भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन : अद्भुत प्रतिभा का प्रतीक

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भारत भूमि सदा से ज्ञान, विज्ञान और गणित जैसी विधाओं की जननी रही है। इसी भूमि ने अनेक ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्तियों को जन्म दिया जिन्होंने विश्व को नया दृष्टिकोण दिया। उन्हीं महान विभूतियों में एक नाम है श्रीनिवास रामानुजन — एक ऐसे गणितज्ञ का, जिसने बिना औपचारिक शिक्षा के गणित के क्षेत्र में ऐसे सिद्धांत दिए जिन्हें आज भी वैज्ञानिक विस्मय से देखते हैं।


प्रारम्भिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि

श्रीनिवास रामानुजन का जन्म 22 दिसम्बर 1887 को तमिलनाडु के तंजावुर जिले के ईरोड नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता श्री के. श्रीनिवास अय्यर एक कपड़ा व्यापारी के यहाँ क्लर्क थे, और माता कोमलतम्मल एक धार्मिक महिला थीं जो मंदिर में भजन गाती थीं। उनका परिवार आर्थिक रूप से संपन्न नहीं था, परंतु घर का वातावरण धार्मिक और संस्कारयुक्त था।

बाल्यावस्था से ही रामानुजन की बुद्धि अत्यंत तीव्र थी। वे विद्यालय में साधारण विषयों में उतने अच्छे नहीं थे, पर गणित में अद्भुत थे। केवल ग्यारह वर्ष की आयु में उन्होंने विश्वविद्यालय स्तर की गणितीय पुस्तकों का अध्ययन कर लिया था। बारह वर्ष की आयु में वे त्रिकोणमिति, बीजगणित और कलन के जटिल प्रश्न स्वयं हल करने लगे थे।


गणित के प्रति लगन और संघर्षपूर्ण जीवन

रामानुजन को औपचारिक शिक्षा का अवसर बहुत कम मिला। आर्थिक तंगी और स्वास्थ्य समस्याओं के कारण उन्हें कई बार पढ़ाई छोड़नी पड़ी। परन्तु गणित उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका था। वे दिन-रात गणितीय सूत्रों, संख्याओं और समीकरणों में डूबे रहते थे।

कहा जाता है कि उन्होंने 1903 में जी. एस. कार की लिखी गणित की पुस्तक “सिनॉप्सिस ऑफ एलिमेंटरी रिजल्ट्स इन प्योर एंड एप्लाइड मैथमेटिक्स” प्राप्त की, जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। इस पुस्तक में हजारों सूत्र बिना किसी व्याख्या के दिए गए थे। रामानुजन ने उन सूत्रों के पीछे छिपे सिद्धांत स्वयं खोज निकाले।

कई बार वे किसी कागज़ पर नहीं, बल्कि मंदिर की फर्श पर चॉक से गणित के प्रश्न हल करते थे। उनका कहना था कि देवी नमगिरी उन्हें स्वप्न में गणित के सूत्र बताती हैं। यह उनकी श्रद्धा और विज्ञान के अद्भुत संगम का प्रतीक था।


मैड्रास से कैंब्रिज तक की यात्रा

रामानुजन की प्रतिभा इतनी विलक्षण थी कि स्थानीय स्तर पर लोग उन्हें पागल समझने लगे थे। वे अपनी खोजों को दिखाने के लिए कई शिक्षाविदों से मिले, परन्तु कोई उन्हें गंभीरता से नहीं लेता था। अंततः उन्होंने 1913 में अपने गणितीय शोध-पत्र इंग्लैंड के प्रसिद्ध गणितज्ञ प्रोफेसर जी. एच. हार्डी को भेजे।

हार्डी ने जब रामानुजन के सूत्र देखे, तो वे चकित रह गए। उन्होंने अपने सहकर्मी लिटिलवुड से कहा – “यह व्यक्ति या तो महानतम गणितज्ञ है या कोई धोखेबाज।” परंतु शीघ्र ही उन्हें यह विश्वास हो गया कि वे एक अद्भुत प्रतिभा से परिचित हुए हैं।

हार्डी ने रामानुजन को कैंब्रिज विश्वविद्यालय में आमंत्रित किया। 1914 में रामानुजन इंग्लैंड पहुंचे। वहाँ का ठंडा वातावरण, खान-पान और स्वास्थ्य सम्बन्धी कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने अपने जीवन की सबसे बड़ी गणितीय खोजें कीं।


महत्वपूर्ण योगदान

रामानुजन का गणितीय योगदान अत्यंत व्यापक है। उन्होंने संख्या सिद्धांत, विभाजन सिद्धांत, अनंत श्रेणियों, अयथार्थ संख्याओं और मापांक फलनों पर काम किया।

उनके कुछ प्रमुख योगदान इस प्रकार हैं –

  1. रामानुजन सूत्र (Ramanujan Formula) – π (पाई) की गणना के लिए उन्होंने जो सूत्र विकसित किया, वह आज भी सबसे तेज़ और सटीक तरीकों में से एक माना जाता है।
  2. रामानुजन टाउ फलन (Tau Function) – यह फलन गणितीय विश्लेषण में अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ।
  3. विभाजन फलन (Partition Function) – उन्होंने किसी संख्या को विभिन्न छोटे अंकों के योग के रूप में प्रस्तुत करने के अनेक तरीकों की गणना का सूत्र दिया।
  4. रामानुजन संख्या (Ramanujan Number 1729) – यह संख्या 1729 प्रसिद्ध है क्योंकि यह दो अलग-अलग घनों के योग के रूप में दो बार प्रकट होती है (1³ + 12³ = 9³ + 10³)। हार्डी और रामानुजन की बातचीत के कारण यह संख्या प्रतीकात्मक बन गई।
  5. मॉक थीटा फलन (Mock Theta Functions) – उनके जीवन के अंतिम दिनों में विकसित यह सिद्धांत आज आधुनिक गणित और भौतिकी में अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है।

सम्मान और उपलब्धियाँ

रामानुजन को 1918 में रॉयल सोसाइटी ऑफ लंदन का सदस्य चुना गया — यह सम्मान पाने वाले वे सबसे युवा भारतीयों में से एक थे। उसी वर्ष उन्हें कैंब्रिज विश्वविद्यालय का फेलो भी बनाया गया।

उनका कार्य उस समय के गणित के क्षेत्र में नई दिशा लेकर आया। विश्व के महान गणितज्ञों ने उनके सिद्धांतों को आगे बढ़ाया और आज भी उन पर शोध जारी है।


जीवन का अंतिम दौर और निधन

इंग्लैंड के ठंडे मौसम और खान-पान की असंगति के कारण रामानुजन बीमार पड़ गए। उन्हें तपेदिक और अन्य बीमारियों ने घेर लिया। 1919 में वे भारत लौट आए। यद्यपि वे अत्यंत कमजोर थे, फिर भी उन्होंने गणित पर काम जारी रखा।

26 अप्रैल 1920 को, मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में, यह महान प्रतिभा संसार से विदा हो गई। किंतु इतनी छोटी उम्र में भी उन्होंने जो कार्य किया, वह शताब्दियों तक अमर रहेगा।


विरासत और प्रेरणा

रामानुजन का जीवन इस बात का उदाहरण है कि प्रतिभा औपचारिक शिक्षा की मोहताज नहीं होती। उन्होंने अपने आत्मविश्वास, श्रद्धा और अद्भुत लगन से असंभव को संभव किया। उनकी गणनाएँ आज भी विज्ञान, कंप्यूटर, भौतिकी और खगोलशास्त्र में उपयोग की जा रही हैं।

भारत सरकार ने उनके जन्मदिवस 22 दिसम्बर को “राष्ट्रीय गणित दिवस” के रूप में मनाने की घोषणा की है। 2012 में उनका जीवन दर्शाने वाली फिल्म “द मैन हू न्यू इनफिनिटी” भी बनी, जिससे उनकी कहानी नई पीढ़ी तक पहुँची।


उपसंहार

श्रीनिवास रामानुजन केवल एक गणितज्ञ नहीं, बल्कि भारतीय प्रतिभा के प्रतीक हैं। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि ज्ञान का स्रोत केवल पुस्तकों में नहीं, बल्कि आत्मा की गहराइयों में भी होता है। उनके सूत्र आज भी गणित की दुनिया को चुनौती देते हैं और नई प्रेरणा देते हैं।

रामानुजन सदा उस सत्य का उदाहरण रहेंगे कि जब लगन, श्रद्धा और प्रतिभा एक साथ होती है, तो सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं। वे सचमुच “अनंत को जानने वाले मनुष्य” थे — भारतीय विज्ञान के इतिहास में एक अमर नाम।

प्रसिद्ध अभिनेता प्रदीप कुमार : भारतीय सिनेमा के शालीन नायक

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भारतीय फिल्म जगत में सादगी, गंभीरता और शालीन अभिनय के लिए प्रसिद्ध नामों में अभिनेता प्रदीप कुमार का नाम अत्यंत सम्मान से लिया जाता है। वे उन कलाकारों में से थे जिन्होंने अपने सधी हुई अदाकारी और गरिमामय व्यक्तित्व से हिन्दी फिल्मों में एक विशेष स्थान बनाया। उनकी उपस्थिति पर्दे पर राजसी ठहराव और भावनात्मक गहराई का एहसास कराती थी।

प्रारम्भिक जीवन और फिल्मी सफर की शुरुआत
प्रदीप कुमार का जन्म 4 जनवरी 1925 को पश्चिम बंगाल के कालिकाता (कोलकाता) में हुआ था। उनका पूरा नाम प्रदीप कुमार बनर्जी था। बाल्यावस्था से ही उनमें अभिनय की रुचि थी। बंगाल के सांस्कृतिक वातावरण ने उनके भीतर नाट्य और कला के प्रति गहरा प्रेम जगाया। उन्होंने अपने अभिनय जीवन की शुरुआत बंगाली फिल्मों से की। उनकी पहली प्रमुख बंगाली फिल्म “अलकनंदा” थी, जिसने उन्हें प्रारम्भिक प्रसिद्धि दिलाई।

बाद में वे बम्बई (अब मुंबई) आए, जहाँ उस समय हिन्दी फिल्म उद्योग तेज़ी से विकसित हो रहा था। प्रदीप कुमार को यहाँ अभिनय के अवसर मिले और उनकी पहली हिन्दी फिल्म “अनारकली” (1953) ने उन्हें रातों-रात प्रसिद्ध कर दिया। इस फिल्म में उन्होंने सलीम का किरदार निभाया था, जो दर्शकों के मन में अमिट छाप छोड़ गया।

