कविताएं पाठशालाओं की चारदीवारी से निकलकर जनसभाओं और आंदोलनों का हिस्सा बन गईं।

वे ‘कविता को जन के पक्ष में हस्तक्षेप का माध्यम’ मानते थे। उनके अनुसार,

> “कविता अगर अन्याय के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाती, तो वह कविता नहीं, शृंगार मात्र है।”

सामाजिक चेतना और राजनीतिक व्यंग्य

एदम गोंडवी की रचनाओं में समाज की सच्चाई का नंगा चेहरा दिखाई देता है। उन्होंने गरीबी, भूख, साम्प्रदायिकता और भ्रष्टाचार को खुलकर चुनौती दी। उनकी कविताओं में गुस्सा भी है, व्यंग्य भी, और गहरी करुणा भी।

उनकी प्रसिद्ध कविता ‘चमारों की गली’ में भारतीय समाज की जातिवादी संरचना पर तीखा प्रहार किया गया है —

 “तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है,

मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है।

उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो,

इधर परधान साहब बेटियों को बेच देते हैं।”

यह कविता केवल एक गांव की कहानी नहीं है, बल्कि पूरे भारतीय लोकतंत्र का कटु यथार्थ बयान करती है।

एदम गोंडवी की कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। उनकी प्रसिद्ध काव्य-संग्रहों में प्रमुख हैं —

1. धरती की सतह पर

2. समर शेष है

3. संपूर्ण कविताएँ (संकलन)

उनकी कुछ प्रसिद्ध कविताएँ हैं —

चमारों की गली,धरती की सतह पर,जाति पर व्यंग्य करती कविता ‘मुसलमान’, सामाजिक असमानता पर ‘जनता की भाषा में’, ‘संविधान क्या तुम्हें बचा पाएगा’,‘तुम्हारी सभ्यता’ ‘सवाल पूँछता है जनता

अदम गोंडवी की पंक्तियाँ सीधे हृदय को छूती हैं —

> “जो चुप रहेगी भाषा, वो कायर कहलाएगी,

जो सच कहेगी भाषा, वो बागी कहलाएगी।”

> “सच बोलना अगर गुनाह है तो मैं गुनहगार हूँ,

झूठ की मंडी में सच्चाई का कारोबार हूँ।”

> “मुसलमान और हिन्दू दो हैं ऐसे दर्द के साथी,

एक का जख्म राम कहे, दूजा खुदा पुकारे।”

—कविता में लोकधारा का प्रभाव

अदम गोंडवी की कविता में अवधी लोकधारा और भक्ति परंपरा का गहरा प्रभाव है। उनकी कविता में तुलसीदास की करुणा, कबीर की सच्चाई और नागार्जुन की जनपक्षधरता दिखाई देती है। वे ‘लोककवि’ इस अर्थ में हैं कि उनकी कविता जनता की ज़ुबान में बोलती है और जनता के पक्ष में खड़ी होती है।

–साहित्यिक योगदान और प्रभाव

अदम गोंडवी ने हिंदी कविता को वह आवाज़ दी जो जन आंदोलनों और सामाजिक बदलाव की मांग करती है। उनकी कविताएँ विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं और नई पीढ़ी के कवियों को जनपक्षधरता का मार्ग दिखाती हैं।

वे न पुरस्कार के भूखे थे, न प्रसिद्धि के। उन्होंने कहा था —

> “मुझे अपने शब्दों पर भरोसा है,

ये किसी पुरस्कार से ज़्यादा कीमती हैं।”

उनकी कविताएँ आज भी सामाजिक और राजनीतिक विमर्श का हिस्सा हैं। वे हमें यह सिखाती हैं कि साहित्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि संघर्ष का दस्तावेज़ भी है।

उपसंहार

अदम गोंडवी की कविताएँ भारतीय लोकतंत्र की अंतःकथाएँ हैं — वह लोकतंत्र जो आज भी गांवों, झोपड़ियों और खेतों में अधूरा है। उन्होंने जनता के पक्ष में खड़े होकर कविता को हथियार बनाया और साबित किया कि एक सच्चा कवि वही है जो जनता की पीड़ा को अपनी आवाज़ बनाए।

आज जब समाज में असमानता, जातिवाद और सत्ता का दुरुपयोग फिर उभर रहा है, तो एदम गोंडवी की कविताएँ और भी ज़्यादा प्रासंगिक हो उठती हैं। वे हमें याद दिलाती हैं कि कविता केवल शब्द नहीं, बल्कि परिवर्तन की चिंगारी है।

—निष्कर्ष में

अदम गोंडवी भारतीय जनकविता की वह मशाल हैं, जो अंधकार में भी रोशनी देती है। उनकी पंक्तियाँ आज भी चेतावनी की तरह गूंजती हैं —

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको” : अदम गोंडवी

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर

मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी

आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा

मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई

लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है

जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को

सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से

घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में

क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्णा बेख़बर राहों में थी

मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई

छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया

वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में

होश में आई तो कृष्णा थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था

जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है

पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं

कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें

और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

अदम गोंडवी ने लिखा था

…. जितने हरामख़ोर थे क़ुर्बो-जवार में

परधान बनके आ गए अगली क़तार में

दीवार फाँदने में यूँ जिनका रिकॉर्ड था

वे चौधरी बने हैं उमर के उतार में

फ़ौरन खजूर छाप के परवान चढ़ गई

जो भी ज़मीन ख़ाली पड़ी थी कछार में

बंजर ज़मीन पट्टे में जो दे रहे हैं आप

ये रोटी का टुकड़ा है मियादी बुख़ार में

जब दस मिनट की पूजा में घंटों गुज़ार दें

समझो कोई ग़रीब फँसा है शिकार में

ख़ुदी सुक़रात की हो या कि हो रूदाद गांधी की ,

सदाक़त जिन्‍दगी के मोर्चे पर हार जाती है ।

फटे कपड़ों से तन ढ़ांके गुजरता हो जहां कोई

समझ लेना वो पगडण्‍डी ‘अदम’ के द्वार आती है ।

(अदम गोंडवी)

जनरेशन अल्फ़ा की बेचैन बुद्धिमत्ता

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“मुझे नियम पता हैं, कृपया उन्हें समझाना शुरू मत कीजिए”

आज के बच्चों की आँखों में ज्ञान की नहीं, प्रतिक्रिया की चमक है। वे सुनना नहीं चाहते, क्योंकि हमने उन्हें सुना ही नहीं। “मुझे नियम पता हैं, कृपया उन्हें समझाना शुरू मत कीजिए” – यह वाक्य केवल एक बाल संवाद नहीं, बल्कि आधुनिक पालन-पोषण की थकान, असुरक्षा और भावनात्मक दूरी का आईना है। जब बच्चा यह कहता है, वह नियम नहीं, रिश्ते के स्वरूप पर सवाल उठा रहा होता है। यह समय बच्चों को अनुशासन नहीं, संवाद सिखाने का है — वरना आने वाला समाज समझदार तो होगा, पर संवेदनशील नहीं।

