साहित्य अकादमी का कलंक”

“न्याय के बिना प्रतिष्ठा संभव नहीं, मौन अब अपराध है”

साहित्य अकादमी पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोप केवल एक व्यक्ति की विफलता नहीं, बल्कि पूरे साहित्यिक समाज की परीक्षा हैं। अदालत ने माना है कि पद का दुरुपयोग हुआ और शिकायतकर्ता को दबाने की कोशिश की गई। फिर भी आरोपी सचिव पद पर बने हुए हैं। यह चुप्पी अस्वीकार्य है। जब तक उन्हें हटाया नहीं जाता, लेखकों को अकादमी से असहयोग करना चाहिए। साहित्य तभी सच्चा रह पाएगा जब वह अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ निर्भीक होकर खड़ा होगा। मौन अपराध है, और शून्य सहनशीलता ही एकमात्र नीति।

— डॉ प्रियंका सौरभ

साहित्य अकादमी भारत की सबसे प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था मानी जाती रही है। यह केवल एक सरकारी निकाय नहीं बल्कि भाषाओं और साहित्य की विविध परंपराओं का प्रतीक भी है। ऐसे में जब इस संस्था के शीर्ष पदाधिकारी पर गंभीर यौन उत्पीड़न के आरोप लगते हैं और अदालत यह स्थापित कर देती है कि उन्होंने अपने पद का दुरुपयोग किया है, तो यह केवल व्यक्तिगत नैतिक विफलता नहीं बल्कि पूरे साहित्यिक समाज पर धब्बा है।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि अकादमी का सचिव यौन उत्पीड़न से महिलाओं की रक्षा अधिनियम के तहत नियोक्ता की श्रेणी में आता है और शिकायतकर्ता की बर्खास्तगी प्रतिशोध का परिणाम थी। अदालत ने उन्हें बहाल करने का आदेश दिया और यह भी माना कि अकादमी ने जाँच की निष्पक्ष प्रक्रिया को बाधित किया। यह टिप्पणी किसी साधारण प्रशासनिक गड़बड़ी की ओर इशारा नहीं करती बल्कि यह दर्शाती है कि संस्था के भीतर शक्ति का उपयोग न्याय की रक्षा के बजाय दमन के लिए किया गया।

पीड़िता के आरोप मामूली नहीं थे। अनचाहे स्पर्श, अश्लील टिप्पणियाँ और लगातार यौन दबाव जैसे अनुभव उन्होंने साझा किए। यह कोई एक बार की घटना नहीं बल्कि एक सिलसिला था। संस्थान के भीतर कई लोग इस वातावरण से परिचित थे फिर भी चुप्पी साधे रहे। यही चुप्पी उत्पीड़क को और निर्भीक बनाती है और पीड़िता को और अकेला कर देती है।

साहित्य की असली शक्ति उसकी नैतिकता में है। अगर साहित्यकार समाज के अन्याय पर कलम चलाते हैं लेकिन अपने ही घर के अन्याय पर चुप रहते हैं, तो साहित्य की विश्वसनीयता खो जाती है। जब तक आरोपी सचिव अपने पद पर बना रहता है तब तक अकादमी के किसी भी आयोजन में भागीदारी स्वयं कलंक का हिस्सा बनने जैसा होगा। पुरस्कार लेना, कविताएँ पढ़ना या गोष्ठियों में शिरकत करना मानो यह स्वीकार करना होगा कि हम उत्पीड़न को नजरअंदाज कर सकते हैं।

इस समय आवश्यकता है शून्य सहनशीलता की। यौन उत्पीड़न और जातिगत उत्पीड़न जैसे अपराधों पर कोई समझौता नहीं हो सकता। जब संस्था का शीर्ष अधिकारी ही आरोपी हो और फिर भी पद पर बना रहे, तो यह संदेश जाता है कि संस्थान अपराध को ढकने के लिए तत्पर है। इससे न केवल पीड़िता हतोत्साहित होती है बल्कि अन्य महिलाएँ भी शिकायत दर्ज कराने से डरने लगती हैं। यह वातावरण पूरे साहित्यिक समाज के लिए घातक है।

और भी चिंताजनक यह है कि कुछ प्रकाशक ऐसे व्यक्तियों को अब भी मंच दे रहे हैं। उन्हें बड़े लेखक की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है, उत्सवों और मेलों में सम्मानित किया जा रहा है। यह प्रवृत्ति केवल बिक्री और लाभ का मामला नहीं है, बल्कि यह उत्पीड़न की संस्कृति को सामाजिक मान्यता देने जैसा है। ऐसे में लेखकों और पाठकों की ज़िम्मेदारी है कि वे ऐसे प्रकाशकों से सवाल पूछें। साहित्यिक गरिमा केवल शब्दों में नहीं बल्कि आचरण में भी झलकनी चाहिए।

यह समय लेखक समाज की अग्निपरीक्षा का है। क्या हम चुप रहेंगे और संस्था की रक्षा के नाम पर अन्याय को ढकेंगे, या न्याय और सम्मान के लिए खड़े होंगे। अकादमी की प्रतिष्ठा उसकी इमारतों और पुरस्कारों से तय नहीं होती, वह उसकी पारदर्शिता और नैतिक आचरण से तय होती है। अगर यह खो जाएगी तो सारे पुरस्कार और समारोह केवल खोखले अनुष्ठान रह जाएँगे।

लेखकों को अब साफ़ रुख अपनाना होगा। जब तक आरोपी पद पर है, तब तक अकादमी के किसी भी कार्यक्रम में भागीदारी नहीं होनी चाहिए। यह बहिष्कार केवल प्रतीकात्मक कदम नहीं बल्कि समाज को स्पष्ट संदेश देगा कि साहित्य अन्याय के साथ समझौता नहीं कर सकता।

आगे का रास्ता भी हमें मिलकर तय करना होगा। संस्थागत सुधार ज़रूरी है, शिकायत समितियों को स्वतंत्र बनाया जाए और उनकी कार्यवाही सार्वजनिक की जाए। लेखकों और पाठकों को चाहिए कि वे नैतिक बहिष्कार को आंदोलन की तरह चलाएँ। प्रकाशकों से जवाबदेही माँगी जाए और पूरे सांस्कृतिक परिदृश्य को संवेदनशील बनाया जाए। यह केवल अकादमी का नहीं बल्कि पूरे समाज का सवाल है।

यह संकट हमें याद दिलाता है कि पद और सत्ता किसी को भी कानून और नैतिकता से ऊपर नहीं बना सकते। अगर आरोपी अपने पद पर बना रहता है तो यह केवल पीड़िता का नहीं बल्कि पूरे साहित्यिक समाज का अपमान है। लेखकों, कवियों, आलोचकों और पाठकों को अब मिलकर कहना होगा कि हम अन्याय के साथ खड़े नहीं हो सकते। साहित्य तभी अपनी असली ताक़त दिखा पाएगा जब वह सत्ता से सवाल पूछेगा और शोषण के खिलाफ निर्भीक होकर खड़ा होगा।

अगर हम इस परीक्षा में असफल हुए तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें डरपोक और मौन समाज के रूप में याद करेंगी। लेकिन अगर हम साहस के साथ खड़े हुए तो साहित्य शब्दों के साथ-साथ न्याय और गरिमा का भी प्रहरी बन सकेगा। यही साहित्य की असली पहचान है और यही हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी।

-प्रियंका सौरभ 

,कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

शक्ति उपासना और खुशियों का महापर्व है शारदीय नवरात्र

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बाल मुकुन्द ओझा

भारत लोक आस्था के प्रतीक तीज त्योहारों का देश है। यहाँ दुनियाँ के सबसे ज्यादा त्योहार मनाये जाते है। इनमें नवरात्रि देश का बहुत महत्वपूर्ण प्रमुख त्योहार है जिसे पूरे भारत में श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाता है। नवरात्रि शब्द एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है नौ रातें। इन नौ रातों और दस दिनों के दौरान देवी के नौ रूपों की पूजा अर्चना की जाती है। दसवाँ दिन दशहरा के नाम से प्रसिद्ध है। नवरात्रि सिर्फ पूजा-पाठ का पर्व नहीं है, अपितु नौ दिनों तक चलने वाला आस्था,  शक्ति और भक्ति तथा खुशियों का महापर्व है। नवरात्रि पर्व भारत में होली-दीपावली और दशहरे जैसी धूमधाम, हर्षोल्लास और श्रद्धा से मनाया जाता है। नवरात्रि के दिनों में मां दुर्गा के नौ रूपों की अराधना पूजा नियम अनुसार करनी चाहिए। इस बार नवरात्रि पर कई शुभ योग बन रहे हैं। माता दुर्गा गज पर सवार होकर आएंगी, जो समृद्धि का प्रतीक है। हिंदी पंचांग के अनुसार शारदीय नवरात्रि आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से प्रारंभ होती है और महानवमी के दिन समाप्त होती है। उसके अगले दिन दशहरा पर्व हर्षोल्लास से मनाया जाता है।

