देश के मुस्लिम समाज ने खुद को कुछ राजनैतिक दलों का वोट बैंक बना दिया

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इसमें कोई शक नहीं कि देश के मुस्लिम समाज ने खुद को कुछ राजनैतिक दलों का वोटबैंक बना दिया है । उन्हें आरएसएस का ऐसा खौफ दिखाया गया कि मुस्लिमों ने पहले कांग्रेस और अब विपक्षी दलों का वोटबैंक बनने में ही भलाई समझी । नतीजा सामने है । वे आज तक भी राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ नहीं पाए । बिहार में मुस्लिम बिरादरी ने तेजस्वी से उप मुख्यमंत्री का पद मांगा था । लेकिन तेजस्वी ने यह पद नवरात्र में अपने साथ मछली खाकर वीडियो पोस्ट करने वाले मुकेश सहनी को दे दिया ।

तेजस्वी को पता है कि मुस्लिम वोटर कहां जाएगा , कुछ दो न दो वोट तो लाइन लगाकर हमें ही देने को मजबूर है । उन्होंने मुकेश सहनी को जोड़ लिया ताकि अति पिछड़ों के वोट तो मिल जाएं । दरअसल भारत के मुस्लिम समाज ने आजादी के 78 सालों में बीजेपी , आरएसएस विरोध के चलते खुद को एक दायरे में कैद कर लिया है । इसका फायदा कांग्रेस , लालू , अखिलेश , ममता आदि खूब उठा रहे हैं । आश्चर्य की बात है कि इन सभी दलों के अध्यक्ष हिन्दू हैं । मुस्लिम समाज स्वेच्छा से वोटबैंक बन गया और इसी में अपनी जीत समझता है ।

उन्हें फिक्र नहीं कि इस हाल में मुस्लिम कभी भी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे , बस विरोधी हिन्दू नेताओं के पिछलग्गू बनकर रह जाएंगे । कोई पार्टी मुसलमान को पीएम या सीएम छोड़िए , प्रदेश अध्यक्ष तक नहीं बनाती । फिर भी पिछली कतार में खड़ा होकर मुस्लिम समाज खुश है कि वह भाजपा को रोक देगा । हालांकि ऐसा कुछ होता नहीं । आज 20 राज्यों में बीजेपी की सरकार है और 11 वर्षों से केन्द्र पर बीजेपी का कब्जा है । मुस्लिमों के पास एक मात्र राष्ट्रीय नेता हैं असाउद्दीन ओवैसी । वे मुस्लिमों के हितों के साथ साथ राष्ट्रीय विचारधारा का भी समन्वय करते हैं । लेकिन हैदराबाद के अलावा कहीं भी मुस्लिम उन्हें वोट नहीं देते ।

है न अजीबोगरीब विडंबना ? मुस्लिमों को कांग्रेस ने तो 1947 से वोटबैंक बनाया ही , उन पार्टियों ने भी बना लिया जिनका जन्म कांग्रेसवाद के खिलाफ हुआ । मुस्लिम समाज बिना कुछ सोचे समझे विपक्षी बैंक बनता चला गया । बीजेपी हो या संघ ; किसी के भी मंच से मुस्लिमों के खिलाफ कभी कुछ नहीं कहा गया । मोहन भागवत तो मदरसों और मस्जिदों में भी चले जाते हैं । बीजेपी सरकारों ने मुसलमानों को वे सभी सुविधाएं यथावत प्रदान की जो अन्य को प्राप्त है ।

लेकिन 5/6% से अधिक मुस्लिम वोट बीजेपी को कभी नहीं मिले । ठीक है जिसे जो भाए वह करने की सुविधा इस देश में है । लेकिन देश की मुख्यधारा में आना है तो मुसलमानों को वोटबैंक बनने से बचना होगा । समझ लीजिए , देश में लोकतंत्र है और कोई पार्टी चाहकर भी किसी समाज का अहित नहीं कर सकती । मुसलमानों को खुद को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ना होगा । किसी का वोटबैंक बने रहने की मजबूरी मत पालिए । यकीन मानिए देश के मुस्लिम समाज ने जिस दिन से वोटबैंक बनाने की जंजीरों को तोड़ फेंका उसी दिन से देश की राजनीति पूरी तरह बदल जाएगी । आखिर 78 साल बाद भी नई सुबह नहीं हुई तो फिर कब होगी ?

……कौशल सिखौला

छठ पूजन,धर्म से अधिक, समाज और संस्कृति का पर्व

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छठ महापर्व केवल सूर्य की उपासना नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता, स्त्री-सशक्तिकरण, पर्यावरणीय चेतना और पारिवारिक एकता का प्रतीक है। यह पर्व हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखता है, कारीगरों और ग्रामीण जीवन को सम्मान देता है और समानता का संदेश फैलाता है। आधुनिकता के युग में भी इसकी सादगी और अनुशासन भारतीय समाज की आत्मा को जीवित रखते हैं। यही कारण है कि — ये छठ ज़रूरी है। बेहद ज़रूरी।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

भारत पर्वों की भूमि है, जहाँ हर उत्सव केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता और मानवीय भावनाओं का उत्सव भी होता है। इन्हीं में से एक सबसे अनूठा और जनसामान्य से जुड़ा पर्व है — छठ। यह पर्व न किसी पुरोहित की आवश्यकता रखता है, न किसी दिखावे की; यह उस संस्कृति का उत्सव है जो समानता, संयम और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता को अपना धर्म मानती है।

आज जब हम आधुनिकता की चकाचौंध में अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं, तब छठ जैसे पर्व हमें अपनी पहचान का स्मरण कराते हैं। यह पर्व केवल धार्मिक नहीं — सांस्कृतिक, पारिवारिक और मानवीय एकता का जीवंत प्रतीक है।

ये छठ ज़रूरी है क्योंकि यह हमें याद दिलाता है कि हम कहाँ से आए हैं और हमारी सभ्यता किन मूल्यों पर टिकी है। आज के समय में जब गाँव से शहर की ओर पलायन सामान्य हो गया है, लोग अपनी मातृभूमि से दूर जाकर महानगरों की भीड़ में गुम हो रहे हैं, तब छठ ही वह अवसर बनता है जब घर-घर लौटने की परंपरा जीवित होती है। वे बेटे जो सालभर अपने काम में उलझे रहते हैं, इस पर्व के बहाने घर लौटते हैं। वे माँएँ, जो महीनों से अपनी संतान की प्रतीक्षा में आकाश की ओर निहारती हैं, इस अवसर पर उन्हें अपने सामने देखकर अश्रुपूर्ण हो जाती हैं। वह परिवार, जो आर्थिक मजबूरियों और दूरी के कारण टुकड़ों में बंट गया है, छठ के अवसर पर फिर एकत्र होता है — यही है इस पर्व की वास्तविक शक्ति।

छठ केवल सूर्य की आराधना नहीं, बल्कि परिवार, समाज और प्रकृति की एक साथ पूजा है। यह हमें याद दिलाता है कि जड़ों से कटकर कोई वृक्ष फल नहीं दे सकता।

ये छठ ज़रूरी है क्योंकि यह उस नई पीढ़ी के लिए भी संदेश है जो अब गाँव, नदी और खेत की दुनिया से अनभिज्ञ हो गई है। आज के बच्चे नदियों को किताबों के चित्रों में देखते हैं, मिट्टी की सोंधी खुशबू केवल कविता में पढ़ते हैं और सूर्य को नमस्कार करना “रिवाज” समझते हैं। छठ उन्हें यह सिखाता है कि प्रकृति पूजा का नहीं, सम्मान का विषय है। सूर्य की आराधना केवल धर्म नहीं, पर्यावरणीय चेतना का भी प्रतीक है — यह पर्व बताता है कि जीवन सूर्य और जल के बिना अधूरा है।

यह पर्व एक अवसर है उस समाज के लिए जो तकनीकी प्रगति की दौड़ में प्रकृति से विमुख हो गया है। छठ के दौरान नदी, तालाब, पोखर — सब सजीव हो उठते हैं। शहरों में लोग कृत्रिम तालाब बनाकर ही सही, प्रकृति से जुड़ने की कोशिश करते हैं। यह प्रयास बताता है कि मनुष्य चाहे जितना आगे बढ़ जाए, उसकी आत्मा अब भी धरती और जल से ही जुड़ी है।

ये छठ ज़रूरी है क्योंकि यह उस सामाजिक व्यवस्था के लिए एक आईना है जो अब भी स्त्री को सीमित भूमिकाओं में देखना चाहती है। छठ का व्रत स्त्रियों की वह असाधारण शक्ति दिखाता है जो तप, संयम और समर्पण का प्रतीक है। दिन-रात की कठोर साधना, उपवास और पवित्रता की शर्तें केवल विश्वास नहीं — आत्मबल का प्रमाण हैं। यह पर्व बिना पुरोहितों, बिना आडंबर और बिना किसी मध्यस्थ के भी पूरा होता है — यहाँ हर स्त्री स्वयं पूजारी होती है, सृजक होती है।

यह परंपरा उस पितृसत्तात्मक सोच को चुनौती देती है जो मानती है कि धर्म का संचालन केवल पुरुषों का कार्य है। छठ कहता है — “आस्था में लिंग नहीं होता, विश्वास में समानता होती है।” यह वही पर्व है जो डूबते सूरज को भी प्रणाम करता है — यह विनम्रता और संतुलन का अद्भुत प्रतीक है।

ये छठ ज़रूरी है क्योंकि यह उन हजारों हाथों की मेहनत को जीवित रखता है जो लोकपरंपरा से जुड़े हैं। गाँव की महिलाएँ महीनों पहले से सूप, दौउरा, माटी के दीये, बाँस की टोकरी, और पूजा की सामग्री तैयार करती हैं। यह पर्व केवल श्रद्धा नहीं, रोज़गार और सम्मान का भी माध्यम है। गागर, नींबू, सुथनी, गन्ना, नारियल, और ठेकुआ जैसे प्रसाद न केवल स्वाद का हिस्सा हैं, बल्कि एक पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को चलाते हैं।

