एक परिवार के अधूरे सपनों का सच

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—डॉ. प्रियंका सौरभ

28 अगस्त 2014, भारतीय पुलिस सेवा के इतिहास का एक ऐसा दिन था जिसने हर संवेदनशील नागरिक के हृदय को झकझोर कर रख दिया। इसी दिन देश ने एक होनहार, मेधावी और जांबाज़ अधिकारी आईपीएस मनुमुक्त मानव को खो दिया। मात्र 31 वर्ष नाै माह की अल्पायु में, नेशनल पुलिस अकादमी हैदराबाद, तेलंगाना में उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु ने न केवल उनके परिवार को बल्कि पूरे राष्ट्र को हतप्रभ कर दिया। यह कोई सामान्य घटना नहीं थी, बल्कि भारतीय पुलिस सेवा जैसी प्रतिष्ठित संस्था के इतिहास में घटित होने वाली सबसे बड़ी और विचलित कर देने वाली दुर्घटना थी। प्रश्न यह उठता है कि आखिर ऐसी सर्वोच्च सुरक्षा व्यवस्था के बीच एक अधिकारी इस तरह कैसे मौत का शिकार हो सकता है और क्यों अब तक इस रहस्य से पर्दा नहीं उठाया गया।

मनुमुक्त मानव की असामयिक मृत्यु के बाद आधी रात को उनका शव नेशनल पुलिस अकादमी के स्विमिंग पूल से बरामद हुआ। यह तथ्य अपने आप में सैकड़ों सवाल खड़े करता है। क्या यह एक हादसा था या कुछ और? जब उनके शव के पास ही ऑफिसर्स क्लब में विदाई पार्टी चल रही थी, तो वहां मौजूद लोगों ने कुछ देखा या सुना क्यों नहीं? पुलिस अकादमी जैसी सख्त अनुशासन वाली संस्था में यह घटना कैसे घटित हुई और क्यों इसकी निष्पक्ष और पारदर्शी जांच आज तक नहीं हो पाई? घटना को अब बारह साल बीत चुके हैं, परंतु सच्चाई आज भी अंधेरे में दफन है। यही स्थिति पूरे पुलिस तंत्र और न्याय व्यवस्था पर गहरा प्रश्नचिह्न खड़ा करती है।

मनुमुक्त मानव किसी साधारण अधिकारी का नाम नहीं था। वे 2012 बैच के आईपीएस अधिकारी थे और हिमाचल कैडर से जुड़े थे। उनका जन्म 23 नवंबर 1983 को हरियाणा के हिसार में हुआ। पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ से उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले इस युवा अधिकारी ने कम उम्र में ही असाधारण उपलब्धियाँ अर्जित कर ली थीं। एनसीसी का सी सर्टिफिकेट प्राप्त करना, छात्र जीवन से ही अनुशासन और नेतृत्व क्षमता का परिचय देना और प्रतिभा के दम पर आईपीएस तक पहुँचना उनके उज्ज्वल भविष्य का संकेत था। वे केवल एक अधिकारी ही नहीं बल्कि चिंतक, कलाकार और फोटोग्राफर भी थे। उनकी सेल्फ़ी लेने की कला और रचनात्मक दृष्टिकोण ने उन्हें उनके दोस्तों और सहकर्मियों के बीच विशेष पहचान दिलाई।

मनुमुक्त मानव के सपने बेहद बड़े और दूरगामी थे। वे अपने गाँव तिभरा में अपने दादा-दादी की स्मृति में एक स्वास्थ्य केंद्र स्थापित करना चाहते थे। इसके अतिरिक्त वे नारनौल में एक सिविल सर्विस अकादमी बनाने का विचार रखते थे ताकि गाँव और कस्बों से निकलने वाले युवाओं को भी सिविल सेवा की तैयारी का अवसर मिल सके। समाज सेवा के लिए उनके भीतर गहरी संवेदनशीलता और बड़ा दृष्टिकोण था। वे केवल अपने कैरियर और पद की ऊँचाइयों के बारे में नहीं सोचते थे बल्कि समाज को लौटाने के लिए लगातार योजनाएँ बनाते रहते थे। मगर उनकी असामयिक और संदिग्ध मृत्यु ने उन सभी सपनों को अधूरा छोड़ दिया।

एकमात्र बेटे की असामयिक मृत्यु ने उनके माता-पिता को गहरे शोक में डुबो दिया। उनके पिता डॉ. रामनिवास मानव देश के प्रसिद्ध साहित्यकार और शिक्षाविद् हैं, जबकि माँ डॉ. कांता अर्थशास्त्र की प्राध्यापिका रही हैं। किसी भी माता-पिता के लिए यह सबसे बड़ा दुःख है कि वे अपने जवान बेटे को खो दें। इस तरह का वज्रपात सामान्य परिवारों को तोड़ देता है, लेकिन मानव दंपति ने अद्भुत धैर्य और साहस का परिचय दिया। उन्होंने अपने बेटे की स्मृतियों को सहेजने और उन्हें जीवंत बनाए रखने का संकल्प लिया। यही कारण है कि उन्होंने अपने जीवन की संपूर्ण जमापूंजी लगाकर मनुमुक्त मानव मेमोरियल ट्रस्ट का गठन किया और नारनौल, हरियाणा में मनुमुक्त भवन का निर्माण किया।

