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भारत के स्वतंत्रता संग्राम और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के इतिहास में एक ऐसा नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है जिसने विदेशी होकर भी भारत को अपनी आत्मा बना लिया — भगिनी निवेदिता।
वह न केवल स्वामी विवेकानंद की शिष्या थीं, बल्कि उन्होंने भारत के पुनर्निर्माण, महिला शिक्षा और राष्ट्रीय चेतना के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया।
उनका जीवन त्याग, सेवा और समर्पण की अद्भुत गाथा है — एक ऐसी विदेशी महिला की कहानी, जिसने “भारत माता” के चरणों में अपनी समस्त शक्ति अर्पित कर दी।
प्रारंभिक जीवन
भगिनी निवेदिता का जन्म 28 अक्टूबर 1867 को आयरलैंड के डबलिन शहर में हुआ था।
उनका वास्तविक नाम मार्गरेट एलिज़ाबेथ नोबल (Margaret Elizabeth Noble) था।
उनके पिता सैमुअल नोबल एक ईसाई पादरी थे, और माँ का नाम मैरी इसाबेला नोबल था।
पिता की धर्मनिष्ठा और माँ की करुणा ने बचपन से ही मार्गरेट के भीतर सेवा और आदर्शवाद की भावना भर दी।
जब मार्गरेट मात्र पाँच वर्ष की थीं, तभी उनके पिता का देहांत हो गया। इस दुखद घटना ने उनके जीवन में गहरा प्रभाव डाला। उन्होंने निर्णय लिया कि जीवन दूसरों के कल्याण के लिए समर्पित करना ही सच्चा धर्म है।
शिक्षा और अध्यापन जीवन
मार्गरेट बचपन से ही प्रतिभाशाली थीं। उन्होंने लंदन में शिक्षक के रूप में कार्य शुरू किया और शिक्षा सुधार आंदोलन से जुड़ीं। उनका मानना था कि शिक्षा केवल जानकारी नहीं देती, बल्कि मनुष्य के चरित्र का निर्माण करती है। उन्होंने इंग्लैंड में एक “Play School” खोला, जहाँ बच्चों को सृजनात्मक और नैतिक शिक्षा दी जाती थी। उसी समय वे दर्शन, धर्म और अध्यात्म में गहरी रुचि लेने लगीं। इन्हीं दिनों वे भारत के महान संत स्वामी विवेकानंद के संपर्क में आईं — और यही उनके जीवन की दिशा बदल देने वाला क्षण था।
स्वामी विवेकानंद से मुलाकात – जीवन का मोड़
1895 में स्वामी विवेकानंद इंग्लैंड गए और वहाँ उन्होंने भारतीय वेदांत दर्शन पर व्याख्यान दिए। उनके विचारों ने यूरोप के शिक्षित समाज को झकझोर दिया। मार्गरेट नोबल भी उनके एक व्याख्यान में उपस्थित थीं। स्वामी विवेकानंद के शब्दों —
“भारत की आत्मा सोई नहीं है, केवल उसे जगाने की आवश्यकता है।”
ने उन्हें भीतर तक आंदोलित कर दिया।
मार्गरेट ने स्वामीजी से कई बार संवाद किया और भारत की आध्यात्मिक संस्कृति के बारे में जाना।
स्वामी विवेकानंद ने उनसे कहा —
“भारत को शिक्षित, जागरूक और स्वावलंबी बनाने के लिए तुम्हारे जैसे लोगों की आवश्यकता है।”
बस, यही वह क्षण था जब मार्गरेट नोबल ने जीवन का लक्ष्य तय कर लिया — भारत की सेवा।
भारत आगमन और नया जीवन
28 जनवरी 1898 को मार्गरेट नोबल भारत पहुँचीं।
स्वामी विवेकानंद ने उनका स्वागत किया और उन्हें ‘निवेदिता’ नाम दिया — जिसका अर्थ है “पूर्ण समर्पित”।
वह अब केवल मार्गरेट नहीं रहीं, वे भारत की “भगिनी निवेदिता” बन चुकी थीं।
उन्होंने अपना पश्चिमी परिधान त्याग दिया और भारतीय परंपरा के अनुसार सादा साड़ी धारण की।
उन्होंने बंगाल की भाषा सीखी, भारतीय रीति-रिवाज अपनाए और धीरे-धीरे पूरी तरह भारतीय संस्कृति में ढल गईं।
उन्होंने कहा था —
“अब मैं केवल भारत की नहीं, भारत की आत्मा की सेविका हूँ।”
महिला शिक्षा में योगदान
भगिनी निवेदिता ने भारत में महिलाओं की स्थिति देखकर गहरा दुःख प्रकट किया।
उन्होंने देखा कि शिक्षा के अभाव में महिलाएँ सामाजिक जीवन से वंचित हैं।
उन्होंने संकल्प लिया कि भारतीय महिलाओं को आत्मनिर्भर और शिक्षित बनाना ही उनकी सेवा का मार्ग होगा।
1898 में उन्होंने बेलगाछिया (कोलकाता) में महिला शिक्षा विद्यालय की स्थापना की।
यह स्कूल गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों की लड़कियों के लिए था।
वे स्वयं छात्रों को पढ़ातीं, घर-घर जाकर बालिकाओं को स्कूल आने के लिए प्रेरित करतीं।
उन्होंने कहा था —
“स्त्री को शिक्षित करना, राष्ट्र को शिक्षित करना है।”
उनका यह विद्यालय आगे चलकर “निवेदिता गर्ल्स’ स्कूल” के रूप में प्रसिद्ध हुआ और भारतीय महिला शिक्षा आंदोलन की आधारशिला बन गया।
भारतीय स्वतंत्रता और राष्ट्रीय चेतना में भूमिका