फिल्मी करियर और प्रमुख कृतियाँ
“अनारकली” की सफलता के बाद प्रदीप कुमार ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने एक से बढ़कर एक ऐतिहासिक, पौराणिक और सामाजिक फिल्मों में काम किया। उनके अभिनय की विशेषता यह थी कि वे अपने पात्र को अत्यंत सहजता और गम्भीरता से प्रस्तुत करते थे। उनकी आवाज़ में नर्मी और संवादों में गरिमा का भाव झलकता था।

उनकी प्रमुख फिल्मों में “झाँसी की रानी”, “नरगिस”, “ताजमहल”, “राजहठ”, “नौशेरवां-ए-आदिल”, “राजकुमारी”, “जमाना”, “झुमर”, “अमरदीप”, “ग़ज़ल”, “आशियाना”, “मुगल-ए-आज़म” जैसी अनेक फिल्में शामिल हैं। विशेष रूप से “ताजमहल” में उनका शाहजहाँ का अभिनय अत्यंत प्रशंसनीय रहा। इस फिल्म में उनके भावपूर्ण संवाद और मर्यादित अभिव्यक्ति ने उन्हें रोमांटिक नायक के रूप में स्थापित कर दिया।

वे अपने समय की प्रसिद्ध अभिनेत्रियों मीना कुमारी, मधुबाला, वैजयंतीमाला, बीना राय, सुरैया और माला सिन्हा के साथ अनेक सफल फिल्मों में नज़र आए। प्रदीप कुमार की और मीना कुमारी की जोड़ी को दर्शकों ने विशेष रूप से पसंद किया। दोनों की जोड़ी वाली फिल्मों में “अशियाना”, “ताजमहल”, “आदमी”, “चिराग़” और “भाई बहन” प्रमुख हैं।

अभिनय शैली और विशेषताएँ
प्रदीप कुमार के अभिनय में एक गम्भीरता और संतुलन दिखाई देता था। वे ऊँची आवाज़ या अत्यधिक हावभाव के प्रयोग से बचते थे। उनके चेहरे के भाव ही संवादों का पूरा अर्थ व्यक्त कर देते थे। वे शालीनता, मर्यादा और भावनात्मक संवेदनशीलता के प्रतीक माने जाते थे। उनके अभिनय में राजसी गरिमा और मधुर प्रेम भाव का सुंदर मिश्रण दिखाई देता था।

वे केवल रोमांटिक भूमिकाओं तक सीमित नहीं रहे, बल्कि उन्होंने पौराणिक और ऐतिहासिक फिल्मों में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। “झाँसी की रानी” और “नौशेरवां-ए-आदिल” जैसी फिल्मों में उनका गम्भीर और प्रभावशाली अभिनय दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देता था।

व्यक्तित्व और जीवन दर्शन
प्रदीप कुमार का व्यक्तित्व अत्यंत विनम्र और सभ्य था। वे अपने सहकलाकारों और तकनीकी दल के सदस्यों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार रखते थे। वे फिल्मों में भले ही राजकुमार या बादशाह की भूमिका निभाते रहे हों, वास्तविक जीवन में वे अत्यंत सादे और अनुशासित व्यक्ति थे।

अपने अभिनय जीवन के अंतिम वर्षों में वे कुछ सीमित भूमिकाएँ करने लगे। समय के साथ नई पीढ़ी के कलाकारों के आने से उनकी फ़िल्मों की संख्या कम होती गई, परन्तु उनके अभिनय की गरिमा कभी कम नहीं हुई।

सम्मान और योगदान
प्रदीप कुमार को हिन्दी सिनेमा के स्वर्णयुग का प्रमुख कलाकार माना जाता है। उन्होंने लगभग पाँच दशक तक हिन्दी और बंगाली फिल्मों में सक्रिय योगदान दिया। यद्यपि उन्हें बहुत अधिक पुरस्कार नहीं मिले, फिर भी उनके अभिनय ने दर्शकों के हृदय में अमिट स्थान बनाया। उनकी फिल्मों ने भारतीय सिनेमा को शालीनता और सौंदर्य की नई दिशा दी।

अंतिम समय और विरासत
प्रदीप कुमार का निधन 27 अक्टूबर 2001 को मुंबई में हुआ। वे भले ही इस संसार से विदा हो गए हों, परन्तु उनके अभिनय की गरिमा आज भी हिन्दी सिनेमा के इतिहास में जीवित है। उनके द्वारा निभाए गए किरदार आज भी पुराने सिनेमा प्रेमियों के मन में सजीव हैं।

उपसंहार
प्रदीप कुमार भारतीय सिनेमा के उन महान कलाकारों में से थे जिनकी पहचान अभिनय की गहराई, संवादों की मर्यादा और व्यक्तित्व की सादगी से होती है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि अभिनय केवल भाव प्रदर्शन नहीं, बल्कि आत्मा की संवेदना का माध्यम है। उनका सधा हुआ अभिनय, संतुलित अभिव्यक्ति और शालीन व्यक्तित्व आज भी हिन्दी फिल्मों के स्वर्ण युग की याद दिलाता है।

प्रदीप कुमार का नाम सदा उन कलाकारों में गिना जाएगा जिन्होंने भारतीय सिनेमा को गरिमा, गंभीरता और सौंदर्य की ऊँचाई पर पहुँचाया।

अस्थिर गठबंधन और युवा बनाम अनुभवी नेतृत्व की जंग

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बिहार विधानसभा चुनाव 2025:


अशोक मधुप
वरिष्ठ पत्रकार
बिहार का 2025 विधानसभा चुनाव राजनीतिक अस्थिरता, नए सिरे से बने गठबंधनों, और युवा बनाम अनुभवी नेतृत्व के बीच सीधे मुकाबले के कारण भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ बन चुका है। यह चुनाव न केवल राज्य के शासन की दिशा तय करेगा, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी राजनीतिक समीकरणों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। इस बार का चुनावी परिदृश्य पिछले चुनावों से कई मायनों में अलग है, खासकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बार-बार पाला बदलने ने इस जंग को और भी दिलचस्प बना दिया है। यह चुनाव मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का राजनैतिक भविष्य भी तै करेगा।

बिहार की राजनीति हमेशा से ही गठबंधनों के टूटने और बनने के लिए जानी जाती है, लेकिन 2025 के चुनाव से पहले का घटनाक्रम अभूतपूर्व रहा।जनवरी 2024 में, जनता दल (यूनाइटेड) के नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के नेतृत्व वाले महागठबंधन को छोड़कर नौवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के साथ मिलकर सरकार बनाई। इस बार एनडीए में प्रमुख रूप से बीजेपी, जदयू और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (एचएएम) शामिल हैं।
एनडीए गठबंधन विकास और सुशासन के पुराने एजेंडे पर भरोसा कर रहा है, साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राष्ट्रीय चेहरा एक बड़ा फैक्टर है। हालांकि, नीतीश कुमार के दल-बदल से उपजी विश्वसनीयता का संकट एनडीए के लिए एक चुनौती है। सीट बंटवारे को लेकर कुछ छोटे सहयोगियों में असंतोष की खबरें और मगध जैसे कुछ क्षेत्रों में पिछले चुनाव में एनडीए का कमजोर प्रदर्शन इस गठबंधन के लिए चिंता का विषय है।
नीतीश कुमार के एनडीए में लौटने के बाद, राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के युवा नेता तेजस्वी यादव महागठबंधन के एकमात्र और निर्विवाद नेता बन गए हैं। इस गठबंधन में आरजेडी, कांग्रेस, और वाम दल (CPI, CPI-ML) शामिल हैं। महागठबंधन का मुख्य फोकस तेजस्वी यादव के ‘रोजगार और विकास’ के वादे पर है। तेजस्वी, अपने पिता लालू प्रसाद यादव के सामाजिक न्याय के आधार को आर्थिक न्याय के साथ जोड़कर एक नया राजनीतिक विमर्श बनाने की कोशिश कर रहे हैं। तेजस्वी यादव खुद को परिवर्तनकारी नेता के रूप में पेश कर रहे हैं, जो ‘डबल इंजन’ सरकार की कथित विफलता और पुराने जंगलराज के आरोपों का मुकाबला ‘युवा और विजनरी’ नेता की छवि से कर रहे हैं।
बिहार की राजनीति में जातिगत समीकरण हमेशा से ही निर्णायक रहे हैं। इस चुनाव में भी ‘4 C’ (कास्ट, कैंडिडेट, कैश और कोऑर्डिनेशन) फैक्टर महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं। जीतन राम मांझी (HAM) और मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (VIP) जैसे छोटे क्षेत्रीय दल, जो क्रमशः मुसहर और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) के मतदाताओं पर प्रभाव रखते हैं, निर्णायक साबित हो सकते हैं। VIP, जो अब महागठबंधन में है, मिथिलांचल क्षेत्र में अपनी मजबूत पकड़ के कारण गठबंधन को मजबूती दे सकता है।
यादव-मुस्लिम (MY) समीकरण RJD का पारंपरिक आधार है, जबकि NDA कुर्मी-कोइरी के साथ मिलकर अगड़ी जातियों और दलितों के एक हिस्से को साधने की कोशिश कर रहा है।

यह चुनाव केवल गठबंधन की राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जनहित के मुद्दों पर भी लड़ा जा रहा है। तेजस्वी यादव ने 10 लाख सरकारी नौकरियों का अपना पुराना वादा दोहराया है, जो राज्य के युवा मतदाताओं के बीच एक बड़ा चुनावी मुद्दा है। एनडीए ‘जंगलराज’ के आरोपों को फिर से हवा दे रहा है, लेकिन तेजस्वी यादव ने इस बार इसे ‘डबल जंगलराज’ कहकर पलटवार किया है। वे मौजूदा NDA सरकार पर कानून व्यवस्था बनाए रखने में विफल रहने का आरोप लगाया है।

दोनों गठबंधन राज्य में शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे के विकास पर अपने-अपने दावों के साथ मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। शुरुआती सर्वे (2025 की शुरुआत में) NDA को बढ़त दिखाते रहे हैं, लेकिन तेजस्वी की ताबड़तोड़ रैलियों और महागठबंधन के जमीनी प्रचार ने मुकाबला काँटे की टक्कर में बदल दिया है।
बिहार का चुनावी परिणाम बहुत हद तक काँटे की टक्कर में फंसा हुआ दिखता है, जहाँ जीत-हार का फैसला कुछ ही सौ वोटों के अंतर से हो सकता है (जैसा कि 2020 में हिल्सा जैसी सीटों पर हुआ था)।