शारदीय नवरात्र सभी नवरात्रियों में सबसे अधिक लोकप्रिय और महत्वपूर्ण माना जाता है। इस वर्ष यह महापर्व 22 सितंबर से आरंभ होकर 2 अक्टूबर 2025 तक मनाया जाएगा। इस बार तृतीया तिथि 24 और 25 सितंबर दो दिन होने के कारण नवरात्रि पर्व 10 दिनों तक मनाया जाएगा। नवरात्रि के आखिरी 3 दिन बहुत ही खास होते हैं जिसमें दुर्गा सप्तमी, दुर्गा अष्टमी और दुर्गा नवमी शामिल हैं। सनातनी परम्परा में शारदीय नवरात्रि का पर्व अत्यंत शुभ और विशेष माना जाता है। परंपरा के अनुसार, अष्टमी या नवमी तिथि पर विधि-विधान से कन्या पूजन किया जाता है।

पंचांग के अनुसार घटस्थापना का मुहूर्त सुबह 6 बजकर 9 मिनट से लेकर 8 बजकर 6 मिनट तक होगा। घटस्थापना के लिए कुल 1 घंटा 56 मिनट का समय मिलेगा। इसके अलावा, घटस्थापना अभिजीत मुहूर्त में भी किया जा सकता है। अभिजीत मुहूर्त सुबह 11 बजकर 49 मिनट से लेकर दोपहर 12 बजकर 38 मिनट तक रहेगा, जिसके लिए 49 मिनट का समय मिलेगा। नवरात्रि में घट स्थापना या कलश स्थापना का विशेष महत्व होता है। नवरात्रि के प्रथम दिन ही कलश स्थापना या घट स्थापना करके मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है।

नवरात्रि भारत के विभिन्न प्रदेशों  में अलग ढंग से मनायी जाती है। गुजरात में नवरात्रि समारोह डांडिया और गरबा के रूप में धूमधाम से मनाया जाता  है। यह पूरी रात भर चलता है। देवी के सम्मान में भक्ति प्रदर्शन के रूप में गरबा, आरती से पहले किया जाता है और डांडिया समारोह उसके बाद। पश्चिम बंगाल में यह पर्व पूरे उत्साह और श्रद्धा के साथ आयोजित  किया जाता है। इस पावन माह में माता रानी की पूजा अर्चना की जाती है। नवरात्र में देवी और नवग्रहों की पूजा का कारण यह भी है ग्रहों की पूरे वर्ष अनुकूल रहे और जीवन में खुशहाली बनी रहे।

देशवासी नवरात्र मनाने की तैयारियां कर रहे है। इस दौरान मां दुर्गा के नवरूपों की उपासना की जाती है। इसमें शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री की पूजा अलग-अलग दिन होती है। नवरात्र के पहले दिन देवी को शरीर में लेप के तौर पर लगाने के लिए चंदन और केश धोने के लिए त्रिफला चढ़ाना चाहिए। त्रिफला में आंवला, हर्रड़ और बहेड़ा डाला जाता है। दूसरे दिन केषों को ठीक स्थान पर रखने के लिए माता को रेशम की पट्टी दी जाती है। तीसरे दिन पैरों को रंगने के लिए आलता, सिर के लिए सिंदूर और देखने के लिए दर्पण दिया जाता है। चौथे दिन देवी को शहद, मस्तक पर तिलक लगाने के लिए चांदी का एक टुकड़ा और आंख में लगाने का अंजन, यानि कि काजल दिया जाता है। नवरात्र के पांचवें दिन देवी मां को अंगराग, यानि सौन्दर्य प्रसाधन की चीजें और अपने सामर्थ्य अनुसार आभूषण चढ़ाने का विधान है। नवरात्र के छठे दिन मां कात्यायनी की उपासना की जायेगी और बेल के पेड़ के पास जाकर देवी का बोधन किया जायेगा। नवरात्र के सातवें दिन मंत्रोच्चारण के साथ बेल के पेड़ से लकड़ी तोड़कर लाई जाती है। इन दिनों में देवी पूजा के साथ ही दान-पुण्य भी करना चाहिए। जरूरतमंद लोगों को भोजन और धन का दान करें। नवरात्रि में व्रत करने वाले लोगों को फल जैसे केले, आम, पपीता आदि का दान करें।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

कन्याओं   का पूजिये भी  ,  आत्मसुरक्षा भी सिखाइए

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अशोक मधुप

21 सिंतबर रविवार से शारदीय  नवरात्र शुरू  हो गए हैं। नवरात्र में अधिकांश हिंदू परिवार घर में मां के कलश की स्थापना करते हैं।इन नौ दिन उपवास रखकर  देवी के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है।देवी स्परुपा कन्याओं को पूजा जाता है। उन्हें जिमाया जाता है। वस्त्रादि भेंट किए जाते हैं। ये परंपरा सदियों से चली आ रही है। सदियों से चली आ रही इस परम्परा  में वक्त के हिसाब से अब सुधार की जरूरत है। आज जरूरत है कि हम कन्याओं को पूजे  और जिमाएं ही नहीं। उन्हें शिक्षित भी  करें।उन्हें आज के समय और परिस्थिति में जीने के अनुकूल बनाए। आत्मसुरक्षा  भी  सिखाए। उन्हें गुड टच और बेड टच  की जानकारी दें। कन्याओं  को आज के समाज में शान और  सम्मान के साथ जीने के योग्य बनाएं। ज्यादति के खिलाफ  बोलना भी बताएं। ज्यादति का मुकाबला भी करना सिखाएं।

नवरात्र देश भर में अलग −अलग रूप में मनाए  जाते हैं। पूजा अर्चन की जाती है। सबका तात्पर्य यह ही है कि देवी शक्ति की पूजा कर हम उनसे  अपने  और  समाज के कल्याण का आशीर्वाद मांगे। स्वस्थ  समाज की मांग करे। ये सब कुछ सदियों से चला आ रहा है। आज समय की मांग है कि हम समय के अनुरूप पुरानी मान्यताओं से   कुछ आगे बढ़े। वक्त की जरूरत के साथ अपनी मान्यताओं और सोच में  परिवर्तन करें।

आज देश की देवियां ,महिलाएं, मातृशक्ति   विकास के हर क्षेत्र में अपना योगदान कर रही हैं। कार – स्कूटर तो बहुत समय से चलाती रही हैं। अब ये आटो, ट्रक,ट्रेन ,मालगाड़ी  भी चलाने लगीं हैं।ये  प्लेन  उड़ा रही हैं। अब तो   सेना  में जाकर बार्डर की हिफाजत  भी  महिलाएं  कर रही हैं। आधुनिकतम लड़ाकू विमान भी  उड़ा  रहीं हैं। उन्हें नियंत्रित भी कर रही हैं।

 कभी गाना , बजना, नाचना महिलाओं की कला मानी जाती थी। उसमें उन्हें पारंगत करने के साथ− साथ पुराने  समय से  परिवार की  बेटियों को  सिलाई, कढ़ाई, बुनाई,अनाज पिसाई,छनाई के साथ घर के कामकाज भोजन बनाने में आदि में निपुण किया  जाता था। ताकि वह समय की जरूरत के हिसाब के शादी के बाद अपने परिवार को संभाल सकें। इस समय शिक्षा पर उतना  जोर नही था। परिवार की जरूरतें बढ़ी तो पढ़ी −लिखी  महिलाएं घर की चाहरदीवारी से निकलीं।  नौकरी करने लगीं।  बिजनेस में परिवार को  सहयोग देने लगीं।समय  बदला । महिलाएं आज शिक्षित हो सभी क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दे रही हैं। नौकरी के लिए  अकेली युवती का विदेश  जाना अब आम हो गया। पैरा मिलेट्री फोर्सेज में योगदान करने के साथ आज वह सेना में आकर देश सीमाओं को सुरक्षित बनाने और शत्रु से लोहा  लेने में भी लगी हैं। 