जब शहरों में पैक्ड पूजा-सामग्री बिक रही है, तब भी छठ में गाँव के बने सूप और दौउरे की महत्ता बरकरार है — क्योंकि लोग जानते हैं कि यह केवल वस्तु नहीं, परंपरा की आत्मा है। इस प्रकार छठ त्योहार केवल सांस्कृतिक नहीं, आर्थिक पुनर्जागरण का भी उत्सव है — जहाँ कारीगरों, किसानों और स्त्रियों को समान स्थान मिलता है।

ये छठ ज़रूरी है उन करोड़ों प्रवासी भारतीयों के लिए जो अपने देश से दूर रहकर भी इस पर्व के माध्यम से अपनी मिट्टी को महसूस करते हैं। दुबई, लंदन, न्यूयॉर्क या मॉरीशस में जब गंगा के प्रतीकस्वरूप किसी जलाशय के किनारे छठ पूजा होती है, तो यह केवल पूजा नहीं, संस्कृति की पुनर्स्थापना है। यह बताता है कि भारतीय संस्कृति का प्रवाह भौगोलिक सीमाओं से परे है।

छठ उन प्रवासियों के लिए भावनात्मक पुल है जो विदेश में रहते हुए भी अपनी मातृभूमि से जुड़े रहना चाहते हैं। यह पर्व परिवारों, मोहल्लों और समाजों को जोड़ता है। जहाँ बाकी पर्वों में वैभव का प्रदर्शन होता है, वहीं छठ में संयम, सादगी और एकजुटता की झलक मिलती है। न कोई ऊँच-नीच, न कोई जाति-पात — बस एक सामूहिक भाव: “सूर्य देव सबके हैं।”

आज के समय में जब “त्योहार” केवल फोटो और सोशल मीडिया पोस्ट का विषय बनते जा रहे हैं, छठ अब भी अनुभव का पर्व है। यह हमें सिखाता है कि परंपरा का अर्थ जड़ता नहीं, बल्कि निरंतरता है। हर वर्ष यह पर्व हमें याद दिलाता है कि आधुनिकता और आध्यात्मिकता विरोधी नहीं, पूरक हैं। स्मार्टफोन, एलईडी लाइट और ड्रोन कैमरों के बीच भी जब कोई महिला गीले बालों के साथ व्रत करती है, तो यह बताता है कि संस्कृति जीवित है, बस रूप बदल गया है।

छठ इस बात का प्रमाण है कि हमारी सभ्यता की नींव किसी किताब या आदेश से नहीं, बल्कि अनुभव और जीवन-शक्ति से बनी है। यह पर्व न किसी विशेष जाति का है, न किसी विशेष वर्ग का — यह उस जनसंस्कृति का उत्सव है जो कहती है, “जहाँ सूर्य है, वहीं जीवन है।”

छठ केवल एक धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि सामाजिक अनुशासन का पाठ है। यह सिखाता है कि समर्पण और संयम से ही समाज टिकता है। जब परिवार, मोहल्ला, समाज सब एक साथ घाट पर उतरते हैं, तब एक सामूहिक चेतना जन्म लेती है — जो कहती है कि हम एक हैं।

आज के समय में जब विभाजन, अलगाव और असमानता की रेखाएँ गहरी होती जा रही हैं, तब छठ जैसा पर्व हमें एक सूत्र में बाँधता है। यह न किसी धर्म के पक्ष में है, न किसी के विरोध में — यह तो उस “मानव धर्म” का पर्व है जो कहता है, “सूर्य सबका है, जल सबका है, जीवन सबका है।”

छठ का अर्थ केवल पूजा नहीं, बल्कि आत्मसंयम, कृतज्ञता और एकता का अभ्यास है। यह पर्व हमें हमारी मिट्टी, हमारी माँ, हमारे परिवार और हमारी प्रकृति से जोड़ता है। जब तक यह पर्व जीवित है, तब तक भारतीय समाज की आत्मा जीवित है।

इसलिए हाँ — ये छठ ज़रूरी है।

धर्म के लिए नहीं, समाज के लिए।

उन बेटों के लिए जो घर लौटना भूल गए हैं,

उन माताओं के लिए जो प्रतीक्षा में हैं,

उन कारीगरों के लिए जिनके हाथों में परंपरा साँस लेती है,

उन स्त्रियों के लिए जो हर कठिनाई में भी मुस्कान के साथ व्रत निभाती हैं,

और उस संस्कृति के लिए जो बताती है कि डूबते सूरज को भी प्रणाम करना आभार का सबसे बड़ा रूप है।

छठ ज़रूरी है —

क्योंकि यह हमें मानव बनाकर रखता है।

बेहद ज़रूरी।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार

नवाचार को रोके बिना जवाबदेही कैसे सुनिश्चित करें

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(डीपफेक का बढ़ता खतरा और सिंथेटिक सामग्री की लेबलिंग : नवाचार और जवाबदेही का संतुलन) 

कृत्रिम बुद्धिमत्ता से उत्पन्न डीपफेक तकनीक ने सूचना की विश्वसनीयता को गंभीर चुनौती दी है। झूठी वीडियो, ऑडियो और छवियाँ समाज में भ्रम और अविश्वास फैला रही हैं। इस संकट से निपटने के लिए भारत सरकार ने सिंथेटिक सामग्री की अनिवार्य लेबलिंग की नीति प्रस्तावित की है, जिसके तहत एआई जनित सामग्री पर स्पष्ट रूप से “एआई द्वारा निर्मित” लिखा होगा। यह कदम पारदर्शिता, जवाबदेही और डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा देगा। साथ ही, यह सुनिश्चित करेगा कि तकनीकी नवाचार जारी रहे लेकिन उसका दुरुपयोग रोका जाए — यही भविष्य के जिम्मेदार डिजिटल भारत की दिशा है।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी एआई आज के युग की सबसे प्रभावशाली और परिवर्तनकारी तकनीकों में से एक बन चुकी है। यह हमारे जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी है — शिक्षा, चिकित्सा, संचार, मनोरंजन और प्रशासन तक। लेकिन तकनीक जितनी तेज़ी से बढ़ी है, उतनी ही तीव्रता से उसके दुरुपयोग की संभावनाएँ भी बढ़ी हैं। इन्हीं में से एक गंभीर चुनौती है — “डीपफेक” और “सिंथेटिक मीडिया” का प्रसार। डीपफेक का अर्थ है ऐसी ऑडियो, वीडियो या छवि जो एआई की मदद से इस तरह बनाई जाती है कि वह पूरी तरह वास्तविक प्रतीत होती है। किसी व्यक्ति का चेहरा बदल देना, उसकी आवाज़ की हूबहू नकल करना या किसी घटना का झूठा वीडियो तैयार करना — अब कुछ ही मिनटों का काम रह गया है। इस तकनीक के माध्यम से किसी के खिलाफ फर्जी वीडियो बनाना, राजनीतिक प्रचार में झूठ फैलाना, या किसी महिला की तस्वीर से छेड़छाड़ करना अत्यंत आसान हो गया है। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में, जहाँ सोशल मीडिया का प्रभाव करोड़ों नागरिकों तक है, डीपफेक का खतरा और भी गंभीर हो जाता है। कुछ सेकंड का झूठा वीडियो समाज में अविश्वास, नफरत या भ्रम फैला सकता है। यह केवल नैतिक नहीं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा का भी प्रश्न बनता जा रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इस चुनौती का कोई संतुलित समाधान संभव है? क्या तकनीक को रोका जाए या उसके साथ जिम्मेदारीपूर्वक चलना सीखा जाए? यही प्रश्न आज के डिजिटल भारत के सामने सबसे बड़ा नीति-संकट बन गया है।

भारत सरकार ने इस चुनौती को गंभीरता से लेते हुए हाल में सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MeitY) के माध्यम से एक महत्वपूर्ण पहल की है। सरकार ने “सिंथेटिक सामग्री की अनिवार्य लेबलिंग” का प्रस्ताव रखा है, जिसके तहत यदि कोई सामग्री कृत्रिम बुद्धिमत्ता द्वारा बनाई गई है या उसमें एआई का हस्तक्षेप हुआ है, तो उसे “एआई जनित” या “सिंथेटिक” के रूप में स्पष्ट रूप से चिन्हित करना होगा। इस कदम का उद्देश्य है पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना, ताकि उपयोगकर्ता यह जान सके कि जो वह देख या सुन रहा है, वह असली है या कृत्रिम रूप से निर्मित। प्रस्तावित नियमों के अनुसार, वीडियो में ऐसा लेबल दृश्यमान रूप से दिखना चाहिए, ऑडियो में शुरुआती हिस्से में इसे सुनाई देना चाहिए और छवियों में भी यह टैग या वॉटरमार्क के रूप में मौजूद रहना चाहिए। यह नीति नवाचार को रोकने के लिए नहीं, बल्कि समाज में भरोसा कायम रखने के लिए है। डिजिटल प्लेटफॉर्म्स और सामग्री निर्माताओं के लिए यह नियम न केवल कानूनी दायित्व बनेगा बल्कि नैतिक जिम्मेदारी भी। सरकार का कहना है कि इस कदम से उपयोगकर्ता स्वयं निर्णय ले सकेगा कि वह किस सामग्री को विश्वसनीय माने और किसे नहीं। साथ ही, यह भी स्पष्ट किया गया है कि कोई भी क्रिएटर या प्लेटफॉर्म यदि जानबूझकर बिना लेबल की एआई जनित सामग्री प्रसारित करेगा, तो उसे जवाबदेह ठहराया जाएगा। यह पहल भारत को वैश्विक स्तर पर एक जिम्मेदार डिजिटल राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत कर सकती है, क्योंकि अमेरिका और यूरोप जैसे देशों में भी ऐसी नीतियों पर विचार चल रहा है।

