
आज भारतीय संसद के शीतकालीन सत्र में फिर से हंगामा और तीव्र बहस का माहौल रहा। दोनों सदनों — लोकसभा और राज्यसभा — में राजनीतिक तेज़ी दिखी, विशेष रूप से चुनाव सुधार और मतदाता-सूची (वोटर लिस्ट) से जुड़े मसलों पर। विपक्षी दलों ने पुरानी पार्टियों और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाए, वहीं सरकार की ओर से बड़े सुधार व विकास संबंधी दावों के साथ जवाब दिए गए। कुल मिलाकर, आज की कार्यवाही ने यह दिखा दिया कि संसद का शीतकालीन सत्र सिर्फ औपचारिक प्रक्रियाओं का मंच नहीं, बल्कि राजनीतिक गतिशीलता और विवादों का मैदान भी है।
आज राज्यसभा में सत्र की शुरुआत के साथ ही एक औपचारिक, प्रतीकात्मक पहलू रहा — सदन ने 1948 में अपनाई गई Universal Declaration of Human Rights (सर्व-मानव अधिकार घोषणापत्र) की 77वीं वर्षगांठ पर संक्षिप्त श्रद्धांजलि दी।
इसके बाद सदन ने धीरे-धीरे अपनी मुख्य गतिविधियों की ओर बढ़ना शुरू किया। इस दौरान, राजनीतिक गर्माहट तब बढ़ी जब एक सांसद (कहा जा रहा है कि आदित्य प्रसाद नामक सांसद) ने बिना पर्याप्त कारण अपने स्टार्ड प्रश्न (starred question) को वापस ले लिया। इस फैसले पर विपक्ष ने तीखी आपत्ति जताई — और तब तक संतोषजनक स्पष्टीकरण न मिलने पर उन्होंने वॉकआउट कर दिया।
वॉकआउट और विरोध-प्रदर्शनों की वजह से सदन की गरिमा और उसकी प्रक्रियात्मक शुद्धता पर सवाल उठे। विपक्ष का कहना था कि प्रश्न वापस लेने का यह फैसला पारदर्शिता के खिलाफ है, और इससे जनता के सामने जवाबदेही की प्रक्रिया कमजोर होती है। वहीं सरकार या समर्थक सांसदों की ओर से इस बारे में कोई स्पष्ट सार्वजनिक बयान आज देखने को नहीं मिला — जिससे सदन में असमंजस और असंतोष की स्थिति बनी।
इस विवाद के बीच, अन्य प्रस्तावों, निजी सदस्यों के बिल, या अन्य पैकेज्ड एजेंडा पर चर्चा न हो पाई — कम से कम आज नहीं। रिपोर्ट्स के अनुसार, इस कारण राज्यसभा की वास्तविक विधायी कार्यवाही बाधित रही।
राज्यसभा की कार्यवाही दोपहर के बाद कुछ समय के लिए स्थगित भी रही — ताकि परिस्थितियों पर दोबारा विचार किया जा सके।
कुल मिलाकर, आज राज्यसभा में ना तो कोई महत्वपूर्ण विधेयक पारित हुआ, ना कोई नई बड़ी शुरुआत देखने को मिली — बल्कि पुरानी प्रक्रियाओं, प्रश्न-उत्तर और पारदर्शिता के मुद्दों ने सदन की छवि को कुछ धुमिल किया। यदि विपक्ष ने अपना वॉकआउट जारी रखा, और सरकार ने उचित स्पष्टीकरण नहीं दिया, तो यह उस लोकतांत्रिक संस्था के लिए चिंताजनक संकेत है जो जवाबदेही, पारदर्शिता और जन-हित के फैसलों की प्रतिनिधि होती है।
आज की यह स्थिति दर्शाती है कि राज्यसभा — जो कि theoretically विचार-विमर्श, समीक्षा और संतुलन का घर है — राजनीतिक कलह और आरोप-प्रत्यारोप की चपेट में आने पर अपना मूल उद्देश्य खो सकती है। प्रतिनिधि-जनतंत्र के इस महत्त्वपूर्ण अंग को सिर्फ राजनीतिक नाटकों के लिए इस्तेमाल करना लोकतंत्र के लिए आत्मघात जैसा हो सकता है।
आज लोकसभा में सत्र की मुख्य शुरुआत हुई चुनाव सुधार (electoral reforms) और मतदाता-सूची (voter list / मतदाता सूची) से जुड़ी बहस के साथ। यह बहस पिछले दिनों से जारी थी, और आज उसके दूसरे दिन कई नेताओं ने अपनी बात रखी — जिसमें प्रमुख वकील, विपक्षी व समर्थक सांसद दोनों शामिल थे।