समय के साथ− साथ समाज की प्राथमिकताएं भी बदलीं।  नहीं बदला तो महिलाओं और युवतियों के शोषण  का सिलसिला। भारतीय समाज में  फैली दहेज की कुप्रथा के कारण गर्भ में ही बालिका भ्रूण मारे  जाने लगे। परिवार में ही आसपास ने नाते,  रिश्तेदारों और अन्यों द्वारा छुटपन से बेटियों के साथ छेड़छाड़ ,यौन शोषण चलता रहा। देश में चेतना आई ,शिक्षा  का स्तर बढ़ा पर महिलाओं  के प्रति होने वाले अपराध कम नही हुए। हाल ही में राष्ट्रीय महिला  आयोग ने सूचित किया कि वर्ष 2021 के प्रारंभिक आठ महीनों में महिलाओं के खिलाफ अपराधों की शिकायतों में पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में 46 प्रतिशत  की वृद्धि हुई है।

राष्ट्रीय महिला आयोग को साल 2021 में महिलाओं के खिलाफ अपराध की करीब 31,000 शिकायतें मिलीं थी जो 2014 के बाद सबसे ज्यादा हैं। इनमें से आधे से ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश के थे। महिलाओं के खिलाफ अपराध की शिकायतों में 2020 की तुलना में 2021 में 30 प्रतिशत का इजाफा हुआ था। साल 2020 में कुल 23,722 शिकायतें महिला आयोग को मिली थीं।राष्ट्रीय महिला आयोग की ओर से जारी आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 30,864 शिकायतों में से, अधिकतम 11,013 सम्मान के साथ जीने के अधिकार से संबंधित थीं।  घरेलू हिंसा से संबंधित 6,633 और दहेज उत्पीड़न से संबंधित 4,589 शिकायतें थीं। ये वे शिकायत हैं  जो रजिस्टर होती हैं1 इससे  कई गुनी शिकायत तो दर्ज ही नही होती। परिवार का सम्मान बताकर ,युवती की स्मिता  की बातकर घटनांए दबाली जाती हैं।

अब तक बच्चियों को गाने – बचाना ,डांस करने के वीडियो सामने आते थे। हाल ही में एक वीडियो सामने  आया  जिसमें एक पिता  अपनी  बेटी को  लाठी चलाना  सिखा रहा है। इस छोटे से वीडियो को बहुत पसंद किया गया।एक और वीडियों  पोपुलर हो रहा है।  इसमें एक युवती अपने चेहरे  पर स्कार्फ बांध रही है। एक युवक उसका स्कार्फ लेकर उसे राजस्थानी पगड़ी की तरह बाधंता है। युवती के सिर पर पगड़ी बंधी देख दर्शक उसकी प्रशंसा करते हैं। आज समय की  मांग है कि परिवार विशेषकर मां बेटी को बचपन से गुड टच और बैड टच बताए।  इनका  अंतर बताए। कहीं कुछ घर के आसपास , स्कूल में, स्कूल बस में अगर ऐसा होता है तो वह घर आकर बतांए। बेटी अब घर की देहरी के अंदर तक ही सीमित नही रह गई है। वह कार्य के लिए घर से बाहर निकल रही है। ट्रेन में, बस में अकेले  सफर कर रही है। नौकरी के लिए  सात समुंद पार जा रही है। ऐसे में जरूरत है उसे  आत्मसुरक्षा की जानकारी देने की। जूडे−कराटे सिखाए जाएं । जरूरत है घर की प्रत्येक बेअ को आत्मसुरक्षा में निपुण करने की, ताकि वह विपरीत परिस्थिति में अपना बचाव कर सके। अगर ऐसा होगा तो छेड़छाड़  करने वाले के भय से युवती को आत्महत्या नही करनी पड़ेगी, जबकि आज इस तरह की रोज अखबारों में खबर आ रही हैं।

पिछले दिनों मुरादाबाद में से 12वीं में पढ़ने वाली छात्रा ने छेड़छाड़ से परेशान होकर कीटनाशक खा कर आत्महत्याकर ली। मुंबई के  विनोबा भावे नगर में चचेरे भाई के बार-बार यौन उत्पीड़न से तंग आकर 15 वर्षीय किशोरी ने आत्महत्या कर ली।    उत्तर प्रदेश के पीलीभीत  जनपद में  मनचले की छेड़छाड़ से परेशान छात्रा ने अपने ही घर में फांसी का फंदा लगाकर खुदकुशी की। इस तरह की खबर रोज अखबारों में  सुर्खियां बन रही हैं।  हम अपने परिवार की बेटी को ऐसे  संस्कार और शिक्षा  दें। उसे आत्मनिर्भर बनांए, आत्मसुरक्षा सिखाएं,ज्यादति के खिलाफ उसे आवाज उठाना भी सिखांए ताकि समाज की कन्या और समाज  बेटी की खबर अखबार की सुर्खी न बने। उसके साथ ज्यादति करने का कोई हौंसला न कर सके  । हाल में अच्छा यह हुआ है कि केंद्र ने इस तरह की घटनाओं के लिए पास्को एक्ट बनाया। इसमें त्वरित न्याय दिलाने की भी व्यवस्था की है, ताकि अपराधी अपराध करता डरे। जरूरत है कि पास्को एक्ट के तहत हुए  निर्णयों का प्रचार −प्रसार व्यापक स्तर से किया जाए ताकि अपराधी में भय पैदा हो।

अशोक मधुप  

(लेखक वरिष्ठ  पत्रकार हैं)

प्रकृति संरक्षण हमारे सुनहरे भविष्य का आधार है

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   −बाल मुकुन्द ओझा

आजकल जलवायु से सम्बंधित विषयों जैसे प्रकृति, पर्यावरण, पृथ्वी, जीव जंतु, वनस्पति, पेड़-पौधे आदि आदि पर विभिन्न देशी और वैश्विक शोध रिपोर्टों से अखबार भरे मिलते है। लगभग हर रिपोर्ट में जलवायु में बदलाव के खतरों से लोगों को निरंतर सावचेत किया जाता है। गर्मी हो या सर्दी अथवा बसंत सभी ऋतुओं में हो रहे परिवर्तन हमारे लिए लाभदायक है या हानिकारक इसकी जानकारी दी जाती है। आज यहाँ हम बात कर रहे है प्रकृति के भले बुरे की। प्रकृति से हमारा तात्पर्य जल, जंगल और जमीन से है। यह मानने और स्वीकारने में कोई गुरेज नहीं होनी चाहिए कि प्रकृति का संरक्षण हमारे सुनहरे भविष्य का आधार है। मनुष्य जन्म से ही प्रकृति और पर्यावरण  के सम्पर्क में आ जाता है। प्राणी जीवन की रक्षा हेतु प्रकृति की रक्षा अति आवश्यक है। वर्तमान समय में विभिन्न प्रजाति के जीव जंतु, वनस्पतियां और  पेड़-पौधे विलुप्त हो रहे हैं जो प्रकृति के संतुलन के लिए बहुत ही भयावह है। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समय समय पर प्रकृति का दोहन करता चला आ रहा है। अगर प्रकृति के साथ खिलवाड़ होता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमें शुद्ध पानी, हवा, उपजाऊ भूमि, शुद्ध पर्यावरण  वातवरण एवं शुद्ध वनस्पतियाँ नहीं मिल सकेंगी। इन सबके बिना हमारा जीवन जीना मुश्किल हो जायेगा। प्रकृति हमारे जीवन का आधार है। विभिन्न प्राकृतिक संसाधन जैसे कि जल, वन्यजीवन, वन, खेती, वायु आदि हमारी जरूरतों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हमारी सांसें जल से भरी हुई हैं और हमारी खाद्य आपूर्ति भी खेती द्वारा उत्पन्न होती है। इसलिए, हमें प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखने की जरूरत है ताकि हम समृद्धि और सुख-शांति के साथ जीवन जी सकें। प्रकृति के संरक्षण का अर्थ है कि वनों, भूमि, जल निकायों का संरक्षण और खनिजों, ईंधन, प्राकृतिक गैसों आदि जैसे संसाधनों का संरक्षण, यह सुनिश्चित करने के लिए कि ये सभी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहें। ऐसे कई तरीके हैं जिनसे आम आदमी प्रकृति के संरक्षण में मदद कर सकता है। इनमें से कुछ ऐसे हैं जो आसानी से किए जा सकते हैं और एक बहुत बड़ा बदलाव ला सकते हैं। प्रकृति हमें पानी, भूमि, सूर्य का प्रकाश और पेड़-पौधे प्रदान करके हमारी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करती है। इन संसाधनों का उपयोग विभिन्न चीजों के निर्माण के लिए किया जा सकता है जो निश्चित ही मनुष्य के जीवन को अधिक सुविधाजनक और आरामदायक बनाते हैं। प्रकृति के संरक्षण से अभिप्राय जंगलों, भूमि, जल निकायों की सुरक्षा से है तथा प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण खनिजों, ईंधन, प्राकृतिक गैसों जैसे संसाधनों की सुरक्षा से है जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि ये सब प्रचुर मात्रा में मनुष्य के उपयोग के लिए उपलब्ध रहें। ऐसे कई तरीके हैं जिससे आम आदमी प्रकृति के संरक्षण में मदद कर सकता है। यहां कुछ ऐसे ही तरीकों का विस्तृत वर्णन किया गया है जिससे मानव जीवन को बड़ा लाभ हो सकता है।