तेजस्वी यादव के लिए यह चुनाव उनकी राजनीतिक परिपक्वता और नेतृत्व की क्षमता की सबसे बड़ी परीक्षा है। तो यह चुनाव नीतीश कुमार की राजनीतिक विरासत पर एक जनमत संग्रह भी होगा, जिनके बार-बार पाला बदलने की आलोचना हो रही है। एनडीए के भीतर, यह भाजपा की ताकत को भी परखेगा कि क्या वह अपने सहयोगियों पर निर्भरता कम करके खुद को राज्य की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में स्थापित कर सकती है।
इस बार के चुनाव में पहली बार ‘जन सुराज पार्टी ‘ नामक एक नया राजनैतिक दल भी बिहार की राजनीति में अपनी ज़ोरदार उपस्थिति दर्ज करा रहा है।’जन सुराज पार्टी ‘ जैसे किसी नवगठित दल द्वारा अपने पहले ही चुनाव में राज्य की सभी 243 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करना ही अपने आप में बड़ी उपलब्धि है। बड़ी बात यह है कि इस पार्टी के लगभग सभी उम्मीदवार शिक्षित,बुद्धिजीवी,पूर्व नौकर शाह,पूर्व आई ए एस,आई पी एस,वैज्ञानिक,गणितज्ञ तथा शिक्षाविद हैं जबकि चुनाव मैदान में कूदे अन्य पारंपरिक राष्ट्रीय व क्षेत्रीय राजनैतिक दलों के उम्मीदवारों की शिक्षा,उनके आचरण, चरित्र व योग्यता के विषय में कुछ अधिक बताने की ज़रुरत ही नहीं। बहरहाल इस नये नवेले राजनैतिक दल ‘जन सुराज पार्टी ‘ के संस्थापक व अकेले रणनीतिकार व स्टार प्रचारक वही प्रशांत किशोर हैं, जो नरेंद्र मोदी व भाजपा से लेकर देश के अधिकांश राजनैतिक दलों व नेताओं के लिये एक पेशेवर के रूप में चुनावी रणनीति तैयार करने के बारे में जाने जाते हैं। देश के विभिन्न राजनैतिक दलों को अपनी रणनीति का लोहा मनवाने के बाद मूल रूप से बिहार के ही रहने वाले प्रशांत किशोर ने अपनी योग्यता का प्रयोग सर्वप्रथम अपने ही राज्य के विकास के लिये करने का निर्णय लिया और 2022 में बिहार की जनता को जागरूक करने व उन्हें उनकी व पूरे राज्य की बदहाली के मूल कारणों से अवगत कराने के मक़सद से बिहार में ‘जन सुराज अभियान’ चलने की घोषणा की। इस घोषणा के बाद ही उन्होंने राज्य में लगभग 3,000 किलोमीटर की पदयात्रा भी की। देखना है कि बिहार की राजनीति में यह कितना परिवर्तन लाने में सफल होते हैं।

संक्षेप में, बिहार 2025 का चुनाव स्थिरता बनाम परिवर्तन, अनुभव बनाम युवा ऊर्जा, और पुराने जातिगत आधार बनाम नए आर्थिक विमर्श के बीच का संघर्ष है। मतगणना के दिन तक, राज्य की 243 सीटों पर अनिश्चितता का माहौल बना रहेगा।
अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

शिक्षित वर्ग में जातीय पूर्वाग्रह का स्थायित्व

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संविधान ने समानता और सामाजिक न्याय के आदर्शों को स्थापित किया, परंतु भारतीय समाज में जाति चेतना अभी भी गहराई से विद्यमान है। शिक्षित और शहरी वर्गों में यह चेतना प्रत्यक्ष भेदभाव के बजाय सूक्ष्म रूपों में प्रकट होती है—जैसे रोजगार, विवाह और सामाजिक नेटवर्क में। आर्थिक प्रगति और आधुनिकता ने जाति को कमजोर किया है, पर समाप्त नहीं किया। व्यावसायिक क्षेत्रों में जातीय सामाजिक पूँजी अब भी अवसरों और संपर्कों को प्रभावित करती है। जब तक मानसिकता और व्यवहार में समानता स्थापित नहीं होती, तब तक संवैधानिक समानता का आदर्श अधूरा रहेगा।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

भारतीय समाज की संरचना में जाति एक ऐसी संस्था रही है जिसने व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक उसके जीवन को प्रभावित किया है। संविधान निर्माताओं ने एक ऐसे भारत का सपना देखा था जहाँ व्यक्ति की पहचान उसकी योग्यता, नैतिकता और कर्म पर आधारित हो, न कि जन्मजात सामाजिक वर्ग पर। इसी उद्देश्य से संविधान में समानता का अधिकार, अवसरों की समानता, और अस्पृश्यता के उन्मूलन जैसी कई सुरक्षा धाराएँ जोड़ी गईं। किंतु सात दशक से अधिक बीत जाने के बाद भी यह स्वीकार करना होगा कि जाति की चेतना केवल गाँवों तक सीमित नहीं रही; उसने शिक्षित, शहरी और व्यावसायिक तबकों में भी अपने रूप बदले हुए स्वरूप में अस्तित्व बनाए रखा है।

संविधान ने अनुच्छेद 14 से 17 के माध्यम से स्पष्ट रूप से सभी नागरिकों को समानता और सम्मान का अधिकार दिया। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने इसे केवल विधिक समानता का नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक समानता का माध्यम बताया था। उन्होंने चेतावनी दी थी कि यदि सामाजिक असमानता बनी रही तो राजनीतिक समानता टिक नहीं सकेगी। यह चेतावनी आज भी प्रासंगिक प्रतीत होती है, क्योंकि कानून की शक्ति के बावजूद समाज की मानसिकता में गहराई से जमी जाति-आधारित सोच पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाई है।

शिक्षा को सामाजिक चेतना का वाहक माना जाता है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से शिक्षित वर्ग में भी जातीय पूर्वाग्रह सूक्ष्म और परिष्कृत रूपों में जीवित हैं। विश्वविद्यालयों और पेशेवर संस्थानों में प्रवेश के दौरान, सहकर्मी संबंधों में या सामाजिक नेटवर्किंग में अक्सर जाति एक अनकही पहचान के रूप में उपस्थित रहती है। ‘मेरिट’ की चर्चा करते हुए कई बार लोग आरक्षण नीति को लेकर पूर्वाग्रह रखते हैं और यह मान बैठते हैं कि आरक्षित वर्गों के लोग स्वाभाविक रूप से कम योग्य हैं। यह धारणा आधुनिक भारत के शिक्षित तबके में भी समानता के सिद्धांत को चुनौती देती है।

शहरीकरण और औद्योगीकरण को जातीय सीमाओं को तोड़ने वाला माना गया था। परंतु व्यवहार में देखा जाए तो शहरों में भी जातीय चेतना नई संरचनाओं में पुनर्जीवित हुई है। उदाहरण के लिए, महानगरों में भी अधिकांश लोग अपने ही जाति-समूहों में विवाह करते हैं। ‘मैट्रिमोनी वेबसाइट्स’ पर जाति और उपजाति आज भी प्रमुख फिल्टर के रूप में मौजूद हैं। इसका अर्थ यह है कि आर्थिक प्रगति और आधुनिकता ने बाहरी व्यवहार को तो बदला है, परंतु सामाजिक मनोविज्ञान अब भी जाति के घेरे से मुक्त नहीं हो सका है।

व्यावसायिक क्षेत्रों में भी जाति की उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता। पारंपरिक रूप से व्यापार और व्यवसाय कुछ खास जातियों के वर्चस्व में रहे हैं, और आधुनिक कॉर्पोरेट ढाँचे में भी यह प्रवृत्ति अप्रत्यक्ष रूप से जारी है। नेटवर्किंग, निवेश और अवसरों तक पहुँच में जातीय सामाजिक पूँजी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उदाहरणस्वरूप, किसी व्यापारिक समुदाय के सदस्य एक-दूसरे को व्यवसायिक सहयोग देना अधिक सहज समझते हैं। इसी तरह नौकरियों में भर्ती या पदोन्नति के दौरान ‘सांस्कृतिक मेल’ या ‘नेटवर्क फिट’ जैसे अस्पष्ट मानदंडों के तहत कई बार सामाजिक पूर्वाग्रह सक्रिय रहते हैं।

राजनीतिक रूप से भी जाति चेतना ने आधुनिक लोकतंत्र में नई ऊर्जा प्राप्त की है। शहरी मध्यम वर्ग स्वयं को अक्सर जाति से ऊपर बताता है, लेकिन चुनावों के दौरान वही वर्ग जातिगत पहचान के आधार पर अपनी निष्ठा तय करता दिखाई देता है। जातीय संगठन, छात्र संघ और पेशेवर एसोसिएशन अब अपनी जातिगत पहचान को अधिकारों की माँग से जोड़ रहे हैं। इस तरह जाति अब केवल सामाजिक संस्था नहीं रही, बल्कि यह ‘राजनीतिक संसाधन’ और ‘सामाजिक पूँजी’ का रूप ले चुकी है।

भारत में शहरी क्षेत्रों में जाति का यह रूप प्रकट भेदभाव की अपेक्षा सांकेतिक भेदभाव के रूप में उभरता है। किसी को उसकी जाति के कारण सीधे अपमानित करना अब कानूनन अपराध है, परंतु सूक्ष्म रूपों में यह मानसिकता सामाजिक जीवन में व्याप्त रहती है। उदाहरण के लिए, किसी कर्मचारी के सामाजिक पृष्ठभूमि का उपहास करना, आरक्षण को लेकर तंज कसना, या सहकर्मी के साथ सामाजिक दूरी बनाकर रखना — ये सब जाति-आधारित पूर्वाग्रह के ही रूप हैं।

डिजिटल युग में जातीय चेतना ने एक नया माध्यम प्राप्त किया है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर जातीय समूहों के पेज, संगठन और समुदाय अपने गौरव और इतिहास का प्रचार करते हैं। यह सांस्कृतिक आत्मसम्मान का प्रतीक हो सकता है, लेकिन कई बार यह प्रतिस्पर्धात्मक जातीयता में बदल जाता है, जिससे समाज में नये विभाजन पैदा होते हैं। ‘हम’ बनाम ‘वे’ की मानसिकता अब वर्चुअल दुनिया में भी कायम है।

