आज़ाद हिन्द फ़ौज के जनरल शाहनवाज़ खान : जिन्हें भूल गया वतन

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आज़ादी के इतिहास में अनेक वीरों ने अपने साहस, समर्पण और त्याग से देश को पराधीनता की जंजीरों से मुक्त कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन्हीं में एक नाम है शाहनवाज़ ख़ान, जो नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में गठित आज़ाद हिंद फ़ौज के अग्रणी अधिकारियों में से थे। उनका संघर्ष केवल युद्धभूमि तक सीमित नहीं रहा, बल्कि स्वतंत्र भारत के निर्माण में भी उन्होंने अपना योगदान दिया। शाहनवाज़ ख़ान का जीवन देशभक्ति, राष्ट्रनिष्ठा और अनुशासन का प्रेरणादायक उदाहरण है।

शाहनवाज़ ख़ान का जन्म 24 जनवरी 1914इरोहतक ज़िले के मटिंढु नगर में एक साधारण परिवार में हुआ। बचपन से ही उनमें साहस और नेतृत्व क्षमता के गुण देखे गए। युवावस्था में उन्होंने सेना में भर्ती होकर अपना जीवन राष्ट्रसेवा के लिए समर्पित किया। सेना में रहते हुए उनकी प्रतिभा और लगन ने उन्हें उच्च पदों तक पहुँचाया, परंतु उनके जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण मोड़ वह था जब द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान वे जापानी सेना के हाथों बंदी बनाए गए।

जापानी सेना के बंदी शिविर में रहकर शाहनवाज़ ख़ान के जीवन में एक बड़ा परिवर्तन आया। वहीं से उनका परिचय नेताजी सुभाषचंद्र बोस के विचारों से हुआ। नेताजी के ओजस्वी व्यक्तित्व और राष्ट्र के प्रति उनकी दृष्टि ने शाहनवाज़ ख़ान को गहराई से प्रभावित किया। उन्होंने अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष करने का संकल्प लिया और नेताजी द्वारा स्थापित आज़ाद हिंद फ़ौज में शामिल हो गए। यह निर्णय उनके जीवन की सबसे निर्णायक और गौरवपूर्ण घटना थी।

आज़ाद हिंद फ़ौज में शाहनवाज़ ख़ान को एक महत्वपूर्ण पद दिया गया। वे उन चुनिंदा अधिकारियों में थे जिन्हें नेताजी का विशेष विश्वास प्राप्त था। फ़ौज के गठन, प्रशिक्षण और रणयोजना के संचालन में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। वे न केवल एक दक्ष सैनिक थे, बल्कि अनुशासनप्रिय और प्रेरणादायी सेनानी भी थे। उनके नेतृत्व में सैनिकों में उत्साह और धैर्य बना रहता था।

इम्फ़ाल और कोहिमा की लड़ाइयों में शाहनवाज़ ख़ान ने गहरी वीरता का परिचय दिया। इन मोर्चों पर आज़ाद हिंद फ़ौज ने अत्यंत कठिन परिस्थितियों में भी अंग्रेज़ी हुकूमत के दाँत खट्टे कर दिए। शाहनवाज़ ख़ान और उनके साथी सैनिकों ने अपना सर्वस्व राष्ट्र पर न्यौछावर कर दिया। हालांकि अंततः संसाधनों की कमी और प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण फ़ौज को पीछे हटना पड़ा, लेकिन इन लड़ाइयों ने देश में आज़ादी की लहर को मजबूत किया।

युद्ध समाप्त होने के बाद शाहनवाज़ ख़ान और अन्य अधिकारियों को अंग्रेज़ी सरकार ने बंदी बनाकर देशद्रोह के आरोप में दिल्ली के लालकिले में मुक़दमे का सामना करना पड़ा। यह मुक़दमा स्वतंत्रता आंदोलन का नया मोड़ था। लालकिला मुक़दमे ने पूरे देश में जबर्दस्त जनविरोध खड़ा कर दिया। शाहनवाज़ ख़ान के पक्ष में देशभर के नेताओं और जनता ने आवाज़ उठाई। यह मुक़दमा अंग्रेज़ी शासन की नैतिक हार साबित हुआ और अंततः सरकार को सभी आरोप वापस लेने पड़े।

