ऑफिस टाइम के बाद नो कॉल–नो ईमेल: बॉस का फोन न उठाने का हक

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कर्मचारियों को आखिर कब मिलेगा असली ‘डिसकनेक्ट’ का अधिकार?

राइट टू डिसकनेक्ट बिल 2025: कामकाजी भारत की थकान, तनाव और ‘हमेशा उपलब्ध रहने’ की संस्कृति पर एक जरूरी बहस। 

 – डॉ प्रियंका सौरभ

भारत का कार्य-संस्कृति परिदृश्य पिछले दो दशकों में जिस तेज़ी से बदला है, शायद ही दुनिया का कोई अन्य देश इस प्रकार की डिजिटल छलांग से गुज़रा हो। इंटरनेट, मोबाइल फोन, वर्क-फ्रॉम-होम, रियल-टाइम मॉनिटरिंग और 24×7 कनेक्टिविटी ने काम को आसान भी बनाया है और जटिल भी। इसका सबसे बड़ा प्रभाव पड़ा है—कर्मचारियों के निजी जीवन और मानसिक स्वास्थ्य पर। आज कार्यालय का समय भले ही 8 घंटे का माना जाता है, पर काम की ‘ड्यूटी’ 12–14 घंटे तक फैली मिलती है। एक मेल रात 10 बजे, एक कॉल सुबह 7 बजे, एक मैसेज रविवार को… और इसी अनंत चक्र में कर्मचारी अपने जीवन से, अपने परिवार से, और स्वयं से कटते चले जा रहे हैं।

इसी पृष्ठभूमि में सांसद सुप्रिया सुले द्वारा लोकसभा में पेश किया गया ‘राइट टू डिसकनेक्ट बिल 2025’ देश के करोड़ों कर्मचारियों के लिए आशा की किरण लेकर आया है। यह बिल कहता है कि ऑफिस समय के बाद कोई भी कर्मचारी अपने बॉस, मैनेजर या संस्थान के कॉल, ईमेल, मैसेज या किसी डिजिटल निर्देश का जवाब देने के लिए बाध्य नहीं होगा। यदि यह कानून बनता है, तो भारत की कार्य-संस्कृति में एक ऐतिहासिक परिवर्तन संभव है। लेकिन इसका विरोध, इसकी चुनौतियाँ, इसका व्यावहारिक पक्ष और इसका सामाजिक प्रभाव—ये सभी उतने ही महत्त्वपूर्ण सवाल हैं, जिनका विश्लेषण करना ज़रूरी है।

आज यह एक प्रशासनिक या तकनीकी मुद्दा मात्र नहीं, बल्कि एक सामूहिक सामाजिक-मानसिक स्वास्थ्य संकट से जुड़ा विषय है। एक ऐसा संकट जिसे हम अक्सर सामान्य मानकर जीते जा रहे हैं।

भारत में कार्य-संस्कृति का चरित्र लंबे समय से ‘हमेशा उपलब्ध रहने’ की अघोषित संस्कृति पर टिका रहा है। यह धारणा कि अच्छा कर्मचारी वही है जो छुट्टी के दिन भी फोन उठाए, आधी रात को भी मेल का जवाब दे, और घर बैठकर भी कंपनी के लिए उपलब्ध रहे—आज कई कर्मचारियों की थकान, निराशा और बर्नआउट की जड़ में यही सोच है। महामारी के बाद वर्क–फ्रॉम–होम संस्कृति ने इसे और गहरा कर दिया। घर ऑफिस बन गया और ऑफिस घर में घुस आया। समय की सीमाएँ मिट गईं। काम और जीवन की रेखा धुंधली पड़ गई।

हर साल लाखों युवा नौकरी में आते हैं, पर कुछ ही सालों में तनाव, उच्च रक्तचाप, नींद की समस्याएँ, एकाग्रता में कमी और अवसाद जैसी समस्याओं से जूझने लगते हैं। और अधिकांश मामलों में कारण है—अनियंत्रित कार्य-घंटे और निजी समय में लगातार हस्तक्षेप।

यही कारण है कि यूरोप के कई देशों—फ्रांस, इटली, पुर्तगाल, बेल्जियम—ने ‘राइट टू डिसकनेक्ट’ को कानूनी अधिकार बनाया। भारत इस दिशा में अब तक पीछे था, पर यह बिल एक बड़ी शुरुआत साबित हो सकता है।

लेकिन प्रश्न यह भी है कि क्या सिर्फ कानून बनने से हालात बदल जाएंगे? क्या कंपनियाँ इसे मानेंगी? क्या कर्मचारी इसे लागू करा पाएंगे? क्या तकनीकी दुनिया में डिसकनेक्ट होना संभव है?