आर्थिक उदारीकरण के बाद माना गया था कि वैश्विक बाजार और निजी क्षेत्र में योग्यता ही सर्वोपरि होगी। परंतु 1990 के दशक से लेकर आज तक के अध्ययन यह दर्शाते हैं कि कॉर्पोरेट सेक्टर में भी दलित और पिछड़े वर्गों की भागीदारी अपेक्षाकृत कम है। निजी क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान नहीं होने के कारण यह असमानता और बढ़ी है। परिणामस्वरूप, आधुनिकता और बाजारवाद ने समान अवसरों का भ्रम तो दिया, परंतु जातीय असमानता की वास्तविकता को समाप्त नहीं कर पाया।

शहरी मध्यम वर्ग का एक बड़ा हिस्सा जाति को औपचारिक रूप से अस्वीकार करता है, परंतु अनौपचारिक जीवन में यह वर्ग जाति-संबंधी पहचानों का उपयोग करता है। यह विरोधाभास आधुनिक भारत की सामाजिक जटिलता को दर्शाता है। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति कार्यालय में स्वयं को उदारवादी बताता है, लेकिन विवाह के लिए अपने बच्चों के लिए जाति आधारित विकल्प ही स्वीकार करता है। इस दोहरे व्यवहार से स्पष्ट होता है कि जाति का सामाजिक प्रभाव अब भी जीवन के सबसे निजी निर्णयों तक पहुँचा हुआ है।

जातीय चेतना की निरंतरता का एक कारण यह भी है कि समाज में जाति अब केवल उत्पीड़न का प्रतीक नहीं, बल्कि पहचान और समुदाय के सहारे के रूप में भी देखी जाने लगी है। विशेषकर आरक्षण और सामाजिक न्याय की राजनीति के बाद वंचित समूहों ने जाति को अपने अधिकारों की रक्षा का माध्यम बनाया है। इससे जाति का एक ‘सकारात्मक विमर्श’ भी उभरा है, जो आत्मसम्मान और प्रतिनिधित्व की बात करता है। किंतु इस प्रक्रिया में जाति की सीमाएँ पूरी तरह समाप्त नहीं हुईं, बल्कि उनका रूपांतर हो गया।

सामाजिक वैज्ञानिकों का मानना है कि भारतीय शहरी समाज में अब जाति एक “रिसोर्स नेटवर्क” बन चुकी है। यह पारंपरिक बंधन से निकलकर आधुनिक संपर्क माध्यम बन गई है। नौकरी, व्यवसाय या राजनीति में यह अब भी विश्वास, सहयोग और संसाधनों के वितरण का आधार है। इससे यह स्पष्ट होता है कि आधुनिकता ने जाति को खत्म नहीं किया, बल्कि उसे नए रूप में ढाल दिया।

संवैधानिक सुरक्षा उपायों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करते समय यह भी समझना आवश्यक है कि कानून केवल ढाँचा प्रदान कर सकता है, लेकिन सामाजिक चेतना का परिवर्तन धीरे-धीरे ही होता है। शिक्षा और आर्थिक प्रगति ने जातीय असमानता को चुनौती दी है, परंतु सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन की गति धीमी है। जब तक सामाजिक सम्मान, अवसर और पहचान का आधार व्यक्ति की व्यक्तिगत योग्यता न होकर समूहगत पहचान रहेगी, तब तक जातीय चेतना बनी रहेगी।

समाजशास्त्री आंद्रे बेतिए, एम.एन. श्रीनिवास और गोपीनाथ मोहंती जैसे विचारकों ने बार-बार यह बताया कि भारत में शहरीकरण का अर्थ पारंपरिक ढाँचों का पूर्ण विघटन नहीं, बल्कि उनका पुनर्संयोजन है। यानी, गाँव की जाति व्यवस्था का बाहरी रूप भले टूटे, पर उसकी मानसिकता शहर में नए रूप में पुनः निर्मित हो जाती है। यही कारण है कि आईटी सेक्टर, मीडिया, शिक्षा, और चिकित्सा जैसे आधुनिक क्षेत्रों में भी जाति से जुड़ी असमानताएँ सूक्ष्म रूपों में विद्यमान हैं।

जातीय चेतना की यह निरंतरता भारतीय लोकतंत्र के लिए एक चुनौती भी है और अवसर भी। चुनौती इसलिए कि यह समानता और सामाजिक न्याय के आदर्शों को सीमित करती है, और अवसर इसलिए कि इस चेतना को सामाजिक न्याय के व्यापक विमर्श में बदला जा सकता है। यदि जाति का प्रयोग उत्पीड़न के बजाय प्रतिनिधित्व और सहयोग के साधन के रूप में किया जाए, तो यह सामाजिक सामंजस्य को बल दे सकती है।

आगे का मार्ग शिक्षा, संवेदनशीलता और नीति-निर्माण के संयोजन में निहित है। विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में सामाजिक विविधता और समानता पर आधारित मूल्य शिक्षा को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। कार्यस्थलों पर विविधता को बढ़ावा देने के लिए एथिक्स कोड, समान अवसर आयोग और असमानता पर स्वतंत्र ऑडिट प्रणाली जैसी व्यवस्थाएँ उपयोगी हो सकती हैं। मीडिया और जनसंचार माध्यमों को भी जातीय रूढ़ियों को तोड़ने और समानता के आदर्श को प्रचारित करने में सक्रिय भूमिका निभानी होगी।

भारत का संविधान केवल विधि का दस्तावेज नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का घोषणापत्र है। इसकी भावना यह कहती है कि व्यक्ति का मूल्य उसके कर्म से आँका जाए, न कि उसके जन्म से। आज आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षित और कार्यरत वर्ग — जो समाज में अनुकरणीय भूमिका निभाता है — वह स्वयं इस परिवर्तन का नेतृत्व करे। जब तक सामाजिक सम्मान, अवसर और व्यवहार में जाति की भूमिका समाप्त नहीं होगी, तब तक समानता का सपना अधूरा रहेगा।

अंततः कहा जा सकता है कि भारत का समाज परिवर्तनशील है, किंतु जाति चेतना उसकी सबसे गहरी जड़ है। संविधान ने हमें दिशा दी, लेकिन सामाजिक यथार्थ ने अब तक उस दिशा में पूर्ण यात्रा नहीं की। शहरीकरण, शिक्षा और रोजगार ने जाति को कमजोर अवश्य किया है, परंतु उसका प्रभाव अभी समाप्त नहीं हुआ। आधुनिक भारत की सबसे बड़ी जिम्मेदारी यह है कि वह कानून और व्यवहार, दोनों में समानता का आदर्श साकार करे। तभी हम उस भारत की कल्पना को साकार कर पाएँगे जहाँ व्यक्ति की पहचान उसकी जाति नहीं, बल्कि उसकी मानवीयता होगी।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार

अब शादी के कार्ड के नाम पर मोबाइल हैकिंग नया जाल

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आजकल तो सब कुछ मोबाइल और इंटरनेट से हो रहा है। शादी-ब्याह का न्यौता हो या कोई जरूरी खबर, बस एक क्लिक में पहुँच जाती है, लेकिन अब इसी सुविधा का फायदा उठा रहे हैं साइबर अपराधी। लोगों के भरोसे और भावनाओं को हथियार बनाकर अब वो शादी से जुड़ी पीडीएफ फाइलों के जरिए मोबाइल हैक कर रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से एक चेतावनी खूब घूम रही है कि किसी भी शादी से जुड़ी पीडीएफ फाइल को मत खोलना, वरना मोबाइल हैक हो जाएगा। शुरू में ये बात किसी फेक मैसेज जैसी लगती है, लेकिन असलियत में मामला काफी गंभीर है। अब अपराधी शादी का कार्ड, विवाह का निमंत्रण पत्र, हमारे विवाह में आमंत्रित हैं, जैसे भरोसेमंद नामों से पीडीएफ या लिंक भेज रहे हैं। जैसे ही कोई व्यक्ति वह फाइल खोलता है, मोबाइल में वायरस या स्पायवेयर एक्टिव हो जाता है। फिर वही वायरस मोबाइल का डेटा चुराता है, कैमरा-माइक तक पहुंच बना लेता है, बैंकिंग ऐप्स और ओटीपी तक निगल जाता है। कई बार तो पूरा मोबाइल हैंग या लॉक हो जाता है। खतरा यहीं खत्म नहीं होता। कई बार ऐसे वायरस अपने आप आपके कांटैक्ट्स को भी वही फाइल भेज देते हैं, जिससे आपके दोस्तों और रिश्तेदारों तक भी यह जाल पहुँच जाता है। अपराधी जानते हैं कि शादी का नाम सुनते ही कोई भी व्यक्ति भरोसा कर लेता है कि जरूर किसी परिचित का कार्ड होगा। इसी भरोसे का गलत फायदा उठाकर साइबर ठग मोबाइल और निजी जानकारी लूट लेते हैं।भारत में पहले भी ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं, जहाँ
सरकारी योजना, लोन अप्रूवल, लकी ड्रॉ या शादी का कार्ड के नाम पर लोगों के फोन और बैंक अकाउंट साफ़ किए गए। अब जरूरी है कि हम सब मिलकर थोड़ा सावधान रहें और दूसरों को भी सतर्क करें। अगर किसी फाइल पर शक हो तो सबसे पहले यह देखें कि भेजने वाला नंबर या ईमेल पहचान में आता है या नहीं। अनजान नंबर या मेल से आई फाइल कभी न खोलें। असली पीडीएफ फाइल का नाम हमेशा .pdf पर खत्म होता है, जबकि नकली फाइल में बीच में अजीब से निशान या कोड होते हैं। अगर किसी संदेश में लिखा है कि जल्दी खोलिए, कन्फर्म करिए, या तुरंत जवाब दीजिए तो समझ लीजिए कुछ गड़बड़ है। शादी का कार्ड देखने के लिए पासवर्ड या ओटीपी की जरूरत नहीं होती, इसलिए ऐसे किसी झांसे में न आएं। बचाव के आसान तरीके भी हैं कि मोबाइल में भरोसेमंद सिक्योरिटी ऐप रखें, ऑटो डाउनलोड फीचर बंद करें ताकि फाइल खुद न खुले, मोबाइल और ऐप्स को समय-समय पर अपडेट करते रहें। अनजान लिंक या फाइल पर क्लिक न करें, जरूरत पड़ने पर पासवर्ड बदलें और मोबाइल रीसेट करें। बैंकिंग ऐप्स को बायोमेट्रिक या लॉक से सुरक्षित रखें, और गूगल, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम जैसी जगहों पर दो-स्तरीय सुरक्षा (Two-Step Verification) जरूर लगाएं।आख़िर में यही कहा जा सकता है कि अब मोबाइल सबके हाथ में है, लेकिन साइबर समझ बहुत कम है। शादी, रिश्तेदारी या समारोह के नाम पर आने वाली फाइलें भरोसे की लगती हैं, मगर इनमें जाल भी बिछा हो सकता है। इसलिए खुद भी सतर्क रहें और अपने परिवार, दोस्तों, बच्चों-बुजुर्गों को भी समझाएं कि कोई भी अनजान फाइल या लिंक बिना जांचे न खोलें। डिजिटल दुनिया सुविधाजनक ज़रूर है, मगर सुरक्षित तभी है जब हम समझदारी और सावधानी से इसका इस्तेमाल करें। अपनों को भी बताइए सावधान रहिए, साइबर जाल से बचिए।