✍️ डॉ. प्रियंका सौरभ

जब मैंने ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में दस वर्षीय बालक इशित का वह दृश्य देखा जिसमें उसने अमिताभ बच्चन से कहा – “मुझे नियम पता हैं, कृपया उन्हें समझाना शुरू मत कीजिए”, तो मैं तनिक भी अचंभित नहीं हुई। मैंने ऐसे अनेक बालक देखे हैं जिनके शब्दों में आयु से अधिक प्रौढ़ता होती है, पर भावनाओं में बचपन कहीं पीछे छूट जाता है।

समाज माध्यमों पर किसी ने उसे घमंडी कहा, किसी ने कहा कि माता–पिता ने संस्कार नहीं दिए। पर सच्चाई इन त्वरित प्रतिक्रियाओं से कहीं अधिक गहरी है। वह बालक दरअसल एक पूरी पीढ़ी का दर्पण था – वह पीढ़ी जिसे हम अल्फा पीढ़ी कहते हैं, सबसे तेज़, सबसे अधीर और सबसे अस्थिर पीढ़ी।

ये बच्चे उस युग में पल रहे हैं जहाँ हर प्रश्न का उत्तर एक स्पर्श भर की दूरी पर है। इनके बचपन में खेलों की जगह मोबाइल है, साथियों की जगह परदे की चमक है। इन्हें सब कुछ “तुरंत” चाहिए – उत्तर भी, ध्यान भी, प्रशंसा भी। पर इस तात्कालिकता की कीमत चुकानी पड़ रही है। उनके मस्तिष्क का वह भाग जो धैर्य, निर्णय और भावनाओं का नियंत्रण संभालता है, परिपक्व होने से पहले ही सूचना की बाढ़ में बह जाता है। परिणाम यह कि विचार की गति बहुत तेज़ हो गई है, पर नियंत्रण की क्षमता कमज़ोर होती जा रही है। ये बच्चे जानते बहुत हैं, पर ठहरकर सुनना नहीं जानते।

इशित का व्यवहार उसी बेचैनी का प्रतीक था। उसके शब्दों में आत्मविश्वास था, पर उस आत्मविश्वास के पीछे एक छिपा हुआ भय भी था। जिस आयु में बच्चों को प्रश्न पूछने चाहिए, वह उत्तर देने को उतावला था। यह केवल एक बच्चे की प्रवृत्ति नहीं, बल्कि एक व्यापक सामाजिक स्थिति का संकेत है। यह व्यवहार किसी मानसिक रोग का नहीं, बल्कि असंतुलित विकास का परिणाम है। जब कोई बच्चा हर समय आगे बोलने, अपने को सही सिद्ध करने और ध्यान आकर्षित करने में लगा रहे, तो वह भीतर से किसी अदृश्य दबाव में जी रहा होता है।

अक्सर ऐसे बच्चे किसी अदृश्य प्रतियोगिता में बंधे रहते हैं। वे यह मान लेते हैं कि उन्हें हर हाल में बुद्धिमान और सफल दिखना ही है। उनका यह दिखावटी आत्मविश्वास एक परदे की तरह होता है जिसके पीछे असुरक्षा, डर और प्रदर्शन की चिंता छिपी रहती है। इशित ने जब कहा – “यदि मैं बारह लाख रुपये नहीं जीत पाया तो मुझे आपके साथ चित्र खिंचवाने की अनुमति नहीं होगी”, तब यह स्पष्ट था कि उसके आत्म–मूल्य को उपलब्धि से जोड़ दिया गया है। यह दबाव परिवार, विद्यालय और समाज तीनों की अपेक्षाओं से उपजता है।

आज के माता–पिता अपने बच्चों की बुद्धि और जीत की प्रशंसा करते हैं, पर उनकी भावनाओं पर कम ध्यान देते हैं। बच्चों को चतुर बनाना प्राथमिकता है, संयमी बनाना नहीं। यह भूल जाना कि बच्चों की सीखने की सबसे बड़ी शक्ति उनका अनुकरण है। वे हमारे शब्दों से नहीं, हमारे व्यवहार से सीखते हैं। यदि घर में झुँझलाहट, अधैर्य और कटुता है, तो वही रूप वे समाज में दोहराएँगे। परिवार में जो स्वभाव बीज की तरह बोया जाता है, वही समाज में वृक्ष बनकर उगता है।

विद्यालयों में भी यही दृश्य है। सातवीं कक्षा का विद्यार्थी कहता है – “मुझे सब कुछ पहले से ज्ञात है।” आठवीं की छात्रा समाज माध्यमों पर मिले प्रेम और लोकप्रियता के जाल में उलझकर टूट जाती है। यह केवल अभिभावकों की भूल नहीं, बल्कि उस शिक्षा प्रणाली की भी है जो हर बालक से एक समान गति और परिणाम की अपेक्षा रखती है। जो बच्चा उस साँचे में फिट नहीं बैठता, वह विद्रोही कहलाता है। कभी–कभी उसका विद्रोह केवल अपनी असंगति का स्वर होता है, अपराध नहीं।

हमारे समय का सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि हमने ज्ञान को तेज़ी का पर्याय बना दिया है। तकनीकी निपुणता को परिपक्वता समझ लिया है। पर असली संकट यह है कि हमारी नई पीढ़ी भावनात्मक रूप से अस्थिर होती जा रही है। वह बाहर की दुनिया से तो संवाद करती है, पर अपने भीतर से नहीं। विद्यालय, उपकरण और समाज की स्पर्धा ने बच्चों से बचपन का ठहराव छीन लिया है। अब जो बच्चा शांत है, उसे “धीमा” कहा जाता है, और जो शोर करता है वही “सफल” कहलाता है। यही हमारी सभ्यता का उलटापन है।

समस्या बच्चे में नहीं, हमारी दृष्टि में है। हमने बच्चों को बोलना सिखाया, पर सुनना नहीं; ज्ञान दिया, पर संवेदना नहीं। हमने उन्हें उपलब्धि का पाठ पढ़ाया, पर संतुलन का नहीं। इसीलिए आज जो बच्चा अपनी भावना व्यक्त करता है, उसे तुरंत दोषी ठहरा दिया जाता है – “संस्कारहीन”, “घमंडी”, “बाग़ी”। पर वह बच्चा केवल हमारी अपनी अधीरता का प्रतिबिंब है। हमारे घर, हमारे विद्यालय और हमारा समाज मिलकर उस मासूम मन को एक मशीन में बदल रहे हैं जो बोलता तो बहुत है पर समझता कम है। अब शिक्षा में प्रतियोगिता है, पालन–पोषण में प्रदर्शन है और समाज में तुलना है। इन तीनों ने मिलकर बच्चे के मन से उसकी सहजता छीन ली है।