सिंथेटिक सामग्री की लेबलिंग का सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह पारदर्शिता लाती है और नागरिकों को सूचित निर्णय लेने की क्षमता देती है। जब किसी वीडियो या चित्र पर यह स्पष्ट लिखा हो कि यह “एआई जनित” है, तो दर्शक उसे पूरी तरह वास्तविक मानने की गलती नहीं करेगा। इससे फेक न्यूज़, अफवाहों और राजनीतिक दुष्प्रचार के प्रसार पर नियंत्रण पाया जा सकता है। यह लेबलिंग प्रणाली एक प्रकार का डिजिटल “सावधानी संकेत” बन जाएगी, जो लोगों को भ्रामक सामग्री से बचने में मदद करेगी। इसके अलावा यह कदम उन क्रिएटर्स के लिए भी उपयोगी है जो जिम्मेदारी से एआई का प्रयोग करना चाहते हैं। जब हर सामग्री को स्पष्ट रूप से चिन्हित करना आवश्यक होगा, तो कोई भी व्यक्ति बिना जिम्मेदारी लिए गलत उद्देश्य से एआई का उपयोग नहीं कर पाएगा। इससे नैतिक डिजिटल वातावरण का निर्माण होगा। साथ ही, यह नीति तकनीकी उद्योग के लिए भी अवसर लेकर आएगी — क्योंकि इससे ऐसे नए टूल्स, डिटेक्शन सिस्टम और एथिकल एआई तकनीकों की मांग बढ़ेगी जो यह सुनिश्चित करें कि कौन-सी सामग्री एआई जनित है और कौन-सी नहीं। परंतु यह कहना भी आवश्यक है कि इस नीति की सफलता केवल सरकार के नियमों पर निर्भर नहीं करेगी, बल्कि समाज की डिजिटल साक्षरता पर भी। यदि नागरिक स्वयं एआई तकनीकों की प्रकृति को नहीं समझेंगे, तो लेबल का अर्थ उनके लिए मात्र एक औपचारिकता बन जाएगा। इसलिए आवश्यक है कि लेबलिंग के साथ-साथ डिजिटल साक्षरता अभियान भी चलाए जाएँ ताकि आम लोग सच और कृत्रिमता में फर्क करना सीख सकें।

हालाँकि इस नीति का उद्देश्य सराहनीय है, लेकिन इसके कार्यान्वयन से जुड़ी कई व्यावहारिक चुनौतियाँ भी सामने आती हैं। सबसे बड़ी चुनौती यह तय करना है कि आखिर “सिंथेटिक सामग्री” की परिभाषा क्या होगी। आज अधिकांश डिजिटल सामग्री मिश्रित रूप में होती है — जहाँ कुछ हिस्सा मानव द्वारा बनाया जाता है और कुछ एआई द्वारा। क्या ऐसी सामग्री भी पूरी तरह “एआई जनित” मानी जाएगी? इसके अलावा, यह तकनीकी रूप से बहुत कठिन है कि हर अपलोड होने वाली सामग्री का निरीक्षण किया जाए और यह प्रमाणित किया जाए कि उसमें एआई का उपयोग हुआ है या नहीं। भारत जैसे विशाल देश में, जहाँ हर दिन करोड़ों वीडियो, छवियाँ और ऑडियो फाइलें सोशल मीडिया पर अपलोड होती हैं, वहाँ मॉनिटरिंग और ट्रैकिंग एक दुष्कर कार्य है। दूसरा, छोटे और मध्यम स्तर के क्रिएटर्स तथा स्टार्टअप्स के लिए यह नियम आर्थिक बोझ बन सकता है। यदि लेबलिंग की प्रक्रिया अत्यधिक जटिल या महंगी होगी, तो नवाचार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। तीसरा, इस नीति से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी प्रश्न उठ सकते हैं। कोई कलाकार यदि एआई का उपयोग केवल रचनात्मक प्रयोग के रूप में करता है, तो क्या उसे भी कठोर नियमों का पालन करना होगा? इसलिए यह ज़रूरी है कि नीति में लचीलापन हो और उसे विषय-वस्तु की प्रकृति के अनुसार लागू किया जाए। उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों — जैसे राजनीति, चुनाव, सामाजिक या धार्मिक मुद्दों — में सख्त नियम लागू किए जाएँ, जबकि कला, शिक्षा या अनुसंधान के क्षेत्र में थोड़ी छूट दी जाए।

अंततः, यह स्पष्ट है कि डीपफेक और एआई जनित सामग्री केवल तकनीकी चुनौती नहीं बल्कि सामाजिक और नैतिक संकट भी है। सिंथेटिक मीडिया की अनिवार्य लेबलिंग इस दिशा में एक आवश्यक और दूरदर्शी कदम है। इससे न केवल नागरिकों को सुरक्षा मिलेगी बल्कि डिजिटल दुनिया में विश्वास भी पुनः स्थापित होगा। परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि एआई को नियंत्रित कर नवाचार को बाधित किया जाए। आवश्यकता इस बात की है कि नवाचार और जवाबदेही के बीच संतुलन बना रहे। एआई का उद्देश्य मानवता की सेवा है, न कि भ्रम फैलाना या समाज में अविश्वास पैदा करना। इसलिए सरकार, तकनीकी कंपनियों, क्रिएटर्स और नागरिक समाज — सभी को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि तकनीक का उपयोग पारदर्शी और जिम्मेदार तरीके से हो। डिजिटल साक्षरता, नैतिक दिशानिर्देश, और निरंतर संवाद इस प्रक्रिया के तीन प्रमुख स्तंभ होने चाहिए। साथ ही, नियमों की समीक्षा समय-समय पर की जाए ताकि वे तकनीकी प्रगति के अनुरूप बने रहें। यदि भारत इस नीति को विवेक, संवेदनशीलता और संतुलन के साथ लागू करता है, तो यह न केवल देश के डिजिटल भविष्य को सुरक्षित करेगा, बल्कि दुनिया के सामने जिम्मेदार एआई शासन का एक आदर्श मॉडल प्रस्तुत करेगा। डीपफेक से उपजी चुनौती का उत्तर दमन नहीं, बल्कि समझदारी और नैतिक तकनीकी नीति है। यही दृष्टिकोण भारत को कृत्रिम बुद्धिमत्ता के युग में वास्तविक नेतृत्व प्रदान कर सकता है — ऐसा नेतृत्व जो सत्य, पारदर्शिता और मानवता पर आधारित हो।

– डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,

प्रसिद्ध कॉमेडियन और अभिनेता सतीश शाह का निधन

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बॉलीवुड और टीवी जगत के मशहूर कॉमेडी एक्टर सतीश शाह का शनिवार को निधन हो गया। 74 साल की उम्र में उन्होंने मुंबई में अपनी आखिरी सांस ली। वह लंबे समय से किडनी से जुड़ी गंभीर बीमारी से जूझ रहे थे और किडनी फेलियोर के कारण उनका देहांत हो गया। मशहूर प्रोड्यूसर और आईएफटीडीए (IFTDA) के प्रेसिडेंट अशोक पंडित ने इस बात की पुष्टि की है। अशोक पंडित ने अपने टविट में कहा, जी हां, सतीश शाह नहीं रहें। वो मेरे अच्छे मित्र थे। किडनी फेलियर के चलते उनका निधन हो गया है। अचानक उन्हें दर्द होने लगा और उनकी तबीयत खराब हो गई। उन्हें दादर शिवाजी पार्क के हिंदुजा अस्पताल के जाया गया। वही उनका निधन हो गया।

भारतीय फिल्म और टेलीविजन जगत के प्रसिद्ध हास्य कलाकार सतीश शाह का नाम उन चंद अभिनेताओं में लिया जाता है, जिन्होंने अपने अभिनय से हंसी को एक नई पहचान दी। उनका करियर चार दशक से भी अधिक लंबा रहा है, जिसमें उन्होंने सैकड़ों फिल्मों और टीवी धारावाहिकों में यादगार भूमिकाएँ निभाईं। सतीश शाह केवल एक अभिनेता नहीं, बल्कि हास्य अभिनय की एक संस्था हैं, जिन्होंने आम आदमी के जीवन के हल्के पलों को बड़े ही सहज ढंग से पर्दे पर उतारा।

सतीश शाह का जन्म 25 जून 1951 को मुंबई में हुआ था। उन्होंने सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज, मुंबई से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की और बाद में भारतीय फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान (FTII), पुणे से अभिनय की औपचारिक ट्रेनिंग ली। यह वही संस्थान है जहाँ से कई दिग्गज कलाकारों ने अभिनय की बारीकियाँ सीखी हैं। सतीश शाह ने अपने करियर की शुरुआत 1970 के दशक के अंत में की और बहुत जल्द अपनी हाजिरजवाबी और कॉमिक टाइमिंग से दर्शकों का दिल जीत लिया।

उनकी पहचान सबसे पहले दूरदर्शन के मशहूर धारावाहिक “ये जो है ज़िंदगी” (1984) से बनी। इस धारावाहिक में उन्होंने हर एपिसोड में अलग-अलग किरदार निभाए और दर्शकों को अपने बेहतरीन हावभाव और संवाद अदायगी से मंत्रमुग्ध कर दिया। यह शो आज भी भारतीय टेलीविज़न इतिहास के सबसे लोकप्रिय कॉमेडी धारावाहिकों में गिना जाता है।

फ़िल्मों में सतीश शाह ने 1980 और 1990 के दशक में एक से बढ़कर एक भूमिकाएँ निभाईं। उन्हें हमने “जाने भी दो यारो” (1983) में ‘मुंबई नगर निगम के कमिश्नर डी’मेलो’ के रोल में देखा, जो भारतीय सिनेमा की सबसे बेहतरीन सटायर फिल्मों में से एक मानी जाती है। इसके अलावा “माइन प्यार किया”, “हम आपके हैं कौन”, “दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे”, “ओह डार्लिंग! ये है इंडिया”, “दिल ने जिसे अपना कहा” और “कल हो न हो” जैसी फिल्मों में उन्होंने अपने अभिनय से दर्शकों को खूब हँसाया।