भूपेन्द्र शर्मा सोनू
(स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक)

छत्तीसगढ़ में 21 माओवादी का समर्पण

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छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में माओवादी विरोधी अभियान को एक बड़ी सफलता मिली है। केशकाल संभाग (उत्तर उप-क्षेत्रीय ब्यूरो) की कुएमारी/किस्कोडो एरिया कमेटी के कुल 21 माओवादियों ने आत्मसमर्पण कर दिया है। इन माओवादियों में संभाग समिति सचिव मुकेश भी शामिल हैं। आत्मसमर्पण करने वाले इन माओवादियों ने 18 हथियार भी सौंपे हैं। हथियारों में उच्च क्षमता वाली स्वचालित राइफलें शामिल हैं।

आत्मसमर्पण करने वाले 21 माओवादियों में 13 महिला और आठ पुरुष शामिल हैं। इन आत्मसमर्पित माओवादियों में 4 डीवीसीएम (DVCM), 9 एसीएम (ACM), और 8 अन्य गुट के सदस्य शामिल हैं। कार्यकर्ताओं ने सुरक्षा बलों के सामने भारी मात्रा में हथियार भी जमा किए, जिनकी कुल संख्या 18 है। इन हथियारों में 3 एके-47 राइफलें, 4 एसएलआर राइफलें, 2 इंसास राइफलें, 6 .303 राइफलें, 2 सिंगल शॉट राइफलें और 1 बीजीएल हथियार शामिल हैं।

बस्तर के आईजी पी. सुंदरराज ने इस घटनाक्रम को निर्णायक कदम बताया। आईजी सुंदरराज ने कहा, ‘कांकेर जिले में 21 और माओवादी स्वेच्छा से मुख्यधारा में लौट आए। यह वामपंथी उग्रवादी प्रभाव को रोकने, सामुदायिक विश्वास बनाने और बस्तर में शांति एवं विकास को बढ़ावा देने के हमारे प्रयासों में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है।’

उन्होंने बताया कि इन 21 माओवादियों के पुनर्वास और पुन: एकीकरण की प्रक्रिया चल रही है, जो एक सुरक्षित, समावेशी और प्रगतिशील समाज के प्रति पुलिस की प्रतिबद्धता को दर्शाती है। आईजी ने शेष माओवादी कार्यकर्ताओं से शांति का मार्ग चुनने और समाज में लौटने का आग्रह किया है, अन्यथा ‘परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहने’ की चेतावनी भी दी है

जन सुराज : वैकल्पिक राजनीति का नया दर्शन ? 

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                                                                 तनवीर जाफ़री

 पूरे देश की निगाहें इस समय बिहार विधान सभा के होने जा रहे आम चुनावों पर लगी हुई हैं। इन चुनावों में जहां देश व राज्य के अनेक पारंपरिक राष्ट्रीय व क्षेत्रीय राजनैतिक दल चुनाव मैदान में सत्ता अथवा विपक्ष के किसी न किसी गठबंधन के साथ मिलकर बिहार का ‘भाग्य बदलने’ के नाम पर ख़ुद अपना भाग्य आज़मा रहे हैं वहीँ इस बार के चुनाव में पहली बार ‘जन सुराज पार्टी ‘ नामक एक नया राजनैतिक दल भी बिहार की राजनीति में अपनी ज़ोरदार उपस्थिति दर्ज करा रहा है।’जन सुराज पार्टी ‘ जैसे किसी नवगठित दल द्वारा अपने पहले ही चुनाव में राज्य की सभी 243 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करना ही अपने आप में बड़ी उपलब्धि है। और इससे भी बड़ी बात यह है कि इस पार्टी के लगभग सभी उम्मीदवार शिक्षित,बुद्धिजीवी,पूर्व नौकर शाह,पूर्व आई ए एस,आई पी एस,वैज्ञानिक,गणितज्ञ तथा शिक्षाविद हैं जबकि चुनाव मैदान में कूदे अन्य पारंपरिक राष्ट्रीय व क्षेत्रीय राजनैतिक दलों के उम्मीदवारों की शिक्षा,उनके आचरण, चरित्र व योग्यता के विषय में कुछ अधिक बताने की ज़रुरत ही नहीं। 

                           बहरहाल इस नये नवेले राजनैतिक दल ‘जन सुराज पार्टी ‘ के संस्थापक व अकेले रणनीतिकार व स्टार प्रचारक वही प्रशांत किशोर हैं जो नरेंद्र मोदी व भाजपा से लेकर देश के अधिकांश राजनैतिक दलों व नेताओं के लिये एक पेशेवर के रूप में चुनावी रणनीति तैयार करने के बारे में जाने जाते हैं। पूर्व में वे संयुक्त राष्ट्र समर्थित एक सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रम में आठ वर्षों तक कार्य कर चुके हैं। देश के विभिन्न राजनैतिक दलों को अपनी रणनीति का लोहा मनवाने के बाद मूल रूप से बिहार के ही रहने वाले प्रशांत किशोर ने अपनी योग्यता का प्रयोग सर्वप्रथम अपने ही राज्य के विकास के लिये करने का निर्णय लिया और 2022 में बिहार की जनता को जागरूक करने व उन्हें उनकी व पूरे राज्य की बदहाली के मूल कारणों से अवगत कराने के मक़सद से बिहार में ‘जन सुराज अभियान’ चलने की घोषणा की। इस घोषणा के बाद ही उन्होंने राज्य में लगभग 3,000 किलोमीटर की पदयात्रा भी की। इस पदयात्रा के दौरान उन्होंने राज्य की आम जनता से सीधा संवाद स्थापित किया। इसी ‘जन सुराज अभियान’ से ही उनके नये राजनैतिक दल का नाम ‘जन सुराज पार्टी’ निकला।  

                           बहरहाल देश के बड़े से बड़े राजनैतिक दिग्गजों के लिये रणनीति तैयार करने वाले प्रशांत किशोर स्वयं अपने लिये कैसी सफल रणनीति बना रहे हैं उसी का परिणाम है कि उन्हें न केवल ‘गोदी मीडिया ‘ भी पूरी तवज्जोह दे रहा है बल्कि वे सत्ता व विपक्षी महागठबंधन के दाग़दार नेताओं पूर्व की उनकी असफल नीतियों यहाँ तक कि राज्य की बदहाली तक के लिये इसी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन व महागठबंधन के दलों को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। राज्य के विकास के लिये प्रशांत किशोर मुफ़्त की रेवड़ियों या शराब बंदी जैसी नीतियों को नहीं बल्कि केवल शिक्षा को ही पहली ज़रुरत मान रहे हैं। राज्य की सभी 243 सीटों के लिये अपने पहले चुनाव में योग्य व शिक्षित प्रत्याशी उतारना बल्कि कई सीटों पर तो अनेक योग्य उम्मीदवारों द्वारा चुनाव लड़ने के लिये एक साथ दावा पेश किया जाना भी प्रशांत किशोर की चुनावी रणनीति की बड़ी सफलता है। 

                          वे सोशल मीडिया पर भी अन्य राजनैतिक दलों से अधिक छाये हुये हैं। उन्होंने विभिन्न टीवी चैनल्स व यू ट्यूबर्स को अब तक जितने साक्षात्कार दे डाले हैं उतने तो शायद सत्ता व विपक्ष के नेताओं ने भी अब तक नहीं दिये। वे अपने साक्षात्कार में अपने विरोधी दलों के अनेक नेताओं को बेनक़ाब कर उनकी आपराधिक व शैक्षिक पृष्ठभूमि को उजागर कर रहे हैं। प्रशांत किशोर बड़े ही स्पष्ट अंदाज़ में बिहार की बदहाली व पिछड़ेपन के लिये जहाँ पूर्व की सत्ता व नेताओं को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं वहीँ राज्य के उन मतदाताओं को भी आइना दिखा रहे हैं जो मुफ़्त के राशन अथवा धर्म जाति के नाम पर वोट कर भ्र्ष्ट व अयोग्य उम्मीदवारों का चुनाव करती रही है।

                        राजनैतिक विश्लेषक हालांकि बिहार के चुनावी रण में ‘जन सुराज पार्टी’ के उतरने को लेकर तरह तरह के क़यास लगा रहे हैं। कुछ लोगों का मानना है कि ‘जन सुराज पार्टी’ भी असद्दुदीन ओवैसी की ए आई एम आई एम की ही तरह राज्य में वोट काटने वाली पार्टी साबित होगी और इसका लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिलेगा। जबकि कुछ का मानना है कि केवल एन डी ए ही नहीं बल्कि जन सुराज पार्टी विपक्षी महागठबंधन को भी नुक़सान पहुंचाएगी। उधर प्रशांत किशोर अपना सीधा मुक़ाबला सत्ता रूढ़ एन डी ए से ही बता रहे हैं परन्तु साथ ही उनका यह भी कहना है कि चुनाव परिणाम ही फ़ैसला करेंगे कि उनकी पार्टी अर्श पर होगी या फ़र्श पर। जबकि राजनैतिक विश्लेषकों का एक वर्ग ऐसा भी है जो ‘जन सुराज पार्टी’ की तुलना आम आदमी पार्टी से करते हुये इसके वर्तमान तेवर के साथ ही संभावित भविष्य को भी देख रहा है। 

                     जो भी हो मगर अपनी योग्यता का लोहा मनवाने के बाद अपने कुशल रणनीतिकार के पेशे को त्यागकर अपनी ही कमाई गयी पूँजी को दांव पर लगाकर बिहार व बिहार वासियों के भविष्य की चिंता में राज्य की गली गली में धूल मिट्टी व कीचड़ में घूमकर राज्य की ख़ुशहाली की बातें करना वह भी बिना किसी धर्म जाति व समुदाय की बात किये हुये तथा बिना मुफ़्त की रेवड़ी की लालच दिये, अपने आप में ही बड़ी बात है। वह भी उस बिहार राज्य में जोकि ग़रीबी के साथ साथ अपनी जातिवादी राजनीति के लिये भी प्रसिद्ध हो ? इसमें कोई शक नहीं कि देश को शिक्षित,ज्ञानवान,राष्ट्र हितकारी,धर्म व सम्प्रदाय व जाति से ऊपर उठकर सोचने वाले तथा स्वच्छ छवि रखने वाले नेताओं की ज़रुरत है। आज यदि कोई अनपढ़,अज्ञानी व साम्प्रदायिकतावादी व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री बन जाये कोई अपराधी व्यक्ति देश का गृह मंत्री या मुख्य मंत्री बन जाये अशिक्षित व्यक्ति शिक्षा मंत्री बन जाये कोई लुच्चा,लफ़ंगा,बलात्कारी,गैंगस्टर हमारा जनप्रतिनिधि बन जाये तो इससे बढ़कर शर्मिन्दिगी व वैश्विक स्तर पर बदनामी की बात हमारे देश के लिये और क्या हो सकती है ? 