मुक़दमे से मुक्त होने के बाद शाहनवाज़ ख़ान ने स्वतंत्र भारत में सक्रिय भूमिका निभाई। वे लोकसभा सदस्य चुने गए और देश की विकास यात्रा में सहभागी बने। उन्होंने रेल मंत्रालय में जिम्मेदार दायित्व संभाले और राष्ट्रहित से जुड़े अनेक कार्यों को आगे बढ़ाया। राष्ट्र के प्रति उनकी निष्ठा, ईमानदारी और अनुभव ने उन्हें सम्मानित स्थान दिलाया।

शाहनवाज़ ख़ान के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता थी उनकी उदारता और मानवता। वे सभी धर्मों और वर्गों को साथ लेकर चलने के पक्षधर थे। नेताजी के मार्गदर्शन से उन्होंने यह सिद्धांत आत्मसात कर लिया था कि भारत की शक्ति उसकी विविधता और एकता में निहित है। वे हमेशा कहते थे कि आज़ादी केवल विदेशी शासन से मुक्ति का नाम नहीं, बल्कि देश के हर नागरिक के सम्मान और अधिकारों की रक्षा भी उतनी ही आवश्यक है।

आज़ाद हिंद फ़ौज के अन्य अधिकारियों की तरह शाहनवाज़ ख़ान को भी जीवनभर नेताजी बोस के प्रति गहरा सम्मान और श्रद्धा रही। वे अक्सर कहा करते थे कि नेताजी की दूरदृष्टि और देशप्रेम ही वह शक्ति थी जिसने लाखों भारतीयों को अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध खड़ा कर दिया। शाहनवाज़ ख़ान ने नेताजी के सपनों के भारत को बनाने में योगदान देते हुए अपनी ज़िंदगी का हर पल राष्ट्रसेवा के नाम कर दिया।

उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि सच्चे सेनानी न केवल युद्धभूमि में लड़ते हैं, बल्कि समाज के निर्माण में भी योगदान देते हैं। शाहनवाज़ ख़ान ने स्वतंत्रता आंदोलन की अग्निपरीक्षा के बाद लोकतांत्रिक भारत में विकास और प्रगति की राह चुनी। यह उनके व्यक्तित्व की व्यापकता और जिम्मेदारी का प्रतीक है।

स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में शाहनवाज़ ख़ान का नाम सदैव सम्मान से लिया जाएगा। आज़ाद हिंद फ़ौज में उनका योगदान, लालकिला मुक़दमे में उनकी भूमिका और स्वतंत्र भारत में उनकी सक्रियता उन्हें एक अद्वितीय स्थान प्रदान करती है। वे उन सेनानियों में से थे जिन्होंने अपने कर्म, त्याग और चरित्र से राष्ट्र का गौरव बढ़ाया। आज के दिन 9 दिसंबर 1983
को नई दिल्ली में उनका निधन हुआ।शाहनवाज़ ख़ान की जीवन यात्रा हमें यह संदेश देती है कि सच्चा राष्ट्रभक्त वही है जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपने लक्ष्य से विचलित न हो। उन्होंने हर परिस्थिति में देश को सर्वोपरि रखा और अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक निर्वाह किया। आज़ादी की लड़ाई में उनका योगदान आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देता रहेगा।

स्वाधीनता के इतिहास में कुछ रिश्ते केवल नेता और सैनिक के नहीं होते, बल्कि वे विश्वास, आदर्शों और राष्ट्रभक्ति के अद्भुत संगम बन जाते हैं। ऐसा ही दिव्य संबंध था करनल शाहनवाज़ खान और नेताजी सुभाषचंद्र बोस के बीच। एक ओर नेताजी का अदम्य साहस और भारत को मुक्त देखने की दृढ़ इच्छा, वहीं दूसरी ओर शाहनवाज़ राणा का सैन्य कौशल, अनुशासन और समर्पण—दोनों ने मिलकर आज़ाद हिंद फ़ौज के ऐतिहासिक अध्याय को स्वर्णिम बना दिया।

बंदी शिविर में नेताजी के विचारों से प्रभावित होकर शाहनवाज़ खान ने अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का निश्चय किया। जब नेताजी ने आज़ाद हिंद फ़ौज की पुनर्स्थापना की, शाहनवाज़ राणा उन चुनिंदा अधिकारियों में शामिल हुए जिन्हें नेताजी ने अपना अत्यंत विश्वस्त साथी माना। नेताजी उन्हें न केवल एक कुशल सेनाधिकारी मानते थे, बल्कि एक ऐसे नेतृत्वकर्ता के रूप में देखते थे जो कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी मनोबल बनाए रख सके।