पृथ्वी के पास हर इंसान की जरूरत पूरी करने के लिए काफी कुछ है, लेकिन उसके लालच को पूरा करने के लिए नहीं हैं। पृथ्वी पर पानी, हवा, मिट्टी, खनिज, पेड़, जानवर, पौधे आदि हर किस्म की जरूरत के लिए संसाधन है। लेकिन औद्योगिक विकास की होड़ में हम पृथ्वी को सफाई और उसके ही स्वास्थ्य को नजरअंदाज करने लगे हैं। हम कुछ भी करने से पहले यह बिलकुल नहीं सोचते कि हमारी उस गतिविधि से प्रकृति को कितना नकुसान होगा। प्रकृति का संरक्षण प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण से सबंधित है। इनमें मुख्यतः पानी, धूप, वातावरण, खनिज, भूमि, वनस्पति और जानवर शामिल हैं। प्रकृति हमें पानी, भूमि, सूर्य का प्रकाश और पेड़-पौधे प्रदान करके हमारी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करती है। इन संसाधनों का उपयोग विभिन्न चीजों के निर्माण के लिए किया जा सकता है जो निश्चित ही मनुष्य के जीवन को अधिक सुविधाजनक और आरामदायक बनाते हैं।

धरती के तापमान में लगातार बढ़ते स्तर को ग्लोबल वार्मिंग कहते है। वर्तमान में ये पूरे विश्व के समक्ष बड़ी समस्या के रुप में उभर रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि धरती के वातावरण के गर्म होने का मुख्य कारण का ग्रीनहाउस गैसों के स्तर में वृद्धि है। इसे लगातार नजरअंदाज किया  जा रहा है जिससे प्रकृति पर खतरा बढ़ता जा रहा है। ये आपदाएँ पृथ्वी पर ऐसे ही होती रहीं तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी से जीव-जन्तु व वनस्पति का अस्तिव ही समाप्त हो जाएगा। कहते है प्रकृति संरक्षित होगी तो मानव जीवन भी सुरक्षित होगा। प्रकृति हमारी धरोहर है, इसकी रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य है।  प्रकृति ने हमें जीव जंतुओं सहित सूर्य, चाँद, हवा, जल, धरती, नदियां, पहाड़, हरे-भरे वन और खनिज सम्पदा धरोहर के रूप में दी हैं। मनुष्य अपने निहित स्वार्थ के कारण प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग कर रहा है। बढ़ती आबादी की समस्या के लिए आवास समस्या को हल करने के लिए हरे-भरे जंगलों को काट कर ऊंची-ऊंची इमारतें बनाई जा रही हैं। वृक्षों के कटने से वातावरण का संतुलन बिगड़ गया है और ग्लोबल वार्मिंग की समस्या पूरे विश्व के सामने भयंकर रूप से खड़ी है। खनिज-सम्पदा का अंधाधुंध प्रयोग किया जा रहा है। जीव-जंतुओं का संहार किया जा रहा है, जिसके कारण अनेक दुर्लभ प्रजातियां लुप्त होती जा रही हैं।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

, मालवीय नगर, जयपुर

प्रधानमंत्री मोदी के जन्मदिन के सफाई अभियान का सच

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देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 75वां जन्मदिन आया तो पूरे देश में धूमधाम से स्वच्छता अभियान चलाया गया। भाजपा नेता और कार्यकर्ता झाड़ू लेकर मैदान में उतरे, कहीं सड़क पर दो कागज उठाए, कहीं नाली के पास झाड़ू फेर दी और कैमरे के सामने मुस्कुरा कर फोटो खिंचवा ली। फिर क्या था सोशल मीडिया पर वही फोटो वायरल हो गईं और संदेश दिया गया कि देशभर में स्वच्छता अभियान चला, लेकिन असलियत में यह सब दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं था। अगर सचमुच नेताओं और अफसरों में स्वच्छ भारत मिशन के लिए प्रतिबद्धता होती तो आज हर शहर में खड़े कूड़े के पहाड़ कब के खत्म हो चुके होते। हकीकत यह है कि देश का कोई भी शहर देख लीजिए। कहीं न कहीं कूड़े का अंबार खड़ा मिलेगा। गलियां, चौराहे, सड़कों के किनारे ढेर लग जाते हैं और नगर पालिका या निगम के लोग सिर्फ खानापूर्ति कर निकल जाते हैं। स्वच्छ भारत का सपना तब पूरा होगा जब इन ढेरों का सही निस्तारण होगा। मगर यहां न तो अफसरों को इसकी फिक्र है और न ही नेताओं को। सब बस मौकों पर फोटो खिंचवा कर जिम्मेदारी निभाने का नाटक करते हैं। धामपुर समेत पूरे देश का हाल भी इसी तरह का है। उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी तहसील मानी जाने वाली धामपुर में रेलवे ओवरब्रिज के किनारे सालों से कूड़े का पहाड़ खड़ा है। अगर ब्रिज न होता तो यह गंदगी दूर से ही साफ दिखाई देती। रोज हजारों लोग वहां से गुजरते हैं। बदबू और गंदगी सहते हैं। मगर प्रशासन चुप्पी साधे रहता है। यही हाल देश के हर शहर का है। कहीं न कहीं आपको ऐसा ही गंदगी का टीला देखने को मिल जाएगा। असलियत यह है कि नेता अब फोटोजीवी बन चुके हैं। मतलब बस कैमरे में आने तक ही काम करते हैं। दो मिनट के लिए झाड़ू उठाई। हंसी-मजाक की, फोटो खिंचवाई और काम खत्म। उसके बाद वही कूड़ा वैसे का वैसा पड़ा रहता है। जनता को भ्रम दिया जाता है कि देश साफ हो रहा है, लेकिन धरातल पर कुछ भी नहीं बदलता। यही वजह है कि लोग अब इन अभियानों को गंभीरता से लेना छोड़ चुके हैं। अब सवाल उठता है कि आखिर जिम्मेदारी किसकी है‌। सिर्फ नेताओं और अफसरों की नहीं, जनता की भी है। लोग भी खुले में कचरा फेंकते हैं। पॉलिथीन का इस्तेमाल बंद नहीं करते और नालियों में गंदगी डाल देते हैं। अगर समाज बदलेगा नहीं तो सिर्फ नेता बदलने से कुछ नहीं होगा, लेकिन नेताओं का काम तो फिर भी जनता को रास्ता दिखाना है। जब वही लोग दिखावा करेंगे तो जनता से क्या उम्मीद की जाए।अगर भाजपा नेता और अफसर सचमुच प्रधानमंत्री मोदी का जन्मदिन सार्थक बनाना चाहते तो उन्हें जमीन पर उतरकर कूड़े के पहाड़ हटाने का अभियान शुरू करना चाहिए था। कचरा प्रबंधन प्लांट लगते, गंदगी साफ होती, पॉलिथीन पर रोक लगती और लोगों को जागरूक किया जाता। तभी असली श्रमदान कहलाता। बाकी तो बस फोटो खिंचवाने की राजनीति है, जिसमें पब्लिक को बेवकूफ बनाना आसान है। बाकी स्वच्छ भारत का सपना तभी पूरा होगा जब नेता, अफसर और जनता सब मिलकर असली काम करेंगे। फोटो से नहीं, गली और मोहल्ले साफ करने से फर्क पड़ेगा। वरना हर साल ऐसे ही स्वच्छता अभियान चलते रहेंगे और देश में कूड़े के पहाड़ और ऊंचे होते जाएंगे।