                    यदि भारतीय राजनीति का वातविक चेहरा इतना भयावह व दाग़दार न होता तो केंद्रीय विद्युत व ऊर्जा मंत्री आर के सिंह को पिछले दिनों अपनी ही पार्टी भाजपा के प्रत्याशी व बिहार के उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी व मोकामा से जेडीयू की ओर से एनडीए उम्मीदवार व बाहुबली नेता अनंत सिंह का नाम लेते हुये राज्य की जनता के नाम यह वीडिओ सन्देश जारी न करना पड़ता जिसमें उन्होंने दीवाली की शुभकामनाएं देते हुए मतदाताओं से अपील की थी कि -‘अपराधी या भ्रष्टाचार के आरोपी सम्राट चौधरी व अनंत सिंह जैसे उम्मीदवारों को वोट न दें, भले ही वे किसी की जाति के हों।’ उन्होंने इसी सन्देश में यह सुझाव भी दिया कि यदि सभी उम्मीदवार ऐसे हैं, तो NOTA दबाएं। आर.के. सिंह ने यहां तक कहा कि ऐसे उम्मीदवार को वोट देने का अर्थ है “चुल्लू भर पानी में डूब मरना”। इसीलिये रसातल में जा रही राजनीति के वर्तमान दौर में यह सोचना पड़ रहा है कि जन सुराज पार्टी क्या वैकल्पिक राजनीति का नया ‘दर्शन’ साबित हो सकेगा ? 

     −तनवीर जाफ़री

वरिष्ठ पत्रकार

निडर और निष्पक्ष पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी

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आज जिनका जन्मदिन है
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गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 में अपने ननिहाल प्रयाग में हुआ था। वे एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार तो थे ही, इसके साथ ही वे एक समाज-सेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। भारत के ‘स्वाधीनता संग्राम’ में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था।

अपनी बेबाकी और अलग अंदाज़ से दूसरों के मुँह पर ताला लगाना एक बेहद मुश्किल काम होता है। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेशशंकर विद्यार्थी भी ऐसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेज़ी शासन की नींव हिला दी थी। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आज़ादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे।

इनके पिता का नाम श्री जयनारायण था। पिता एक स्कूल में अध्यापक के पद पर नियुक्त थे और उर्दू तथा फ़ारसी ख़ूब जानते थे। गणेशशंकर विद्यार्थी की शिक्षा-दीक्षा मुंगावली (ग्वालियर) में हुई थी। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फ़ारसी का अध्ययन किया।

गणेशशंकर विद्यार्थी अपनी आर्थिक कठिनाइयों के कारण एण्ट्रेंस तक ही पढ़ सके। किन्तु उनका स्वतंत्र अध्ययन अनवरत चलता ही रहा। अपनी मेहनत और लगन के बल पर उन्होंने पत्रकारिता के गुणों को खुद में भली प्रकार से सहेज लिया था। शुरु में गणेश शंकर जी को सफलता के अनुसार ही एक नौकरी भी मिली थी, लेकिन उनकी अंग्रेज़ अधिकारियों से नहीं पटी, जिस कारण उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी।

इसके बाद कानपुर में गणेश जी ने करेंसी ऑफ़िस में नौकरी की, किन्तु यहाँ भी अंग्रेज़ अधिकारियों से इनकी नहीं पटी। अत: यह नौकरी छोड़कर अध्यापक हो गए। महावीर प्रसाद द्विवेदी इनकी योग्यता पर रीझे हुए थे। उन्होंने विद्यार्थी जी को अपने पास ‘सरस्वती’ के लिए बुला लिया। विद्यार्थी जी की रुचि राजनीति की ओर पहले से ही थी। यह एक ही वर्ष के बाद ‘अभ्युदय’ नामक पत्र में चले गये और फिर कुछ दिनों तक वहीं पर रहे। इसके बाद सन 1907 से 1912 तक का इनका जीवन अत्यन्त संकटापन्न रहा। इन्होंने कुछ दिनों तक ‘प्रभा’ का भी सम्पादन किया था। 1913, अक्टूबर मास में ‘प्रताप’ (साप्ताहिक) के सम्पादक हुए। इन्होंने अपने पत्र में किसानों की आवाज़ बुलन्द की।

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं पर विद्यार्थी जी के विचार बड़े ही निर्भीक होते थे। विद्यार्थी जी ने देशी रियासतों की प्रजा पर किये गये अत्याचारों का भी तीव्र विरोध किया। गणेशशंकर विद्यार्थी कानपुर के लोकप्रिय नेता तथा पत्रकार, शैलीकार एवं निबन्ध लेखक रहे थे। यह अपनी अतुल देश भक्ति और अनुपम आत्मोसर्ग के लिए चिरस्मरणीय रहेंगे। विद्यार्थी जी ने प्रेमचन्द की तरह पहले उर्दू में लिखना प्रारम्भ किया था। उसके बाद हिन्दी में पत्रकारिता के माध्यम से वे आये और आजीवन पत्रकार रहे। उनके अधिकांश निबन्ध त्याग और बलिदान सम्बन्धी विषयों पर आधारित हैं। इसके अतिरिक्त वे एक बहुत अच्छे वक्ता भी थे।

पत्रकारिता के साथ-साथ गणेशशंकर विद्यार्थी की साहित्यिक अभिरुचियाँ भी निखरती जा रही थीं। आपकी रचनायें ‘सरस्वती’, ‘कर्मयोगी’, ‘स्वराज्य’, ‘हितवार्ता’ में छपती रहीं। आपने ‘सरस्वती‘ में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में काम किया था। हिन्दी में “शेखचिल्ली की कहानियाँ” आपकी देन है। “अभ्युदय” नामक पत्र जो कि इलाहाबाद से निकलता था, से भी विद्यार्थी जी जुड़े। गणेश शंकर विद्यार्थी ने अंततोगत्वा कानपुर लौटकर “प्रताप” अखबार की शुरूआत की। ‘प्रताप’ भारत की आज़ादी की लड़ाई का मुख-पत्र साबित हुआ। कानपुर का साहित्य समाज ‘प्रताप’ से जुड़ गया। क्रान्तिकारी विचारों व भारत की स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया था-प्रताप। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रेरित गणेशशंकर विद्यार्थी ‘जंग-ए-आज़ादी’ के एक निष्ठावान सिपाही थे। महात्मा गाँधी उनके नेता और वे क्रान्तिकारियों के सहयोगी थे। सरदार भगत सिंह को ‘प्रताप’ से विद्यार्थी जी ने ही जोड़ा था। विद्यार्थी जी ने राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा प्रताप में छापी, क्रान्तिकारियों के विचार व लेख प्रताप में निरन्तर छपते रहते।

गणेशशंकर विद्यार्थी की भाषा में अपूर्व शक्ति है। उसमें सरलता और प्रवाहमयता सर्वत्र मिलती है। विद्यार्थी जी की शैली में भावात्मकता, ओज, गाम्भीर्य और निर्भीकता भी पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है। उसमें आप वक्रता प्रधान शैली ग्रहण कर लेते हैं। जिससे निबन्ध कला का ह्रास भले होता दिखे, किन्तु पाठक के मन पर गहरा प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। उनकी भाषा कुछ इस तरह की थी, जो हर किसी के मन पर तीर की भांति चुभती थी। ग़रीबों की हर छोटी से छोटी परेशानी को वह अपनी कलम की ताकत से दर्द की कहानी में बदल देते थे।

विद्यार्थी जी का बचपन विदिशा और मुंगावली में बीता। किशोर अवस्था में उन्होंने समाचार पत्रों के प्रति अपनी रुचि को जाहिर कर दिया था। वे उन दिनों प्रकाशित होने वाले भारत मित्र, बंगवासी जैसे अन्य समाचार पत्रों का गंभीरता पूर्वक अध्ययन करते थे। इसका असर यह हुआ कि पठन-पाठन के प्रति उनकी रुचि दिनों दिन बढ़ती गई। उन्होंने अपने समय के विख्यात विचारकों वाल्टेयर, थोरो, इमर्सन, जान स्टुअर्ट मिल, शेख सादी सहित अन्य रचनाकारों की कृतियों का अध्ययन किया। वे लोकमान्य तिलक के राष्ट्रीय दर्शन से बेहद प्रभावित थे। महात्मा गांधी ने उन दिनों अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अहिंसात्मक आंदोलन की शुरूआत की थी, जिससे विद्यार्थी जी सहमत नहीं थे, क्योंकि वे स्वभाव से उग्रवादी विचारों के थे।

विद्यार्थी जी ने मात्र 16 वर्ष की अल्प आयु में ‘हमारी आत्मोसर्गता’ नामक एक किताब लिख डाली थी। वर्ष 1911 में भारत के चर्चित समाचार पत्र ‘सरस्वती’ में उनका पहला लेख ‘आत्मोसर्ग’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था, जिसका संपादक हिन्दी के उद्भट, विद्धान, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया जाता था। वे द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं विचारों से प्रभावित होकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आये। श्री द्विवेदी के सान्निध्य में सरस्वती में काम करते हुए उन्होंने साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति अपना रुझान बढ़ाया। इसके साथ ही वे महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के पत्र ‘अभ्युदय’ से भी जुड़ गये। इन समाचार पत्रों से जुड़े और स्वाधीनता के लिए समर्पित पंडित मदन मोहन मालवीय, जो कि राष्ट्रवाद की विचारधारा का जन जन में प्रसार कर सके।

