प्रिंट मीडिया की साख आज भी कायम

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न्यूज चैनलों पर नफरती बयान :

बाल मुकुन्द ओझा
हमारा पड़ोसी देश नेपाल सोशल मीडिया से उत्पन्न हिंसक क्रांति की आग से सुलग रहा है। नेपाल में चल रहे विरोध प्रदर्शनों और हिंसा को लेकर भारत का सियासी पारा भी हाई है। वहीं हमारे यहां के बयानवीर नेता भारत में भी अपने बयानों के जरिये आग लगाने का कुत्सित प्रयास कर रहे है। रही सही कसर टीवी चैनलों की बहस पूरी कर रहे है। विभिन्न न्यूज़ चैनलों पर बहस के दौरान कांग्रेस सहित इंडिया ब्लॉक के नेता भारत में भी ऐसी घटनाओं के घटित होने पर अपनी आग उगलने लगे है। संजय राउत और उदित राज जैसे नेता कहां पीछे रहने वाले है। सोशल मीडिया को कुछ लोगों ने अपना हथियार बनाकर नेपाल के हालात की भारत से तुलना करने लगे हैं। सोशल मीडिया पर कह दिया कि लोग चर्चा कर रहे हैं जिस तरह से नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश में सत्ता को जनता ने उखाड़ फेंका है, क्या भारत में ऐसा नहीं हो सकता।
देश के नामी गिरामी न्यूज़ चैनलों पर अभद्रता, गाली गलौज और मारपीट की घटनाएं अब आम हो गई है। न्यूज चैनल्स की डिबेट्स की भाषाई मर्यादाएं और गरिमा तार तार हो रही है। ऐसा लगता है डिबेट्स में झूठ और नफरत का खुला खेल खेला जा रहा है। डिबेट्स और चैनलों का ये गिरता स्तर लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। प्रमुख पार्टियों के प्रवक्ता जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग कर रहे है वह निश्चय ही निंदनीय और शर्मनाक है। देश में कुकुरमुत्तों की तरह न्यूज़ चैनलों की बाढ़ सी आ गई है। इन चैनलों पर प्रतिदिन देश में घटित मुख्य घटनाओं और नेताओं की बयानबाजी पर टीका टिप्पणियों को देखा और सुना जा सकता है। राजनीतिक पार्टियों के चयनित प्रवक्ता और कथित विशेषज्ञ इन सियासी बहसों में अपनी अपनी पार्टियों का पक्ष रखते है। न्यूज़ चैनलों पर इन दिनों जिस प्रकार के आरोप प्रत्यारोप और नफरती बोल सुने जा रहे है उससे लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ते देखा जा सकता है। बड़े बड़े और धमाकेदार शीर्षकों वाली इन बहसों को सुनकर किसी मारधाड़ वाली फिल्मों की यादें जाग्रत हो उठती है। एंकर भी इनके आगे असहाय नज़र आते है। कई बार छीना झपटी, गाली गलौज और मारपीट की नौबत आ जाती है। सच तो यह है जब से टीवी न्यूज चैनलों ने हमारी जिंदगी में दखल दिया है तब से हम एक दूसरे के दोस्त कम दुश्मन अधिक बन रहे है। समाज में भाईचारे के स्थान पर घृणा का वातावरण ज्यादा व्याप्त हो रहा है। बहुत से लोगों ने मारधाड़ वाली और डरावनी बहसों को न केवल देखना बंद कर दिया है अपितु टीवी देखने से ही तौबा कर लिया है। लोगों ने एक बार फिर इलेक्ट्रॉनिक के स्थान पर प्रिंट मीडिया की ओर लौटना शुरू कर दिया है। आज भी अखबार की साख और विश्वसनीयता अधिक प्रामाणिक समझी जा रही है। डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की अपेक्षा आज भी प्रिंट मीडिया पर लोगों की विश्वसनीयता बरकरार है। आज भी लोग सुबह सवेरे टीवी न्यूज़ नहीं अपितु अखबार पढ़ना पसंद करते है। प्रबुद्ध वर्ग का कहना है प्रिंट मीडिया आज भी अपनी जिम्मेदारी का बखूबी निर्वहन कर रहा है।
इस समय देश के न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया पर नफरत और घृणा के बादल मंडरा रहे है। देश में हर तीसरे महीने कहीं न कहीं चुनावी नगाड़े बजने शुरू हो जाते है। इस साल बिहार में चुनाव होने वाले है। चुनावों के आते ही न्यूज़ चैनलों की बांछें खिल जाती है। चुनावों पर गर्मागरम बहस शुरू हो जाती है। राजनीतिक दलों के नुमाइंदे अपने अपने पक्ष में दावे प्रतिदावे शुरू करने लग जाते है। इसी के साथ ऐसे ऐसे आरोप और नफरत पैदा करने वाली दलीले दी जाने लगती है कि कई बार देखने वालों का सिर शर्म से झुक जाता है। यही नहीं देश में दुर्भाग्य से कहीं कोई घटना दुर्घटना घट जाती है तो न्यूज़ चैनलों पर बढ़चढ़कर ऐसी ऐसी बातों की झड़ी लग जाती है जिन पर विश्वास करना नामुमकिन हो जाता है। इसीलिए लोग इलेक्ट्रॉनिक के स्थान पर प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता को अधिक प्रमाणिक मानते है। इसी कारण लोगों ने टीवी चैनलों पर होने वाली नफरती बहस को देखनी न केवल बंद कर दी अपितु बहुत से लोगों ने टीवी देखने से ही तौबा कर ली।
गंगा जमुनी तहजीब से निकले भारतीय घृणा के इस तूफान में बह रहे हैं। विशेषकर नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद घृणा और नफरत के तूफानी बादल गहराने लगे है। हमारे नेताओं के भाषणों, वक्तव्यों और फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर सुचिता के स्थान पर नफरत, झूठ, अपशब्द, तथ्यों में तोड़-मरोड़ और असंसदीय भाषा का प्रयोग धड़ल्ले से होता देखा जा सकता हैं। हमारे नेता अब आए दिन सामाजिक संस्कारों और मूल्यों को शर्मसार करते रहते हैं। स्वस्थ आलोचना से लोकतंत्र सशक्त, परंतु नफरत भरे बोल से कमजोर होता है, यह सर्व विदित है। आलोचना का जवाब दिया जा सकता है, मगर नफरत के आरोपों का नहीं। आज पक्ष और विपक्ष में मतभेद और मनभेद की गहरी खाई है। यह अंधी खाई हमारी लोकतान्त्रिक परम्पराओं को नष्ट भ्रष्ट करने को आतुर है। देश में व्याप्त नफरत के इस माहौल को खत्म कर लोकतंत्र की ज्वाला को पुर्नस्थापित करने की महती जरूरत है और यह तभी संभव है जब हम खुद अनुशासित होंगे और मर्यादा की लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन नहीं करेंगे।

बाल मुकुन्द ओझा
वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार
मालवीय नगर, जयपुर

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