अब आवश्यकता है सोच और प्रणाली दोनों को बदलने की। बच्चों को केवल ज्ञान नहीं, संवेदना की शिक्षा चाहिए। उन्हें जीतना नहीं, ठहरना सिखाना होगा। यदि हमने यह दिशा नहीं बदली तो विनम्रता और धैर्य जैसी गुणों को ही असामान्यता कहा जाएगा। समाज उस ओर बढ़ रहा है जहाँ शांत व्यक्ति को कमजोर माना जाएगा और चिल्लाने वाले को सफल। यह वह खतरनाक दौर है जहाँ सभ्यता की जड़ें सूखने लगती हैं।

विडंबना यह भी है कि जिन वयस्कों ने उस बालक की आलोचना की, वे स्वयं समाज माध्यमों पर गुस्सा, असम्मान और अपशब्दों की भाषा बोलते हैं। जो पीढ़ी स्वयं संयम खो चुकी है, वह बच्चों को मर्यादा कैसे सिखा सकती है? यही सबसे गहरी चिंता है।

वह बालक दोष नहीं, संकेत है। वह हमें यह दिखाता है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। हम तकनीकी रूप से निपुण, पर मानसिक रूप से थके हुए नागरिक गढ़ रहे हैं। वह बालक हमारे भीतर की हड़बड़ी, हमारी अपेक्षाओं और हमारे असंतुलन का आईना है। उसे डाँटने की नहीं, समझने की आवश्यकता है। हर अति–चतुर बच्चे के भीतर एक उज्ज्वल परंतु डरा हुआ मन छिपा है, जिसे दबाने की नहीं, दिशा देने की ज़रूरत है।

जब तक हम बच्चों को उपलब्धि से अधिक संवेदना, और बुद्धि से अधिक विनम्रता का पाठ नहीं पढ़ाएँगे, तब तक वे हमारी अधूरी आकांक्षाओं के बोझ तले पलते रहेंगे। वह बालक दरअसल हमारा ही प्रतिबिंब था — और शायद अब डर हमें उस प्रतिबिंब से होना चाहिए, जिससे हम मुँह फेरते जा रहे हैं।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

(स्वतंत्र लेखिका, शिक्षाविद् और सामाजिक विश्लेषक)

इंस्टाग्राम पर आपत्तिजनक कंटेंट न देख पाये किशोर

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इंस्टाग्राम ने 18 वर्ष से कम उम्र के किशोरों को आपत्तिजनक कंटेंट से दूर रखने के लिए PG-13 आधारित फ़िल्टर प्रणाली लागू की है। इससे नाबालिग यूज़र्स हिंसक, यौन या मानसिक रूप से हानिकारक सामग्री नहीं देख पाएंगे। माता-पिता अब “सीमित कंटेंट सेटिंग्स” से बच्चों की गतिविधियों पर नज़र रख सकेंगे। यह कदम सोशल मीडिया पर किशोरों की सुरक्षा और मानसिक संतुलन की दिशा में एक बड़ी पहल है। यदि इसे गंभीरता से लागू किया गया, तो यह स्वस्थ और जिम्मेदार डिजिटल समाज के निर्माण की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

डिजिटल युग में सोशल मीडिया आज जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। बच्चा हो या बड़ा, सबकी दिनचर्या का एक अहम समय इंस्टाग्राम, फेसबुक, यूट्यूब और अन्य प्लेटफॉर्म्स पर बीतता है। लेकिन जैसे-जैसे इस आभासी दुनिया की चमक बढ़ी है, वैसे-वैसे इससे जुड़े खतरे भी गहराते गए हैं। सबसे अधिक प्रभावित हो रहे हैं किशोर, जिनकी सोच, मनोवृत्ति और व्यवहार अभी विकसित हो ही रहे हैं। सोशल मीडिया की चकाचौंध में खोए किशोरों के लिए यह प्लेटफॉर्म कभी-कभी सीख का माध्यम तो बनता है, परंतु कई बार यह मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक असंतुलन का कारण भी बन जाता है। इन्हीं चिंताओं को देखते हुए इंस्टाग्राम की मूल कंपनी मेटा ने एक बड़ा कदम उठाया है। कंपनी ने घोषणा की है कि अब 18 वर्ष से कम आयु के किशोर अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर आपत्तिजनक या अनुचित कंटेंट नहीं देख पाएंगे।

यह फैसला केवल तकनीकी नहीं बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। किशोरावस्था वह समय है जब व्यक्ति का मन सबसे संवेदनशील होता है। इस उम्र में जो कुछ देखा, सुना और महसूस किया जाता है, वही आने वाले जीवन की दिशा तय करता है। सोशल मीडिया पर हिंसक, यौन संकेतक या अवसादपूर्ण सामग्री तक आसान पहुँच बच्चों को अनजाने में ऐसे रास्ते पर ले जाती है जहाँ से लौटना कठिन हो जाता है। आत्महत्या की प्रवृत्ति, अवसाद, असुरक्षा और आत्मसम्मान की कमी जैसी मानसिक समस्याएँ सोशल मीडिया की असंयमित दुनिया से गहराई तक जुड़ी हुई हैं। ऐसे में मेटा का यह निर्णय निश्चय ही एक जिम्मेदार पहल है।

मेटा ने यह नीति ऐसे समय में बनाई है जब दुनिया भर में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर बच्चों की सुरक्षा को लेकर गंभीर बहस चल रही है। कई देशों की संसदों और अदालतों में सोशल मीडिया कंपनियों से यह पूछा गया कि वे नाबालिगों की मानसिक सुरक्षा के लिए क्या कदम उठा रही हैं। इंस्टाग्राम पर किशोरों की ऑनलाइन सुरक्षा को लेकर कंपनी पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं। अमेरिकी कांग्रेस से लेकर ब्रिटिश संसदीय समितियों तक में यह मुद्दा गूंज चुका है। मेटा के पूर्व कर्मचारियों ने भी यह खुलासा किया था कि इंस्टाग्राम का एल्गोरिद्म किशोरों को अधिक समय तक प्लेटफॉर्म से जोड़ने के लिए जानबूझकर ऐसे कंटेंट सुझाता है जो मानसिक रूप से अस्थिर कर सकता है। आलोचनाओं के बाद कंपनी ने ‘पैरेंटल सुपरविजन टूल्स’ शुरू किए थे, लेकिन वे सीमित थे। अब कंपनी ने इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए “PG-13 आधारित कंटेंट फ़िल्टरिंग सिस्टम” लागू करने का निर्णय लिया है।

इस नई व्यवस्था के तहत माता-पिता को यह अधिकार होगा कि वे अपने बच्चों की गतिविधियों पर निगरानी रख सकें। 18 वर्ष से कम आयु के यूजर्स को इंस्टाग्राम पर वह सामग्री स्वतः ही नहीं दिखाई देगी जो हिंसक, यौन या आत्मघाती प्रवृत्ति वाली हो। यह प्रणाली फ़िल्टर के माध्यम से काम करेगी जो हॉलीवुड फिल्मों की PG-13 रेटिंग प्रणाली की तरह होगी। जैसे किसी फिल्म को यह रेटिंग तब दी जाती है जब वह 13 वर्ष से ऊपर के बच्चों के लिए उपयुक्त मानी जाती है, वैसे ही अब इंस्टाग्राम पर भी कंटेंट की उपयुक्तता उसी मानक से तय की जाएगी। कंपनी का दावा है कि यह फीचर पहले अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में लागू होगा और वर्ष के अंत तक भारत सहित दुनिया भर में लागू कर दिया जाएगा।