सुबह की शुरूआत में ही, कुछ सांसदों ने भूपेश बघेल के हवाले से आरोप लगाए कि चुनाव आयोग की कार्यशैली निष्पक्ष नहीं रही — और कई उदाहरणों से यह साबित हो चुका है। वहीं, सरकार समर्थक सांसदों ने यह तर्क दिया कि पिछले 10 वर्षों में पुरानी, ब्रिटिश कालीन कई कानूनी व्यवस्थाओं को हटाया गया है, और नई व्यवस्था जनता के हित में लाई गई है।
दोपहर होते-होते, चर्चा का मुख्य मोड़ आया जब अमित शाह — देश के गृह मंत्री — सदन में अपनी बात रखने के लिए खड़े हुए। उन्हें शाम करीब 5 बजे के आस-पास बोलना तय था।
उनकी ओर से सरकार की ओर से प्रस्तावित चुनाव सुधारों की रूप-रेखा, मतदाता-पंजीकरण, मतदाता-तालिका की पारदर्शिता, और भविष्य के लिए चुनाव प्रक्रिया में सुधार संबंधित दावे पेश किए जाने की उम्मीद थी। यह बहस न सिर्फ कानूनी सुधारों तक सीमित थी, बल्कि राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप, अतीत के दावों और वर्तमान परिस्थितियों का मिश्रण थी।
विपक्ष,के नेताओं ने भ्रष्टाचार, मतदाता-चोरी, और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर जोरदार आरोप लगाये। इनमें से कुछ आरोपों को लेकर सदन में माहौल तनावपूर्ण रहा।
साथ ही आज लोकसभा में पहले हुई चर्चा — जिसमें गिनती, मतदाता-सूची, मतदाता अधिकार, और चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता शामिल थे — उसे आगे बढ़ाने की कोशिश की गई। किन्तु, बहस के दौरान कई बार व्यवधान भी हुआ, विरोध-प्रदर्शन हुए, और सदन की गरिमा भी सवालों के घेरे में रही।
आखिर में, शाम करीब सात बजे, सदन अध्यक्ष ओम बिरला ने सदन की कार्यवाही अगले दिन के लिए स्थगित कर दी।
आज लोकसभा की कार्यवाही का सार यह था कि चुनाव सुधार — एक संवेदनशील, महत्वपूर्ण और भविष्य तय करने वाला मसला — एक बार फिर केन्द्र में आ गया। लेकिन जिस तरह से आरोप-प्रत्यारोप, आरोपों की राजनीति और विरोध-विग्रह चले, उससे राजनीतिक दलीय स्वार्थ, रंगभेद, और संदेह की हवा महसूस हुई।
यदि सरकार और विपक्ष पारदर्शिता, तथ्य-आधारित बहस और लोकतंत्र की मर्यादा का ध्यान रखे, तो सुधार संभव है। लेकिन आज की कार्यवाही ने यह दिखाया कि जब राजनीति और सत्ता का मसला जुड़ जाए, तो लोकतंत्र के उन स्तंभों — जैसे सम्मान, जवाबदेही, जनहित — की नींव हिल सकती है।
निष्कर्ष
आज का दिन — राज्यसभा और लोकसभा दोनों के लिए — संकेत देता है कि भारत की संसद सिर्फ विधायी संस्था नहीं रही, बल्कि राजनीति, संदेह, संघर्ष और संवेदनशील बहस का मैदान भी है।
राज्यसभा में सवालों के वापस लिए जाने और वॉकआउट ने उस सदन की समीक्षा-प्रधान भूमिका पर सवाल खड़े कर दिए।
लोकसभा में चुनाव सुधार बहस ने देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया, मतदाता-पंजीकरण, और चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर तीखी बहस को जन्म दिया।
यदि लोकतंत्र की नींव मजबूत करनी है — जवाबदेही, पारदर्शिता, और जनता की आवाज़ को प्राथमिकता देनी है — तो सिर्फ बहस ही नहीं, बल्कि सही नियत, जिम्मेदारी और मर्यादा की भी ज़रूरत है। (जैमिनी)


