ऑस्ट्रेलिया में बढ़ती यहूदी-विरोधी हिंसा: आंतरिक सुरक्षा और लोकतांत्रिक संतुलन

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-डॉ. सत्यवान सौरभ

ऑस्ट्रेलिया को लंबे समय तक एक ऐसे बहुसांस्कृतिक लोकतंत्र के रूप में देखा गया है, जहाँ विविध धार्मिक, नस्ली और सांस्कृतिक समुदायों ने अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का अनुभव किया। यहूदी समुदाय भी इस सामाजिक संरचना का एक सशक्त और सम्मानित हिस्सा रहा है। किंतु हाल के वर्षों में, विशेषकर 2023 के बाद, यहूदी संस्थानों, सभास्थलों और व्यक्तियों के विरुद्ध लक्षित हिंसा की घटनाओं में वृद्धि ने इस धारणा को गंभीर चुनौती दी है। आगज़नी, नफ़रत भरी ग्रैफिटी, धमकियाँ और हमलों की घटनाएँ केवल आपराधिक कृत्य नहीं हैं, बल्कि वे ऑस्ट्रेलियाई समाज में बढ़ते ध्रुवीकरण, असहिष्णुता और असुरक्षा की गहरी परतों को उजागर करती हैं। ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि यहूदी-विरोधी हिंसा क्यों बढ़ रही है और राज्य आंतरिक सुरक्षा को सुनिश्चित करते हुए नागरिक स्वतंत्रताओं का संतुलन कैसे बनाए।

यहूदी-विरोधी हिंसा के उभार को समझने के लिए सबसे पहले वैश्विक भूराजनीतिक संदर्भ पर ध्यान देना आवश्यक है। इज़राइल-ग़ाज़ा संघर्ष जैसे अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम अब केवल पश्चिम एशिया तक सीमित नहीं रह गए हैं। डिजिटल मीडिया और वैश्विक सूचना प्रवाह के कारण इनका प्रभाव दूरस्थ समाजों तक तत्काल पहुँचता है। ऑस्ट्रेलिया में भी इस संघर्ष ने भावनात्मक ध्रुवीकरण को जन्म दिया है, जहाँ विदेश नीति या सैन्य कार्रवाइयों की आलोचना कई बार यहूदी समुदाय के सामूहिक दोषारोपण में बदल जाती है। राजनीतिक असहमति और धार्मिक-जातीय पहचान के बीच की यह रेखा धुंधली पड़ना यहूदी-विरोधी हिंसा को वैचारिक वैधता प्रदान करता है।

इसके साथ ही चरमपंथी विचारधाराओं का विस्तार एक गंभीर कारक बनकर उभरा है। दक्षिणपंथी अतिवाद, श्वेत वर्चस्ववादी सोच और कुछ कट्टरपंथी नेटवर्क लंबे समय से यहूदियों को षड्यंत्र सिद्धांतों से जोड़ते रहे हैं। डिजिटल युग में इन विचारों का प्रसार तेज़ और व्यापक हो गया है। सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म, एन्क्रिप्टेड मैसेजिंग ऐप्स और ऑनलाइन फ़ोरम ऐसे ‘इको-चैम्बर्स’ बनाते हैं, जहाँ नफ़रत को सामान्य व्यवहार की तरह प्रस्तुत किया जाता है। जब व्यक्ति लगातार एक ही प्रकार की भड़काऊ सामग्री देखता है, तो हिंसा धीरे-धीरे वैध और आवश्यक प्रतिक्रिया के रूप में चित्रित होने लगती है।

दुष्प्रचार और साजिश कथाएँ भी यहूदी-विरोधी हिंसा को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ऐतिहासिक रूप से यहूदियों को आर्थिक संकटों, महामारी और राजनीतिक अस्थिरता के लिए दोषी ठहराने की प्रवृत्ति रही है। आधुनिक समय में यही प्रवृत्ति सोशल मीडिया के माध्यम से नए रूप में सामने आती है। कोविड-19 महामारी, वैश्विक आर्थिक मंदी या अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों से जुड़ी जटिलताओं को यहूदी समुदाय से जोड़कर प्रस्तुत किया जाता है। बार-बार दोहराए जाने पर ये झूठे आख्यान सामाजिक चेतना में स्थान बना लेते हैं और हिंसा के लिए मानसिक आधार तैयार करते हैं।

आंतरिक सुरक्षा ढांचे की कुछ संरचनात्मक कमजोरियाँ भी इस समस्या को गहराती हैं। हाल की घटनाओं ने यह सवाल उठाया है कि हथियार लाइसेंसिंग प्रणाली, मानसिक स्वास्थ्य आकलन और खुफिया निगरानी कितनी प्रभावी है। यदि संभावित हिंसक प्रवृत्तियों के संकेत समय रहते पहचान में न आएँ, तो तथाकथित ‘लोन वुल्फ’ हमले गंभीर नुकसान पहुँचा सकते हैं। यह केवल पुलिस की विफलता नहीं, बल्कि निवारक शासन की चुनौती है, जहाँ जोखिमों का पूर्वानुमान और समय पर हस्तक्षेप अत्यंत आवश्यक होता है।