यह कदम इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत सोशल मीडिया यूजर्स के मामले में दुनिया के शीर्ष देशों में है। लाखों किशोर रोजाना इंस्टाग्राम पर सक्रिय हैं। स्कूल जाने वाले बच्चे सेल्फी पोस्ट करने, रील्स बनाने और लाइक्स पाने की दौड़ में इतने उलझ गए हैं कि वास्तविक जीवन की संवेदनाएं और प्राथमिकताएं पीछे छूटती जा रही हैं। किशोरों का आत्ममूल्य अब इस बात से तय होने लगा है कि उन्हें कितने फॉलोअर्स मिले, कितने लोगों ने उनकी पोस्ट को पसंद किया। यह सामाजिक स्वीकृति का नया और खतरनाक रूप है। जब किसी पोस्ट पर अपेक्षित प्रतिक्रिया नहीं मिलती, तो किशोर आत्मग्लानि और अवसाद में डूबने लगते हैं। कई बार इसी निराशा में वे आत्मघाती कदम तक उठा लेते हैं। ऐसे में अगर इंस्टाग्राम किशोरों को आपत्तिजनक सामग्री से दूर रख सके तो यह उनके मानसिक संतुलन और भावनात्मक विकास के लिए अत्यंत लाभकारी होगा।

माता-पिता भी इस कदम से राहत महसूस करेंगे। अब उन्हें यह डर नहीं रहेगा कि उनका बच्चा गलती से किसी गलत दिशा में जा रहा है या अश्लील सामग्री के प्रभाव में आ रहा है। “सीमित कंटेंट सेटिंग्स” के ज़रिए वे यह तय कर पाएंगे कि उनके बच्चे को क्या दिखना चाहिए और क्या नहीं। इससे पारिवारिक संवाद भी बेहतर होगा क्योंकि अभिभावक अब निगरानी के साथ-साथ मार्गदर्शन की भूमिका निभा सकेंगे। बच्चों को भी यह एहसास होगा कि सोशल मीडिया केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं बल्कि ज़िम्मेदारी से इस्तेमाल करने का प्लेटफॉर्म है।

फिर भी यह नीति तभी सफल होगी जब तकनीकी सुरक्षा के साथ-साथ सामाजिक जागरूकता भी बढ़े। केवल फिल्टर लगाने से समस्या पूरी तरह समाप्त नहीं होगी। बच्चे हमेशा तकनीक से एक कदम आगे रहते हैं। वे प्रतिबंधों को पार करने के तरीके खोज लेते हैं। इसलिए आवश्यक है कि स्कूलों, परिवारों और समाज में डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा दिया जाए। बच्चों को यह समझाया जाए कि क्या सही है, क्या गलत है और क्यों कुछ चीज़ें सीमित की जा रही हैं। जब तक उन्हें कारणों की समझ नहीं होगी, वे प्रतिबंधों को नियंत्रण नहीं बल्कि विरोध के रूप में देखेंगे।

यह भी विचारणीय है कि “आपत्तिजनक सामग्री” की परिभाषा हर समाज और संस्कृति में अलग-अलग हो सकती है। जो एक देश में अनुचित माना जाता है, वह दूसरे में सामान्य हो सकता है। इसलिए वैश्विक स्तर पर लागू होने वाले ऐसे नियमों के लिए सांस्कृतिक विविधता और स्थानीय भावनाओं का ध्यान रखना आवश्यक है। मेटा को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसके एल्गोरिद्म स्थानीय भाषाओं और समाज की संवेदनशीलता को समझ सकें। भारत जैसे बहुभाषी देश में यह एक बड़ी चुनौती होगी।

दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि सोशल मीडिया कंपनियों की प्राथमिकता प्रायः मुनाफा होती है, न कि नैतिकता। अधिक यूजर्स का मतलब अधिक विज्ञापन और अधिक राजस्व। ऐसे में किशोरों को प्लेटफॉर्म से दूर रखना या उनके कंटेंट को सीमित करना कंपनी के आर्थिक हितों के विपरीत जा सकता है। इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि मेटा इस नई नीति को कितनी गंभीरता से लागू करता है। यदि यह केवल दिखावटी कदम साबित हुआ तो इसका उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।

सोशल मीडिया के नियमन की यह वैश्विक पहल सरकारों के लिए भी एक संकेत है। डिजिटल दुनिया इतनी प्रभावशाली हो चुकी है कि अब केवल नैतिक अपीलों से काम नहीं चलेगा। जैसे फिल्मों, विज्ञापनों और टीवी कार्यक्रमों पर सेंसरशिप की एक व्यवस्था होती है, वैसे ही सोशल मीडिया के लिए भी संतुलित और स्वतंत्र निगरानी संस्थान आवश्यक हैं। सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कंपनियां केवल नीतियां घोषित न करें बल्कि उनके पालन के लिए पारदर्शी तंत्र भी बनाएं। अभिभावकों को भी सशक्त किया जाए कि वे अपने बच्चों की डिजिटल आदतों पर नज़र रख सकें।

किशोरों को यह समझाने की ज़रूरत है कि इंस्टाग्राम पर लाइक्स या फॉलोअर्स से उनकी असली पहचान तय नहीं होती। आत्मसम्मान, आत्मविश्वास और सामाजिक सहयोग ही जीवन के सच्चे मूल्य हैं। डिजिटल दुनिया असली दुनिया का विकल्प नहीं हो सकती। अगर बच्चे यह समझ जाएँ कि सोशल मीडिया एक साधन है, साध्य नहीं, तो उसकी सकारात्मक क्षमता अपार है।

मेटा का यह निर्णय केवल तकनीकी सुधार नहीं बल्कि एक मानव-केंद्रित दृष्टिकोण की ओर संकेत करता है। आज जब दुनिया के कई हिस्सों में किशोर आत्महत्या, साइबर बुलिंग और ऑनलाइन शोषण के शिकार हो रहे हैं, तब ऐसी पहलें उम्मीद की किरण बनती हैं। लेकिन इसके साथ यह भी ज़रूरी है कि सोशल मीडिया कंपनियाँ पारदर्शिता बरतें। माता-पिता को नियमित रिपोर्ट्स मिलें, बच्चे स्वयं अपने डिजिटल व्यवहार का मूल्यांकन करें और शिक्षण संस्थान इस विषय को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाएं।

कई अध्ययनों में यह साबित हुआ है कि सोशल मीडिया की अधिकता से किशोरों में चिंता, नींद की कमी और आत्मसंतुष्टि में गिरावट आती है। लगातार दूसरों से तुलना करने की प्रवृत्ति उन्हें हीनभावना की ओर धकेल देती है। “परफेक्ट बॉडी”, “ग्लैमरस लाइफस्टाइल” और “फिल्टर की दुनिया” में वे असलियत से कटते चले जाते हैं। मेटा यदि अपने नए सिस्टम के ज़रिए इन खतरों को कम कर सके तो यह समाज के लिए बड़ी उपलब्धि होगी।