भगिनी निवेदिता केवल शिक्षिका नहीं थीं, वे एक क्रांतिकारी विचारक भी थीं।
उन्होंने भारत के युवाओं में देशभक्ति की भावना जगाने के लिए अनेक व्याख्यान दिए।
वे बाल गंगाधर तिलक, अरबिंदो घोष, सिस्टर निवेदिता के मित्र नागेंद्रनाथ बोस और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के संपर्क में रहीं।
उन्होंने ब्रिटिश शासन की नीतियों का विरोध किया और भारतीय स्वराज की मांग का समर्थन किया।
जब बंगाल विभाजन (1905) हुआ, तो वे स्वदेशी आंदोलन की अग्रणी बनीं।
उन्होंने कहा —
“भारत को जगाना है तो पहले उसकी आत्मा को जगाइए। स्वदेशी ही भारत की आत्मा का पुनर्जन्म है।”
उन्होंने कला, साहित्य और विज्ञान में भी भारतीयों को आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित किया।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु की उन्होंने हर प्रकार से सहायता की।
उनके अनुसंधानों के लिए आर्थिक और बौद्धिक सहयोग दिया।
वास्तव में, निवेदिता भारत के वैज्ञानिक पुनर्जागरण की भी प्रेरक थीं।
भारतीय कला और संस्कृति के प्रति समर्पण
भगिनी निवेदिता का विश्वास था कि भारत की आत्मा उसकी कला और संस्कृति में बसती है।
उन्होंने अवनीन्द्रनाथ टैगोर और नंदलाल बोस जैसे कलाकारों को भारतीय परंपरा में कला के पुनरुद्धार के लिए प्रेरित किया।
उन्होंने उन्हें पश्चिमी प्रभाव से मुक्त होकर भारत की जड़ों से जुड़ने का संदेश दिया।
उनका कथन था —
“भारतीय कला केवल सौंदर्य नहीं, यह आत्मा का प्रकाश है।”
उनके प्रयासों से भारतीय कला पुनर्जागरण आंदोलन (Indian Art Renaissance) को बल मिला।
साहित्यिक योगदान
भगिनी निवेदिता एक प्रतिभाशाली लेखिका भी थीं।
उन्होंने अंग्रेज़ी में अनेक पुस्तकें लिखीं, जिनसे भारत की संस्कृति और दर्शन को विश्व के सामने प्रस्तुत किया।
उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं —
The Web of Indian Life (1904)
The Master As I Saw Him (1910) — स्वामी विवेकानंद पर आधारित
Kali the Mother (1900)
Footfalls of the Indian History
इन पुस्तकों में उन्होंने भारत की आध्यात्मिकता, नारी शक्ति, संस्कृति और इतिहास की गहराई को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया।
सेवा और त्याग का जीवन
भगिनी निवेदिता ने केवल शिक्षा और राष्ट्र सेवा तक अपने कार्य को सीमित नहीं रखा।
जब 1899 में प्लेग महामारी ने कोलकाता को घेरा, तब वे निडर होकर सड़कों पर उतरीं।
वे बीमारों की सेवा करतीं, बच्चों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचातीं और हर गरीब की मदद करतीं।
उन्होंने कहा था —
“सेवा ही सबसे बड़ी उपासना है।”
वे दिन-रात समाज के बीच रहीं और अपनी सेहत की परवाह नहीं की।
लगातार परिश्रम और अस्वस्थता ने उनके शरीर को कमजोर कर दिया, परंतु उन्होंने काम बंद नहीं किया।
निधन और अमरता
भगिनी निवेदिता का निधन 13 अक्टूबर 1911 को दार्जिलिंग में हुआ।
उस समय वे मात्र 43 वर्ष की थीं।
उनका अंतिम संस्कार दार्जिलिंग के “खर्चो मठ” के निकट हुआ।
उनकी समाधि पर लिखा गया —
“Here reposes Sister Nivedita, who gave her all to India.”
(यहाँ भगिनी निवेदिता विश्राम कर रही हैं, जिन्होंने अपना सब कुछ भारत को अर्पित कर दिया।)
विरासत और प्रेरणा
भगिनी निवेदिता की विरासत आज भी जीवंत है।
उन्होंने भारत को न केवल शिक्षा और सेवा का मार्ग दिखाया, बल्कि यह भी सिखाया कि सच्चा देशप्रेम सीमाओं से परे होता है।
वह विदेशी होते हुए भी भारत की सच्ची बेटी बनीं।
उनकी शिक्षाएँ आज भी महिला सशक्तिकरण, स्वदेशी भावना और मानवीय सेवा के आदर्श हैं।
स्वामी विवेकानंद के सपनों के भारत को साकार करने में उनका योगदान अतुलनीय है।
निष्कर्ष
भगिनी निवेदिता का जीवन इस बात का प्रमाण है कि भारत केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक विचार है — और उस विचार से जिसने प्रेम किया, वही सच्चा भारतीय है।
उन्होंने कहा था —
“भारत ने मुझे जन्म नहीं दिया, पर उसने मुझे नया जीवन दिया।”
भगिनी निवेदिता ने अपने कर्मों से दिखा दिया कि सेवा, त्याग और प्रेम ही सच्चे धर्म हैं।
वह एक महिला थीं, पर उनके भीतर एक राष्ट्र का हृदय धड़कता था।
उनकी स्मृति आज भी हर उस व्यक्ति को प्रेरित करती है जो भारत की सेवा का संकल्प लेता है।