इन परिस्थितियों में राज्य के सामने सबसे बड़ी चुनौती आंतरिक सुरक्षा और लोकतांत्रिक स्वतंत्रताओं के बीच संतुलन बनाए रखने की है। लोकतांत्रिक समाज में सुरक्षा का अर्थ केवल कठोर कानून और निगरानी नहीं हो सकता। राज्य की पहली जिम्मेदारी कानून के शासन को बनाए रखना है, जिसमें घृणा अपराधों पर त्वरित और प्रभावी कार्रवाई शामिल है। यहूदी-विरोधी हिंसा के मामलों में सख़्त अभियोजन और दंड का स्पष्ट संदेश देना आवश्यक है कि समाज में नफ़रत और हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है। साथ ही, पीड़ितों को न्याय और सहायता उपलब्ध कराना विश्वास बहाली के लिए अनिवार्य है।

खुफिया तंत्र का समन्वय आंतरिक सुरक्षा की रीढ़ है। संघीय और राज्य स्तर की एजेंसियों के बीच सूचना साझा करने में देरी या असंगति संभावित खतरों को अनदेखा कर सकती है। ऑनलाइन कट्टरपंथ की निगरानी, संदिग्ध गतिविधियों का विश्लेषण और समय रहते हस्तक्षेप—ये सभी उपाय आवश्यक हैं। किंतु यह निगरानी लक्षित और अनुपातिक होनी चाहिए। अंधाधुंध निगरानी न केवल नागरिकों की गोपनीयता का उल्लंघन करती है, बल्कि लोकतांत्रिक संस्थाओं पर अविश्वास भी पैदा कर सकती है।

डिजिटल स्पेस का शासन आज आंतरिक सुरक्षा का अनिवार्य घटक बन चुका है। ऑनलाइन घृणा भाषण और दुष्प्रचार को नियंत्रित किए बिना यहूदी-विरोधी हिंसा पर अंकुश लगाना कठिन है। इसके लिए प्लेटफ़ॉर्म जवाबदेही, पारदर्शी नियम और त्वरित कार्रवाई तंत्र आवश्यक हैं। साथ ही, यह भी सुनिश्चित करना होगा कि वैध राजनीतिक असहमति और शांतिपूर्ण विरोध को दबाया न जाए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र का मूल है और सुरक्षा उपायों को इसे कमजोर नहीं करना चाहिए।

आंतरिक सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण, किंतु अक्सर उपेक्षित पक्ष समुदाय सहभागिता है। यहूदी समुदाय और अन्य अल्पसंख्यकों के साथ विश्वास-आधारित संवाद सुरक्षा प्रयासों को अधिक प्रभावी बनाता है। जब समुदाय स्वयं को राज्य का साझेदार महसूस करता है, तो वह संदिग्ध गतिविधियों की सूचना देने और कट्टरपंथी प्रभावों का प्रतिरोध करने में सक्रिय भूमिका निभाता है। सामुदायिक नेताओं की भागीदारी, शिकायत निवारण तंत्र और पीड़ित सहायता सेवाएँ सामाजिक एकजुटता को मजबूत करती हैं।

शिक्षा और सार्वजनिक विमर्श दीर्घकालिक समाधान की कुंजी हैं। यहूदी-विरोधी हिंसा की जड़ें केवल वर्तमान राजनीतिक घटनाओं में नहीं, बल्कि ऐतिहासिक पूर्वाग्रहों में भी निहित हैं। होलोकॉस्ट शिक्षा, बहुसांस्कृतिक पाठ्यक्रम और अंतर-धार्मिक संवाद नफ़रत के विरुद्ध सामाजिक प्रतिरक्षा विकसित कर सकते हैं। मीडिया की भूमिका भी निर्णायक है। जिम्मेदार रिपोर्टिंग, तथ्यों की जाँच और भड़काऊ भाषा से परहेज़ सामाजिक तनाव को कम कर सकता है।

यहूदी-विरोधी हिंसा के प्रति राज्य की प्रतिक्रिया ऑस्ट्रेलिया के लोकतांत्रिक मूल्यों की भी परीक्षा है। यदि सुरक्षा उपाय किसी विशेष समुदाय को संदिग्ध ठहराने लगें या असहमति को कुचलने का माध्यम बन जाएँ, तो वे स्वयं समस्या का हिस्सा बन सकते हैं। इसलिए अधिकार-आधारित सुरक्षा दृष्टिकोण आवश्यक है, जिसमें सुरक्षा और स्वतंत्रता को परस्पर पूरक माना जाए। विदेश नीति की आलोचना और यहूदी-विरोधी नफ़रत के बीच स्पष्ट अंतर करना इस संतुलन का केंद्रीय तत्व है।

अंततः, ऑस्ट्रेलिया में बढ़ती यहूदी-विरोधी हिंसा केवल कानून-व्यवस्था का प्रश्न नहीं है, बल्कि यह सामाजिक चेतावनी भी है। यह दिखाती है कि वैश्विक ध्रुवीकरण, डिजिटल दुष्प्रचार और आंतरिक कमजोरियाँ मिलकर किस प्रकार लोकतांत्रिक समाजों को अस्थिर कर सकती हैं। इसका समाधान न तो केवल सख़्त कानूनों में है और न ही पूर्ण उदारता में, बल्कि संतुलित, अधिकार-सम्मत और समुदाय-केंद्रित रणनीति में निहित है। लक्षित पुलिसिंग, एकीकृत खुफिया तंत्र, जिम्मेदार डिजिटल नियमन और सामाजिक संवाद—इन सभी के माध्यम से ही नफ़रत अपराधों का प्रभावी मुकाबला किया जा सकता है। जब अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और लोकतांत्रिक स्वतंत्रताएँ एक-दूसरे को सुदृढ़ करती हैं, तभी बहुसांस्कृतिक लोकतंत्र वास्तव में सुरक्षित और टिकाऊ बन पाता है।

-डॉ. सत्यवान सौरभ

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