हालाँकि, इसे केवल किशोरों तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। वयस्कों के लिए भी सोशल मीडिया पर नियंत्रण आवश्यक है। फेक न्यूज़, घृणास्पद भाषण और गलत सूचनाएँ अब लोकतंत्र के लिए चुनौती बन चुकी हैं। इसलिए इस दिशा में मेटा की पहल अन्य प्लेटफॉर्म्स के लिए भी मिसाल बन सकती है।

अंततः कहा जा सकता है कि यह निर्णय किशोरों की सुरक्षा, मानसिक स्वास्थ्य और नैतिक विकास के लिए अत्यंत सराहनीय कदम है। तकनीक तभी सार्थक होती है जब वह मानवता की भलाई के लिए काम करे। मेटा का यह कदम इसी भावना का विस्तार है। आने वाले समय में यदि यह नीति पूरी गंभीरता और पारदर्शिता से लागू होती है, तो यह न केवल किशोरों बल्कि समाज के हर वर्ग के लिए एक स्वस्थ डिजिटल संस्कृति की दिशा में महत्वपूर्ण परिवर्तन साबित होगी।

– डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट

भाई-बहन के प्यार का अनमोल उपहार है भाई दूज

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बाल मुकुन्द ओझा

दिवाली और गोवर्धन पूजा के बाद देश में भाई दूज का त्योहार हर्षोल्लास से मनाया जाता है। राखी की तरह ही भाई दूज भी भाई-बहन के प्यार और रिश्ते का प्रतीक है। इस दिन को भाई दूज या भैय्या दूज भी कहते हैं। इस साल भाई दूज का त्योहार 23 अक्टूबर, को मनाया जाएगा। पंचांग के अनुसार, 23 अक्टूबर 2025 को तिलक लगाने का सबसे शुभ समय दोपहर 1 बजकर 13 मिनट से 3 बजकर 28 मिनट तक रहेगा। यह शुभ काल 2 घंटे 15 मिनट तक रहेगा, जिसमें बहनें अपने भाइयों को तिलक कर सकती हैं और उनके कल्याण की कामना करते हुए पूजा कर सकती हैं। माना जाता है कि इस दिन विधि-विधान से पूजा करने से भाई-बहन के ऊपर से अकाल मृत्यु का संकट टल जाता है।

भाई दूज का त्योहार भाई-बहन के रिश्ते को समर्पित होता है। भाईदूज एक ऐसा पर्व है जो भाई-बहन के प्रेम और स्नेह का प्रतीक माना जाता है। भाई दूज पर बहने अपने भाईयों को तिलक लगाती हैं। फिर भाई की आरती उतार कर उनकी लंबी उम्र की कामना करती है। पौराणिक मान्यता के अनुसार कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि पर यमुना जी ने यमराज को अपने घर पर टीका किया था और भोजन कराया था। इसी पूजा के बाद से ही यमराज को सुख – समृद्धि की प्राप्ति हुई और तभी से भाई दूज का पर्व मनाने की परंपरा चली आ रही है।

यह त्योहार देश भर में धूमधाम से मनाया जाता है। इस पर्व को मनाने की विधि हर जगह एक जैसी नहीं है। उत्तर भारत में जहां यह चलन है कि इस दिन बहनें भाई को अक्षत और तिलक लगाकर नारियल देती हैं वहीं पूर्वी भारत में बहनें शंखनाद के बाद भाई को तिलक लगाती हैं और भेंट स्वरूप कुछ उपहार देती हैं। इस दिन भाई बहनों से मिलने उनके घर जाते हैं और बहने भी भाइयों के माथे पर तिलक कर उनकी लंबी आयु की कामना करती है।  उनकी आरती उतारती हैं।  वहीं, भाई भी बहनों के प्रति प्यार दिखाते हुए उन्हें उपहार देते हैं। 

धार्मिक कथा के अनुसार सूर्य देवता की पत्नी का नाम संज्ञा था तथा इनकी दो संताने थी। इनके पुत्र का नाम यमराज तथा पुत्री का नाम यमुना। यमदेव बहन यमुना से अलग रहते थे, लेकिन मिलने के लिए आते रहते थेद्य जब यम देव ने यमपुरी नगरी का निर्माण किया तो उनकी बहन यमुना भी उनके साथ रहने लगी। भाई यम के द्वारा यमपुरी में पापियों को दंड देते देख यमुना काफी दुखी होती थी। इसलिए वह यमपुरी का छोड़कर गो लोक में रहने चली गयी। कुछ समय बाद जब यमराज स्वयं गोलोक गए, तब उनकी भेट यमुना जी से हुई।

पौराणिक कथा के अनुसार देवी यमुना अपने भाई यमराज से बहुत प्रेम करती थी लेकिन वे दोनों लंबे समय तक मिल नहीं पाते थे। एक बार यम अचनाक दिवाली के बाद बहन यमुना से मिलने पहुंच गए।  खुशी में यामी ने तमाम तरह के पकवान बनाए और भाई यम के माथे पर तिलक किया। इससे खुश होकर उन्होंने यमुना से वरदान मांगने को कहा। इस पर यमुना ने अपने भाई से कहा कि वे चाहती हैं कि यम हर साल उनसे मिलने आएं और आज के बाद जो भी बहन अपने भाई के माथे पर तिलक करे उसे यमराज का डर न रहे। यमराज ने यमुना को ये वरदान दिया और उस दिन से भाई दूज का त्योहार मनाया जाने लगा। मान्यता है कि जो बहनें अपने भाई के तिलक करती हैं उनकी उम्र लंबी होती है।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी-32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

इंडिया इज लाफिंग

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भारत ने जब अटल सरकार के जमाने में पोहकरण में परमाणु विस्फोट किया था तो सफलता मिलने पर सूचना के लिए एक कोड निर्धारित था । वह कोड था “buddha is smiling” अर्थात बुद्ध मुस्कुरा रहे हैं । जैसे ही महान वैज्ञानिक डॉ एपीजी अब्दुल कलाम का यह सफलता संदेश रेडियो से प्रसारित हुआ , देश में खुशी की लहर दौड़ गई । जो लोग दुनिया के खुशी इंडेक्स में भारत को नीचे दिखाते हैं , उन्हें पर्वकाल में भारत का दीदार करना चाहिए ।

वैसी ही लहर जीएसटी कम होने के बाद इस समय देश में फैली है । देख लीजिए देश में नेक्स्ट जनरेशन रिफॉर्म्स की शुरुआत हो चुकी है । नतीजा सामने है । दशहरे पर 4.5 लाख करोड़ और दिवाली पर 6 लाख करोड़ का खरीद कारोबार देश में हुआ । यह पाकिस्तान सहित 48 देशों की जीडीपी से ज्यादा है । नवरात्र में दुर्गा पूजा , गरबा ,दशहरा , करवा चौथ और अब दीपावली में भारतीय अर्थव्यवस्था ने जबरदस्त उड़ान भरी है ।