सतीश शाह का हास्य कभी हल्का नहीं होता, बल्कि समाज के व्यवहार और मानव स्वभाव की गहरी समझ से उपजा होता है। उनके चेहरे के भाव और संवाद की लय में एक खास तरह का यथार्थ झलकता है। यही कारण है कि वे केवल कॉमेडी के नहीं, बल्कि चरित्र अभिनय के भी माहिर कलाकार हैं।

टेलीविजन पर उनकी एक और यादगार भूमिका रही “सरभाई वर्सेज़ सरभाई” में ‘इंद्रवदन सरभाई’ की। यह शो भारतीय सिटकॉम की श्रेणी में क्लासिक माना जाता है। उनकी व्यंग्यात्मक बातें और सहज हंसी ने उन्हें घर-घर में लोकप्रिय बना दिया।

सतीश शाह ने हिंदी के अलावा गुजराती सिनेमा और रंगमंच में भी योगदान दिया है। वे कई सामाजिक कार्यों में भी सक्रिय रहते हैं और युवा कलाकारों को प्रेरित करते हैं।

अपने लंबे और सफल करियर में सतीश शाह ने यह साबित किया कि कॉमेडी केवल मज़ाक नहीं, बल्कि एक कला है जो संवेदनशीलता और समझदारी की माँग करती है। उनकी उपस्थिति भारतीय मनोरंजन जगत के लिए सदैव प्रेरणास्रोत बनी रहेगी।

सतीश शाह भारतीय हास्य जगत के ऐसे कलाकार हैं, जिन्होंने दर्शकों के दिलों में मुस्कान बिखेरते हुए अभिनय को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया है। उनका नाम सदा भारतीय सिनेमा के स्वर्ण अक्षरों में दर्ज रहेगा।

कार्टून के माध्यम से आम आदमी को झकझोरता आर. के. लक्ष्मण का कामन मैन

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भारतीय व्यंग्य कला के क्षेत्र में आर. के. लक्ष्मण का नाम सदा-सदा के लिए स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। उन्होंने अपने कार्टूनों के माध्यम से न केवल राजनीति और समाज की विसंगतियों पर करारी चोट की, बल्कि आम आदमी की भावनाओं, संघर्षों और आशाओं को भी बड़ी ही सहजता से चित्रित किया। उनकी रचनाएँ भारतीय लोकतंत्र की दशकों लंबी यात्रा की साक्षी रही हैं।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

आर. के. लक्ष्मण का पूरा नाम रसिपुरम कृष्णस्वामी अय्यर लक्ष्मण था। उनका जन्म 24 अक्टूबर 1921 को मैसूर (कर्नाटक) में हुआ था। उनके पिता एक शिक्षक थे और परिवार में सात बच्चे थे। लक्ष्मण के बड़े भाई आर. के. नारायण भारत के सुप्रसिद्ध अंग्रेजी उपन्यासकार थे, जिन्होंने “मालगुड़ी डेज़” जैसी रचनाओं से पहचान बनाई। बचपन से ही लक्ष्मण को चित्रकला और कार्टून बनाने का शौक था। वे स्कूल की किताबों के हाशियों पर अक्सर अपने अध्यापकों और सहपाठियों के चित्र बना देते थे।

उन्होंने मैसूर विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने मुंबई के जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट में प्रवेश के लिए आवेदन किया, किंतु उन्हें यह कहकर प्रवेश नहीं मिला कि उनकी कला पहले से ही पर्याप्त परिपक्व है और उन्हें औपचारिक शिक्षा की आवश्यकता नहीं। इस अस्वीकृति ने उन्हें हतोत्साहित नहीं किया, बल्कि उन्होंने आत्म-अध्ययन से ही अपनी कला को निखारा।

पत्रकारिता और कार्टून यात्रा की शुरुआत

लक्ष्मण का व्यावसायिक जीवन “द हिंदू” और “फ्री प्रेस जर्नल” से शुरू हुआ। उन्होंने कई अखबारों और पत्रिकाओं में राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर कार्टून बनाए। धीरे-धीरे उनकी शैली और दृष्टिकोण ने उन्हें दूसरों से अलग पहचान दी।

वर्ष 1947 में वे “द टाइम्स ऑफ इंडिया” से जुड़े और यहीं से उन्होंने अपने प्रसिद्ध कॉलम “You Said It” (यू सेड इट) की शुरुआत की। इस कॉलम में प्रतिदिन उनका एक नया कार्टून प्रकाशित होता था, जिसमें देश की सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं पर तीखा लेकिन हास्यपूर्ण व्यंग्य होता था। यह कॉलम 50 से अधिक वर्षों तक प्रकाशित होता रहा और भारतीय पाठकों की सुबह की आदत बन गया।

“कॉमन मैन” का जन्म

आर. के. लक्ष्मण का सबसे प्रसिद्ध और प्रिय चरित्र था – “द कॉमन मैन” (आम आदमी)। यह चरित्र सफेद धोती, कोट और चश्मा पहने, हमेशा कुछ बोलने के बजाय सब कुछ देखकर, सुनकर मौन रहता था। यह भारत के उस नागरिक का प्रतीक बन गया जो व्यवस्था की खामियों, राजनीति के पाखंड और भ्रष्टाचार का साक्षी है, परंतु अपनी आशाओं के साथ जीवित है।

“कॉमन मैन” ने भारत के आम लोगों की भावनाओं को स्वर दिया। वह कभी किसी पार्टी या विचारधारा का पक्ष नहीं लेता, बल्कि भारतीय जीवन के विडंबनापूर्ण पहलुओं पर चुपचाप व्यंग्य करता है। यह पात्र भारतीय लोकतंत्र का दर्पण बन गया था।

शैली और विशेषताएँ

आर. के. लक्ष्मण की कला की सबसे बड़ी विशेषता थी सरलता में गहराई। उनके कार्टूनों में तीखा व्यंग्य होता था, परंतु उसमें कटुता नहीं होती थी। वे व्यक्ति पर नहीं, प्रवृत्ति पर प्रहार करते थे। उनकी रेखाओं में एक सहज प्रवाह था और उनका दृष्टिकोण पूरी तरह भारतीय जीवन से जुड़ा हुआ था।

उन्होंने नेताओं, अफसरशाही, मीडिया, शिक्षा, भ्रष्टाचार और सामाजिक असमानता पर अनेक कार्टून बनाए, जो आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। लक्ष्मण का मानना था कि “व्यंग्य किसी को चोट पहुँचाने का नहीं, सोचने पर मजबूर करने का माध्यम है।”

अन्य योगदान और सम्मान

कार्टूनों के अलावा आर. के. लक्ष्मण ने कुछ किताबें भी लिखीं, जिनमें “The Tunnel of Time” (उनकी आत्मकथा), “The Distorted Mirror”, और “Laugh with Laxman” प्रमुख हैं। उनके भाई आर. के. नारायण के उपन्यास “मालगुड़ी डेज़” के टेलीविजन रूपांतरण में भी लक्ष्मण का योगदान रहा — उन्होंने इसके पात्रों के रेखाचित्र बनाए।

उनके कार्टून इतने लोकप्रिय हुए कि कई प्रदर्शिनियाँ और डाक टिकट उनके नाम पर जारी किए गए। उन्हें पद्म भूषण (1973) और पद्म विभूषण (2005) जैसे सर्वोच्च नागरिक सम्मान मिले। इसके अतिरिक्त उन्हें रमण मेगसेसे अवार्ड जैसी अंतरराष्ट्रीय पहचान भी मिली।

व्यक्तिगत जीवन और अंतिम दिन

आर. के. लक्ष्मण का विवाह कमला लक्ष्मण से हुआ था, जो स्वयं एक प्रसिद्ध बाल-साहित्यकार थीं। उन्होंने “सीरियल शेखर” जैसे बाल पात्रों की रचना की।

लक्ष्मण का स्वास्थ्य जीवन के उत्तरार्ध में कमजोर पड़ने लगा था। वर्ष 2015 में 26 जनवरी को 93 वर्ष की आयु में उन्होंने पुणे में अंतिम सांस ली। उनके निधन से भारतीय पत्रकारिता, साहित्य और कला जगत में गहरा शोक छा गया।

निष्कर्ष

केवल एक कार्टूनिस्ट नहीं थे, बल्कि वे भारतीय जनजीवन के सजीव इतिहासकार थे। उनके “कॉमन मैन” ने भारतीय समाज के हर युग का साक्षात्कार किया — आज़ादी के बाद की उम्मीदें, भ्रष्टाचार का बढ़ना, राजनीति का नाटकीयकरण, और आम आदमी की संघर्षशीलता।

उनकी रचनाएँ बताती हैं कि व्यंग्य केवल हास्य नहीं, बल्कि समाज का आईना है। आर. के. लक्ष्मण ने इस आईने में जो दिखाया, उसने भारत को हंसाया भी और सोचने पर मजबूर भी किया। उनका योगदान अमर रहेगा, और “कॉमन मैन” सदा भारत की आत्मा का प्रतिनिधि बना रहेगा।

गली −मोहल्ले तक पहुंचा डिजिटल पेमेंट्स

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बाल मुकुन्द ओझा

देश में वित्तीय लेनदेन के लिए डिजिटल माध्यमों का इस्तेमाल लगातार बढ़ता ही जा रहा है। डिजिटल पेमेंट का मतलब ऐसे पेमेंट्स से है, जिनमें नकद की बजाय पैसे का लेन-देन डिजिटल माध्यमों जैसे डेबिट कार्ड, मोबाइल ऐप या इंटरनेट बैंकिंग के जरिए होता है।  यह प्रोसेस तेज, सुरक्षित और पारदर्शी होती है, जिससे ग्राहक और व्यापारी दोनों को ट्रांजैक्शन को ट्रैक करने में आसानी होती है। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के मुताबिक दीपावली के त्योहार पर जीएसटी दरों में कटौती के बाद खरीदारी में बड़ा इजाफा हुआ है। यूपीआई से एक दिन में रिकॉर्ड ₹1.02 लाख करोड़ का लेनदेन हुआ है। इस दिन कुल 75.4 करोड़ लेनदेन किए गए। बोस्टन  कंसल्टिंग ग्रुप  और फोन पे की रिपोर्ट के अनुसार, 2026 तक भारत का डिजिटल पेमेंट्स मार्केट 10 बिलियन डॉलर से ज्यादा का हो जाएगा।  pwc की रिपोर्ट के मुताबिक, कारोबारी साल 25 से कारोबारी साल 30 के बीच डिजिटल ट्रांजैक्शन वॉल्यूम 617.3 बिलियन और वैल्यू 907.3 ट्रिलियन रुपए तक पहुंच सकती है। किर्नी-अमेज़ॅन पे रिपोर्ट के अनुसार, 2030 तक भारत का रिटेल डिजिटल पेमेंट मार्केट 7 ट्रिलियन डॉलर को पार कर जाएगा।

