धरती की सज़ा: हमने किया क्या?

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सितम्बर का महीना है, लेकिन धूप ऐसी तपा रही है जैसे जून की झुलसाती गर्मी हो। लोग पसीने से बेहाल, बिजली कट रही है तो हालात और खराब। पंखे और कूलर जैसे कोई राहत नहीं दे पा रहे। हमारे बुजुर्ग कह रहे हैं कि हमारे जमाने में सितम्बर तक हल्की ठंडक आने लगती थी। खेत-खलिहानों में काम करना आसान होता था पर अब मौसम का मिजाज ही बदल गया है। इस बदलाव की असली वजह कहीं और नहीं, बल्कि हमारे ही किए गए काम हैं। प्लास्टिक का कचरा जगह-जगह पड़ा मिलता है। गली, मौहल्ला, नाले, नदी सब जगह। एक ओर लोग सुविधा के लिए प्लास्टिक की थैली का इस्तेमाल करते हैं, दूसरी ओर वही थैली धरती और पानी का गला घोंट रही है। नालियां जाम होती हैं। पानी का बहाव रुकता है और फिर बरसात के दिनों में बाढ़ जैसी स्थिति खड़ी हो जाती है। इसी तरह फैक्ट्री से निकलता धुआं और गाड़ियों का प्रदूषण भी कम नहीं। सुबह-शाम सड़क पर निकल जाओ तो धूल, धुआं और शोर कान फोड़ देता है। बच्चों के फेफड़े कमजोर हो रहे हैं, अस्थमा और एलर्जी जैसी बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं। गांवों में भी अब शुद्ध हवा और पानी मिलना मुश्किल हो गया है।सबसे बड़ा नुकसान पेड़ों के कटने से हो रहा है। जहां कभी बड़े-बड़े पीपल, नीम और बरगद की छांव में लोग बैठकर सुस्ताते थे, वहीं अब सीमेंट-कंक्रीट की इमारतें खड़ी हैं। खेतों के किनारे लगी हरियाली की मेड़ें काट दी गईं। शहरों में पार्क तो बने हैं पर उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। लोग पौधारोपण करते हैं। फोटो सेंशन तक यह पौधारोपण सीमित रहता है और उसके बाद यह पौधे सूख जाते हैं। यही वजह है कि गर्मी इतनी बढ़ गई है कि सितम्बर भी जून जैसा लग रहा है, लेकिन तस्वीर पूरी तरह नकारात्मक नहीं है।

हमारे देश में आज भी कई जगह लोग पर्यावरण को बचाने के लिए आगे आ रहे हैं। कोई प्लास्टिक मुक्त अभियान चला रहा है तो कहीं स्कूल के बच्चे या कुछ एन.जी.ओ. सप्ताह या महीने में एक दिन पौधारोपण कर रहे हैं। उत्तराखंड, हिमाचल जैसे राज्यों में लोग जंगलों को बचाने के लिए आंदोलन खड़े करते हैं। किसान जैविक खेती अपनाकर मिट्टी और पानी दोनों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ शहरों में महिलाएं कपड़े की थैली बनाने का छोटा-सा व्यवसाय चला रही हैं। ताकि लोग कपड़े की थैली इस्तेमाल करें और प्लास्टिक से बचें। सकारात्मक बात यह भी है कि नई पीढ़ी इस मसले को समझ रही है। सोशल मीडिया पर युवा क्लीन इंडिया, ग्रीन इंडिया के नारे को फैला रहे हैं। शादी-ब्याह में भी अब कुछ लोग प्लास्टिक की प्लेट, गिलास छोड़कर पत्तल-दोने का इस्तेमाल करने लगे हैं। यह छोटी-छोटी कोशिशें ही बड़े बदलाव की नींव बनेंगी। फिर भी चुनौतियां कम नहीं। सरकार नियम बनाती है, लेकिन पालन में ढिलाई रहती है। उद्योगपति मुनाफे के लिए प्रदूषण फैलाने से नहीं चूकते। आम लोग भी सुविधा देखकर गलत रास्ता चुन लेते हैं कि जैसे ठंडी कोल्ड ड्रिंक पीने के बाद बोतल सड़क पर फेंक देना। सवाल यह है कि जब तक हम सभी अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेंगे, तब तक कानून और अभियान कुछ खास नहीं कर पाएंगे। सोचिए जब सितम्बर में ही जून जैसी गर्मी महसूस हो रही है तो आने वाले सालों में हालात क्या होने वाले है। अगर पेड़ नहीं लगाए गए, प्लास्टिक पर रोक नहीं लगी और प्रदूषण पर काबू नहीं पाया गया तो आने वाली पीढ़ियों को सांस लेने के लिए भी साफ हवा नसीब नहीं होगी, लेकिन उम्मीद अभी बाकी है। अगर हर इंसान अपनी आदत बदल लें कि बाजार जाते वक्त कपड़े का झोला ले जाए। मोहल्ले में गीला व सूखा कूड़ा अलग-अलग करें। घर या गली में एक पौधा लगाए और जरूरत से ज्यादा बिजली-पानी बर्बाद न करें तो हालात सुधर सकते हैं। सरकार, समाज और हम सब मिलकर काम करें तो सितम्बर में फिर से ठंडी हवाएं बह सकती हैं और भारत की धरती पर हरियाली लौट सकती है। यानी बात साफ है कि पर्यावरण संकट को लेकर तस्वीर दो पहलुओं वाली है। नकारात्मक यह कि लापरवाही और स्वार्थ ने हमें मुसीबत में डाल दिया है। सकारात्मक यह कि अगर अभी से सुधर गए तो आने वाले कल को बचा सकते हैं। भारत की ताकत यही है कि जब लोग मिलकर ठान लें तो नामुमकिन भी मुमकिन हो जाता है।

भूपेन्द्र शर्मा सोनू
(स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक)

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