अभी छठ पूजा का विशाल पर्व सामने है । देखते जाइए , देवोत्थान एकादशी से प्रारंभ होने वाला विवाह सीजन एक बार फिर भारतीय अर्थव्यवस्था को सातवें आसमान पर उठाएगा । अनुमान है कि शादी ब्याह का यह दौर एक बार फिर से इंडियन इकोनॉमी को हाई स्पीड प्रदान करेगा । वैश्विक चुनौतियों के बीच प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 208 प्रतिशत बढ़ना मजबूत भारतीय अर्थव्यवस्था का संकेत है । मुहूर्त कारोबार ने निवेशकों की पूंजी मात्र 1 घंटे में 1.50 लाख करोड़ बढ़ा दी है ।

त्यौहारों और विवाहों का सीजन भारतीय अर्थव्यवस्था को सदा से ऊंची उड़ान देता आया है । इस बार तो मालामाल कर दिया है । कुछ ही दिनों में स्वदेशी का मुद्दा भी खासी लोकप्रियता हासिल कर रहा है । दो दिन पहले मैं अपनी 7 वर्षीय पौत्री के साथ पटाखों की एक बड़ी शॉप पर आतिशबाजी लेने गया । हम खरीदारी कर रहे थे कि दुकानदार ने पूछा चाईनीज दे दूं । मैं कुछ बोलता उससे पहले ही बालिका बोल उठी कि नहीं अंकल इंडियन ।

कल्पना नहीं की थी कि परिवार में होने वाली बातों का छोटी बच्ची पर भी इतना असर पड़ेगा ? मतलब भारत स्वदेशी की ओर बढ़ेगा तो कायाकल्प हो जाएगा । तब ट्रंप की धमकियां भी बेअसर हो जाएंगी । देखिए एक दशक पहले तक जो आबादी हमारे लिए अभिशाप थी , वही अब वरदान बन गई है । 145 करोड़ का बाजार है हमारे पास । अपनी इसी शक्ति के दम पर हम जीत जाएंगे , जरूर जीत जाएंगे एक दिन ?

यही कहेंगे –

बुद्धा इज़ लाफिंग

इंडिया इज लाफिंग

….. कौशल सिखौला

आयुर्वेद में शक्तिशाली औषधि है सिरस

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सिरस (शिरीष) पेड़ को आयुर्वेद में एक शक्तिशाली औषधि माना गया है। इसका उपयोग त्वचा, सांस, पाचन और विषकर्म जैसी कई समस्याओं के उपचार में किया जाता है। इसके पत्ते, फूल, छाल, बीज और कांटे सभी औषधीय रूप से उपयोगी माने जाते हैं।

शिरीष के फूलों और छाल का लेप घाव, फोड़े-फुंसी, खुजली, दाद, सोरायसिस और कुष्ठ जैसे त्वचा रोगों में लाभकारी है। शिरीष एलर्जी और सूजन को कम करने में प्रभावी हैं; त्वचा पर इसके लेप से राहत मिलती है।शिरीष की छाल या फलियों से बनी हर्बल चाय अस्थमा, खांसी, जुकाम और ब्रोंकाइटिस में लाभ पहुँचाती है। शिरीष की छाल का काढ़ा सिरदर्द, दांत दर्द व माइग्रेन में राहत देता है। शिरीष की फलियां और छाल पेट के कीड़े, अपच, कब्ज और पेचिश में लाभ पहुंचाती हैं। यह पौधा विषनाशक योग में आता है। जहरीले डंक या सांप के काटने में यह असरदार माना गया है। शिरीष रक्तचाप संतुलित करने और रक्त को शुद्ध करने में सहायक है। छाल, पत्ते या फूलों को पीसकर घाव, दाद-खुजली या सूजन वाली जगहों पर लगाएं। छाल, बीज, या फलियों को पानी में उबालकर श्वसन, पाचन और सिर/दांत दर्द में सेवन करें। शिरीष के तेल का प्रयोग त्वचा रोगों में किया जाता है।द्य छाल की काढ़ा से दांत दर्द, मसूड़ों की सूजन या गले के दर्द में गरारे करें। शरीर में किसी भी प्रकार की गांठ को सही करने की ताकत रखता है।प्रतिदिन दो घंटे शीर्ष के पेड़ के नीचे बैठने मात्र से गांठे खत्म हो जाती हैं।

इसके बारे में एक प्राचीन कथा है। कथा विशेषतः ग्रामीण भारत में लोकप्रिय है और इसका उल्लेख भक्तों की कहानियों व लोक परंपराओं में भी मिलता है। शिरीष के फूल और भगवान विष्णु की कथाकथा के अनुसार, एक गाँव में एक निर्धन महिला थी जो भगवान विष्णु की परम भक्त थी। उसके पास न सोना था, न चाँदी, न ही अन्य कीमती वस्तुएँ कि वह भगवान को अर्पण कर सके। किंतु उसके घर के पास एक सिरस का वृक्ष था, जिस पर सुगंधित शिरीष के फूल खिलते थे। प्रतिदिन वह महिला स्नान कर शिरीष के फूल तोड़ती, उन्हें स्वच्छ पात्र में सजाती और प्रभु को भावपूर्वक अर्पित करती। गाँव के कई लोग उसका मज़ाक उड़ाते थे, कहते कि ‘सिर्फ साधारण फूलों से भगवान कैसे प्रसन्न होंगे?’ परंतु महिला की आस्था अडिग रही।एक दिन जब गाँव में विपत्ति आई, तो वही महिला, जिसने केवल श्रद्धा और सिरस के फूलों से भगवान की सेवा की थी, सुरक्षित रही।

शास्त्रों के अनुसार, उसकी निष्काम भक्ति से भगवान विष्णु अति प्रसन्न हुए और आशीर्वाद देते हुए बोले – “सच्ची श्रद्धा से चढ़ाया गया शिरीष का एक फूल भी मुझे सभी स्वर्ण-रत्न और भोग्य वस्तुओं से प्रिय है।”इसलिए, आज भी मंदिरों में, विशेष अवसरों पर, भगवान विष्णु और लक्ष्मी को शिरीष के फूल अर्पित किए जाते हैं। इन्हें शांति, सौंदर्य और प्रेम का प्रतीक माना जाता है।

अलविदा “अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर” — असरानी को भावभीनी श्रद्धांजलि

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गोवर्धन असरानी, जिन्हें हम सब प्यार से असरानी कहते थे, भारतीय सिनेमा के सबसे प्रिय हास्य अभिनेता थे। उनके अभिनय में विनम्रता, सादगी और अद्भुत हास्य का संगम था। शोले के “अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर” से लेकर गोलमाल, बावर्ची और चुपके चुपके तक, उन्होंने हर किरदार में जीवन की सच्चाई दिखायी। युवा हों या वृद्ध, सभी उनकी हँसी और संवादों के दीवाने थे। सरल जीवन, निष्ठा और कला के प्रति समर्पण उनके व्यक्तित्व का मूल था। भारतीय सिनेमा उनका योगदान हमेशा याद रखेगा।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

