कथक सम्राज्ञी सितारा देवी

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भारतीय शास्त्रीय नृत्य के इतिहास में यदि किसी नाम ने परंपरा, तकनीक, ऊर्जा और सौंदर्य का अनूठा संगम रचा, तो वह नाम है सितारा देवी। उन्हें नृत्य की दुनिया में “कथक सम्राज्ञी” कहा जाता है। उन्होंने न केवल कथक को नया आयाम दिया, बल्कि इस नृत्य को विश्व मंच पर सम्मान भी दिलाया। उनके नृत्य में बनारस की शास्त्रीयता, लोक लय की मस्ती और व्यक्तिगत प्रतिभा की चमक हमेशा साथ रहती थी।

सितारा देवी का जन्म 8 नवम्बर 1920 को कोलकाता में हुआ था। उनका परिवार मूल रूप से बनारस का था और पीढ़ियों से संगीत एवं नृत्य की साधना में रचा-बसा हुआ था। उनके पिता पंडित सुखदेव महाराज स्वयं प्रसिद्ध कथक गुरु थे और संत कबीर के पदों तथा रामलीला के विश्लेषण में भी विशेष रुचि रखते थे। पारिवारिक वातावरण में संगीत और नृत्य स्वाभाविक रूप से बहता था, इसलिए छोटी उम्र से ही सितारा देवी की नृत्य प्रतिभा निखरने लगी।

जब वे महज दस साल की थीं, तभी मंच पर उनका पहला सार्वजनिक प्रदर्शन हुआ। इस प्रस्तुति ने दर्शकों के साथ-साथ आलोचकों को भी चकित कर दिया। उनकी गति, भाव-प्रदर्शन, ताल की समझ और अभिव्यक्तियों ने सभी को प्रभावित किया। यह वह दौर था, जब समाज का बड़ा हिस्सा नृत्य को प्रतिष्ठित कला के रूप में स्वीकार नहीं करता था, परंतु सितारा देवी ने अपने आत्मविश्वास और दृढ़ निश्चय से इस सोच को बदलने की पहल की।

कथक नृत्य में तीन प्रमुख घराने—जयपुर, लखनऊ और बनारस—विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। सितारा देवी ने अपने पिता और परिवार के अन्य गुरुओं से विशेष रूप से बनारस घराने की शैली में प्रशिक्षण प्राप्त किया। बनारस घराना अपनी ऊर्जा, ठुमरी-आधारित अभिव्यक्तियों और मंच-प्रस्तुति की भव्यता के लिए जाना जाता है। सितारा देवी ने इस शैली को और अधिक समृद्ध करते हुए उसमें ऐसा आकर्षण जोड़ा कि उनकी शैली की नकल करने वाले अनेक शिष्य आगे चलकर स्वयं गुरु बने।

सितारा देवी का नृत्य केवल तकनीक तक सीमित नहीं था। उनमें अद्भुत अभिनय-शक्ति थी। कृष्ण-लीला, रामायण के प्रसंग, नायिका-भेद और ठुमरी की भावप्रवणता—इन सब में वे बेजोड़ थीं। कहते हैं कि जब वे किसी ठुमरी पर नृत्य करती थीं, तो दर्शकों को ऐसा लगता था मानो गीत की प्रत्येक पंक्ति जीवंत हो उठी हो। उनके पांवों की कठोरता और हाथों की लचीली मुद्राओं का संगम एक ऐसी लय पैदा करता था, जो दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देता था।

उनका व्यक्तित्व अत्यंत स्वतंत्र और दृढ़ था। उन्होंने कथक को नारी शक्ति और आत्मसम्मान से जोड़ते हुए इसे सम्मानजनक मंच दिया। वे कहती थीं कि नृत्य साधना है, आत्मिक ऊर्जा का प्रकट रूप है, और यह किसी भी प्रकार के बंधन को स्वीकार नहीं करता। इस दृष्टि से वे आधुनिक भारतीय नृत्य की अग्रणी हस्ती थीं।

भारतीय सिनेमा से भी उनका गहरा जुड़ाव था। 1930 और 40 के दशक में उन्होंने कई फिल्मों में नृत्य निर्देशन किया और स्वयं भी मंच-नृत्य प्रस्तुतियों के माध्यम से फिल्मों के कलाकारों को प्रेरणा दी। राज कपूर से लेकर महादेवी वर्मा जैसे साहित्यकार भी उनके प्रशंसकों में शामिल थे। मशहूर निर्देशक मेहबूब खान ने उन्हें “भारतीय नृत्य की जीवित देवी” कहा था।

सितारा देवी के योगदान को अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। 1969 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और भारत सरकार सहित अनेक सांस्कृतिक संस्थाओं ने सम्मानित किया। बाद में उन्हें पद्म भूषण देने का निर्णय हुआ, परंतु उन्होंने इसे यह कहकर स्वीकार नहीं किया कि उनका योगदान इससे कहीं अधिक है और वे उच्चतम सम्मान की अधिकारी हैं। यह घटना उनके स्वाभिमान और उनके कला-गौरव का परिचायक है।

उनकी नृत्य यात्रा सात दशकों से भी अधिक चली। वे वृद्धावस्था तक नृत्य सिखाती रहीं। मुंबई में उनका निवास कलाकारों और शिष्यों के लिए प्रेरणा का स्रोत था। उन्होंने हजारों विद्यार्थियों को प्रशिक्षित किया और कथक को नई पीढ़ियों तक पहुँचाया। 25 नवंबर 2014 को वे इस दुनिया से विदा हो गईं, लेकिन उनकी नृत्य-धारा अब भी जीवित है।

सितारा देवी की विरासत केवल नृत्य तक सीमित नहीं है, बल्कि भारतीय कला संस्कृति की आत्मा में दर्ज हो चुकी है। उन्होंने कथक को एक नवीन पहचान दी, इसे समाज और वैश्विक मंच पर गौरव दिलाया और आने वाली पीढ़ियों को यह संदेश दिया कि कला केवल अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि आत्म-सम्मान, स्वतंत्रता और सौंदर्य की अनंत साधना है।

आज भी जब कथक की चर्चा होती है, तो सितारा देवी का नाम श्रद्धा से लिया जाता है। वे न केवल एक महान नृत्यांगना थीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक धरोहर की एक अद्भुत प्रतिनिधि थीं। उनकी साधना, ऊर्जा और जीवन-दृष्टि आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देती रहेगी।

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