महर्षि वाल्मीकि: शिक्षा, साधना और समाज का सच

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(गुरु का कार्य शिक्षा देना है, किंतु उस शिक्षा का प्रयोग शिष्य के हाथ में है — यही महर्षि वाल्मीकि की जीवनगाथा का अमर संदेश है।) 

महर्षि वाल्मीकि जयंती केवल एक संत कवि की स्मृति नहीं, बल्कि उस परिवर्तन की प्रेरणा है जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाती है। उन्होंने दिखाया कि शिक्षा और साधना से जीवन का हर रूप बदला जा सकता है। “गुरु का कार्य शिक्षा देना है, पर उसका प्रयोग शिष्य के हाथ में है”—यह संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है। वाल्मीकि जी ने ज्ञान को मानवता से जोड़ा और समाज को बताया कि कर्म, विचार और संवेदना ही सच्ची पूजा हैं। उनकी जयंती हमें याद दिलाती है कि हर व्यक्ति अपने भीतर का वाल्मीकि जगा सकता है।

– डॉ प्रियंका सौरभ

कहते हैं, शिक्षा केवल अक्षर ज्ञान नहीं देती, बल्कि वह जीवन का मार्ग प्रशस्त करती है। किंतु उस शिक्षा का प्रयोग कौन-से दिशा में होगा — यह निर्णय हर व्यक्ति को स्वयं करना पड़ता है। यह विचार महर्षि वाल्मीकि के जीवन से बढ़कर और किसकी गाथा कह सकती है? महर्षि वाल्मीकि की उनकी यात्रा इस बात का प्रमाण है कि यदि मनुष्य सच्चे ज्ञान से परिचित हो जाए, तो उसका हृदय परिवर्तित हो सकता है, चाहे वह कितना भी अंधकारमय क्यों न हो।

महर्षि वाल्मीकि की जयंती केवल एक महापुरुष का स्मरण नहीं है, बल्कि यह उस मानवीय संभावना का उत्सव है, जो हमें पशुता से मानवता की ओर ले जाती है। यह जयंती हमें याद दिलाती है कि गुरु के दिए ज्ञान की शक्ति तभी सार्थक होती है, जब शिष्य स्वयं उसे सही दिशा में प्रयोग करे।

वाल्मीकि जी का जीवन अत्यंत प्रेरणादायक है। नारद ने उसे “राम-राम” का नाम जपने को कहा। किंतु वह ‘राम’ शब्द उच्चारित नहीं कर सका और “मरा-मरा” कहने लगा। यही “मरा-मरा” जप करते-करते उसका जीवन तपस्या में परिवर्तित हो गया, और वह महर्षि बन गया। यही वह क्षण था जब शिक्षा और आत्मबोध का संगम हुआ। यही परिवर्तन आज के समाज को भी सिखाता है कि कोई भी व्यक्ति जन्म से महान नहीं होता, बल्कि कर्म और ज्ञान से महान बनता है।

महर्षि वाल्मीकि को आदिकवि कहा जाता है — यानी कवियों में प्रथम। उन्होंने रामायण जैसी अमर कृति की रचना की, जो न केवल धार्मिक ग्रंथ है बल्कि भारतीय संस्कृति का जीवन दर्शन भी। उन्होंने साहित्य को धर्म, नीति, प्रेम और करुणा के साथ जोड़ा। उन्होंने मानवता के उस आदर्श को शब्द दिए, जहाँ धर्म केवल पूजा-पाठ नहीं, बल्कि न्याय, सहानुभूति और कर्तव्य की भावना है।

उनकी रचना का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने एक ऐसा राम प्रस्तुत किया जो केवल राजा नहीं, बल्कि आदर्श मानव हैं। उन्होंने एक ऐसी सीता को चित्रित किया जो नारी की अस्मिता और धैर्य की प्रतीक है। वाल्मीकि जी ने यह भी बताया कि हर व्यक्ति के भीतर एक ‘राम’ और एक ‘रावण’ बसता है, और निर्णय हमारे हाथ में है कि हम किसे पोषित करते हैं।