भारतीय चलचित्र जगत ने एक और प्रकाशपुंज खो दिया। हास्य अभिनय के महारथी, सरल स्वभाव के धनी और हर पीढ़ी को हँसाने वाले कलाकार गोवर्धन असरानी, जिन्हें संसार प्यार से केवल असरानी कहता था, अब इस नश्वर संसार से विदा ले चुके हैं। उनके निधन के साथ भारतीय सिनेमा का एक स्वर्णिम अध्याय समाप्त हो गया है। परन्तु उनकी मुस्कान, उनकी आवाज़ और उनका सहज अभिनय सदैव जीवित रहेगा।

असरानी का जीवन केवल अभिनय की कहानी नहीं था, बल्कि यह एक ऐसी यात्रा थी जिसमें परिश्रम, लगन, अनुशासन और कला के प्रति गहरा समर्पण समाहित था। वे उन विरल कलाकारों में से एक थे जिन्होंने दर्शकों को यह सिखाया कि हँसी केवल ठहाका नहीं होती, बल्कि जीवन की जटिलताओं को हल्का करने का साधन भी होती है। उनके अभिनय में हास्य की गंभीरता और संवेदना दोनों एक साथ दिखाई देती थीं।

असरानी का जन्म सन् १९४१ में जयपुर नगर में एक सिंधी परिवार में हुआ था। बचपन से ही वे अभिनय की ओर आकर्षित थे। उनके परिवार को यह स्वप्न नहीं था कि एक दिन उनका बेटा भारतीय चलचित्रों में एक प्रसिद्ध नाम बनेगा, परंतु असरानी के भीतर कला का दीप बचपन से ही प्रज्वलित था। विद्यालय के नाटकों में उन्होंने भाग लिया और वहीं से अभिनय का बीज अंकुरित हुआ। युवावस्था में उन्होंने पुणे स्थित भारतीय चलचित्र तथा दूरदर्शन संस्थान में प्रशिक्षण प्राप्त किया। उस संस्थान ने उन्हें न केवल अभिनय का अभ्यास सिखाया बल्कि कला के गहरे दर्शन से भी परिचित कराया। वहाँ से निकलने के बाद उन्होंने मुंबई नगर का रुख किया — वही नगर जिसने असंख्य स्वप्नदर्शियों को गले लगाया और असंख्य को असफलताओं की धूल में मिला दिया। परंतु असरानी उन लोगों में थे जो असफलताओं से टूटते नहीं बल्कि और मज़बूत होते हैं।

असरानी जी की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे हास्य को हल्केपन से नहीं, बल्कि गंभीरता से निभाते थे। उनका कहना था कि “लोगों को हँसाना सबसे कठिन कार्य है, क्योंकि उसमें सच्चाई छिपी होती है।” उन्होंने दर्शकों को यह महसूस कराया कि हँसी केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण है। उनका हास्य कभी अशिष्ट नहीं हुआ। उनके संवादों में एक मर्यादा थी, एक विनम्रता थी। वे दर्शकों के चेहरों पर मुस्कान लाते थे, परंतु किसी की गरिमा को ठेस नहीं पहुँचाते थे। यही कारण है कि वे पीढ़ियों तक प्रिय बने रहे।

सन् १९७५ में जब शोले प्रदर्शित हुई, तो उसमें अनेक पात्रों ने इतिहास रचा — जय, वीरू, गब्बर सिंह, ठाकुर और इसी श्रेणी में था वह जेलर, जो हर बार अपनी अंग्रेज़ी मिश्रित हिंदी में दर्शकों को हँसा देता था। “हम अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर हैं…” यह संवाद आज भी भारतीय जनमानस में जीवित है। असरानी ने इस किरदार को केवल निभाया नहीं, बल्कि उसमें प्राण फूँक दिए। उनकी आँखों की चपलता, चेहरे के भाव, शरीर की भाषा — सब कुछ ऐसा था कि दर्शक हर बार उस दृश्य के आने पर मुस्कुरा उठते थे। इस एक भूमिका ने उन्हें अमर बना दिया, परंतु उन्होंने स्वयं को कभी इस एक छवि तक सीमित नहीं होने दिया।

असरानी का अभिनय केवल हास्य तक सीमित नहीं था। उन्होंने गंभीर भूमिकाएँ भी निभाईं। बावर्ची, अभिमान, चुपके चुपके, गोलमाल, नमक हराम, कुली नंबर एक, दिल है कि मानता नहीं, हेरा फेरी जैसी अनेक चलचित्रों में उन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया। वे ऐसे कलाकार थे जो किसी भी परिस्थिति में ढल जाते थे। निर्देशक उनके चेहरे को देखकर समझ जाते थे कि इस व्यक्ति में असीम संभावनाएँ छिपी हैं। उनकी आवाज़ में एक ऐसी मिठास थी जो दर्शकों के कानों में सीधे उतर जाती थी। उन्होंने मंच, दूरदर्शन और चलचित्र — तीनों माध्यमों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।

असरानी के लिए अभिनय केवल जीविका नहीं, बल्कि एक साधना था। वे कहा करते थे, “कलाकार वह दर्पण है जिसमें समाज अपना चेहरा देखता है। अगर हँसी के ज़रिए मैं समाज की थकान दूर कर सकता हूँ, तो वही मेरा पुरस्कार है।” उनका यह दृष्टिकोण उन्हें सामान्य हास्य कलाकारों से ऊपर उठा देता था। वे हँसी के साथ विचार भी देते थे। उनकी प्रस्तुति कभी फूहड़ नहीं होती थी; उसमें मानवता का तत्व होता था।

असरानी जी का स्वभाव अत्यंत विनम्र था। उन्होंने अपने सह-अभिनेताओं के साथ हमेशा मित्रता का व्यवहार किया। चाहे राजेश खन्ना हों, अमिताभ बच्चन हों या धर्मेन्द्र — सभी ने उनके साथ कार्य करना आनंददायक बताया। वे सेट पर हल्के-फुल्के वातावरण का निर्माण करते थे। कठिन दृश्यों में भी वे वातावरण को सहज बना देते थे। उनके साथी कलाकार कहते हैं कि असरानी जी का हँसी-मज़ाक केवल मनोरंजन के लिए नहीं होता था, बल्कि वह तनाव को दूर करने का साधन होता था।

बहुत से लोग नहीं जानते कि असरानी ने केवल अभिनय ही नहीं किया, बल्कि निर्देशन और शिक्षण के क्षेत्र में भी योगदान दिया। उन्होंने नवोदित कलाकारों को अभिनय की बारीकियाँ सिखाईं। वे अक्सर कहा करते थे, “हास्य अभिनय केवल चेहरा बिगाड़ने या अजीब चाल चलने का नाम नहीं है; यह दिल की सच्चाई से उपजता है।” उन्होंने युवा कलाकारों को सिखाया कि कैमरे के सामने झूठ नहीं बोला जा सकता। दर्शक हर झूठ को पकड़ लेते हैं। इसलिए अभिनय का आधार ईमानदारी होना चाहिए।