राइट टू डिसकनेक्ट बिल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह कर्मचारी को ‘अधिकार’ देता है—एक ऐसा अधिकार जिसे वह कानूनी रूप से प्रयोग कर सकता है। लेकिन भारत में कार्य-परिस्थितियाँ कई बार कानूनों से भी अधिक शक्तिशाली सामंती कार्य-संस्कृति, पदानुक्रम और असुरक्षा द्वारा निर्देशित होती हैं। बड़ी बहस यह है कि एक कर्मचारी को यदि ऑफ-ऑवर में कॉल न उठाने का अधिकार है, तो क्या उसे इससे उसके मूल्यांकन में नुकसान नहीं होगा? क्या इसे ‘अनकोऑपरेटिव’ व्यवहार नहीं समझा जाएगा? क्या निजी कंपनियाँ इसे सहजता से स्वीकार करेंगी?

इन सवालों का जवाब कठिन है, पर कानून कम से कम एक आधार देता है—एक सुरक्षा कवच। अक्सर कर्मचारियों की समस्या यह नहीं होती कि वे कॉल उठाना नहीं चाहते; समस्या यह होती है कि यदि वे कॉल नहीं उठाएँ तो अगला दिन उनके लिए भारी पड़ता है। काम का दबाव, बॉस की नाराजगी, ‘टीम प्लेयर’ न समझे जाने का भय—यह सब उन्हें विवश कर देता है।

बिल की सबसे महत्त्वपूर्ण शक्ति यही है कि यह कहता है:

“ऑफिस टाइम के बाद आपसे संपर्क किया जाए तो जवाब देना ‘मजबूरी’ नहीं, ‘विकल्प’ होगा।”

यह भावना ही कार्य-संस्कृति में परिवर्तन की दिशा में पहला कदम है।

इस बिल का बड़ा सामाजिक और मानसिक प्रभाव हो सकता है। यह न सिर्फ कर्मचारियों के परिवारिक जीवन को बेहतर बनाएगा, बल्कि समाज में ‘वर्क-लाइफ बैलेंस’ की नई समझ विकसित करेगा।

भारत में अक्सर काम को ‘त्याग’ और काम से असंतुलन को ‘समर्पण’ का चिह्न माना जाता है। यह बिल इस सोच को चुनौती देता है। यह बताता है कि बेहतर कर्मचारी वही है जो बेहतर इंसान भी बना रह सके।

कर्मचारी के जीवन में जो खाली समय है—परिवार के साथ बिताना, बच्चों के साथ खेलना, माता-पिता का हाल पूछना, किताबें पढ़ना, नींद पूरी करना, खुद को नया सीखना—यही असल में उत्पादकता की नींव है। थका हुआ दिमाग, तनावग्रस्त मन और 24×7 उपलब्ध रहने की मजबूरी किसी भी राष्ट्र की उत्पादकता को बढ़ा नहीं सकती।

इसके अतिरिक्त, यह बिल महिलाओं के लिए विशेष रूप से राहतकारी साबित हो सकता है।

भारतीय समाज में महिलाएँ पहले ही दोहरी जिम्मेदारियों—ऑफिस और घर—के बीच संघर्ष करती हैं। अगर रात के भोजन के बाद भी मेल का जवाब देना पड़े, बच्चों को सुलाते समय फोन उठाना पड़े, तो उनका दबाव कई गुना बढ़ जाता है। ‘राइट टू डिसकनेक्ट’ उनकी मानसिक और पारिवारिक स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।

इसके बावजूद इस बिल के सामने कुछ व्यावहारिक चुनौतियाँ हैं। भारत की अर्थव्यवस्था में सर्विस सेक्टर का दायरा बड़ा है, और आईटी, बीपीओ, ऑनलाइन सेवाएँ, ई–कॉमर्स जैसी उद्योगों में 24×7 काम चलता है। अंतरराष्ट्रीय क्लाइंट्स, अलग-अलग टाइम ज़ोन, आपातकालीन तकनीकी समस्याएँ—इन सबमें ‘नो कॉल–नो ईमेल’ व्यवस्था लागू करना जटिल है।