त्योहारी सीजन ने केवल बाजारों को गुलज़ार किया है अपितु डिजिटल पेमेंट्स के आंकड़ों में भी बंपर उछाल ला दिया है। हर हाथ में मोबाइल ने अपना कमाल दिखाया है। लोगों ने जब में नकद राशि रखनी बंद करदी है। नेशनल पेमेंट्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, अक्टूबर महीने में यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (UPI) के जरिए औसतन हर दिन 94,000 करोड़ रुपये के लेनदेन का रिकार्ड लेनदेन दर्ज़ हुआ । यही रफ़्तार रही तो डिजिटल पेमेंट्स में भारत एक नया रिकार्ड बनाने में सफल होगा। बताया जा रहा है इस डिजिटली भुगतान में जीएसटी सुधार के साथ दिवाली और बोनस सीजन बड़ा हाथ रहा है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक त्योहार की खरीदारी, बोनस और डिस्काउंट्स के बीच लोगों ने बड़ी मात्रा में ऑनलाइन पेमेंट्स किए हैं।  मोबाइल इंटरनेट की आसान उपलब्धता और हर गली-मोहल्ले में QR कोड के ज़रिए पेमेंट की सुविधा ने UPI को हर वर्ग के लोगों तक पहुंचा दिया है। विश्लेषकों के मुताबिक, अगर यही रफ्तार बरकरार रही, तो अक्टूबर में कुल ट्रांजैक्शन वैल्यू 28 लाख करोड़ रुपये के पार जा सकती है, जो अब तक का सबसे उच्चतम स्तर होगा।

हमारा देश डिजिटल क्रांति के नये युग में प्रवेश कर गया है। देश में लोग तेजी से डिजिटल लेनदेन को अपना रहे हैं। लोगों का डिजिटल भुगतान करने में विश्वास बढ़ा है और इसे प्राथमिकता दे रहे हैं। तेजी से बढ़ता डिजिटल लेनदेन बढ़ती हुई खपत को दर्शाता है। यह डिजिटल पेमेंट इकोसिस्टम के लिए भी अच्छा है। देश में डिजिटल पेमेंट का चलन हर साल तेजी से बढ़ रहा है। गांव हो या शहर, आज लोग कैश की बजाय फोन से पेमेंट करना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड की एक रिपोर्ट में भारत को फास्ट पेमेंट्स का बादशाह बताया गया है। देश में हर महीने 18 अरब से ज्यादा ट्रांजेक्शन और 24 लाख करोड़ रुपये का लेन-देन हो रहा है जो कैशलेस होने की दिशा में एक क्रान्तिकारी कदम है। भारत में डिजिटल पेमेंट की शुरुआत साल 2016 में हुई थी। इसके बाद लगातार देश इस क्षेत्र में अपनी बढ़त बनाये हुए है। भारत डिजिटल पेमेंट में दुनिया में नंबर वन बन गया है और इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को फायदा मिल रहा है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक आज UPI देश के 85 प्रतिशत डिजिटल ट्रांजेक्शन को हैंडल करता है। इतना ही नहीं, ग्लोबल रियल-टाइम पेमेंट्स में भारत की हिस्सेदारी 50 प्रतिशत के करीब है। यानी दुनिया का आधा डिजिटल पेमेंट भारत के UPI से हो रहा है। रिपोर्ट के अनुसार 491 मिलियन लोग और 65 मिलियन व्यापारी अब UPI का इस्तेमाल कर रहे हैं।  675 बैंक इस सिस्टम से जुड़े हैं, जिससे कोई भी, कहीं भी, किसी भी बैंक के जरिए आसानी से पेमेंट कर सकता है। यह कदम UPI को दुनिया का सबसे बड़ा रियल-टाइम पेमेंट सिस्टम बनाती है।

सरकार डिजिटल पेमेंट को बढ़ावा देने के लिए RBI  और NPCI, फिनटेक कंपनियों, बैंकों और राज्य सरकारों के साथ मिलकर काम कर रही है। छोटे शहरों और गांवों में भी लोग अब डिजिटल पेमेंट को तेजी से अपना रहे हैं। यूपीआई जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म ने छोटे दुकानदारों, रेहड़ी-पटरी वालों  ,चाय पान की दुकानों,  फुटकर सब्जी विक्रेताओं और गांव के लोगों को भी डिजिटल पेमेंट में सक्षम बनाया है। इससे नकद लेनदेन कम हुआ है और लोग तेजी से बैंकिंग सिस्टम से जुड़ रहे हैं। डिजिटल पेमेंट अब गांव और दूर-दराज इलाकों तक पहुंच चुका है। इसका लाभ सीधे तौर पर समाज के निचले तबके के लोगों को मिल रहा है।

देश में यूपीआई ट्रांजैक्शन करने वालों का आंकड़ा दिन-ब-दिन तेजी से बढ़ता ही जा रहा है। आज डिजिटल ट्रांजैक्शन के कई मोड उपलब्ध हैं और इसका इस्तेमाल करने वाले लोगों की तादात में जबरदस्त इजाफा हो रहा है। यह संकेत दर्शाता है है कि भारत का डिजिटल भुगतान पारिस्थितिकी तंत्र तेजी से सशक्त हो रहा है।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

आज की भारतीय शिक्षा के जनक लार्ड मैकाले

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मैकाले का जन्म 25 अक्टूबर 1800 को लीसेस्टरशायर के रोथले टेम्पल में हुआ । उनके पिता का नाम स्कॉटिश हाईलैंडर ज़ैकरी मैकाले था । उनके पिता औपनिवेशिक गवर्नर और उन्मूलनवादी बन गए । । उन्होंने अपने पहले बच्चे का नाम उनके चाचा थॉमस बैबिंगटन के नाम पर रखा । उनके चाचा लीसेस्टरशायर के ज़मींदार और राजनीतिज्ञ थे। इन्होंने ज़ैकरी की बहन जीन से शादी की थी। युवा मैकाले को एक विलक्षण बालक के रूप में जाना जाता था; एक बच्चे के रूप में, एक स्थानीय कारखाने की चिमनियों पर अपनी खाट से खिड़की से बाहर देखते हुए, उन्होंने अपने पिता से पूछा था कि क्या धुआं नरक की आग से आता है।

उनकी शिक्षा हर्टफोर्डशायर के एक निजी स्कूल में हुई और उसके बाद कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में हुई। वहां उन्होंने जून 1821 में चांसलर के स्वर्ण पदक सहित कई पुरस्कार जीते और जहां उन्होंने 1825 में एडिनबर्ग रिव्यू में मिल्टन पर एक प्रमुख निबंध प्रकाशित किया । मैकाले ने कैम्ब्रिज में रहते हुए शास्त्रीय साहित्य का अध्ययन नहीं किया, हालांकि बाद में जब वह भारत में थे तब उन्होंने अध्ययन किया। अपने पत्रों में उन्होंने 1851 में मालवर्न में रहने के दौरान एनीड को पढ़ने का वर्णन किया है और कहा है कि वर्जिल की कविता को सुनकर उनकी आंखों में आंसू आ गए थे। उन्होंने खुद जर्मन, डच और स्पेनिश भाषा सीखी और फ्रेंच में पारंगत थे।

उन्होंने कानून का अध्ययन किया ।1826 में उन्हें बार में बुलाया गया 1827 में एडिनबर्ग रिव्यू में मैकाले , और द मॉर्निंग क्रॉनिकल को गुमनाम पत्रों की एक श्रृंखला में , ने ब्रिटिश औपनिवेशिक कार्यालय के विशेषज्ञ कर्नल थॉमस मूडी, केटी द्वारा गिरमिटिया श्रम के विश्लेषण की निंदा की। मैकाले के इंजील व्हिग पिता ज़ाचरी मैकाले , जो अफ्रीकियों के लिए समानता के बजाय एक ‘मुक्त काले किसान’ की इच्छा रखते थे, ने भी एंटी-स्लेवरी रिपोर्टर में मूडी के तर्कों की निंदा की।

मैकाले ने न तो शादी की और न ही उसके कोई बच्चे थे। उनके बारे में अफवाह थी कि वह मारिया किन्नैर्ड से प्यार करने लगा था, जो रिचर्ड ‘कन्वर्सेशन’ शार्प की धनी वार्ड थी । मैकाले के सबसे मजबूत भावनात्मक रिश्ते उसकी सबसे छोटी बहनों के साथ थे। मार्गरेट, जिनकी मृत्यु उसके भारत में रहने के दौरान हो गई थी, और हन्ना, जिसकी बेटी मार्गरेट, जिसे वह ‘बाबा’ कहता था, से भी वह जुड़ा हुआ था।

मैकाले ने 1830 में लैंसडाउन के मार्क्वेस के इस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया कि वह काल्ने के पॉकेट बरो से संसद सदस्य बनें । संसद में मैकाले के पहले भाषण में ब्रिटेन में यहूदियों की नागरिक अक्षमताओं को समाप्त करने की वकालत की गई । संसदीय सुधार के पक्ष में मैकाले के बाद के भाषणों की सराहना की गई। वह लीड्स के लिए सांसद बने 1833 में सुधार अधिनियम 1832 के अधिनियमन के बाद , जिसके द्वारा काल्ने का प्रतिनिधित्व दो सांसदों से घटाकर एक कर दिया गया, और जिसके द्वारा लीड्स, जिसका पहले प्रतिनिधित्व नहीं किया गया था, के पास दो सांसद थे। मैकाले अपने पूर्व संरक्षक लैंसडाउन के प्रति आभारी रहे, जो उनके मित्र बने रहे।