यह भवन केवल एक स्मारक नहीं बल्कि जीवंत सांस्कृतिक केंद्र है। इसमें लघु सभागार, संग्रहालय और पुस्तकालय स्थापित किए गए हैं। हर साल इस भवन से मनुमुक्त मानव की स्मृति में कई पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं जिनमें अढ़ाई लाख का अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार, एक लाख का राष्ट्रीय पुरस्कार, इक्कीस-इक्कीस हज़ार के दो और ग्यारह-ग्यारह हज़ार के तीन पुरस्कार शामिल हैं। इन पुरस्कारों के माध्यम से युवा प्रतिभाओं, साहित्यकारों और समाजसेवियों को सम्मानित किया जाता है। अब तक एक दर्जन से अधिक देशों के लगभग तीन सौ से अधिक विद्वान, कलाकार और लेखक यहाँ आकर भागीदारी कर चुके हैं। मात्र ढाई वर्षों की अवधि में ही मनुमुक्त भवन अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है।

इस स्मारक और ट्रस्ट के माध्यम से मनुमुक्त मानव की स्मृतियाँ न केवल जीवंत रखी गई हैं बल्कि उनके अधूरे सपनों को साकार करने का प्रयास भी किया जा रहा है। इस कार्य में उनकी बहन डॉ. एस. अनुकृति, जो विश्व बैंक वाशिंगटन में अर्थशास्त्री हैं, लगातार सहयोग करती रहती हैं। इस प्रकार एक परिवार ने व्यक्तिगत त्रासदी को सामाजिक चेतना में बदलने का प्रयास किया है।

फिर भी सवाल वहीं खड़ा है कि मनुमुक्त मानव की मृत्यु का रहस्य क्यों नहीं खोला गया। जब भारतीय पुलिस सेवा जैसी उच्च संस्था में इस प्रकार की घटना होती है और उसकी जांच ठंडे बस्ते में डाल दी जाती है, तो यह केवल एक परिवार के साथ अन्याय नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था पर धब्बा है। यह घटना विश्वभर में भारत की छवि पर भी प्रश्नचिह्न बनकर खड़ी होती है। आखिर जब एक प्रशिक्षु आईपीएस अधिकारी की सुरक्षा की गारंटी सर्वोच्च अकादमी नहीं दे पाती तो देश के सामान्य नागरिकों की सुरक्षा पर कैसे भरोसा किया जा सकता है?

अब समय आ गया है कि भारत सरकार और गृह मंत्रालय इस मामले को गंभीरता से लें। केवल औपचारिकता निभाने से काम नहीं चलेगा। आवश्यक है कि इस मामले की सीबीआई से स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच कराई जाए। सच्चाई को सामने लाना केवल मनुमुक्त मानव को न्याय देने का प्रश्न नहीं है बल्कि यह पूरे पुलिस तंत्र की विश्वसनीयता और पारदर्शिता से जुड़ा हुआ है। न्याय में देरी किसी भी सूरत में उचित नहीं मानी जाती। अगर आज इस मामले पर चुप्पी साध ली गई तो यह अन्य अनेक मामलों के लिए भी खतरनाक उदाहरण साबित होगा।

मनुमुक्त मानव केवल एक नाम नहीं थे। वे युवाशक्ति, आदर्श और प्रेरणा के प्रतीक थे। उनकी मृत्यु ने हम सबको यह सोचने पर मजबूर किया है कि हमारे युवा अधिकारी कितनी असुरक्षित परिस्थितियों में कार्य कर रहे हैं। अगर ऐसे अधिकारियों को न्याय नहीं मिलेगा तो आने वाली पीढ़ियाँ हतोत्साहित होंगी। इसीलिए आवश्यक है कि मनुमुक्त मानव के मामले की सच्चाई सामने आए, दोषियों को सज़ा मिले और देश का हर युवा अधिकारी निडर होकर सेवा कर सके।

समाप्त करते हुए यही कहा जा सकता है कि न्याय की राह भले कठिन हो, लेकिन उसे टालना किसी भी लोकतंत्र के लिए घातक है। मनुमुक्त मानव की स्मृतियाँ आज भी हमारे बीच जीवित हैं। उनके सपने अधूरे हैं परंतु उनकी प्रेरणा अमर है। उनकी स्मृति में निर्मित भवन और पुरस्कार हमें यह संदेश देते हैं कि सत्य और न्याय के लिए संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता। अब समय आ गया है कि सरकार इस मामले में सक्रियता दिखाए और इस अधिकारी को न्याय दिलाए। मनुमुक्त मानव केवल एक परिवार के बेटे नहीं, बल्कि इस देश की आशाओं और आकांक्षाओं के प्रतीक थे। उन्हें न्याय दिलाना हम सबका दायित्व है।

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