इसका समाधान कानून के भीतर ही मौजूद है:

ड्यूटी टाइम और नॉन-ड्यूटी टाइम का स्पष्ट निर्धारण।

कंपनियाँ कार्यकर्ता के साथ अनुबंध में यह स्पष्ट करेंगी कि कौन कर्मचारी किस श्रेणी में आता है, कौन ऑन-रोल है, कौन ऑफ-रोल, कौन ‘क्रिटिकल सर्विस’ पर है, और किसका काम सामान्य है।

इसके अलावा एक और चिंता यह है कि कई कंपनियाँ कर्मचारियों से अप्रत्यक्ष दबाव के माध्यम से ‘मौन सहमति’ ले सकती हैं—यानी कागज़ पर तो नियम होंगे, पर व्यवहार में ‘उपलब्धता’ की अपेक्षा जारी रहेगी।

इसलिए निगरानी और अनुपालन की मजबूत व्यवस्था जरूरी है। शिकायत निवारण तंत्र, हेल्पलाइन, और जुर्माने जैसे प्रावधान तभी प्रभावी होंगे जब कर्मचारी बिना डर शिकायत कर सकें।

इस बिल के समर्थक कहते हैं कि आधुनिक अर्थव्यवस्था में ‘डिजिटल स्लेवरी’ से मुक्ति आवश्यक है। आलोचक कहते हैं कि यह बिल निजी कंपनियों के कार्य-तंत्र में हस्तक्षेप कर सकता है। लेकिन सच्चाई यह है कि यह बिल कंपनियों के खिलाफ नहीं, बल्कि कर्मचारियों के पक्ष में है—एक संतुलित दृष्टिकोण के साथ।

अच्छा वर्क-लाइफ बैलेंस केवल कर्मचारी का अधिकार नहीं, कंपनी का भी फायदा है।

शोध बताते हैं कि मानसिक रूप से आराम पाए कर्मचारी अधिक उत्पादक, क्रिएटिव और वफादार होते हैं।

इस बिल के जरिए सरकार केवल यह संदेश देना चाहती है कि कर्मचारी भी इंसान हैं, मशीन नहीं।

कंपनियों का औचित्य हो सकता है कि ‘कभी-कभी’ आपात स्थिति में उपलब्धता जरूरी होती है। लेकिन समस्या ‘कभी-कभी’ की नहीं है—समस्या ‘हर समय’ की संस्कृति है।

यह बिल उस असंतुलन को तोड़ने की कोशिश है।

राइट टू डिसकनेक्ट केवल एक अधिकार नहीं, बल्कि आधुनिक भारत की कार्य-संस्कृति को बदलने का अवसर है। यह कर्मचारियों को राहत देने का वादा है, कंपनियों को नई कार्य-संरचना देने का मौका है, और समाज को स्वास्थ्यपूर्ण मानसिक वातावरण देने की दिशा में एक बड़ा कदम है।

अगर यह बिल कानून बन जाता है, तो इसके सही क्रियान्वयन की चुनौती सामने होगी। कानून जितना सख्त होगा, उतनी ही जिम्मेदारी सरकार, कंपनियों और कर्मचारियों पर होगी कि इसे संवेदनशील और संतुलित तरीके से लागू करें। यह बिल हमें याद दिलाता है कि विकास केवल आर्थिक नहीं होता—विकास वह है जिसमें इंसान अपनी थकान, तनाव और निजी जीवन खोए बिना आगे बढ़ सके।

भारत की अर्थव्यवस्था जितनी तेज़ी से आगे बढ़ रही है, उतना ही जरूरी है कि उसके पीछे खड़े मानव संसाधन को सुरक्षित, संतुलित और सम्मानजनक जीवन मिले।

राइट टू डिसकनेक्ट सिर्फ एक कानून नहीं, बल्कि आधुनिक भारत की नई कार्य-दृष्टि का आधार बन सकता है—यदि इसे सही नीयत, संवेदना और ईमानदारी के साथ अपनाया जाए।

यह समय है कि भारत यह स्वीकार करे—

कर्मचारी 24×7 उपलब्ध रहने के लिए पैदा नहीं हुए।

उनका निजी जीवन, उनका परिवार और उनका मानसिक स्वास्थ्य भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना उनका कार्य।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

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