मैकाले 1832 से लॉर्ड ग्रे के अधीन नियंत्रण बोर्ड के सचिव थे , जब तक कि 1833 में उन्हें अपने पिता की गरीबी के कारण, एक सांसद के बिना पारिश्रमिक वाले पद की तुलना में अधिक पारिश्रमिक वाले पद की आवश्यकता नहीं पड़ी , जिससे उन्होंने भारत सरकार अधिनियम 1833 के पारित होने के बाद गवर्नर-जनरल की परिषद के पहले विधि सदस्य के रूप में नियुक्ति स्वीकार करने के लिए इस्तीफा दे दिया । 1834 में मैकाले भारत गए, जहाँ उन्होंने 1834 और 1838 के बीच सर्वोच्च परिषद में कार्य किया। फरवरी 1835 का उनका भारतीय शिक्षा पर मिनट मुख्य रूप से भारत में पश्चिमी संस्थागत शिक्षा की शुरुआत के लिए जिम्मेदार था।

मैकाले ने उन सभी स्कूलों में अंग्रेजी भाषा को माध्यमिक शिक्षा की आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल करने की सिफारिश की, जहां पहले कोई नहीं थी, और अंग्रेजी बोलने वाले भारतीयों को शिक्षकों के रूप में प्रशिक्षित किया जाए।अपने मिनट में, उन्होंने तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक से “उपयोगी शिक्षा” प्रदान करने के लिए उपयोगितावादी आधार पर माध्यमिक शिक्षा में सुधार करने का आग्रह किया , एक ऐसा वाक्यांश जो उनके लिए पश्चिमी संस्कृति का पर्याय था। स्थानीय भाषाओं में माध्यमिक शिक्षा की कोई परंपरा नहीं थी; ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा समर्थित संस्थान या तो संस्कृत या फ़ारसी में पढ़ाते थे। इसलिए, उन्होंने तर्क दिया, “हमें ऐसे लोगों को शिक्षित करना है जो वर्तमान में अपनी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षित नहीं हो सकते। हमें उन्हें कुछ विदेशी भाषा सिखानी होगी । ” मैकाले ने तर्क दिया कि संस्कृत और फ़ारसी भारतीय स्थानीय भाषाओं के बोलने वालों के लिए अंग्रेजी से अधिक सुलभ नहीं थीं।

मुझे संस्कृत या अरबी का कोई ज्ञान नहीं है। लेकिन मैंने उनके मूल्य का सही आकलन करने के लिए जो कुछ भी कर सका, किया है। मैंने सबसे प्रसिद्ध अरबी और संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद पढ़े हैं। मैंने यहाँ और घर पर, पूर्वी भाषाओं में अपनी दक्षता के लिए प्रतिष्ठित लोगों से बातचीत की है। मैं प्राच्य विद्या को स्वयं प्राच्यविदों के मूल्यांकन पर ग्रहण करने के लिए पूरी तरह तैयार हूँ। मैंने उनमें से एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं पाया जो इस बात से इनकार कर सके कि किसी अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की एक शेल्फ भारत और अरब के संपूर्ण देशी साहित्य के बराबर है।

मेरा मानना है कि इस बात पर शायद ही कोई विवाद हो कि साहित्य का वह विभाग जिसमें पूर्वी लेखक सर्वोच्च स्थान रखते हैं, कविता है। और मैं निश्चित रूप से किसी ऐसे प्राच्यविद् से कभी नहीं मिला जिसने यह दावा करने का साहस किया हो कि अरबी और संस्कृत काव्य की तुलना महान यूरोपीय राष्ट्रों की कविता से की जा सकती है। लेकिन जब हम कल्पना की रचनाओं से उन रचनाओं की ओर बढ़ते हैं जिनमें तथ्य दर्ज हैं और सामान्य सिद्धांतों की जाँच की गई है, तो यूरोपीय लोगों की श्रेष्ठता बिल्कुल अपरिमेय हो जाती है। मेरा मानना है कि यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि संस्कृत भाषा में लिखी गई सभी पुस्तकों से एकत्रित की गई सारी ऐतिहासिक जानकारी इंग्लैंड के प्रारंभिक विद्यालयों में इस्तेमाल किए जाने वाले सबसे तुच्छ संक्षिप्तीकरणों में पाई जाने वाली जानकारी से भी कम मूल्यवान है। भौतिक या नैतिक दर्शन की प्रत्येक शाखा में, दोनों राष्ट्रों की सापेक्ष स्थिति लगभग समान है।

इसलिए, स्कूली शिक्षा के छठे वर्ष से ही, शिक्षा यूरोपीय शिक्षा के माध्यम से होनी चाहिए, जिसमें अंग्रेजी माध्यम हो। इससे अंग्रेजीदां भारतीयों का एक वर्ग तैयार होगा जो अंग्रेजों और भारतीयों के बीच सांस्कृतिक मध्यस्थ का काम करेगा; स्थानीय शिक्षा में किसी भी सुधार से पहले ऐसे वर्ग का निर्माण आवश्यक था। उन्होंने कहा :

मैं भी उनके साथ यही मानता हूँ कि हमारे लिए, अपने सीमित साधनों से, जनता को शिक्षित करने का प्रयास करना असंभव है। हमें वर्तमान में एक ऐसा वर्ग बनाने का भरसक प्रयास करना चाहिए जो हमारे और उन लाखों लोगों के बीच, जिन पर हम शासन करते हैं, दुभाषिया बन सके; एक ऐसा वर्ग जो रक्त और रंग में तो भारतीय हो, लेकिन रुचि, विचारों, आचार-विचार और बुद्धि में अंग्रेज हो। उस वर्ग पर हम देश की स्थानीय बोलियों को परिष्कृत करने, उन बोलियों को पश्चिमी शब्दावली से उधार लिए गए वैज्ञानिक शब्दों से समृद्ध करने, और उन्हें धीरे-धीरे जनसाधारण तक ज्ञान पहुँचाने के उपयुक्त माध्यम बनाने का काम छोड़ सकते हैं।

मैकाले के विचार काफी हद तक बेंटिक के विचारों से मेल खाते थे और बेंटिक का अंग्रेजी शिक्षा अधिनियम 1835 मैकाले की सिफारिशों से काफी मेल खाता था (1836 में, मेजर जनरल क्लाउड मार्टिन द्वारा स्थापित ला मार्टिनियर नामक एक स्कूल का नाम उनके नाम पर रखा गया था), लेकिन बाद के गवर्नर-जनरल ने मौजूदा भारतीय शिक्षा के प्रति अधिक समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाया।

भारत में उनके अंतिम वर्ष विधि आयोग के प्रमुख सदस्य के रूप में दंड संहिता के निर्माण के लिए समर्पित थे। 1857 के भारतीय विद्रोह के बाद , मैकाले के आपराधिक कानून प्रस्ताव को अधिनियमित किया गया था। 1860 में भारतीय दंड संहिता के बाद 1872 में आपराधिक प्रक्रिया संहिता और 1908 में नागरिक प्रक्रिया संहिता आई। भारतीय दंड संहिता ने अधिकांश अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों में समकक्षों को प्रेरित किया , और आज तक इनमें से कई कानून पाकिस्तान , मलेशिया , म्यांमार , बांग्लादेश , श्रीलंका , नाइजीरिया और जिम्बाब्वे जैसे दूर-दराज के स्थानों पर , साथ ही हाल ही तक भारत में भी प्रभावी हैं। इसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 377 शामिल है, जो कई राष्ट्रमंडल देशों में समलैंगिकता को अपराध बनाने वाले कानूनों का आधार बनी हुई है।

भारतीय संस्कृति में, “मैकाले की संतान” शब्द का इस्तेमाल कभी-कभी भारतीय वंश में जन्मे उन लोगों के लिए किया जाता है जो पश्चिमी संस्कृति को जीवनशैली के रूप में अपनाते हैं, या उपनिवेशवाद (” मैकालेवाद “) से प्रभावित दृष्टिकोण प्रदर्शित करते हैं – ये अभिव्यक्तियाँ अपमानजनक रूप से और अपने देश और अपनी विरासत के प्रति निष्ठाहीनता के निहितार्थ के साथ इस्तेमाल की जाती हैं। स्वतंत्र भारत में, मैकाले के सभ्यता मिशन के विचार का इस्तेमाल दलितवादियों द्वारा, विशेष रूप से नव-उदारवादी चंद्रभान प्रसाद द्वारा , “आत्म-सशक्तिकरण के लिए रचनात्मक विनियोग” के रूप में किया गया है, जो इस दृष्टिकोण पर आधारित है कि दलित समुदाय मैकाले द्वारा हिंदू संस्कृति के हनन और भारत में पश्चिमी शैली की शिक्षा के समर्थन से सशक्त हुआ था।

डोमेनिको लोसुर्डो कहते हैं कि “मैकाले ने स्वीकार किया कि भारत में अंग्रेज़ उपनिवेशवादियों ने हेलोट्स का सामना करने वाले स्पार्टन्स की तरह व्यवहार किया : हम एक ‘संप्रभु जाति’ या ‘संप्रभु जाति’ के साथ व्यवहार कर रहे हैं, जो अपने ‘दासों’ पर पूर्ण शक्ति का प्रयोग करती है।” लोसुर्डो ने उल्लेख किया कि इससे मैकाले को ब्रिटेन के अपने उपनिवेशों को निरंकुश तरीके से संचालित करने के अधिकार पर कोई संदेह नहीं हुआ; उदाहरण के लिए, जबकि मैकाले ने भारत के गवर्नर-जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स के प्रशासन को इतना निरंकुश बताया कि “पूर्व उत्पीड़कों, एशियाई और यूरोपीय, का सारा अन्याय एक आशीर्वाद के रूप में प्रकट हुआ”, वह (हेस्टिंग्स) “इंग्लैंड और सभ्यता को बचाने” के लिए “उच्च प्रशंसा” और “हमारे इतिहास के सबसे उल्लेखनीय व्यक्तियों” में स्थान पाने के हकदार थे।