भूपेन्द्र शर्मा सोनू
(स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक)

भारत में डिजीटल सुनामी,जैन जी हो गए इंटरनेट लवर्स

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बाल मुकुन्द ओझा
देश में इंटरनेट का उपयोग करने वालों की संख्यां में रिकार्ड बढ़ोतरी के साथ आज के डिजिटल युग में, यह अत्याधुनिक विधा हमारी दिनचर्या का अहम हिस्सा बन गई है। बैंकिंग, ऑनलाइन शॉपिंग, सोशल मीडिया, और ऑफिस वर्क जैसी गतिविधियां पूरी तरह इंटरनेट पर निर्भर हो गई हैं। देश और दुनिया में दिन-ब-दिन इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। पहले बड़े इसे अपने काम के लिए उपयोग में लाते थे और अब यह बड़ों से बच्चों के हाथों में पहुँच कर हमारी जिंदगानी का अभिन्न और अहम हिस्सा बन गया है। विशेषकर जेन जी ने इंटरनेट लवर्स के रूप में अपनी पहचान बनाई है। डिजिटल की दुनिया में नब्बे के दशक के मध्य से लेकर 2010 की शुरुआत तक के जन्मे लोगों को ‘जेन जी’ का नाम दिया है।
दूरसंचार विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या 1 अरब से ज्यादा हो गई है। यह संख्या 1,002.85 मिलियन तक पहुंच गई है, जो मार्च की तुलना में 3.48 प्रतिशत ज्यादा है। इस बढ़ोतरी का मुख्य कारण ब्रॉडबैंड का विकास बताया गया है। ट्राई के आंकड़ों के अनुसार 30 जून, 2025 तक भारत में इंटरनेट /ब्रॉडबैंड ग्राहकों की कुल संख्या 100.28 करोड़ है। यह पिछली तिमाही की तुलना में 3.48 प्रतिशत की वृद्धि है। कुल उपभोक्ताओं में से 2.31 करोड़ नैरोबैंड उपभोक्ता हैं, जबकि 97.97 करोड़ ब्रॉडबैंड उपभोक्ता हैं। इसके अलावा, 4.47 करोड़ उपभोक्ता वायर्ड इंटरनेट सेवाओं का उपयोग करते हैं, जबकि 95.81 करोड़ उपभोक्ता वायरलेस इंटरनेट सेवाओं का उपयोग करते हैं।
आज बिना इंटरनेट जीवन अधूरा लगता है। इंटरनेट हमारी दिनचर्या में पूरी तरह घुलमिल गया है। इंटरनेट का सबसे बड़ा फायदा यही है, कि इसकी वजह से विश्व एक परिवार बन गया है। भारत की बात करे तो आज इंटरनेट ने देश के महानगरों से होते हुए गांव गुवाड़ तक आसानी से अपनी पहुँच बना ली है। हमारे जीवन के रोजमर्रा के अधिकांश कार्य के लिए इंटरनेट पर निर्भरता को देखते हुए इस युग को इंटरनेट का युग कहा जाने लगा है। चाहे पढ़ाई हो या मनोरंजन या फिर किसी तरह का मार्गदर्शन लेना हो, सभी इसके लिए इंटरनेट का सहारा ले रहे हैं। मोबाइल, कंप्यूटर से जुड़ा इंटरनेट घर बैठे दुनियाभर की जानकारी एक क्लिक पर उपलब्ध करा देता है।
इंटरनेट का मतलब है इंटरनेशनल नेटवर्क यानी पूरे विश्व के नेटवर्क को इंटरनेट करते हैं। तथा इसको हिंदी में अंतरजाल कहते हैं। एक ऐसा नेटवर्क जिसे पूरी दुनिया के कंप्यूटर आपस में एक तार से जुड़े होते हैं। या हम यह भी कह सकते हैं कि पूरी दुनिया के सारे कंप्यूटर मकड़ी के जाल की तरह आपस में एक दूसरे से ही जुड़े हुए हैं। वैसे आमतौर पर आम भाषा में इसे केवल नेट करके ही बोला जाता है। इंटरेस्ट को वर्ल्ड वाइड वेब के नाम से भी जाना जाता है। वेब यानी कि इसका अर्थ तरंगों से होता है। आज देश और दुनिया के लगभग सभी घरों में ऑनलाइन पढ़ाई, खरीदारी, मनोरंजन और अन्य कामों के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल हो रहा है।
आज से बीस तीस साल पहले लोगों ने इंटरनेट का नाम तक नहीं सुना था मगर देखते देखते आज इंटरनेट आज हमारी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा बन गया है। आज हम हर छोटी-छोटी चीजों के लिए इंटरनेट पर सर्च करते हैं। वर्तमान समय में इंटरनेट ने लोगों के जीवन में एक नई क्रांति ला दी है। रोजमर्रा की जिन्दगी में अब सारे कार्य कंप्यूटर और इंटरनेट द्वारा किए जा रहे हैं। बहुत से लोगों का मानना है इंटरनेट के माध्यम से आमजन का जीवन आसान हो गया है क्योंकि इससे हम घर के बाहर गए बिना ही अपना बिल जमा करना व्यापारिक लेन -देन करना सामान खरीदना आदि काम कर सकते है.अब ये हमारे जीवन का खास हिस्सा बन चुका है। यहाँ तक की खाने पीने का सामान भी इंटरनेट से मंगाते है। वर्तमान समय में इंटरनेट ने लोगों के जीवन में एक नई क्रांति ला दी है। रोजमर्रा की जिन्दगी में अब सारे कार्य कंप्यूटर और इंटरनेट द्वारा किए जा रहे हैं। छोटे बच्चों से लेकर युवा वर्ग और मध्यम वर्ग के लोगों में इंटरनेट को लेकर खासा उत्साह देखने को मिल रहा है। परन्तु जहां एक तरफ इंटरनेट हमारे लिए वरदान साबित हो रहा है वहीं दूसरी ओर इंटरनेट के अत्याधिक इस्तेमाल से यह नुक्सान दायक साबित हो रहा है। इंटरनेट ज्ञान का खजाना है यह कहते हम थकते नहीं है। निश्चय ही यह हमारी जिंदगी में एक वरदान बनकर आया है मगर इसके दुरूपयोग ने हमें उजाले से अँधेरे में धकेलते देर नहीं लगायी यह भी एक सच्चाई है। एक्सपर्ट के मुताबिक इंटरनेट के अधिक उपयोग से लोगों में इंटरनेट की लत बढ़ती जा रही है। खासकर युवा वर्ग जिसे जेन जी का नाम दिया जा रहा है, दिनरात सोशल मीडिया, ऑनलाइन गेमिंग, वीडियो स्ट्रीमिंग आदि आदि में व्यस्त रहते हैं। आवश्यकता इस बात की है की हम नए जमाने को अपनाने के साथ उसकी बुराइयों पर भी निगाह रखे ताकि बचपन को गुमराह होने से बचाया जा सके।


बाल मुकुन्द ओझा
वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार
मालवीय नगर, जयपुर

हरियाणा में तबादलों का संकट – शिक्षकों की उम्मीदों पर विराम

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“अप्रैल से इंतज़ार, अब तक अधर में तबादले; मॉडल स्कूल का परिणाम टला, नई नीति भी अधूरी”

हरियाणा में शिक्षकों के तबादले अप्रैल में होने थे, लेकिन आज तक प्रक्रिया शुरू नहीं हो पाई। सरकार ने घोषणा की थी कि सबसे पहले मॉडल स्कूल का परिणाम आएगा और उसी के आधार पर तबादलों की दिशा तय होगी, परंतु महीनों बीत जाने के बावजूद यह परिणाम घोषित नहीं किया गया। अब नई तबादला नीति बनाने की बात कही जा रही है, लेकिन वह नीति भी अभी तक सार्वजनिक नहीं हुई है। इस देरी से शिक्षक गहरे असमंजस में हैं। हज़ारों शिक्षक अपने परिवार से दूर कठिन परिस्थितियों में काम कर रहे हैं और उन्हें उम्मीद थी कि समय पर तबादलों से राहत मिलेगी। मगर सरकार के बार-बार बदलते वादों और अधूरी तैयारियों ने उनके धैर्य की परीक्षा ले ली है। अब ज़रूरत है कि सरकार तुरंत मॉडल स्कूल का परिणाम घोषित करे, नई नीति स्पष्ट करे और पारदर्शी तरीके से तबादला प्रक्रिया शुरू करे।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