नेताजी और शाहनवाज़ खान के संबंध का आधार केवल सैन्य संबंध नहीं था; वह एक दूसरे के चरित्र, निष्ठा और देशप्रेम का गहरा सम्मान था। नेताजी अक्सर कहा करते थे कि सच्ची फ़ौज वही है जिसमें सैनिक अपने सेनापति के लिए नहीं, बल्कि राष्ट्र के लिए जान देता हो। शाहनवाज़ राणा इस आदर्श का जीता-जागता उदाहरण थे। नेताजी को जब किसी विशेष अभियान या संवेदनशील मोर्चे पर भरोसेमंद अधिकारी भेजना होता, तो वे प्रायः शाहनवाज़ राणा को चुनते थे।

इम्फ़ाल और कोहिमा की लड़ाइयों में शाहनवाज़ राणा ने अद्भुत साहस का परिचय दिया। नेताजी स्वयं उनके साहस और रणनीति से प्रभावित थे। कई ऐतिहासिक विवरण बताते हैं कि नेताजी उन्हें अपने शीर्ष तीन अधिकारियों में गिनते थे। इस भरोसे का ही परिणाम था कि महत्वपूर्ण सैन्य योजनाओं की ज़िम्मेदारी शाहनवाज़ राणा को दी जाती। वे सैनिकों को कठिन समय में धैर्य, अनुशासन और उद्देश्य की याद दिलाते—जिससे आज़ाद हिंद फ़ौज की लड़ाई केवल लड़ाई नहीं, बल्कि भारतीय आत्मसम्मान का प्रतीक बन गई।

युद्ध के बाद जब अंग्रेज़ी शासन ने आज़ाद हिंद फ़ौज के अधिकारियों पर मुक़दमा चलाया, उस समय भी नेताजी की अनुपस्थिति में शाहनवाज़ खान फ़ौज की प्रतिष्ठा के प्रतीक बन गए। लालकिला मुक़दमे में उनकी निष्ठा और बोलने का अंदाज़ ऐसा था कि पूरे देश में उनके प्रति सम्मान और नेताजी के प्रति श्रद्धा और बढ़ गई। यह मुक़दमा अंग्रेज़ी शासन की नैतिक पराजय का कारण बना और शाहनवाज़ राणा इस संघर्ष के केंद्रीय चेहरे बनकर उभरे।

स्वतंत्रता के बाद भी शाहनवाज़ खान ने नेताजी के आदर्शों को अपने जीवन में जीवित रखा। लोकतांत्रिक भारत में उन्होंने देश की सेवा राजनीतिक और सामाजिक दोनों क्षेत्रों में जारी रखी। वे हमेशा कहा करते थे कि नेताजी ने हमें सिखाया कि भारत की असली शक्ति उसकी एकता, विविधता और परस्पर सम्मान में छिपी है। यही कारण है कि वे समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलने के समर्थक रहे।

नेताजी और शाहनवाज़ राणा का संबंध भारतीय इतिहास में अनोखा स्थान रखता है। यह संबंध सैनिक और सेनापति का तो था ही, साथ ही दो राष्ट्रभक्तों का भी था, जो भारत को स्वतंत्र देखने के लिए समान रूप से समर्पित थे। नेताजी का नेतृत्व जहां प्रेरणादायक था, वहीं शाहनवाज़ राणा की प्रतिबद्धता उस नेतृत्व को शक्ति प्रदान करती थी। दोनों का यह समन्वय आज़ाद हिंद फ़ौज की रीढ़ था।

शाहनवाज़ राणा ने अपनी संपूर्ण जीवनयात्रा में यह सिद्ध किया कि सच्चे सेनानी युद्ध की समाप्ति के बाद भी देश की सेवा से नहीं रुकते। वे नेताजी के सपनों के भारत को साकार करने में अंतिम सांस तक जुटे रहे। उनका जीवन हमें यह प्रेरणा देता है कि त्याग और अनुशासन से जुड़ी राष्ट्रसेवा किसी युग या परिस्थिति पर निर्भर नहीं करती।

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