आज जब हम वाल्मीकि जयंती मनाते हैं, तो यह केवल श्रद्धा नहीं, बल्कि आत्मचिंतन का अवसर भी है। समाज में आज भी जाति, भेदभाव और अज्ञान का अंधकार व्याप्त है। वाल्मीकि जी का जीवन इस बात का जीवंत प्रमाण है कि किसी का जन्म नहीं, बल्कि कर्म उसकी पहचान तय करता है। वे स्वयं समाज के उस वर्ग से आए जिसे बाद के समय में “अछूत” कह दिया गया, लेकिन उन्होंने ऐसी रचना की जिसने पूरे आर्यावर्त के नैतिक और सांस्कृतिक जीवन को दिशा दी।

यदि उस युग में भी एक लुटेरा ज्ञान से महर्षि बन सकता है, तो आज हम क्यों नहीं बदल सकते? क्यों आज भी हम जाति के नाम पर लोगों को नीचा दिखाते हैं? क्यों आज भी शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी रह गया है, न कि मानवता की सेवा?

महर्षि वाल्मीकि का संदेश स्पष्ट है — गुरु केवल ज्ञान का दीपक जलाता है, परंतु उस दीपक से प्रकाश फैलाना शिष्य की जिम्मेदारी है। नारद मुनि ने रत्नाकर को मार्ग दिखाया, लेकिन चलना स्वयं रत्नाकर को पड़ा। यही शिक्षा प्रणाली का वास्तविक अर्थ है — शिक्षक केवल दिशा देता है, गंतव्य तय करना शिष्य का काम होता है।

आज के युग में जब शिक्षा केवल प्रतिस्पर्धा और अंक-तालिकाओं तक सीमित रह गई है, तब वाल्मीकि की शिक्षा की परिभाषा हमें झकझोरती है। वे कहते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य ‘मनुष्य बनना’ है, न कि केवल ‘विद्वान बनना’। उन्होंने अपने जीवन से साबित किया कि सबसे बड़ा ज्ञान वही है जो मनुष्य को संवेदनशील बनाए, उसे अहंकार से मुक्त करे, और दूसरों के प्रति करुणा सिखाए।

रामायण के माध्यम से वाल्मीकि जी ने समाज को यह भी बताया कि हर व्यक्ति में सुधार की संभावना है। यही कारण है कि उन्होंने लव-कुश जैसे बच्चों को संस्कार, नीति और धर्म का ज्ञान दिया। उन्होंने सीता की पीड़ा को भी शब्दों में अमर किया, जो नारी की गरिमा की सबसे सशक्त व्याख्या है। वाल्मीकि का आश्रम केवल साधना का स्थल नहीं था, बल्कि शिक्षा का एक आदर्श विश्वविद्यालय था — जहाँ विद्या का अर्थ था आत्म-सुधार और समाज-सुधार।

आज जब हम सोशल मीडिया के युग में ज्ञान को ‘सूचना’ समझने लगे हैं, तब वाल्मीकि की स्मृति हमें बताती है कि ज्ञान का अर्थ केवल जानना नहीं, बल्कि उसे जीना है। उनके जीवन से प्रेरणा लेकर यदि हम अपने भीतर का अंधकार मिटा सकें, तो वही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

महर्षि वाल्मीकि ने हमें यह सिखाया कि किसी भी समाज की शक्ति उसकी विचारधारा में होती है, न कि उसके बाहरी आडंबर में। उन्होंने साबित किया कि एक डाकू भी कवि बन सकता है, यदि उसके भीतर परिवर्तन की ज्योति जल उठे। यही कारण है कि उनका जीवन आज भी हर पीढ़ी को प्रेरित करता है — कि शिक्षा केवल गुरु की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि शिष्य का संकल्प भी है।

आज जब हम “महर्षि वाल्मीकि जयंती” मनाते हैं, तो हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम शिक्षा को केवल परीक्षा का माध्यम न बनाएं, बल्कि उसे जीवन सुधार का साधन बनाएं। हर शिक्षक में नारद मुनि की झलक है और हर विद्यार्थी में रत्नाकर का बीज। जरूरत है तो बस जागरण की — और यही वाल्मीकि जी की शिक्षा का सार है।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

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