हरियाणा की शिक्षा व्यवस्था इस समय गहरे असमंजस और ठहराव के दौर से गुजर रही है। अप्रैल से लेकर अब तक हज़ारों शिक्षक अपने तबादलों का इंतज़ार कर रहे हैं, लेकिन नतीजा यह है कि महीनों बाद भी कोई ठोस प्रक्रिया शुरू नहीं हो पाई। सरकार और विभाग ने कई बार आश्वासन दिया कि जल्द ही तबादला ड्राइव चलेगी, लेकिन वास्तविकता यह है कि आज तक न तो मॉडल स्कूल का परिणाम घोषित हुआ और न ही नई तबादला नीति लागू हो सकी। ऐसे में शिक्षकों के मन में असंतोष और धैर्य की सीमाएँ दोनों टूटती नज़र आ रही हैं।

हरियाणा में शिक्षकों के तबादले अप्रैल में होने थे, लेकिन अब तक शुरू नहीं हो पाए। सरकार ने पहले कहा था कि सबसे पहले मॉडल स्कूल का परिणाम घोषित किया जाएगा और फिर उसी के आधार पर तबादला ड्राइव चलाई जाएगी, मगर महीनों बीत जाने के बावजूद यह परिणाम जारी नहीं हुआ। नई तबादला नीति बनाने की बात कहकर शिक्षकों को उलझाए रखा गया है, जबकि वह नीति भी अब तक सार्वजनिक नहीं हुई है। इस देरी से हज़ारों शिक्षक असमंजस और निराशा में हैं, क्योंकि कई शिक्षक कठिन परिस्थितियों में काम कर रहे हैं और उन्हें समय पर स्थानांतरण से राहत की उम्मीद थी। लगातार वादों और अधूरी तैयारियों ने उनके धैर्य की परीक्षा ले ली है। अब ज़रूरी है कि सरकार तुरंत मॉडल स्कूल का परिणाम घोषित करे, नई नीति स्पष्ट करे और पूरी पारदर्शिता के साथ तबादला प्रक्रिया को आगे बढ़ाए।

तबादले किसी भी शिक्षक के लिए केवल प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं होते। यह उनके निजी जीवन, पारिवारिक परिस्थितियों और पेशेवर संतुष्टि से गहराई से जुड़े होते हैं। वर्षों से एक ही स्थान पर काम कर रहे शिक्षकों को बदलाव की उम्मीद रहती है, वहीं दूरदराज़ क्षेत्रों में तैनात शिक्षकों को अपने परिवार और बच्चों से जुड़ने की चाह होती है। जब यह उम्मीदें लगातार अधूरी रह जाती हैं, तो उसका असर उनके मनोबल और कार्यक्षमता दोनों पर पड़ता है।

अप्रैल में सरकार ने दावा किया था कि सबसे पहले मॉडल स्कूल का परिणाम घोषित किया जाएगा और उसके आधार पर तबादलों की प्रक्रिया को दिशा दी जाएगी। लेकिन यह परिणाम महीनों से लटका हुआ है। इसके साथ ही सरकार ने नई तबादला नीति बनाने की घोषणा की, ताकि प्रक्रिया और अधिक पारदर्शी और निष्पक्ष हो सके। यह घोषणा सुनने में आकर्षक ज़रूर थी, लेकिन जब नीति महीनों तक अधर में ही पड़ी रहे और शिक्षकों को उसका कोई स्पष्ट स्वरूप न दिखे, तो यह केवल समय खींचने का बहाना प्रतीत होता है।

इस पूरी देरी का सीधा असर शिक्षा व्यवस्था पर पड़ रहा है। जहाँ कुछ स्कूलों में जरूरत से ज्यादा शिक्षक मौजूद हैं, वहीं कई ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में वर्षों से पद खाली पड़े हैं। नतीजा यह है कि बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हो रही है और असमानता बढ़ रही है। मॉडल स्कूल परियोजना, जिसे शिक्षा सुधार का प्रतीक बताया गया था, उसका परिणाम ही न आना सरकार की गंभीरता पर सवाल खड़े करता है।

शिक्षक लगातार धैर्य बनाए हुए हैं, लेकिन अब उनकी आवाज़ें तेज़ होने लगी हैं। संघ और संगठन यह सवाल पूछ रहे हैं कि जब पुरानी नीति के तहत भी प्रक्रिया पूरी हो सकती थी, तो उसे बीच में क्यों रोका गया। नई नीति का हवाला देकर महीनों तक शिक्षकों को उलझाए रखना क्या केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी नहीं दर्शाता? शिक्षकों का मानना है कि सरकार को यदि सचमुच पारदर्शिता चाहिए तो नीति को सार्वजनिक करना चाहिए। यदि वह तैयार नहीं है तो पुरानी नीति के तहत प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए, ताकि कम से कम शिक्षकों को राहत मिल सके।

हरियाणा जैसे राज्य में, जहाँ शिक्षा सुधार और मॉडल स्कूलों की बातें बड़े स्तर पर की जाती रही हैं, वहाँ आज स्थिति यह है कि शिक्षकों को अपने ही भविष्य का पता नहीं। यह केवल शिक्षकों का संकट नहीं है, बल्कि छात्रों और पूरी शिक्षा व्यवस्था की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न है। शिक्षक असंतुष्ट और परेशान रहेंगे तो वे बच्चों को पूरी निष्ठा से कैसे पढ़ा पाएंगे?

अब जबकि सितंबर भी समाप्ति की ओर है, सरकार को और देरी नहीं करनी चाहिए। सबसे पहले मॉडल स्कूल का परिणाम घोषित करना ज़रूरी है, ताकि शिक्षकों को स्पष्टता मिल सके। इसके बाद नई नीति को सार्वजनिक करना चाहिए और यदि वह अधूरी है तो पुरानी नीति के तहत ही तबादला प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए। साथ ही यह भी आवश्यक है कि पूरी प्रक्रिया डिजिटल और समयबद्ध तरीके से हो, ताकि किसी प्रकार का पक्षपात या अनुशंसा की गुंजाइश न रहे।

अंततः यह समझना होगा कि शिक्षक केवल सरकारी कर्मचारी नहीं बल्कि समाज की रीढ़ हैं। उन्हें महीनों तक अनिश्चितता और प्रतीक्षा में रखना उनके साथ अन्याय है और छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ है। यदि सरकार सचमुच शिक्षा सुधार चाहती है, तो उसे तुरंत ठोस और पारदर्शी कदम उठाने होंगे। हरियाणा के शिक्षकों का धैर्य अब अंत की ओर है, और यह समय है कि सरकार वादों और घोषणाओं से आगे बढ़कर वास्तविक कार्रवाई करे। यही एकमात्र रास्ता है जो शिक्षकों को न्याय देगा और हरियाणा की शिक्षा व्यवस्था को संतुलन और मजबूती प्रदान करेगा।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

दिव्यांगजन की आवाज़: मुख्यधारा से जुड़ने की पुकार

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(सहानुभूति से परे, कानून, शिक्षा, रोज़गार, मीडिया और तकनीक के माध्यम से बराबरी व सम्मान की ओर)

भारत में करोड़ों दिव्यांगजन आज भी शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य और सार्वजनिक जीवन में हाशिए पर हैं। संवैधानिक अधिकारों और 2016 के दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम के बावजूद सामाजिक पूर्वाग्रह, ढांचागत बाधाएँ और मीडिया में विकृत छवि उनकी गरिमा को चोट पहुँचाती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि उनकी समानता और सम्मान से समझौता नहीं हो सकता। अब समय आ गया है कि समाज सहानुभूति से आगे बढ़कर दिव्यांगजन को अधिकार और अवसर दे। तकनीक, जागरूकता, कानून का सख्त क्रियान्वयन और सक्रिय भागीदारी ही समावेशी भारत की कुंजी हैं।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी शक्ति उसकी विविधता और समावेशिता मानी जाती है। संविधान ने हर नागरिक को समान अधिकार, गरिमा और अवसर की गारंटी दी है। परन्तु जब हम समाज के उस वर्ग की ओर देखते हैं, जिन्हें दिव्यांगजन कहा जाता है, तो यह गारंटी अक्सर खोखली दिखाई देती है। देश की जनगणना और हालिया सर्वेक्षण इस बात की पुष्टि करते हैं कि करोड़ों दिव्यांगजन आज भी शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, यातायात, मीडिया और सार्वजनिक जीवन में हाशिए पर हैं। संवैधानिक प्रावधान और कानून मौजूद हैं, परन्तु जमीनी स्तर पर उनकी स्थिति इस सच्चाई को बयान करती है कि वे अब भी अदृश्य नागरिकों की तरह जीवन जीने को विवश हैं।