अपने सहयोगियों एवं वरिष्ठजनों से सहयोग मार्गदर्शन का आश्वासन पाकर अंतत: विद्यार्थी जी ने 9 नवम्बर 1913 से ‘प्रताप’ नामक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया था। इस समाचार पत्र के प्रथम अंक में ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि हम राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक आर्थिक क्रांति, जातीय गौरव, साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत के लिए, अपने हक अधिकार के लिए संघर्ष करेंगे। विद्यार्थी जी ने अपने इस संकल्प को प्रताप में लिखे अग्रलेखों को अभिव्यक्त किया जिसके कारण अंग्रेजों ने उन्हें जेल भेजा, जुर्माना किया और 22 अगस्त 1918 में प्रताप में प्रकाशित नानक सिंह की ‘सौदा ए वतन’ नामक कविता से नाराज अंग्रेजों ने विद्यार्थी जी पर राजद्रोह का आरोप लगाया व ‘प्रताप’ का प्रकाशन बंद करवा दिया। आर्थिक संकट से जूझते विद्यार्थी जी ने किसी तरह व्यवस्था जुटाई तो 8 जुलाई 1918 को फिर प्रताप की शुरूआत हो गई। प्रताप के इस अंक में विद्यार्थी जी ने सरकार की दमनपूर्ण नीति की ऐसी जोरदार खिलाफत कर दी कि आम जनता प्रताप को आर्थिक सहयोग देने के लिए मुक्त हस्त से दान करने लगी।

कानपुर में विद्यार्थी जी ने १९१३ से साप्ताहिक ‘प्रताप’ के माध्यम से न केवल क्रान्ति का नया प्राण फूँका बल्कि इसे एक ऐसा समाचार पत्र बना दिया जो सारी हिन्दी पत्रकारिता की आस्था और शक्ति का प्रतीक बन गया। प्रताप प्रेस में कम्पोजिंग के अक्षरों के खाने में नीचे बारूद रखा जाता था एवं उसके ऊपर टाइप के अक्षर। ब्लाक बनाने के स्थान पर नाना प्रकार के बम बनाने का सामान भी रहता था। पर तलाशी में कभी भी पुलिस को ये चीजें हाथ नहीं लगीं। विद्यार्थी जी को १९२१ से १९३१ तक पाँच बार जेल जाना पड़ा और यह प्राय: ‘प्रताप‘ में प्रकाशित किसी समाचार के कारण ही होता था।

विद्यार्थी जी ने सदैव निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता की। उनके पास पैसा और समुचित संसाधन नहीं थे, पर एक ऐसी असीम ऊर्जा थी, जिसका संचरण स्वतंत्रता प्राप्ति के निमित्त होता था। ‘प्रताप‘ प्रेस के निकट तहखाने में ही एक पुस्तकालय भी बनाया गया, जिसमें सभी जब्तशुदा क्रान्तिकारी साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध थी। यह ‘प्रताप’ ही था जिसने दक्षिण अफ्रीका से विजयी होकर लौटे तथा भारत के लिये उस समय तक अनजान महात्मा गाँधी की महत्ता को समझा और चम्पारण-सत्याग्रह की नियमित रिपोर्टिंग कर राष्ट्र को गाँधी जी जैसे व्यक्तित्व से परिचित कराया। चौरी-चौरा तथा काकोरी काण्ड के दौरान भी विद्यार्थी जी ‘प्रताप’ के माध्यम से प्रतिनिधियों के बारे में नियमित लिखते रहे। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित सुप्रसिद्ध देशभक्ति कविता पुष्प की अभिलाषा प्रताप अखबार में ही मई १९२२ में प्रकाशित हुई।

लगातार अंग्रेजों के विरोध में लिखने से प्रताप की पहचान सरकार विरोधी बन गई और तत्कालीन मजिस्टेट मि. स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामें में प्रताप को ‘बदनाम पत्र’ की संज्ञा देकर जमानत की राशि जप्त कर ली। अंग्रेजों का कोपभाजन बने विद्यार्थी जी को 23 जुलाई 1921, 16 अक्टूबर 1921 में भी जेल की सजा दी गई परन्तु उन्होंने सरकार के विरुद्ध कलम की धार को कम नहीं किया। जेलयात्रा के दौरान उनकी भेंट माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सहित अन्य साहित्यकारों से भी हुई।

गणेशशंकर विद्यार्थी की मृत्यु कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए 25 मार्च सन् 1931 ई. में हो गई। विद्यार्थी जी साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए थे। उनका शव अस्पताल की लाशों के मध्य पड़ा मिला। वह इतना फूल गया था कि, उसे पहचानना तक मुश्किल था। नम आँखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अंतिम संस्कार कर दिया गया। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऐसे साहित्यकार रहे, जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की।

उनकी स्मृति को नमन

बिहार चुनाव : यह महासंग्राम है दीये और तूफ़ान का

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बिहार चुनाव : यह महासंग्राम है दीये और तूफ़ान का

बाल मुकुन्द ओझा

बिहार विधानसभा चुनाव अपने परवान पर है। एनडीए और महागठबंधन के बीच आक्रामक चुनावी जंग की बिसात बिछ गई है। सियासी पार्टियों ने चुनाव जीतने के लिए साम, दाम, दंड और भेद को अपना चुनावी हथियार बना लिया है। मुफ्त रेवड़ियों की बौछारों के बीच इस चुनाव में एक बार फिर 36 साला युवा तेजस्वी का 75 साल के बुजुर्ग नीतीश कुमार से मुकाबला है। इसे दीये और तूफ़ान की लड़ाई कहे तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। पिछले विधानसभा चुनाव में बहुत कम सीटों यानि मात्र 15 सीटों से लालू – तेजस्वी के नेतृत्व वाले महागठबंधन को हार का सामना करना पड़ा। इस बार फिर तेजस्वी, मुख्यमंत्री नीतीश से दो दो हाथ कर रहे है। इस चुनाव में दो पेच जबरदस्त तरीके से भिड़ रहे है। नीतीश दीये की तरह टिमटिमा रहे है वहीं तेजस्वी का युवा जोश तूफानी साबित हो रहा है। यदि यह चुनावी दंगल सिर्फ तेजस्वी और नीतीश के बीच होता तो निश्चय ही नीतीश की हार तय मानी जा रही थी। दोनों के सियासी भविष्य के साथ प्लस माइनस स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे है। है। थके हारे नीतीश के साथ प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी दमखम के साथ खड़े है। यह एनडीए के साथ प्लस पॉइंट है। तेजस्वी यादव बेहद आक्रामक तरीके से अपना चुनाव लड़ रहे है। उनके साथ माइनस पॉइंट के रूप में जंगल राज, चारा कांड तथा नौकरी के बदले जमीन जैसे घोटाले जिन्न के रूप में पीछा नहीं छोड़ रहे है।

बिहार में विधान सभा के चुनाव की सियासत गरमा रही है। इसी के मधे नज़र आरोप प्रत्यारोप की सियासत तेज हो गई है। विपक्षी पार्टियों के नेता नीतीश की मानसिक स्थिति पर हमले करने में नहीं चूक रहे है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है चुनाव में सियासत में कई रंग देखने को मिल रहे है। बिहार की राजनीति जातीय वोटों में बंटी हुई है। विश्लेषकों की राय है तेजस्वी का मज़बूत पक्ष उनका यादव और मुस्लिम मतों का गठजोड़ है। वहीं नीतीश की झोली में 15 प्रतिशत वोट पुख्ता है और भाजपा का साथ मिलने से उनके गठबंधन एनडीए की मज़बूत स्थिति का दावा किया जा रहा है। नीतीश के इन्हीं वोटों को तोड़ने के लिए विपक्षी उन पर ताबड़तोड़ हमला कर रहे है। बिहार की सियासत के खेल बड़े अजब गजब है। पूर्व मुख्यमंत्री और आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव को चारा कांड में सजा होने के बाद प्रदेश की सियासत वर्तमान मुख्य मंत्री और जेडी यू के सर्वेसर्वा नीतीश कुमार के इर्द गिर्द घूम रही है। नीतीश के पाला बदलने की कहानी काफी रोमांचक है। पिछले दो दशकों से यही कहानी बार बार दोहराई जा रही है। इसके बावजूद नीतीश सत्ता पर मज़बूती से जमे हुए है। हालांकि लालू और नीतीश मिलते मिलाते, लड़ते झगड़ते अब बुजुर्ग की श्रेणी में आ गए है। लालू सहारा लेकर चलते है तो नीतीश की मानसिक स्थिति पर सवाल उठाये जाने लगे है।

सियासी समीक्षकों का कहना है, बिहार विधानसभा चुनाव का असर राष्ट्रीय राजनीति पर निश्चित रूप से पड़ेगा। यह कहने वालों की कोई कमी नहीं है कि मगध में सता की हनक दिल्ली तक शिद्दत से महसूस की जाएगी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जेडी यू के पास लोकसभा की 12 सीटें है। यदि नीतीश और मोदी बिहार का चुनाव हार जाते है तो इसका असर नीतीश की पार्टी पर पड़ेगा और आरजेडी सुप्रीमों को विश्वास है उस स्थिति में नीतीश के गिरते स्वास्थ्य का फायदा उठाकर उनकी पार्टी में सेंध लगाने में सफल हो जायेंगे। हालाँकि हाल फिलहाल यह दूर की कौड़ी है। बिहार चुनाव को लेकर समय एनडीए एकजुट है। आरजेडी सुप्रीमो लालू के बेटे तेजस्वी को विश्वास है कि यदि बिहार फ़तेह कर लिया तो नीतीश की पार्टी में भगदड़ मच जाएगी और अंततोगत्वा इसका सीधा नुक्सान मोदी सरकार को होगा। इसके बाद चंद्रबाबू नायडू को भी मोदी से भटकाया जा सकता है। एनडीए के सूत्रों का  कहना है सपना लेने का अधिकार सब को है। उनका सपना तो टूटेगा ही साथ ही एनडीए फिर बिहार में अपनी सरकार बना लेगा। बहरहाल चुनावी सरगर्मियां बिहार में बहुत तेजी पर है। यह चुनाव एक राज्य का चुनाव न होकर राष्ट्रीय स्थिति पर सियासी तस्वीर बदलने वाले चुनाव के रूप में लड़ा जा रहा है । वक्फ संशोधन कानून बनने के बाद बिहार में यह पहला चुनाव होगा।  देखना होगा कि नीतीश मुस्लिम मतदाताओं का वोट अपनी झोली में ले जाते है या नहीं। वक्फ विधेयक के चलते मुस्लिम नेताओं के इस्तीफे से पार्टी के अल्पसंख्यक चेहरों की कमी हुई है। नीतीश को मुस्लिम वोटों का नुक्सान होने का अंदेशा है मगर कहा जा रहा है इसकी भरपाई भाजपा और चिराग पासवान की पार्टी से हो जायेगा। इसी बीच चुनावी रणनीतिकार और जन सुराज पार्टी के मुखिया प्रशांत किशोर दोनों ही गठबंधनों के खिलाफ बिगुल बज़ा चुके है। प्रशांत ने लोगों से नया बिहार बनाने के लिए उनका समर्थन माँगा है। यह कहने वालों की कमी भी नहीं है की बिहार में भाजपा अपना मुख्यमंत्री बनाना चाहती है और नीतीश के लिए संभवत यह आखिरी चुनाव होगा। हालाँकि यह तो चुनावी नतीजे ही बता पाएंगे कि बिहार का ताज लोग किसे सौंपते है। बहरहाल बिहार के साथ देशभर के लोगों की निगाहे इस चुनाव पर नज़रे गड़ाये हुए है।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