59 वर्ष की आयु में 28 दिसंबर 1859 को लंदन , इंग्लैंड में उनका निधन हो गया।

रजनी कांत शुक्ला

भारत में पहले आम चुनाव की कहानी भी अलग है

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भारत में पहले आम चुनाव की कहानी भी अलग है। भारत में आम चुनाव 25 अक्टूबर 1951 और 21 फ़रवरी 1952 के बीच हुए । ये चुनाव 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद पहले राष्ट्रीय चुनाव थे।मतदाताओं ने भारतीय संसद के निचले सदन, पहली लोकसभा के 489 सदस्यों को चुना । अधिकांश राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए।

चुनाव 26 नवंबर 1949 को अपनाए गए संविधान के प्रावधानों के तहत आयोजित किए गए थे। संविधान को अपनाने के बाद, संविधान सभा अंतरिम संसद के रूप में कार्य करती रही, जबकि जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक अंतरिम मंत्रिमंडल था । 1949 में एक चुनाव आयोग बनाया गया और मार्च 1950 में सुकुमार सेन को पहला मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किया गया। एक महीने बाद संसद ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम पारित किया जिसमें यह निर्धारित किया गया कि संसद और राज्य विधानसभाओं के लिए चुनाव कैसे आयोजित किए जाएंगे। लोकसभा की 489 निर्वाचित सीटें 25 राज्यों के 401 निर्वाचन क्षेत्रों में आवंटित की गई थीं। 314 निर्वाचन क्षेत्र थे जो फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली का उपयोग करके एक सदस्य का चुनाव करते थे । 86 निर्वाचन क्षेत्रों में दो सदस्य चुने जाते थे, एक सामान्य वर्ग से और एक अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से। इस समय संविधान में भारत के राष्ट्रपति द्वारा नामित दो एंग्लो-इंडियन सदस्यों का भी प्रावधान था ।

लोकसभा की 489 निर्वाचित सीटों के लिए कुल 1,949 उम्मीदवारों ने प्रतिस्पर्धा की। प्रत्येक उम्मीदवार को मतदान केंद्र पर एक अलग रंग की मतपेटी आवंटित की गई थी, जिस पर उम्मीदवार का नाम और चुनाव चिन्ह लिखा था। मतदाता सूचियों को टाइप करने और मिलान करने के लिए 16,500 क्लर्कों को छह महीने के अनुबंध पर नियुक्त किया गया था और रोल्स को प्रिंट करने के लिए 380,000 रीम कागज का इस्तेमाल किया गया था। 1951 की जनगणना के अनुसार 361,088,090 की आबादी में से कुल 173,212,343 मतदाता ( जम्मू और कश्मीर को छोड़कर ) पंजीकृत थे , जिससे यह उस समय आयोजित सबसे बड़ा चुनाव था। 21 वर्ष से अधिक आयु के सभी भारतीय नागरिक वोट देने के पात्र थे।

कठोर जलवायु और चुनौतीपूर्ण रसद के कारण, चुनाव 68 चरणों में आयोजित किया गया था। कुल 196,084 मतदान केंद्र बनाए गए थे, जिनमें से 27,527 बूथ महिलाओं के लिए आरक्षित थे। अधिकांश मतदान 1952 की शुरुआत में हुआ था, लेकिन हिमाचल प्रदेश में 1951 में मतदान हुआ क्योंकि फरवरी और मार्च में मौसम आमतौर पर खराब रहता था, भारी बर्फबारी के कारण मुक्त आवाजाही बाधित होती थी। शेष राज्यों में फरवरी-मार्च 1952 में मतदान हुआ, जम्मू और कश्मीर को छोड़कर , जहां 1967 तक लोकसभा सीटों के लिए कोई मतदान नहीं हुआ था। चुनाव के पहले वोट हिमाचल प्रदेश के चिनी तहसील (जिले) में डाले गए थे।

परिणाम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) की भारी जीत थी, जिसे 45% वोट मिले और उसने 489 निर्वाचित सीटों में से 364 सीटें जीतीं। दूसरे स्थान पर रही सोशलिस्ट पार्टी को केवल 11% वोट मिले और उसने बारह सीटें जीतीं। जवाहरलाल नेहरू देश के पहले लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित प्रधानमंत्री बने।

रजनी कांत शुक्ला

चीन यात्रा के दौरान क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जीवन पर खतरा था ?

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चीन यात्रा के दौरान क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जीवन पर खतरा था ? क्या अमेरिका अथवा अन्य किसी ताकतवर देश ने भारत के शिखर पुरुष के खिलाफ किसी बड़े षड्यंत्र का जाल बुना था ? क्या इसकी भनक लगते ही रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने मोदी को 45 मिनट तक अपनी बेहद सुरक्षित कार में बिठाए रखा था ? यदि हां तो कौन था इस घिनौने षडयंत्र के पीछे ? यदि नहीं तो सोशल मीडिया पर चल रही बेशुमार खबरों का स्रोत क्या है ?

प्रधानमंत्री मोदी का जीवन हमारे देश के लिए ही अमूल्य नहीं , पूरी दुनिया के लिए बेहद कीमती है । चीन जैसे साम्यवादी देश में क्या सुरक्षा में कोई चूक हुई है ? हमने ताशकंद में अपने एक प्रधानमंत्री को गंवाया था । हमारे दो प्रधानमंत्री देश में ही आतंकवाद का शिकार हुए । चीन में पीएम के साथ जो हुआ वह सब चकल्लस है या इसके पीछे कोई सच है , सबके लिए जानना जरूरी है । लेकिन किसी भी आधिकारिक स्तर पर पुष्टि नहीं हुई । सोशल मीडिया और नेटवर्किंग साइट्स पर काफी खबरें आज भी आ रही हैं ?

याद कीजिए किसान आंदोलन के दौरान प्रधानमंत्री जब पंजाब यात्रा पर थे तब अपने ही देश में संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई थी । पंजाब की आम आदमी पार्टी सरकार ने जिस तरह किसानों के सामने हाथ खड़े कर दिए वह शर्मनाक स्थिति अभूतपूर्व थी । प्रधानमंत्री के जीवन पर घात लगाए बैठे हैं लोग । कल ही पाकिस्तान ने महिलाओं के एक मरजीवड़े दल को प्रशिक्षण देकर दीक्षा प्रदान की है । उसके सामने पाक सेना और आतंकवादी हाफिज सईद ने एक ही लक्ष्य रखा है ।

वह है किसी भी तरह मोदी पर हमला । मोदी के बाद तीन और टारगेट हैं अमित शाह , योगी और हेमंता । न्यूज चैनल आजतक पर दिखाई रिपोर्ट में आईएसआई और हाफिज मसूद की इस खतरनाक साजिश का भंडाफोड़ किया गया है । ऐसी ही बहुत सी साजिशें पीएम के ख़िलाफ़ होती हैं जिन्हें सुरक्षा एजेंसियां साफ करती रहती हैं । पीएम की सुरक्षा के लिए कुछ और चरण बढ़ाने चाहिएं , चूंकि वे चुनावी रैलियों में भी भाग लेते हैं ।

लम्बे अरसे के बाद देश को ऐसा प्रधानमंत्री मिला है जो सोलह आने राष्ट्र को समर्पित है । मोदी का परिवार यह पूरा देश है । इसी श्रृंखला में दूसरा नाम है योगी जो गुंडे बदमाशों के खिलाफ आज पूरी दुनिया के लिए मॉडल बन चुके हैं । देश को पूर्ण विकसित राष्ट्र बनाने के लिए मोदी अभी वर्षों तक चाहिएं । उनका जीवन 145 करोड़ के उत्थान और भारतमाता के स्वाभिमान के लिए बहुत जरूरी है । हम तो यही कहेंगे – जीवेम शरद शतम ।

…..कौशल सिखौला

वरिष्ठ पत्रकार

असम के नए कानूनों का व्यापक संदेश

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कानून ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और समान नागरिक अधिकारों पर नई बहस छेड़ दी है। समर्थक इसे सामाजिक सुधार मानते हैं, जबकि आलोचक इसे राज्य द्वारा निजी जीवन में हस्तक्षेप बताते हैं। भारत में जनसंख्या नियंत्रण के वास्तविक उपाय शिक्षा, स्वास्थ्य और महिला सशक्तिकरण से आते हैं, न कि कठोर कानूनों से। लोकतंत्र तभी मजबूत होता है जब नागरिकों को नियंत्रित नहीं, बल्कि सक्षम बनाया जाए।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

भारत जैसे विविध और बहुधार्मिक देश में जब कोई राज्य व्यक्तिगत जीवन से जुड़े विषयों पर नीति बनाता है, तो उसका असर सीमित नहीं रहता। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा द्वारा प्रस्तावित विवाह और जनसंख्या नियंत्रण कानून इसी तरह की राष्ट्रीय बहस को जन्म दे रहे हैं। राज्य सरकार का कहना है कि यह कदम “सामाजिक संतुलन” और “अवैध जनसंख्या वृद्धि” पर रोक लगाने की दिशा में है, जबकि आलोचकों का मानना है कि यह नागरिक स्वतंत्रता और धार्मिक अधिकारों में हस्तक्षेप है। यही विरोधाभास आज की राजनीति और समाज की सबसे बड़ी परीक्षा बन गया है।

असम लंबे समय से प्रवासन, जनसंख्या असमानता और सांप्रदायिक तनाव के मुद्दों से जूझता रहा है। सीमावर्ती राज्य होने के कारण यहाँ बांग्लादेश से आने वाले अवैध प्रवासियों की समस्या पर राजनीति हमेशा सक्रिय रही है। इस पृष्ठभूमि में जनसंख्या नियंत्रण कानून की चर्चा सिर्फ सामाजिक नहीं, बल्कि राजनीतिक रणनीति का भी हिस्सा प्रतीत होती है। मुख्यमंत्री सरमा का कहना है कि राज्य में कुछ समुदायों में जनसंख्या वृद्धि दर बहुत अधिक है, जिससे सामाजिक और आर्थिक असंतुलन पैदा होता है। उनके अनुसार, यदि राज्य में शैक्षिक और आर्थिक समानता लानी है, तो ऐसे कठोर कदम आवश्यक हैं।

लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून ही सबसे उपयुक्त उपाय है? भारत में पहले भी ऐसे प्रयास किए गए हैं — इमरजेंसी के दौरान जबरन नसबंदी अभियान इसका उदाहरण है। उस अनुभव ने दिखाया कि जनसंख्या नियंत्रण केवल कानून या दंड से नहीं, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक जागरूकता से हासिल किया जा सकता है। असम का प्रस्तावित कानून अगर विवाह आयु, बहुपतित्व या धर्मांतरण जैसे निजी विषयों को नियंत्रित करने की दिशा में जाता है, तो यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समान नागरिक अधिकारों पर प्रश्नचिह्न खड़ा करेगा।

संविधान नागरिकों को अपने धर्म और जीवनशैली की स्वतंत्रता देता है। विवाह और परिवार व्यक्ति की निजता का हिस्सा हैं। अनुच्छेद 21 के अंतर्गत ‘जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार’ इन विषयों को भी सम्मिलित करता है। यदि कोई सरकार यह तय करने लगे कि कौन किससे और कैसे विवाह करे या कितने बच्चे हों, तो यह राज्य और व्यक्ति के बीच की सीमाओं को धुंधला कर देता है। यही कारण है कि कई सामाजिक कार्यकर्ता इसे एक “निगरानीवादी नीति” कह रहे हैं, न कि “सुधारवादी कदम”।

भारत में समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) पर पहले से बहस जारी है। असम का यह कानून उस बहस को और तीव्र कर सकता है। सरकार का तर्क यह हो सकता है कि सभी नागरिकों के लिए समान नियम होना चाहिए, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो। परंतु इस समानता की अवधारणा तभी सार्थक है जब यह स्वैच्छिक और परामर्श आधारित हो, न कि भय और नियंत्रण पर आधारित। यदि किसी एक समुदाय को लक्ष्य बनाकर नीति बनाई जाती है, तो वह सुधार के बजाय विभाजन का कारण बनती है।

सामाजिक दृष्टि से देखें तो जनसंख्या वृद्धि केवल धार्मिक या सांस्कृतिक कारणों से नहीं होती। यह शिक्षा की कमी, गरीबी, स्वास्थ्य सुविधाओं की अनुपलब्धता और लैंगिक असमानता से अधिक प्रभावित होती है। जब तक महिलाओं को पर्याप्त शिक्षा, रोजगार और निर्णय लेने की शक्ति नहीं दी जाएगी, तब तक परिवार नियोजन के कानून केवल कागज़ों पर रह जाएंगे। भारत के दक्षिणी राज्यों ने जनसंख्या स्थिरीकरण का जो उदाहरण पेश किया है, वह शिक्षा और स्वास्थ्य निवेश का परिणाम है, न कि किसी कठोर कानून का।

असम जैसे राज्य में जहाँ साक्षरता दर अभी भी राष्ट्रीय औसत से कम है और ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचा कमजोर है, वहाँ नए कानूनों के बजाय सामाजिक सशक्तिकरण की आवश्यकता अधिक है। यदि सरकार उन क्षेत्रों में निवेश करे जहाँ महिलाओं की शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ पिछड़ी हुई हैं, तो जनसंख्या वृद्धि स्वतः नियंत्रित हो सकती है। इसके विपरीत, यदि सरकार नियंत्रण के नाम पर कठोरता दिखाती है, तो यह अविश्वास और भय का वातावरण बना सकती है।

राजनीतिक स्तर पर यह मुद्दा विपक्ष और सत्तापक्ष दोनों के लिए अवसर लेकर आया है। सत्तापक्ष इसे “सुधार की दिशा में साहसिक कदम” बता रहा है, जबकि विपक्ष इसे “राजनीतिक ध्रुवीकरण” का प्रयास मान रहा है। असम में चुनावी समीकरण हमेशा से जातीय और धार्मिक पहचान पर आधारित रहे हैं। इसलिए यह नीति किसी एक वर्ग को साधने और दूसरे को असुरक्षित महसूस कराने का साधन बन सकती है। यही कारण है कि राष्ट्रीय स्तर पर भी यह मुद्दा तेजी से फैल रहा है।

मीडिया और सार्वजनिक मंचों पर इस विषय को “लव जिहाद”, “बहुपतित्व” और “जनसंख्या विस्फोट” जैसे विवादास्पद शब्दों से जोड़ा जा रहा है। परंतु यह समझना आवश्यक है कि जनसंख्या नियंत्रण केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक नीति का विषय है। यदि इसे धर्म के चश्मे से देखा जाएगा, तो समस्या सुलझने के बजाय और गहरी हो जाएगी।

असम सरकार का यह दावा है कि इस कानून का उद्देश्य किसी विशेष समुदाय को निशाना बनाना नहीं है, बल्कि समाज में संतुलन स्थापित करना है। परंतु व्यवहारिक रूप से ऐसे कानूनों के लागू होने के तरीके में पक्षपात की संभावना बनी रहती है। उदाहरण के लिए, यदि प्रशासनिक स्तर पर यह तय किया जाए कि किसे “बहुपतित्व” या “अवैध विवाह” के तहत दंडित किया जाए, तो यह निर्णय अधिकारी की व्यक्तिगत धारणा पर भी निर्भर करेगा। यही वह बिंदु है जहाँ लोकतांत्रिक शासन को पारदर्शिता और जवाबदेही की सबसे अधिक आवश्यकता होती है।

एक और महत्वपूर्ण पहलू है – कानूनों का क्रियान्वयन। भारत में पहले से ही कई जनकल्याणकारी कानून बने हैं, पर उनका प्रभाव सीमित रहा है क्योंकि उन्हें लागू करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति कमजोर रही है। यदि असम सरकार नया कानून बनाती है लेकिन उसका कार्यान्वयन पक्षपाती या ढीला रहता है, तो यह सिर्फ दिखावे का कदम रह जाएगा। इसलिए, किसी भी नीति का मूल्यांकन उसके उद्देश्य से अधिक, उसके कार्यान्वयन से किया जाना चाहिए।

इस पूरे विवाद का एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी है। जब किसी राज्य में नागरिकों को यह महसूस होता है कि सरकार उनके निजी जीवन में हस्तक्षेप कर रही है, तो नागरिक और राज्य के बीच विश्वास की दीवार कमजोर होती है। लोकतंत्र का आधार वही विश्वास है। भारत की राजनीति पहले से ही विश्वास संकट से गुजर रही है — संस्थाओं पर भरोसा घट रहा है, संवाद की जगह आरोप-प्रत्यारोप ने ले ली है। ऐसे में यदि नीतियाँ लोगों को और बाँटने लगें, तो लोकतांत्रिक समाज में अस्थिरता बढ़ना स्वाभाविक है।

इस विषय का वैश्विक संदर्भ भी दिलचस्प है। चीन ने दशकों तक “एक बच्चे की नीति” अपनाई थी, जिसके दुष्परिणाम अब सामने हैं — वृद्ध आबादी बढ़ी, कार्यबल घटा, और लैंगिक असंतुलन पैदा हुआ। बाद में चीन को अपनी नीति पलटनी पड़ी। इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि जनसंख्या नियंत्रण यदि कठोर रूप से लागू किया जाए, तो वह सामाजिक और आर्थिक दोनों दृष्टियों से प्रतिकूल सिद्ध हो सकता है। भारत जैसे लोकतंत्र में तो ऐसा कदम और भी संवेदनशील है क्योंकि यहाँ विविधता उसकी सबसे बड़ी ताकत है।

इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि सरकारें नियंत्रण नहीं, बल्कि सशक्तिकरण की दिशा में सोचें। जनसंख्या नियंत्रण का सबसे प्रभावी तरीका शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और समान अवसर हैं। जब नागरिकों के पास विकल्प और जागरूकता होती है, तो वे स्वाभाविक रूप से छोटे और स्वस्थ परिवार की ओर बढ़ते हैं। यह परिवर्तन कानून से नहीं, चेतना से आता है।

असम के इस प्रस्ताव को यदि वास्तव में सुधारवादी बनाना है, तो उसे राजनीतिक नारों से हटाकर व्यावहारिक योजनाओं से जोड़ना होगा। जनसंख्या नीति का लक्ष्य केवल संख्या घटाना नहीं होना चाहिए, बल्कि जीवन की गुणवत्ता बढ़ाना होना चाहिए। राज्य को यह समझना होगा कि अनुशासन कानून से नहीं, बल्कि विश्वास से आता है।

अंततः यह बहस केवल असम तक सीमित नहीं रहेगी। यह उस रास्ते का संकेत है जिस पर भारत आगे बढ़ सकता है — या तो नियंत्रण के राज्य की ओर, जहाँ सरकारें नागरिकों के जीवन के हर पहलू को निर्धारित करेंगी; या फिर जागरूकता आधारित समाज की ओर, जहाँ नागरिक स्वयं अपने निर्णयों के लिए जिम्मेदार होंगे। लोकतंत्र का अर्थ तभी पूरा होता है जब राज्य मार्गदर्शक बने, मालिक नहीं।

असम की पहल शायद ईमानदार चिंता से उत्पन्न हो, पर इसका रूप और परिणाम सावधानी से तय किया जाना चाहिए। एक संवेदनशील लोकतंत्र में हर नीति का मूल्यांकन उसके प्रभाव से होना चाहिए, न कि उसके नारे से। जनसंख्या नियंत्रण की असली कसौटी यही है कि क्या वह समाज को अधिक स्वतंत्र, शिक्षित और सक्षम बनाता है — या उसे संदेह और नियंत्रण के जाल में फँसा देता है। भारत को वह रास्ता चुनना होगा जो विकास के साथ सम्मान भी दे।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,