समस्या केवल भौतिक अवरोधों की नहीं है, बल्कि मानसिकता और दृष्टिकोण की भी है। समाज का बड़ा हिस्सा अब भी दिव्यांगता को दया, बोझ या त्रासदी की दृष्टि से देखता है। यह सोच दिव्यांगजन की क्षमताओं और संभावनाओं को नकार देती है। उन्हें बराबरी का अवसर देने के बजाय या तो दया का पात्र बना दिया जाता है या हंसी का विषय। भारतीय सिनेमा और टेलीविज़न ने भी लंबे समय तक इन्हीं रूढ़ियों को दोहराया है। हालांकि अब धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है, परन्तु यह बदलाव बहुत धीमा और सीमित है।

भारतीय न्यायपालिका ने कई बार दिव्यांगजन की गरिमा और अधिकारों की रक्षा करते हुए महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या हास्य के नाम पर किसी भी समुदाय की गरिमा से समझौता नहीं किया जा सकता। हाल ही में दिए गए फ़ैसलों में मीडिया और मनोरंजन उद्योग को चेताया गया कि वे दिव्यांगजन को मजाक या दया का पात्र न बनाएं, बल्कि उनके संवैधानिक अधिकारों का सम्मान करें। इसके बावजूद समाज में गहरे जमे पूर्वाग्रह अब भी मौजूद हैं।

वास्तविक चुनौती केवल कानूनी संरक्षण से पूरी नहीं होती। समस्या यह है कि कानून और नीतियाँ लागू करने वाली संस्थाओं में पर्याप्त संवेदनशीलता और दृढ़ता का अभाव है। उदाहरण के लिए, दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 ने शिक्षा, रोज़गार और सार्वजनिक जीवन में उनके लिए आरक्षण और सुविधाओं की गारंटी दी। परन्तु स्कूलों और कॉलेजों की इमारतें अब भी सीढ़ियों से भरी हैं, सरकारी दफ्तरों में व्हीलचेयर के लिए जगह नहीं है, और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर अब भी दृष्टिबाधित या श्रवणबाधित लोगों के लिए आवश्यक विकल्प उपलब्ध नहीं कराए जाते।

दिव्यांगजन की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उन्हें ‘सक्षम नागरिक’ के बजाय ‘निर्भर नागरिक’ मान लिया गया है। यह सोच उन्हें समाज की मुख्यधारा से दूर कर देती है। जबकि सच्चाई यह है कि अवसर और सुविधा मिलने पर दिव्यांगजन किसी भी क्षेत्र में उत्कृष्टता साबित कर सकते हैं। खेल जगत में पैरा ओलंपिक खिलाड़ियों की उपलब्धियाँ इसका प्रमाण हैं। शिक्षा और साहित्य से लेकर प्रशासन और विज्ञान तक दिव्यांगजन ने अपनी क्षमता का लोहा मनवाया है। समस्या क्षमता की नहीं, बल्कि अवसर और दृष्टिकोण की है।

यदि समाज सचमुच समावेशी बनना चाहता है, तो सबसे पहले उसकी सोच बदलनी होगी। दिव्यांगजन को दया या सहानुभूति की आवश्यकता नहीं है, उन्हें बराबरी के अधिकार और अवसर चाहिए। स्कूलों में बचपन से ही बच्चों को यह सिखाना होगा कि विविधता ही समाज की ताकत है। मीडिया और सिनेमा को जिम्मेदारी लेनी होगी कि वे दिव्यांगता को केवल दुर्बलता के रूप में न दिखाएं, बल्कि उसे साहस, आत्मविश्वास और मानवीय गरिमा से जोड़कर पेश करें।

सार्वजनिक ढांचे को दिव्यांगजन की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाना सबसे महत्वपूर्ण कदम है। मेट्रो स्टेशन, रेलवे प्लेटफार्म, बस अड्डे, अस्पताल, सरकारी कार्यालय, पार्क और शैक्षणिक संस्थान तब तक समावेशी नहीं कहे जा सकते, जब तक वे हर व्यक्ति के लिए सुलभ न हों। तकनीकी प्रगति इस दिशा में बहुत मददगार हो सकती है। डिज़िटल ऐप्स में वॉइस असिस्टेंट, स्क्रीन रीडर और सांकेतिक भाषा की सुविधाएँ जोड़कर हम लाखों दिव्यांगजन को ऑनलाइन शिक्षा और रोजगार से जोड़ सकते हैं।

समानता की इस लड़ाई में सरकार और समाज दोनों की साझी भूमिका है। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि दिव्यांगजन के लिए बनाए गए कानून केवल कागज़ी दस्तावेज़ बनकर न रह जाएँ। उनके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए स्वतंत्र निगरानी तंत्र बने। स्थानीय निकायों से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक निर्णय प्रक्रिया में दिव्यांगजन की भागीदारी हो। उनकी ज़रूरतों और सुझावों को सुने बिना कोई नीति या योजना पूरी नहीं हो सकती।

वहीं समाज की भूमिका और भी बड़ी है। हर व्यक्ति को अपने घर, मोहल्ले और कार्यस्थल पर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि दिव्यांगजन सम्मान और बराबरी के साथ जी सकें। सार्वजनिक कार्यक्रमों, चुनावी रैलियों और सांस्कृतिक आयोजनों में उनकी भागीदारी बढ़े। यह तभी संभव है जब हम उन्हें दया नहीं, अधिकार का दर्जा देंगे।

भारत का संविधान हमें बराबरी, गरिमा और स्वतंत्रता की गारंटी देता है। यदि समाज का एक बड़ा हिस्सा इन अधिकारों से वंचित रहता है, तो लोकतंत्र अधूरा रह जाता है। दिव्यांगजन को हाशिए से मुख्यधारा में लाना केवल मानवता का कर्तव्य नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र की बुनियादी शर्त भी है। जब तक दिव्यांगजन की आवाज़ नीतियों और समाज दोनों में बराबर न सुनी जाएगी, तब तक समावेशी भारत का सपना अधूरा रहेगा।

इसलिए आज समय की सबसे बड़ी पुकार यही है कि दिव्यांगजन को अदृश्य नागरिक नहीं, बल्कि परिवर्तन और प्रगति के सक्रिय साझीदार माना जाए। उनकी क्षमताओं और सपनों को पहचान कर ही हम उस समाज का निर्माण कर सकते हैं, जहाँ कोई पीछे न छूटे।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