आज जम्मू− कश्मीर का भारत में हुआ था विलय

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1925 का साल था। जम्मू-कश्मीर के इतिहास में एक नया अध्याय खुलने जा रहा था। महाराजा हरि सिंह ने जब गद्दी संभाली तो उनकी शुरुआत किसी आधुनिक युग के शासक की तरह हुई। ताजपोशी के तुरंत बाद उन्होंने जो घोषणाएँ कीं, वे इतनी क्रांतिकारी थीं कि पूरा राज्य चकित रह गया। इतिहासकार एच.एल. सक्सेना ने अपनी किताब “The Tragedy of Kashmir” में लिखा है कि अपने पहले ही संबोधन में हरि सिंह ने कहा था— “मैं एक हिंदू हूँ, लेकिन शासक के रूप में मेरा धर्म केवल न्याय है।” उन्होंने न सिर्फ़ यह कहा बल्कि उसे निभाया भी। वह ईद के जश्नों में शामिल हुए, और जब 1928 में श्रीनगर बाढ़ में डूबा तो वे स्वयं बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करने पहुँचे।

क्रांतिकारी राजा और ‘खुशामदी टट्टू अवार्ड’

हरि सिंह चापलूसी और चमचागिरी से सख़्त नफरत करते थे। उनके मंत्री जॉर्ज एडवर्ड वेकफ़ील्ड के हवाले से एम.वाई. सर्राफ़ ने लिखा कि महाराजा ने हर साल एक विशेष “खुशामदी टट्टू अवार्ड” देने की घोषणा की थी — यह अवार्ड उस व्यक्ति को दिया जाता था जो साल का सबसे बड़ा “चमचा” हो! कहा जाता है कि यह अवार्ड बंद दरबार में दिया जाता था ताकि लोग समझें कि सत्ता के करीब पहुँचने का रास्ता खुशामद नहीं, काम है।

आधुनिकीकरण की दिशा में साहसिक कदम

अपने राजतिलक समारोह में ही हरि सिंह ने जम्मू और कश्मीर घाटी में 50-50, तथा गिलगित और लद्दाख में 10-10 स्कूल खोलने की घोषणा की। उन्होंने आदेश दिया कि इन स्कूलों के निर्माण के लिए लकड़ी वन विभाग से मुफ़्त मिलेगी। इसके अलावा, उन्होंने तकनीकी शिक्षा का विस्तार, श्रीनगर में अस्पताल की स्थापना, और पीने के पानी की व्यवस्था जैसे कई कार्य शुरू किए।
उन्होंने विवाह की न्यूनतम आयु तय की — लड़कों के लिए 18 वर्ष और लड़कियों के लिए 14 वर्ष। उन्होंने बच्चों के लिए टीकाकरण को अनिवार्य किया और किसानों को महाजनों से मुक्ति दिलाने के लिए “कृषि राहत अधिनियम” बनाया। अनिवार्य शिक्षा लागू की गई — लोग इसे “जबरी स्कूल” कहने लगे, क्योंकि अब हर बच्चे को स्कूल भेजना ज़रूरी था।

दलितों के लिए मंदिरों के द्वार खोलने वाला पहला शासक

अक्टूबर 1932 में हरि सिंह ने एक ऐसा कदम उठाया जिसने भारतीय समाज को हिला दिया। उन्होंने राज्य के सभी मंदिरों को दलितों के लिए खोल दिया — यह निर्णय गांधीजी के छुआछूत विरोधी आंदोलन से भी पहले का था। यह अपने समय का सबसे प्रगतिशील और साहसी फ़ैसला था। इस घोषणा के विरोध में रघुनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी ने इस्तीफ़ा दे दिया, लेकिन हरि सिंह डरे नहीं। कोल्हापुर के शाहूजी महाराज के बाद इस तरह की सामाजिक समानता का उदाहरण शायद ही कहीं और मिला हो।

‘कश्मीर कश्मीरियों के लिए’ और राज्य उत्तराधिकार कानून

1889 के बाद से बाहरी अधिकारियों का कश्मीर में प्रभाव बढ़ गया था। नौकरियों में पंजाबी अधिकारियों का दबदबा था, जिससे स्थानीय कश्मीरी — चाहे पंडित हों या मुसलमान — दोनों ही हाशिए पर चले गए। जब 1925 में हरि सिंह राजा बने, तब तक यह असंतोष चरम पर पहुँच चुका था।
उन्होंने इस अन्याय को समाप्त करने के लिए 31 जनवरी 1927 को “राज्य उत्तराधिकार कानून” लागू किया, जिसके तहत केवल वे लोग “राज्य के नागरिक” माने गए जो महाराजा गुलाब सिंह के समय से कश्मीर में रह रहे थे। बाहरी लोगों को ज़मीन खरीदने, सरकारी नौकरी पाने और ठेके लेने से रोक दिया गया। यही कानून आगे चलकर अनुच्छेद 35-ए की नींव बना।

शुरुआती आदर्शवाद से अधिनायकवाद तक

हरि सिंह की शुरुआत भले ही प्रगतिशील थी, लेकिन समय के साथ वह राजपूत कुलीनतंत्र के प्रतीक बन गए। उच्च पदों पर डोगराओं का कब्जा हो गया और सेना में केवल राजपूतों को जगह मिलने लगी। जब शिक्षित मुस्लिम युवाओं ने अपनी हिस्सेदारी माँगी, तो टकराव बढ़ा और 1930 के दशक में कश्मीर आंदोलन की नींव पड़ी।
शेख अब्दुल्ला इसी आंदोलन से उभरे और आगे चलकर “नेशनल कॉन्फ्रेंस” की स्थापना की।

ब्रिटिशों से टकराव और लोकप्रियता का पतन

तीस के दशक में हरि सिंह की नीतियाँ बदल गईं। उन्होंने गोलमेज़ सम्मेलन में भारत के लिए ब्रिटिश राष्ट्रमंडल में समान अधिकारों की माँग की थी, जिससे अंग्रेज़ नाराज़ हो गए। गिलगित के नियंत्रण को लेकर भी उन्होंने ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी। लेकिन जब घाटी में असंतोष भड़का, तो ब्रिटिश सरकार ने उनकी जगह एक ब्रिटिश प्रधानमंत्री नियुक्त करवाया और प्रमुख मंत्रालय अपने अधिकारियों को दे दिए।
धीरे-धीरे उन्होंने जनता का विश्वास खो दिया। मंदी के दौर में उद्योग बर्बाद हुए, और शॉल उद्योग ढह गया। 1946 तक स्थिति इतनी बिगड़ गई कि शेख अब्दुल्ला ने “कश्मीर छोड़ो आंदोलन” शुरू किया — हरि सिंह अब जनता के लिए अत्याचारी शासक बन चुके थे।

सिंहासन तक का सफर – अंग्रेज़ी शिक्षा और कांडों की परछाई

हरि सिंह का रास्ता आसान नहीं था। वह महाराजा प्रताप सिंह के भतीजे थे, लेकिन उत्तराधिकारी नहीं माने जाते थे। अंग्रेजों ने उन्हें गद्दी के लिए तैयार किया। मेयो कॉलेज, अजमेर और देहरादून के इम्पीरियल कैडेट कोर में उनकी शिक्षा हुई।
लेकिन 1921 में जब वह ब्रिटेन गए, तो एक सेक्स स्कैंडल में फँस गए। मामला इतना बड़ा था कि सरकारी खज़ाने से रकम देकर उसे दबाना पड़ा। इस घटना ने उनकी छवि को झटका दिया, लेकिन उनकी प्रशासनिक कुशलता के कारण वे जल्द ही प्रमुख भूमिका में लौट आए।

भारत का विभाजन और आखिरी फैसला

15 अगस्त 1947 को जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब जम्मू-कश्मीर भी आज़ाद था। हरि सिंह ने भारत और पाकिस्तान दोनों से “स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट” का प्रस्ताव रखा — यथास्थिति बनी रहे। लेकिन पाकिस्तान ने इसे तोड़ते हुए कबायली हमले करवाए।
हरि सिंह समझ गए कि अकेले युद्ध संभव नहीं। भारत ने सहायता के बदले विलय की शर्त रखी। 26 अक्टूबर 1947 को उन्होंने भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। इस तरह “आज़ाद डोगरिस्तान” का सपना समाप्त हो गया।

डोगरा शासन का अंत और गुमनामी में अंतिम समय

हरि सिंह श्रीनगर से जम्मू लौटे — 48 ट्रकों में अपने कीमती गहने, कालीन, पेंटिंग्स और पेट्रोल का पूरा कोटा लेकर। वे फिर कभी श्रीनगर नहीं लौटे। 1949 में उन्हें सत्ता से हटा दिया गया और वे मुंबई चले गए, जहाँ 1961 में उनकी मृत्यु हो गई — लगभग गुमनाम ढंग से।
उनके बेटे कर्ण सिंह ने लिखा— “मेरे पिता के रिश्ते उस समय की चारों ताकतों से खराब थे — ब्रिटिश, कांग्रेस, मुस्लिम लीग और नेशनल कॉन्फ्रेंस। इसलिए जब फैसला करने का वक़्त आया, तो हर कोई उनके खिलाफ था।”

हरि सिंह – एक राजा जो अपने समय से आगे था

हरि सिंह ने अपने शासन में न्याय, शिक्षा और समानता के जो कदम उठाए, वे अपने समय से बहुत आगे थे। पर राजनीति, सांप्रदायिकता और ब्रिटिश प्रभाव ने उन्हें इतिहास के पन्नों में पीछे धकेल दिया।
26 अक्टूबर 1947 को लिए गए उनके फैसले ने भारत की अखंडता को हमेशा के लिए मजबूत कर दिया — और यही निर्णय उन्हें इतिहास में अमर बनाता है।

ओल्ड इज गोल्ड से साभार