असरानी जी का सबसे बड़ा पुरस्कार यही था कि वे हर उम्र के दर्शकों के प्रिय थे। बुज़ुर्ग उन्हें पुराने दौर की यादों से जोड़ते थे, युवा उन्हें हल्के-फुल्के हास्य के प्रतीक मानते थे, और बच्चे उन्हें अपने मजेदार अंकल के रूप में देखते थे। उनकी आवाज़ सुनते ही चेहरा मुस्कुरा उठता था। वे हर वर्ग के लिए आत्मीय थे।

अपने जीवन के अंतिम वर्षों में भी असरानी सक्रिय रहे। उन्होंने कई धारावाहिकों और नाटकों में भाग लिया। वे कहते थे कि “जब तक साँस है, अभिनय चलता रहेगा।” वे कभी भी प्रसिद्धि के पीछे नहीं भागे। उन्होंने सरल जीवन जिया, और यही सरलता उनकी सबसे बड़ी पहचान थी। उनका निधन ८४ वर्ष की आयु में हुआ, परंतु वे अंतिम दिनों तक सक्रिय रहे। वे न केवल अपने परिवार के लिए, बल्कि भारतीय चलचित्र जगत के लिए भी प्रेरणा बन गए।

असरानी का योगदान केवल अभिनय तक सीमित नहीं है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि हँसी भी एक गंभीर कला है। उन्होंने दर्शकों को यह सिखाया कि हर परिस्थिति में मुस्कराना संभव है। उनकी विरासत आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत है। हर वह कलाकार जो हास्य के क्षेत्र में कार्य करेगा, कहीं न कहीं असरानी से प्रेरणा लेगा। उनके संवाद, उनकी शैली, उनकी आत्मीयता — सब कुछ भारतीय सिनेमा की स्मृतियों में अमिट रहेंगे।

असरानी जी का जीवन यह सिखाता है कि किसी भी कार्य को अगर मन से किया जाए, तो वह कला बन जाता है। उन्होंने संघर्ष किया, असफलताएँ देखीं, परंतु कभी अपने लक्ष्य से विचलित नहीं हुए। वे यह भी मानते थे कि कला का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज में आशा और सहानुभूति जगाना है। उनके जीवन से हमें यह सीख मिलती है कि विनम्रता, ईमानदारी और परिश्रम — यही किसी कलाकार की सच्ची पहचान हैं।

आज जब असरानी जी हमारे बीच नहीं हैं, तो ऐसा लगता है मानो भारतीय सिनेमा का एक प्रिय स्वर मौन हो गया हो। परंतु उनकी हँसी, उनका चेहरा और उनका अभिनय हमारे भीतर सदा जीवित रहेगा। वे जहाँ भी होंगे, शायद वहाँ भी अपनी विशिष्ट शैली में कह रहे होंगे — “आर्डर! आर्डर! अदालत की कार्यवाही स्थगित की जाती है!” उनकी आत्मा को शांति मिले। भारतवर्ष सदैव उनका आभारी रहेगा।

असरानी — एक नाम, एक मुस्कान, एक युग। सिनेमा की हँसी अब कुछ कम हो गई है, पर असरानी की यादें सदैव गूंजती रहेंगी।

– डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट

घर से दलिदर या दरिद्र को भगाने की परंपरा

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बिहार और उत्तर प्रदेश के भोजपुरी भाषी क्षेत्र में दीपावली के अगले दिन घर से दलिदर या दरिद्र को को भगाने की मजेदार परंपरा है।इस दरिद्रता को भगाने के लिए दिवाली की भोर सूप से ध्वनि की जाती है। ये परंपरा आदि काल से चली आ रही है। दिवाली की भोर यानी ब्रह्मकाल में सूप पीटने की प्रथा का उद्देश्य घर से दरिद्रता को बाहर निकालकर समृद्धि और वैभव को आमंत्रित करना है। इस दिन महिलाएं सूप बजाकर ‘दुख-दरिद्रता बाहर जाए-अन्न-धन लक्ष्मी घर में आएं’ गांव की स्त्रियां टोली बनाकर ब्रह्म बेला में हाथ में सूप और कलछुल लेकर घरों से निकलती हैं और सूप बजाती हुई दलिदर को बगल वाले गांव के सिवान तक खदेड़ आती है।

दिवाली की सुबह लगभग चार बजे उठकर घर की माताएं या कोई भी एक सदस्य टूटी हुई सूप लेकर पूरे घर में घूम घूम कर उसे बजाता है। हर कोने में ले जाकर सूप खटखटाता है। और कहता है की दरिद्रता भागे और लक्ष्मी जी आए। आम भाषा में लोग कहते हैं दलिंदर भाग मां लक्ष्मी अंदर आए। इस तरह की बातें इसलिए कही जाती हैं कि जो नकारात्मकता घर है वह बाहर भागे और सकारात्मक यानी मां लक्ष्मीजी घर के अंदर आएं। दलिदर भगाने की इस लोक परंपरा को देवी लक्ष्मी की बड़ी बहन अलक्ष्मी से जोड़कर देखा जाता है। पुराणों के अनुसार अलक्ष्मी समुद्र मंथन में लक्ष्मी के पहले मिली थी। लक्ष्मी युवा, सौंदर्यवान थी लेकिन अलक्ष्मी वृद्धा, कुरूप। लक्ष्मी धन, वैभव और सौभाग्य का प्रतीक और अलक्ष्मी दरिद्रता, दुख, दुर्भाग्य का कारण। लक्ष्मी का संबंध मिष्ठान्न से है, अलक्ष्मी का खट्टी और कड़वी चीजों से। यही वजह है कि मिठाई घर के भीतर रखी जाती है और नीबू तथा तीखी मिर्ची घर के बाहर लटका दी जाती है। लक्ष्मी मिठाई खाने घर के अंदर तक आती हैं। अलक्ष्मी नींबू, मिर्ची खाकर दरवाज़े से ही संतुष्ट लौट जाती हैं।

भोजपुरी लोक संस्कृति में संभवतः दरिद्रता की देवी अलक्ष्मी को दलिदर कहकर भगाया जाता है। आज के दिन गांव की औरतें सूप और कलछुल की कर्कश ध्वनि के बीच दलिदर को बगल वाले गांव की सीमा तक खदेड़ देती है। बगल वाले गांव की औरतें उसे अपने बगल के गांव के सिवान तक। सिलसिला चलता रहता है। प्रतिस्पर्द्धा ऐसी कि दलिदर उस पूरे इलाके में 360 डिग्री घूमकर ही रह जाता होगा। इलाके से निकलने का शायद ही कोई रास्ता बचता होगा उस बेचारे के पास। शायद यही कारण है कि सदियों तक खदेड़े जाने के बावजूद देश में दलिदर आज भी जस का तस बना हुआ है।

ध्रुव गुुप्ता