केदारनाथ को धाम ही रहने दो मोदी जी! रोपवे से प्रकृति का विनाश निश्चित

भूपेन्द्र शर्मा सोनू

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट सोनप्रयाग से केदारनाथ धाम तक रोपवे है। इसका टेंडर अदाणी एंटरप्राइजेज को मिल चुका है। करीब 4081 करोड़ की लागत से बनने वाला यह काम छह साल में पूरा होगा। कहा जा रहा है कि रोपवे बनने के बाद 13 किलोमीटर की दूरी सिर्फ 36 मिनट में तय हो जाएगी। सुनने में बढ़िया लगता है, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सच में हमारी ज़रूरत है या फिर पहाड़ों के लिए नई मुसीबत, क्योंकि केदारनाथ धाम तक पहले ही हेलीकॉप्टर सेवाएँ चल रही हैं। हेलीकॉप्टर का शोर, धुएँ से वायु प्रदूषण और आसमान में गूँजता शोर, यह सब उस घाटी की शांति को तोड़ रहा है। जहाँ लोग आध्यात्मिक सुकून लेने आते हैं। अब रोपवे भी बन जाएगा तो रोज़ाना हज़ारों-लाखों लोग कुछ ही मिनट में धाम पहुँचेंगे। क्या इतनी भीड़ और दबाव उस जगह को सहन हो पाएगा। 2013 की आपदा को कौन भूला है। बादल फटा, नदियाँ उफनीं, पहाड़ दरके और हजारों लोग मौत के मुँह में समा गए। तब यही कहा गया था कि प्रकृति से छेड़छाड़ बंद करनी होगी, लेकिन कुछ ही साल बीते और सरकार फिर से वैसा ही कर रही है। कभी हेलीकॉप्टर, कभी रोपवे, कभी नए-नए होटल। सवाल है कि क्या हमने उस त्रासदी से कोई सबक लिया‌। हिमालय कोई साधारण पहाड़ नहीं है। यह पूरा क्षेत्र बहुत नाज़ुक है। यहाँ ज़रा सा भी ज़्यादा दबाव पड़ता है तो नतीजे भयानक होते हैं। वैज्ञानिक भी कहते हैं कि यहाँ विस्फोट करके सुरंगें खोदना, बड़े-बड़े प्रोजेक्ट चलाना या अनियंत्रित निर्माण करना खतरनाक है, लेकिन वोट और कारोबार की राजनीति में प्रकृति की चिंता करने का वक्त किसके पास है‌। आज हाल यह है कि केदारनाथ जैसे पवित्र धाम को सरकार और ठेकेदार मिलकर धीरे-धीरे पिकनिक स्पॉट बना रहे हैं। जहाँ श्रद्धालु भक्ति भाव से दर्शन करने जाएँ, वहाँ भीड़ का मेला लगेगा, फोटो खिंचाने वालों की लाइनें लगेंगी और प्रकृति कराहती रहेगी। धाम का मतलब है आस्था, शांति और सादगी, लेकिन अब उसका रूप बदलकर महज़ सुविधा और कमाई का ठिकाना बनता जा रहा है। सोचिए, जब रोज़ाना लाखों लोग रोपवे से कुछ ही मिनटों में पहुँचेंगे तो कूड़ा, प्लास्टिक, गंदगी और शोर किस हद तक बढ़ेगा। मंदिर के चारों तरफ का इलाक़ा जहाँ आज भी शांति और भक्ति का माहौल रहता है, वो कल किसी बाज़ार जैसा दिखेगा। आस्था और सुविधा दोनों ज़रूरी हैं, लेकिन इनके बीच संतुलन ज़्यादा ज़रूरी है। रास्तों की मरम्मत की जाए, ट्रैकिंग रूट सुरक्षित बनाए जाएँ, यात्रियों की संख्या सीमित रखी जाए आदि उपाय भी किए जा सकते हैं, लेकिन सीधा-सीधा पहाड़ काटकर या रोपवे लटकाकर विकास का ढोल पीटना सिर्फ आने वाली विपत्तियों को न्योता देना है। सच यही है कि जब-जब इंसान ने प्रकृति को चुनौती दी है, तब-तब उसे करारा जवाब मिला है। पंजाब की ज़मीन को देख लो। अंधाधुंध खेती और कैमिकल ने मिट्टी खराब कर दी। उत्तराखण्ड में 2013 की आपदा अब भी ताज़ा है। बावजूद इसके सरकार फिर से वही गलती दोहरा रही है।केदारनाथ सिर्फ एक मंदिर नहीं, बल्कि हमारी आस्था और हिमालय की आत्मा है। अगर हमने इसे पिकनिक स्पॉट बना दिया तो आने वाले समय में न तो धाम बचेगा, न ही उसका पवित्र माहौल। सरकार को समझना होगा कि धाम को धाम रहने दो, इसे मेला-ठेला मत बनाओ। वरना आने वाली विपत्ति को कोई नहीं रोक पाएगा।

भूपेन्द्र शर्मा सोनू
(स्वतंत्र पत्रकार व लेखक)

शक्ति भक्ति, मेलों ठेलों और खुशियों के त्योहार

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बाल मुकुन्द ओझा
भारत त्योहारों का देश है। त्योहार देश की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक बुनियाद को मजबूत बनाने और समाज को जोड़ने का काम करते हैं। त्योहार जीवन में खुशियां लेकर आते है। विशेषकर सितम्बर और अक्टूबर का त्योहारी महीना अपने साथ कई सौगातें लेकर आता है। इस दौरान बारिश विदाई ले चुकी है और मौसम के बदलाव की आहट लोग महसूस करते है। इस मौसम में प्राकृतिक सौंदर्य अपने चरम पर होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि सितम्बर माह से देश में त्योहारी मौसम की शुरुआत हो जाती है। नवरात्रि से दीपावली तक दो माह इस बार कई महत्वपूर्ण धार्मिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पर्वों की सौगात लेकर आ रहा है। यह महीना आस्था, परंपरा और भक्ति से जुड़ी अनेक शुभ तिथियों को अपने साथ लेकर आया है। यह एक के बाद एक व्रत और त्‍योहारों से सजा हुआ है। श्राद्ध पक्ष की समाप्ति के साथ ही 22 सितम्बर से विधिवत त्योहारी सीजन की शुरुआत हो जाएगी। इस दौरान शारदीय नवरात्रि, विजयदशमी, करवा चौथ, दीपावली, प्रदोष व्रत, शरद पूर्णिमा जैसे बड़े व्रत, त्योहार और मेले ठेले हर्षोल्लास और धूमधाम से मनाये जायेंगे। दीपावली तक त्योहारी खरीदारी का माहौल रहेगा और उसके बाद शादियों का दौर बाजारों को नई रफ्तार देगा। बहरहाल यहाँ हम त्योहारी सीज़न की चर्चा कर रहे है। इस त्योहारी सीजन में एक दर्जन बड़े त्योहार और व्रत आते है जिसमें देशवासी उमंग और उत्साह के साथ शामिल होकर अपनी खुशियों का इजहार करते है। लोकमंगल के इस सीजन में बच्चे से बुजुर्ग तक खुशियां बांटते है और खुशहाली की कामना करते हैं।
त्योहारी सीज़न की शरुआत शारदीय नवरात्रि से हो रही है। 22 सितम्बर से शुरू हो रहे नवरात्रि के पावन अवसर पर माँ दुर्गा के लाखों भक्त उनकी तन मन से पूजा-आराधना करते हैं। ताकि उन्हें उनकी श्रद्धा का फल माँ के आशीर्वाद के रूप में मिल सके। इस दौरान माँ शैलपुत्री, माँ ब्रह्मचारिणी, माँ चंद्रघण्टा, माँ कूष्मांडा, माँ स्कंद माता, माँ कात्यायनी, माँ कालरात्रि, माँ महागौरी और माँ सिद्धिदात्री के नौ रूपों की पूजा आराधना की जाती है।
दिवाली की शुरुआत 18 अक्टूबर, धनतेरस से होगी और 23 अक्टूबर को भाई दूज के साथ समाप्त होगी।
धनतेरस
धनतेरस का पर्व शनिवार, 18 अक्टूबर 2025 को है। इस दिन भगवान धन्वंतरि और मां लक्ष्मी की पूजा होती है। इसे स्वास्थ्य और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
नरक चतुर्दशी
नरक चतुर्दशी का पर्व रविवार, 19 अक्टूबर को मनाया जाएगा। मान्यता है कि इस दिन भगवान कृष्ण ने नरकासुर राक्षस का वध किया था। इसे छोटी दिवाली भी कहते हैं।

दीपावली
दीपावली सोमवार, 20 अक्टूबर को मनाई जाएगी। इस दिन मां लक्ष्मी, भगवान गणेश और भगवान कुबेर की पूजा की जाती है। शाम को घरों में दीपक जलाकर अंधकार पर प्रकाश और बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक मनाया जाता है।
गोवर्धन पूजा
गोवर्धन पूजा मंगलवार, 21 अक्टूबर को है। इसे अन्नकूट भी कहते हैं। लोग तरह-तरह के व्यंजन बनाकर भगवान को भोग लगाते हैं।
भाई दूज
भाई दूज गुरुवार, 23 अक्टूबर को है। यह दिन भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को समर्पित है। बहनें अपने भाइयों को तिलक करती हैं और लंबी उम्र की कामना करती हैं।
त्योहारों में लोग अपनी सामर्थ्य के मुताबिक नए कपड़े, जमीन जायदाद सोने चांदी के सामान सहित घरेलू जरुरत के सामान खरीदते है। गरीब से अमीर तक त्योहारों की खुशियों में खो जाते है। तन-मन को प्रफुल्लित करने वाला ये पर्व हमारे जीवन में हजारों खुशियाँ प्रदान करते है। त्योहार जीवन को प्रेम, बन्धुत्व और शुद्धता से जीने की सीख देता है। मन और चित को शांति प्रदान करता है और हमारे अन्दर की बुराइयों को अन्तर्मन से बाहर निकाल कर अच्छाइयों को ग्रहण करने की ताकत प्रदान करता है।


बाल मुकुन्द ओझा
वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार
डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर
मो.- 8949519406